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                     पुलिस 
                    सायरन की आवाज़ सुनते ही, वे फसलों में छिप जाते थे। 'ग्रीन 
                    कार्ड' के बिना अमेरिका में रहना गैरकानूनी है। बख्शिंदर और 
                    उसमें कई बार बहस हुई थी, कि इज्ज़त के साथ काम करने और रहने 
                    के लिए ग्रीन कार्ड ज़रूरी था, अन्यथा पकड़े जाने पर, उन्हें 
                    भारत वापस भेजा जा सकता था। पर ग्रीन कार्ड वे लें कैसे? यह 
                    प्रश्न उनके सिर पर मंडराता रहता था। वे जानते थे, कि ज़मींदार 
                    के द्वारा तो ग्रीन कार्ड मिल नहीं सकता था, उसे तो सस्ते 
                    श्रमिक चाहिए थे। वे बेहद मेहनती और ईमानदार हैं, वह अच्छी तरह 
                    जनता था, पर ग्रीन कार्ड मिलने के बाद, वे कम पैसे और एक वेतन 
                    में पाँच मजदूरों का काम करने वाले नहीं थे, अभी तो मजबूरी में 
                    वे सब कर रहे थे, इसलिए वह उनके ग्रीन कार्ड को लेकर चुप्पी 
                    धरे था। पढ़े लिखे वे 
                    थे नहीं कि विद्यार्थी बन जाते या किसी कम्पनी में नौकरी करते 
                    और वह कम्पनी उन्हें ग्रीन कार्ड दिलवा देती। वे दोनों ही 
                    साहसी, कर्मठ और समझदार नौजवान थे। वहाँ से निकलने के रास्ते 
                    ढूँढने लगे। अमरीकी लड़की से शादी करके ग्रीन कार्ड जल्दी और 
                    आसानी से मिल सकता था। पर यूबा सिटी में उनके लिए यह भी सम्भव 
                    नहीं था, यूबा सिटी कैलिफोर्निया प्रदेश का हिस्सा है, 
                    कैलिफोर्निया में मैक्सिकन लोगों की भरमार है, यह पहले 
                    मैक्सिको का ही हिस्सा था। ज़मीदार उन्हें इतना व्यस्त रखता 
                    था, कि काम के बाद उनके पास समय ही नहीं बचता था, जो वे कोई 
                    लड़की ढूँढ सकते। ज़मीदार से चोरी-छिपे, मैक्सिकन साथी मजदूरों 
                    से बख्शिंदर ने ग्रीन कार्ड लेने की बात चलाई, और उसकी कीमत 
                    चुकाने की तरफ़ इशारा भी किया। बहुत से पुराने श्रमिकों ने इसी 
                    तरह ग्रीन कार्ड लिए थे। सारी बातचीत संकेतों और कम बोलचाल से 
                    ही तय हुई थी, बिशन सिंह के सुपरवाईज़र की उन पर हर समय नज़र 
                    रहती थी। पर उनके पास तो पासपोर्ट नहीं थे, वे तो बिशन सिंह 
                    दोसांझ ने अपने पास रखे हुए थे, और वह ही उन पर वीज़ा लगवाने 
                    भेजता था। अब वे क्या करें ? कई दिन 
                    विचार-विमर्श चलता रहा। अंत में मोहन ने बिशन सिंह से बात करने 
                    की सोची, वह जानता था कि मालिक से पासपोर्ट लेना आसान नहीं 
                    होगा। वह बख्शिंदर से ज़्यादा निडर और जोखिम उठाने वाला नौजवान 
                    था। उसके चहरे पर मुस्कराहट आ गई, बड़ा दम दार था वह, दोसांझ की 
                    आँखों में आँखें डाल कर बोला था...
 ''सर जी, हमारे पासपोर्ट हमें वापस कर दीजिए।''
 ''क्यों?'' बिशन सिंह की रौबदार आवाज़ हवा में गूँजी।
 ''हम अब और इस तरह नहीं रह सकते, हमें वापिस जाना है।''
 ''वापस जाना या ग्रीन कार्ड लेना है?''
 ''ग्रीन कार्ड कहाँ से लेंगे जी।''
 ''मैं अगर पासपोर्ट ना दूँ तो?''
 ''हम पुलिस के पास चले जाएँगे।''
 ''जानते हो, फिर क्या होगा?''
