क्या
महत्त्वपूर्ण था, क्या महत्त्वहीन? वह अभी तक उलझी हुई है। छह
महीने बीत गए ...न्यूयार्क शहर की कोई उल्लेखनीय स्मृति नहीं
अब। उस सम्मेलन की यादें भी धुँधला गईं। एक दुर्घटना ने सबकुछ
धो-पोंछ कर रख दिया है जैसे। अब कोर्ट केस है और हर फ़ोन कॉल के
बाद वह चेहरा एक बार फिर आँखों के आगे आ जाता है।
"अजीब बेवकूफ़ है तुम्हारी पत्नी। कुछ तो कहा होता। यहाँ छिल
गया था, वहाँ चोट आई। कुछ भी नहीं कहा। यहाँ लोग ऐसे केस में
झूठ बोलकर हजारों डालर बना लेते हैं।"
'कल के इन्श्योरेन्स कम्पनी के फ़ोन कॉल के बाद न्यूयार्क में
बैठी इन्द्र की वकील खीझ रही थी।
क्या कहे वह? वह तो आज तक भगवान का शुक्र मना रही है कि वह और
इन्द्र साफ़ बच गए। उसे एक खरोंच तक नहीं आई और इन्द्र के भी
मोच भर आई। वरना कार का जिस तरह सैंडविच बना था...
यही तो कहा था एम्बुलेन्स के ड्राइवर ने भी- " अपनी कार देख
रहे हैं आप? जब इस तरह सैंडविच बनता है तो हम सवारियों कॊ
स्ट्रेचर पर ले जाते हैं। खुदा मेहरबान है आप पर। " लेकिन, बाद
में सलाह उसने भी यही दी थी -" यदि हॉस्पीटल में सब कुछ ठीक भी
निकले तो भी तुम अटलान्टा पहुँचने के बाद फिर से चेकअप कराना
और इस हैप्पी डोनट वाले को छोड़ना मत। कम से कम पाँच हजार का
बिल तो जरूर बनाना।"
उसका दिल
जोरों से धड़क रहा था तब। इन्द्र के तो होश ही ठिकाने नहीं थे।
कुछ भी बोल रहे थे| वह परेशान, कैसे चुप करे! साथ ही घूम रही
थीं आँखों के आगे बुआ जी, इन्द्र के सारे नाते-रिश्तेदार। आज
जो अगर इन्द्र को कुछ हो गया होता तो क्या मुँह दिखा पाती किसी
को? भारत से आई बुआ जी अभी अमेरिका में ही हैं, अपने बेटे के
पास। दौड़ी चली आतीं। उसे गलत साबित करने का ऐसा मौका हाथ से
जाने देतीं क्या?"
"यह इसका बड़प्पन है जो यह तुम्हें सम्मेलन में ले जा रहा है।'
वह खौल कर रह गई थी। पिछले पाँच सालों से खुद को तिल-तिल कर
गला रही है वह। अपनी हर छोटी-बड़ी इच्छा की आहुति दी है उसने
इन्द्र के लिए कि वह अपने आप को अपने नई नौकरी में स्थापित कर
सके। और आज यदि घर पर रहकर भी उसने अपने आप को एक लेखिका के
रूप में स्थापित कर लिया है, लेखकों के सम्मेलन में जाना चाहती
है, इन्द्र साथ दे रहा है, तो बड़प्पन है!
इन्द्र ने
उसे ही डाँटा था तब।
"तुम्हें इनसे इतनी बातें करने की जरूरत क्या है? चुपचाप सुन
लिया करो। रिश्तेदार बस झगड़े लगाने के लिए होते हैं।"
अंतत: वे विदा हुईं थीं, ढेर सारी कटुता अपने पीछे छोड़कर और वह
और इन्द्र न्यूयार्क को निकले थे।
इन्द्र को घूमना और घुमाना दोनों पसन्द है। न्यूयार्क पहुँच कर
चेहरा खिल गया उसका। सबसे पहले किराए पर कार ली।
"मैं तुम्हें ले जाउँगा सम्मेलन में और वापस लाउँगा होटल।
टैक्सी हाजिर है मादाम, ड्राइवर पूछता है कहाँ जाना है?"
वह खिलखिला कर हँस दी थी।
पहले दिन देर तक होटल के कमरे में सजती- सँवरती रही, गोया किसी
फ़ोटो सेशन में जाना हो और सोचती भी रही कि वह आम स्त्रियों से
कुछ भिन्न नहीं। सुन्दर दिखना उसकी भी कमजोरी है, हर स्त्री की
तरह। जब सम्मेलन में भाषण के दौरान उसकी बगल में बैठी एक
प्रसिद्ध लेखिका ने अपनी लिपस्टिक ठीक की और एक लेखक ने अपना
सूट निहारा तो वह आश्वस्त हो गई। चाहे कुछ भी कर ले, इन्सान
हमेशा इन्सान ही रहेगा, अपनी तमाम कमजोरियों के साथ। कुछ चीजें
कभी नहीं बदलतीं और यह कितनी अच्छी बात है!
