पिछले तीन
दिनों से ऐसे ही बस यादों में ही जिए जा रही थी वे। एक नहीं दो
नहीं, पूरे चार दिन की छुट्टी ली थी चारो ने पति और परिवार से
और उन चार दिनों का एक भरपूर और मनोरंजक, रंगारंग प्रोग्राम था
उनकी डायरी में। छह से पचास का सफर उलटा पूरा करने की जो ठान
ली थी चारो ने। परसों का पूरा दिन शहर के म्यूजियम और
आर्टगैलरी में गुजरा था और कल जी भरकर शौपिंग और होटलबाजी की
थी उन्होंने। एक दूसरे की पसंद नापसंद इस लंबे अंतराल के बाद
भी नहीं भूल पार्इं थीं वे और ना ही कुछ खास बदली ही थीं वे।
कंचन अभी भी पीले रंग से दूर नहीं हो पा रही थी और दिव्या
गुलाबी से, और मधुर अभी भी बारबार उन्ही सफेद और काले रंगों पर
ही अटकी रह जाती थी।
और तो और श्रुति तो यह भी साफ-साफ देख पा रही थी कि बोतल में
बन्द जिन्न-सा चारो के अंतस में छुपा कलाकार, अब भी ना सिर्फ
जिन्दा था अपितु और भी परिष्कृत और परिपक्व हो चुका था... कला
ही नहीं, उम्र के साथ-साथ आत्म विश्वास और संयम भी तो आ मिले
थे अब उनके व्यक्तित्व में। घंटे चुटकियों में निकल रहे थे और
दिन रात कहकहों में।
एक दूसरे के हाथ से फूलों का गुच्छा स्वीकारती चारो ही
सहेलियों ने बेहद विशिष्ट महसूस किया था, खुद में... पूरी तरह
से तृप्त थीं वे आज। ‘तो फिर कल घाट पर या नाव में क्या
प्रोग्राम रखा है?’ चलते चलते मधुर ने याद दिलाया। “नहीं"
तीनों ही एक साथ बोलीं, " सारनाथ वाले श्रुति के बगीचे में। "
रात अगले दिन की तैयारी में ही गुजरी। चारो के मन में बच्चों
सा उत्साह था। वही दही-बूँदी, खस्ता कचौड़ी और पिंडी के छोले
डब्बों में भरे गए जो तीस साल पहले हर इतवार को भरे जाते थे और
साथ थीं वही दो, पहले के तरह ही रसगुल्लों से लबालब भरी
हंडियाँ। कुछ भी नहीं बदलना चाहती थीं वे... कुछ भी पीछे नहीं
छोड़ना चाहती थीं।
चार दिनों में से तीन दिन कैसे चुटकियों में ही निकल गए याद
नहीं। अब बस बारबार एक ही आशंका से दिल धड़क रहा था कि कल इस
आयोजन का अंतिम दिन था और बस यही नहीं, कल तो रियाराजा भी आ
रही थी, पूरा दिन साथ गुजारने। याद आते ही सिहरन की एक ठंडी
लहर गरदन से नीचे उतरी और रीढ़ की हड्डी तक फैल गई। रियाराजा
जिसके साथ बस दो ही साल तो थी श्रुति, पर हजार यादें बनी आज भी
तो घेरे ही रहती है वह उसे। क्यों होता है अक्सर जीवन में ऐसा
कि वक्त का कोई मतलब ही नहीं रह जाता... कोई आजीवन साथ रहकर भी
हम तक नहीं पहुँच पाता और कोई हजारों मील दूर बैठा भी पलपल साथ
चलता रहता है।
... -
बेहद खूबसूरत दिन था वह...दिन जो कई-कई रंगीन और खुशहाल
संभावनाओं से भरपूर था। लॉन पूरा खुद खड़े होकर साफ करवाया था
श्रुति ने और बगीचे में तरतीब से लगी वे प्लास्टिक की कुरसियाँ
तक अब सफेद कबूतरों सी चहकने लगी थीं मेहमानों के इन्तजार में।
पीछे खड़े फूलों से लदे-फँदे गुलमोहर और अमलताश के पेड़ वातावरण
को एक तस्बीर सा सुन्दर माहौल दे रहे थे। डालियाँ मंद मंद
सुहानी हवा में धीरे धीरे झूमतीं श्रुति की तरह ही कभी ठुमरी