 ''जो होगा, देखा जाएगा, हम तो कंगले, फटेहाल श्रमिक हैं, एक 
                    जेल से छूट, दूसरी में जा बैठेंगे जी, कम से कम आराम की रोटी 
                    तो खाएँगे, या वे हमें भारत भेज देंगें, नुकसान तो आप का होगा 
                    जी, कई राज़ खुल जाएँगे, कई केस बनेंगे, कई कामगार डीपोर्ट 
                    होंगे।''
 ''मुझे ब्लैक मेल कर रहे हो।''
 ''आप जो समझना चाहते हैं, समझ लें। हम पर आप का एक कर्ज़ था, 
                    यहाँ लाने का, वह हम कई सालों से चुका रहे हैं।''
 दोसांझ सोच 
                    में पड़ गया... भारत में होता, तो इसको कब का ठीक कर लेता, पर 
                    अमेरिका में एक सीमा तक ही मनमानी कर सकते हैं, उसके बाद कानून 
                    की ऐसी लक्ष्मण रेखा खिंची होती है, जिसका कोई रावण भी उल्लंघन 
                    नहीं करवा सकता। उसकी समझ में आ गया था, कि नौजवान खून खौल 
                    चुका है, यह सिर फिरा कुछ भी कर सकता है, अगर यह कानून की शरण 
                    में चला गया, तो वह तबाह हो जाएगा, इसके पास गँवाने के लिए कुछ 
                    नहीं, पर वह लुट जाएगा। उसने पासपोर्ट वापस देने में ही बेहतरी 
                    समझी, और कई वर्ष वह उससे कड़ी मेहनत करवा चुका था, अपने पैसे 
                    और इस देश में लाने की वसूली भी कर चुका था। उसने मोहन का 
                    पासपोर्ट लौटा दिया।''सर जी, बख्शिंदर भाजी का पासपोर्ट।''
 ''वह ख़ुद आकर ले जाए।''
 ''मैंने दोनों के पासपोर्ट माँगें थे, सिर्फ़ अपना नहीं।''
 दोसांझ ने उसकी ओर घूर कर देखा और दूसरा पासपोर्ट उसकी तरफ़ 
                    फैंक दिया।
 पासपोर्ट 
                    मिलने के कुछ दिन बाद, एक मैक्सिकन, दो लड़कियों को लेकर आया। 
                    उस आदमी से बख्शिंदर पहले ही बात कर चुका था। पाँच हज़ार देना 
                    तय हुआ था, उस समय पाँच हज़ार डॉलर बहुत बड़ी रकम थी। चारपाई पर 
                    बैठे मोहन सिंह के आगे सब यादें चल चित्र की भाँति चल रही थीं, 
                    उन्होंने कुछ पैसे अपने पास से और कुछ दोस्तों से उधार ले कर, 
                    उस मैक्सिकन को दिए थे। कोर्ट में जा कर काग़ज़ी शादी हुई थी और 
                    फिर लड़कियाँ अपने घर चली गईं।  जिस दिन 
                    ग्रीन कार्ड मिला था, दोनों दोस्तों ने खूब जम कर शराब पी थी 
                    और धुत हो कर नाचे थे, ''पी के शराब जट ने जद बुड़का मारिया, 
                    बाहमनी कोठरी विच जा छिपी।'' वे भांगड़े की बोलिया बोल-बोल कर 
                    नाचे थे। ग्रीन कार्ड मिलने के कुछ महीने बाद, कोर्ट में जा 
                    कर, आपसी समझौते से, उन दोनों ने तलाक़ ले लिया था। तत्कालीन 
                    प्रेज़िडेंट जान ऍफ़ कैनेडी को गोली उन्हीं दिनों लगी थी और 
                    अमेरिका में राजनीतिक असुरक्षा का दौर था, आप्रवास के नियम 
                    सख़्त नहीं थे, जितने अब हैं, आतंकवादी हमलों के बाद। उनका सब 
                    काम आसानी से, अधिक पूछताछ के बिना हो गया था।  ग्रीन कार्ड 
                    मिलने के बाद, लैंड लोर्ड का व्यवहार भी, उनके प्रति बदल गया। 
                    अमरीकी नियमानुसार उसने उनकी पगार बढ़ा दी और अमानवीय बर्ताव 
                    भी बंद कर दिया। उसे भी पता था, कि अगर उसने अपना आचरण ना 
                    बदला, तो वे दोनों उसे छोड़ जायेंगे। कई दूसरे ज़मींदारों की 
                    उन पर नज़र थी, वे दोनों बहुत अच्छे, सच्चे और खून पसीना बहाने 
                    वाले कामे थे।भारत जाने से पहले वह पैसा जोड़ना चाहता था, उसने रात-दिन एक कर 
                    दिया, खेतों में काम करने के साथ-साथ, कोको कोला की फैक्ट्री 
                    में नाईट शिफ्ट काम किया। सप्ताहांत ग्रोसरी स्टोर में काम 