नहीं बदलता न्यूयार्क का मिजाज भी।
जार्ज
वाशिंगटन पुल पर ड्राइव करते हुए इन्द्र ने कार का शीशा नीचे
कर बगल के कार वाले को हाथ हिलाया कि वह देखे उसकी तरफ़ तो वे
उससे आगे के रास्ते की जानकारी ले लें, आश्वस्त हो लें।
ट्रैफ़िक यूँ भी जाम था। रुके हुए थे सब।
उस बन्दे ने देखा और हाथ हिला दिया।
और सारी कारें मिनट भर में आगे बढ़ गईं।
श्रुति और इन्द्र दोनों ही बेसाख्ता हँस पड़े।
"उसने सोचा, तुम उसे गुड मार्निंग कह रहे हो।' वह बोली
"हाँ। बेवकूफ़!"
फिर वे देर तक हँसते रहे थे। दूर तक। ऐसा ही एक और वाकया हुआ।
इन्द्र ने कार आगे बढ़ाकर सामने वाले के करीब आना चाहा कि
रास्ता पूछें। उसने समझा इन्द्र ओवर टेक करने के चक्कर में है।
गालियाँ बरसाता हुआ निकल गया। न्यूयार्क के मधुर भाषी लोग!
कितना कुछ तो उसकी समझ में भी नहीं आया। न्यूयार्क की अपनी
शब्दावली भी तो है। वह गुस्से में भरा चेहरा भी कभी -कभी याद
आता है। उन सज्जन का हाथ हिला कर, मुसकरा कर अभिवादन स्वीकार
करना भी! वह अभी भी अतीत से बाहर नहीं आई है।
इन्द्र के
साथ भी ऐसा ही है। वह जानती है। जब तक फ़िजियो थेरापिस्ट के
चक्कर चलते रहेंगे, जब तक कोर्ट केस खत्म नहीं होता, जब तक
मुआवजा नहीं मिलता....
"कई साल चलेगा यह सब। अरोड़ा ने कहा था न।"
"हाँ।" वह सिर हिला देती है।
मनीष अरोड़ा! कटे पैरों वालो मनीष अरोड़ा!...
वह लेखिका है, सुनते ही उत्तेजित हो गया -"मैडम आप कहानी लिखती
हैं न। लिखो मेरी कहानी। मेरा नाम मनीष अरोड़ा है। २६ मार्च
२००६ को मेरा एक्सीडेन्ट हुआ था। यहीं न्यूयार्क में। सड़क पार
कर रहा था। गाड़ी गुजर गई ऊपर से। दोनों पैर कट गए मेरे। सरकारी
नौकरी है। तब भी आज तक मुआवजा नहीं मिला मुझे। इस ट्रेन स्टेशन
पर मैं अकेला इंडियन हूँ जो टिकट इन्स्पेक्टर है यहाँ। किसी को
गोली मार सकता हूँ। अधिकार है मुझे।"
श्रुति ने चौंक कर देखा था, सीधे खड़े उस आदमी को ध्यान से -
नकली पैर हैं इसके पतलून के अन्दर? हम अपने लिबास के अन्दर
क्या-क्या छिपाए होते हैं! और हाँ, पिस्तौल लटक रही थी उसकी
कमर से। कारतूस की पट्टी भी। कुछ ही क्षण पहले जो खतरनाक
दिखता, जानकारी के अभाव में, अब सहज स्वीकृत था। लेकिन वह
लेखिका है, पत्रकार नहीं। इसकी कहानी को पत्रकार की जरूरत है।
कैसे समझाए!
उसने तो कागज
पर लिख कर अपना फ़ोन नम्बर तक उसे थमा दिया। जब भी जरूरत हो फ़ोन
कर ले। वह सारी बातें बतायेगा। सारी बारीकियाँ घटना की। वह
लिखे तो!... उस आवाज में, उसकी छोटी छोटी ईमानदारी से देखती
आँखों में, कोई छल नहीं था। विसंगतियों से जूझता एक अकेला
इन्सान था, जो अपनी शरारत पर खुद ही खुश था। अपने सहकर्मियों
को काला- पीला बताकर। या शायद खुश था हमवतन लोगों के बीच खुद
को पाकर। अपने जैसे मुसीबत के मारों की सहायता कर। अपने होने
को एक बार फिर अर्थ देता हुआ। श्रुति ने "अमृत - वर्षा " के
सम्पादक को कभी लिखा था " आपको नहीं लगता हमें अभिषेक जी के
मामले पर कुछ लिखना चाहिए।"
जवाब आया था " श्रुति जी, अभिषेक तो एक प्रतीक भर हैं। मैं कई
ऐसे लोगों को जानता हूँ जो भारत में, मेरे इसी शहर में,
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ रहे हैं। किस- किस की कहानी लिखेंगी
आप?"
