बम्बई से गोआ
जाने वाले जहाज़ का अन्तिम साइरन बज चुका था। लंगर उठा। जहाज़
के चलते ही हर्ष-ध्वनि के साथ विदा के स्वर गूँज उठे नीचे डेक
पर दरी-चादर बिछाए लोग अपेक्षाकृत प्रकृतिस्थ-से दीख रहे थे।
केबिन में मनीष सामान सहेजने, उसे व्यवस्थित करने में व्यस्त
थे। नन्हा राहुल उनका सहयोगी बना सहायता कर रहा था।
रेलिंग पर
टिकी सौम्या दूर तक फैले निस्सीम सागर को देखती कहीं खो चुकी
थी। जहाज़ से टकराती लहरें मानो उसके सीने पर सिर पटक-पटक
हाहाकार कर रही थीं। समानान्तर पश्चिमी घाट की पहाड़ियों से
जुड़े अरब सागर के साथ दस वर्षों पूर्व की सागर-यात्रा सजीव हो
उठी थी।
''सुनो, तुम्हारा वो छोटा ब्रीफ़केस कहाँ है?'' मनीष की आवाज पर
चौंककर सिर उठाती सौम्या की खोई-सी दृष्टि देख मनीष खीज उठे
थे।
''क्या बात है? ठीक तो हो? न जाने कहाँ खो जाती हो! शायद
कहानी का कोई प्लाट मिल गया है!'' स्वर में व्यंग्य घुल गया
था।
केबिन में
प्रवेश करते ही कोने में रखे ब्रीफ़केस पर सौम्या की दृष्टि पड़
गई थी। ब्रीफकेस सहेज मनीष ने आश्वस्ति की साँस ली। राहुल के
सिर पर हाथ धर, पीठ थपथपाते मनीष ने अपने नन्हे सहयोगी के
प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त कर दी। |