                    किया। दो-दो नौकरियाँ करके, उसने पैसा जोड़ा। बापू का कर्ज़ा 
                    उतारना था, बहनों की शादी करनी थी। सुखद भविष्य को देखने लगा 
                    था वह, लहराते खेतों में खड़ा बापू, खूँटे से बँधे बैल, घर में 
                    गाएँ, दूध, दही, लस्सी की बहारें, माँ के हाथों में गोखड़ू, 
                    बहनों के उजले कपड़े।
 बख्शिंदर 
                    बहुत आज़ाद हो गया था। वह नाईट क्लबों और पबों में जाने लगा। 
                    वहीं उसे, एक अमरीकी लड़की से प्यार हो गया और उसने उससे शादी 
                    कर ली। दस साल बाद, वह दोनों अपने गाँव साहनेवाल गए, ढोल बजाता 
                    बापू, मोहन को लेने आया था। उसके कानों में ढोल की थाप गूँजने 
                    लगी, ''कई पुरानी यादें भी कितनी मधुर होती हैं।'' कहते हुए 
                    उसका चेहरा खिल उठा, उगते सूरज की ओर वह देखने लगा। उसके 
                    परिवार ने अपनी ही बिरादरी की यू.पी. में जन्मी-पली जसबीर से 
                    उसकी शादी कर दी। शादी के बाद तो उसका जीवन ही बदल गया। जसबीर 
                    पढ़ी लिखी थी, उसने मोहन के साथ घर और बाहर सम्भाल लिया। किसान 
                    का बेटा मोहन, उपजाऊ ज़मीनों को ढूँढता रहा और जसबीर उनके लिए 
                    पैसा जुटाती रही। उसने घर में नौकरी पेशा औरतों के बच्चे रखने 
                    का एक डे-केयर खोल लिया था, उन बच्चों के साथ ही उसके अपने 
                    बच्चे भी पलने लगे। गोली मार कर मार्टिन लूथर किंग की हत्या कर 
                    दी गई थी, उससे पनपी राजनीतिक उथल-पुथल ने सामाजिक और आर्थिक 
                    ढाँचे को हिला दिया था, खेती-बाड़ी की ज़मीन बहुत सस्ती हो गई 
                    थी, उस समय उसने काफी ज़मीन खरीद ली और वह अमरीका का किसान 
                    सरदार मोहन सिंह हो गया, तीन बेटों और दो बेटियों का बाप, सौ 
                    एकड़ ज़मीन का मालिक, चार मंज़िला घर है जिसका, गैराज में महँगी 
                    कारें खड़ी हैं, बेटों के दो गैस स्टेशन और दो मोटल हैं। 
                     उसका विवेक 
                    फिर जाग उठा... सूखा तो यहाँ भी होता है, बारिशें फ़सलें ख़राब 
                    कर देती हैं, अंधड़ खड़ी फ़सलें उखाड़ देते हैं, पर ऐसे में 
                    सरकार मदद करती है, बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ सहायता करती हैं और 
                    अमीर लोग अनुदान देते हैं, भारत में कोई उनकी मदद क्यों नहीं 
                    करता? जसबीर की बात याद आती है, ''दार जी, परदेस के माल-पूड़ों 
                    की बजाए देश की सूखी रोटी भली। बहुत पैसा कमा लिया, चलो अब लौट 
                    चलें, बच्चों को यहाँ रहने दें, हम वहाँ जा कर खेती-बाड़ी 
                    करेंगे।''''कहाँ खेती-बाड़ी करेंगे जसबीर, जहाँ मेरे किसान भाई, मेरी 
                    बिरादरी के लोग ज़हर खा रहे हैं, गले में फंदा डाल रहे हैं, 
                    अपनी पत्नियाँ तक बेच रहे हैं।'' वह दुःख के सागर में डूबने 
                    लगा, उसमें गहरे उतरता गया, उसे महसूस होने लगा कि ज़हर उसके 
                    गले में है और फंदा कसता जा रहा है, उसका शरीर ढीला हो रहा है। 
                    आँखें बाहर आ रही हैं, वह अपने आप को मरता देख रहा था।''
 जसबीर की आवाज़ ने उसे चौंका दिया, ''दार जी, प्रभात वेले से 
                    आप यहाँ बैठे हैं, आप की तबियत तो ठीक है? किसी को बुलाऊँ कि 
                    आप को डाक्टर के पास ले जाए।''
 मोहन सिंह की तंद्रा टूटी और उसने अपने गले पर हाथ फेरा, सब 
                    कुछ ठीक था...
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