तो कभी कजरी, तो कभी गजल गा रही थीं। जरूर ही इन पेड़ों का
आसमान से ही नहीं, इन्सानों से भी करीबी का रिश्ता है, श्रुति
ने खुद को समझाया, तभी तो उसके से ही, ये भी इतने खुश हैं आज।
सूरज की सुनहरी, सिन्दूरी किरणें, सुबह से ही फूलों को ही
नहीं, उसे भी आड़ी-तिरझी हो-होकर गुदगुदा जा रही थीं और
हँसी-ठिठोली भी कोई ऐसी-वैसी नहीं, तुरंत वापस आसमान तक पहुँचे
ऐसी... उन्ही गुलाबी, सिन्दूरी और केसरिया रंगों से वापस आकाश
तक को रंग दे रही थी। वह खुद भी तो हवा में उड़ती-सी बारबार
अंदर बाहर ही किए जा रही थी।
चोर नजर हॉल में टँगे आदमकद शीशे पर पड़ते ही श्रुति जान गई थी
कि आज प्रकृति के सारे-के-सारे रंग उसकी आँखों और गालों से भी
फूटे पड़ रहे हैं। जाने किस खुशियों के सातवें आसमान पर जा बैठी
थी वह और जाने किन पुरानी यादों का उल्लास था, जो चारो तरफ ही
उजाला बनकर फैल चुका था।
आनन-फानन नहाकर जल्दी-जल्दी चाय को शरबत की तरह एक ही घूँट में
पी गई थी श्रुति। आज के दिन का एक पल भी बरवाद नहीं करना चाहती
थी वह। अभी चाय की प्याली सिंक में रखकर लौटी ही थी कि सामने
फूलों से लदी फंदी रियाराजा खड़ी थी। वही रियाराजा जिसे पिछले
तीस सालों से देखातक नहीं था उसने ... वही रियाराजा जो अक्सर
ही उसकी बातों में, जिक्रों में, यादों में जबर्दस्ती ही घुस
आया करती है। ज्यादा तो कोई फर्क नहीं था आजभी उसमें। वही
बच्चों सी सरल और मनमोहिनी हँसी और वही जीवंत और हँसती हुई दो
आँखें। पीछे नौकरानी खड़ी थी, गोल मटोल प्यारे-प्यारे दो बच्चों
की उंगली पकड़े। जुड़वा से लग रहे थे दोनों। गोलमटोल और फूल से
प्यारे। जरूर नाती या पोते होंगे, परन्तु रियाराज की गोदी में
तो आज भी पालतू वे दो कुत्ते ही थे, वैसे ही, जैसे कि बचपन में
लिए घूमती थी। तो रियाराजा भी उसकी तरह ही दादी या नानी बन
चुकी है... आखिर क्यों नहीं... उससे पूरी चार साल बड़ी भी तो
है। श्रुति की सोच हमेशा की तरह रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
"अब अन्दर आने को भी कहोगी या यूँ दरवाजे पर ही सारा मुआयना कर
डालोगी। बिल्कुल नहीं बदली तुम भी... वही सवाल पूछती, बेधती,
कौतुक भरी आँखें और आजभी वही बच्चों सी सरल हँसी?" कहती
रियाराजा, उसके थोड़े और पास आ गई।
इतने स्नेह और अपने पन की अपेक्षा नहीं थी रियाराजा से। तीस
साल एक लम्बा अरसा होता है और तीस साल में सहेली की कौन कहे
पूरी की पूरी जिन्दगी तक बदल जाती है।
"आओ रियाराजा, अंदर आओ।" सहेली को करीब करीब खुशी के मारे गोदी
में उठाकर अंदर लाती श्रुति ने चहक कर कहा। उसे बाँहों में भरे
खड़ी रियाराजा की खुशी भी तो अब श्रुति से कुछ कम नहीं थी-
"यार तेरी तो हँसी भी, आज भी बड़ी ही संगीतमय है। क्या अभी भी
दिनभर बस वायलिन ही बजाती रहती है... या फिर पति परिवार को कुछ
खाना पीना भी कभी कभार दे दिया करती है। मैं भी तो सुनूँ जरा
क्या क्या किया तूने पिछले इन तीस सालों में?"
सहेली को बेहद प्यार से देखते हुए रियाराजा ने बहुत ही
अनौपचारिक ढंग से पूछा, मानो जिन्दगी जिन्दगी न होकर एक अधबुना
स्वेटर हो जिसे दोनों सहेलियों ने बुनते बुनते अभी अभी वहाँ पर
छोड़ा था और अब तुरंत ही सारे फंदे फिर से वापस उठा लेंगी
दोनों।
" कुछ खास नहीं, बस तीन बच्चे और अदद आधे दर्जन पोते
पोतियाँ... देख नहीं रही, पूरी दादी अम्मा बन गई हूँ।"
श्रुति ने भी उसी सहजता से जबाव कोक भरे गिलास के साथ सहेली के
आगे सरका दिया।
" हद कर दी यार ! मैं एक पति और एक अदद बेटी न संभाल पाई और तू
इतना कुछ संभाल ले गई?"
चाँदी की तश्तरी से भुने काजू को जल्दी जल्दी गटकते हुए
रियाराजा ने अपने और परिवार के बारे में सबकुछ बता दिया था और
अब वह सहेली के बारे में सब कुछ जान लेना चाहती थी परन्तु
श्रुति तो आदतन जाने कहाँ गुम हो चुकी थी। अच्छा तो एक बेटी भी
है रियाराजा की और दो प्यारे-प्यारे जुड़वा नाती। क्या नाम रखा
होगा रियाराजा ने अपनी बेटी का... जरूर ही तन्वीराजा... हाँ
यही नाम तो था जो उसे बहुत पसंद था। बच्चों को देखकर तो लगता
है कि बेटी भी रियाराजा की तरह ही सुन्दर और समृद्ध होगी...
अरे यह भी कोई सोचने की बात है, और नहीं तो क्या... आखिर
राजकुमारी है रियाराजा और अब तक तो निश्चय ही किसी रियासत की
राजमाता भी... आखिर, हाथी तो मरा हुआ भी सवा लाख का ही
होता है। कितना समय निकल गया है ... कुछ भी तो नहीं जानती वह
अपनी सहेली के बारे में... परन्तु श्रुति को समझ में नहीं आ
रहा था कि रियाराजा इतनी उद्वेलित क्यों लग रही है... अपनी
तंद्रा से जागती-सी बोल पडी वह- "तू राजकुमारी है ना... बस
इसलिए... तुझे कब कुछ संभालना या रखना आ पाया... ? हाँ,
बस इसीलिए तो।"
बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए श्रुति ने कहा, "हमेशा
पानी तक के लिए तो तू दूसरों के भरोसे प्यासी ही बैठी रह गई।"
बहुत ही सहजता से सहेली की बिखरी जिन्दगी के दर्द को समेटना
चाहा था, पर रिया तो सुनते ही और भी बिफर गई।
"और तू,... क्या तुझे सँभालना आता था कुछ?... तेरी हर
दूसरी क्लास में छूटी वे किताब कौपियाँ अगर मैं न उठाती फिरती
तो कोई इम्तिहान पास करना तो दूर, वहीं उसी दरजा चार में बैठी
बस अपनी किताब कौपी ही ढूँढ रही होती, आज भी।"
सहेली को छेड़ने की बारी अब रियाराजा की थी। वैसे तो बात सही ही
थी। खुद में ही डूबी रहने वाली श्रुति कब कुछ संभाल या रख पाई
है... वरना आज भी यूँ लाचार और मजबूर तो न होती, दूसरों पर ही
निर्भर... बस उन्ही के लिए जीती... पहले पिता फिर पति और
अब बच्चे, कल उनके बच्चे... अपने लिए वक्त ही कहाँ बचता है
उसके पास। परन्तु बचपन के वे अराजकता भरे मासूम दिन याद आते ही
उनकी आँखों में एकबार फिर वही पुरानी बेफिक्र चमक वापस आ गई और
दोनों सहेलियाँ एकबार फिर उस मूक कहकहे में डूब गर्इं जो मन
में खुशियों की अनगिनित लहरें उठाए जा रहा था।
अब वैसे ही एक दूसरे का हाथ थामे निरुत्तर एक दूसरे को ही देखे
जा रही थीं दोनों , जैसे कि बचपन में देखा करती थीं, मानो कुछ
ढूँढ रही हों, खोया हुआ, कहीं वक्त की गर्त में उनकी नजर से जा
छुपा वापस चाहिए था उन्हें और वह भी उसी वक्त। रियाराजा ने
देखा कि मोटे चश्मे से झाँकती सहेली की आँखें आज भी उतनी ही
मासूम और सहज थीं जैसे कि बचपन में हुआ करती थीं। आज भी हर
खुशी, हर धूप छाँव बदली सी ही तैर रही थी उन आँखों में। उम्र
के किसी पडाव की कोई थकान नहीं थी वहाँ पर, आजभी उसके साथ लुका
-छिपी का वह पुराना खेल वैसे ही पूरी दुपहरी भर खेल सकती थी
रिया।
"तो हमारी गुड़िया तन्वीराजा कैसी दिखती है... तुझ पर गई है या
फिर जीजाजी पर... मैने तो अपने जीजू को देखा ही नहीं, कैसे
दिखते हैं वे, कोई फोटो बगैरह साथ लाई भी है, या नहीं?"
रियाराजा अब खिलखिलाकर हँस पड़ी, "रुक रुक, साँस तो ले। सवालों
की वही पुरानी रेलगाड़ी मत छोड़। बिल्कुल नहीं बदली तू तो। आराम
से धीरे धीरे, सब बताती हूँ। जरूरी तो नहीं कि हर सपना पूरा ही
हो श्रुति, तन्वी तो कभी आई ही नहीं मेरी जिन्दगी में। हाँ,
जिया बिल्कुल रणवीर की तरह ही लगती है और स्वभाव भी उनका ही है
... स्मार्ट और उग्र। मेरे चेहरे की तो बस झलक मात्र है उसके
चेहरे में, जिससे लोग जान लें कि मैं ही उसकी माँ हूँ...
बस और कुछ नहीं है, ना स्वभाव और ना ही गुण... अपने हक और
ख्वाइशों के लिए लड़ना जानती है वह। मेरी तरह समझदार और भीरू
नहीं है वह।"
श्रुति की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि अजय थापा के बारे में कुछ
पूछे रियाराजा से... क्या कभी मिली थी वह उससे... क्या अब भी
वह अपने स्क्वाश के खेल को उसी गंभीरता से लेता है... वैसा ही
छैल छबीला है और क्या आज भी वैसे ही उसके आगे पीछे डोलता है...
या फिर कभी-कभी उसके सपनों में आता-जाता है? "
"बच्चे बड़े हो गए हैं और उनके साथ-साथ हम भी... अपनी अपनी
दुनिया में अपना अपना जीवन जीते सब मस्त हैं, श्रुति।" सहेली
मानो उसके हर सवाल का जवाब बिना पूछे ही देने को बेताब थी।
"हाँ, ईशान और ऐश्वर्य जरूर मेरे पास हैं, जबसे पैदा हुए हैं।
जिया को फुरसत ही नहीं कि इनके लिए वक्त निकाल पाए और ना ही
उसे कभी इनकी जरूरत ही महसूस हुई है। यह तो हम ही हैं जो छोटी
बड़ी, एक एक याद को भी संजोए बैठे हैं। इतनी भावुकता खोखला कर
देती है अंदर से श्रुति... अब हम बड़े हो गए है, चल कुछ बड़ों
जैसी बाते करते हैं। अपनी बातें करते हैं। मनमानी करते हैं।"
रियाराजा ने मानो सहेली का मन पढ़ लिया था, "आ आज इन बाल बच्चों
को भूल जाएँ, अब तो उनके भी बालबच्चे हो चुके हैं, वह भी तो अब
माँ बाप बन चुके हैं।"
आरपार बेधती आँखों से सहेली को देखती श्रुति आगे झुकी और पैरों
के पास पड़ी एक टूटी टहनी उठा ली उसने। अब सूखी मिट्टी में गहरी
लकीरें खींचने लगी थी श्रुति जमीन पर।
"यह छोटा बड़ा क्या होता है रियाराजा? सब दृष्टि का भ्रम या
परिस्थितियों की पकड़ मात्र ही तो है। यह लकीरें देख रही हो
रिया इनमें से कौन सी बड़ी है और कौन सी छोटी है, क्या तुम बता
पाओगी मुझे?"
रियाराजा नहीं समझ पाई दार्शनिक, आधी पगली सहेली का मन्तव्य...
"हाँ, हाँ , क्यों नहीं, यह बड़ी है और यह छोटी।"
"और अब... -?" उन दोनों लाइनों से एक और बड़ी लाइन खींचते हुए
श्रुति ने उतने ही रहस्यमय भाव से एकबार फिर पूछा,
"आखिर तुम कहना क्या चाहती हो श्रुति? "रियाराजा के धैर्य का
बाँध टूटता जा रहा था।
"यही कि हमारी जिन्दगी भी इन्ही लकीरों की तरह ही होती है और
जरूरत और परिस्थिति के अनुसार ही अहमियत भी कम या ज्यादा होती
रहती है। छोटा बड़ा कुछ नहीं होता, यहाँ। हर बड़ा कभी छोटा होता
है और हर छोटा सही वक्त और परिस्थितियाँ हों तो बड़ी से बड़ी
ऊँचाइयों तक पहुँच जाता है। तुमने छोटे से छोटे बीज को भी बड़े
से बड़े पेड़ों में परिवर्तित होते देखा है और बड़े से बड़ा पेड़ एक
बेरहम हवा के छोंके से उखड़कर धूल धूसरित हो जाता है, यह भी
अच्छी तरह से जानती हो तुम। फिर किस बड़े की बात कर रही हो
रिया? वह जो लक्ष तक पहुँच चुका है, अपनी जिन्दगी जी चुका है,
या वह जो आज भी सारी प्रतिभा और संभावनाओं के साथ इस प्रयास
में संघर्षरत है? असल में हमारी परिस्थितियाँ या भावनाएँ ही
हमें छोटा या बड़ा कर दिया करती हैं।
असलियत तो यह
है कि हम तो कभी घटते बढ़ते ही नहीं। हाँ दिन महीने और साल जरूर
निकलते जाते हैं। और यह बीज से पेड़ और पेड़ से बीज का क्रम यूँ
ही चलता रहता है इस जीवन में... इस दुनिया में। हम तो बस वही
रहते हैं रिया जहाँ से चले थे। और इस जीवन को जीना और समझना भी
ऐसे ही चाहिए हमें। इसका कोई भी सुख या दुख हमसे बड़ा नहीं हो
सकता, क्योंकि लाइन खींचने वाली डंडी भी तो हमेशा हमारे अपने
हाथों में ही होती है। यह जिन्दगी जहाँ खुद अपनी विरासत है,
खुद अपनी धरोहर भी तो है... और फिर इस वसीयतनामे को
लिखने वाले भी हम ही हैं और जीने वाले भी। इस आज और कल के ताने
बाने में... इस ख्वाइशों और कर्म की पटरियों पर चलते जीवन को
जीना, बिना हारे या थके यही तो सार है सारा... जीत है
हमारी। जब हम खुद ही कर्ता हैं और इसके और कर्म भी, तो फिर यह
दुख और रोना धोना क्यों, हार जीत कैसी, बस एक खेल है यह भी,
क्यों है ना?"
"पर यह तो बस योगियों के लिए ही संभव है श्रुति।" उसकी बात बीच
में ही काटते हुए दर्द से कटती रियाराजा बोल पड़ी। उसकी आँखों
से अब अविराम आँसू बह रहे थे।
"हम किस योगी से कम हैं... देख मिलने की लगन थी तो एक दूसरे को
पा ही लिया न हमने?"
श्रुति नहीं जानती थी कि सहेली कितनी आहत थी और कितनी उसकी
बातों को समझ पा रही थी, पर रियाराजा जानती थी कि आज पहली बार
उसने कुछ ऐसा सीख लिया था जो उसे बहुत हिम्मत दे रहा था, उसकी
टूटी बिखरी जिन्दगी को समेट रहा था। अब रणवीर द्वारा पीठ पर
पड़े चाबुकों के निशान और शयनकक्ष में की हुई ज्यादती की
कहानियों सहेली को सुनाने की कोई जरूरत नहीं थी और ना ही अपने
निजी जीवन की मवाद को सहेली के आगे कुरेदने की ही। अब तो कहीं
भी क्लेश या द्वेष की परछाँई तक नहीं थी आसपास। एक ही पल में
इतनी धूप जो खिल आई थी चारो तरफ। |