किस किस की कहानी लिखेगी वह? भ्रष्टाचार का चेहरा पूरी दुनिया
में एक जैसा है और मनीष अरोड़ा एक प्रतीक है, जो न्यूयार्क में
रहता है।
"ये साला न्यूयार्क है न, दुनिया में सबसे ज्यादा करप्शन यहाँ
है। लेकिन सच बताऊँ मैडम, हमें इस शहर में रहने की ऐसी आदत हो
गई है कि हम कहीं और जाकर रह भी नहीं सकते। मुझे आस्टिन गाँव
लगता है। न्यू जर्सी गाँव लगता है। न्यूयार्क शहर है। बाकी
पूरा अमेरिका गाँव। और हमें लड़ने की आदत हो गई है। हम जार्ज
बुश को भी गालियाँ दे आते हैं। लड़ते- झगड़ते हैं, लेकिन रहते
यहीं न्यूयार्क में हैं। यहाँ के जैसी फ़ास्ट लाइफ़ कहीं है ही
नहीं। हमें इस फ़ास्ट लाइफ़ की आदत हो गई है।"
फ़ास्ट लाइफ़। सचमुच। यहाँ लोग रुक नहीं सकते। सबको जल्दी पड़ी है
किसी न किसी गन्तव्य तक पहुँचने की। जाना उसे भी तो था। एक
सिगनल मिस हुआ था तो हाई वे से उतर कर साइड लेन में गाड़ी ली थी
इन्द्र ने। वह खीझ गई थी। "तुम आज मुझे लंच आवर में पहुँचाओगे।
"
फिर इन्द्र ने एक दूकान में रास्ता पूछा। लौट कर बोले, "कोई
बात नहीं। मैनहट्ट्न के करीब ही हैं। यह ब्रौंक्स एरिया है। यह
रास्ता कनेक्ट करता है मैनहट्ट्न को। "
बस एक सिगनल की दूरी थी। एक सिगनल बाद ही तो "हैप्पी डोनट" की
फ़ैक्ट्री भी थी।
हैप्पी डोनट कम्पनी का ट्रक अभी भी जैसे पीछे खड़ा है, अपने
उनींन्दे ड्राइवर के साथ। जैसे कह रहा हो - "आगे बढ़ो, रुके
क्यों हो? आगे जाना है मुझे। अगले सिगनल पर मेरी कम्पनी है।
रात भर गाड़ी चलाई है। अभी गाड़ी जमा कर छुट्टी लेनी है। तुम
साले बीच में रुके पड़े हो।"
सिगनल लाल था। उसकी उनींदी आँखों ने यह नहीं देखा।
इन्द्र की कार आगे की वैन से टकराई। ब्रेक लगाने के बावजूद।
"अरे!"
श्रुति के मुँह से बस इतना निकला। और फिर आस-पास की दूकानों से
ढेर सारे लोग निकल आए। वह और इन्द्र यंत्रवत वह सारा कुछ करते
रहे जो उन्हें कहा गया। कार का दरवाजा तोड़कर लोगों ने आखिर उसे
भी निकाल ही लिया। इंजन से निकलते धुँए को उसने बाद में देखा।
आगे पीछे से टूटी हुई कार, सड़क पर बिखरा, चकनाचूर विंडशील्ड का
शीशा ......सब ओर आवाजें, शोर ही शोर ...। आगे की वैन के मालिक
का अपना फ़ोन नम्बर देना। इन्श्योरेंस कम्पनी के नम्बरों का
आदान-प्रदान। सारी औपचारिकताएँ एक - एक कर पूरी होती रहीं।
एम्बुलेंस के अन्दर बैठकर वे पुलिस को बयान देते रहे। पुलिस
अपना काम निबटाती रही। अंतत: इस सब से से मुक्ति पाकर इन्द्र
ने श्रुति से कहा था -"न्यूयार्क के लोग अच्छे हैं।" और
श्रुति ने सहमति में सिर हिलाया था।
मन भरा हुआ है। कितनी ही बार अपने आँसू रोके उसने। नहीं,
रोयेगी नहीं। अजनबी शहर में, अजनबियों के बीच वह रोयेगी नहीं।
लिंकन हॉस्पीटल का इमर्जेन्सी विभाग भरा हुआ है। सब तरफ़ मरीज,
लेकिन वे स्पेशल केस हैं। पिछले चार घंटों में उन दोनों ने
तरह-तरह के फ़ार्म भरे हैं, बयान दिए हैं। इस डॉक्टर से उस
डॉक्टर के कमरे के चक्कर। डॉक्टर मुस्कराता है हर बार "वेरी
लकी।"
काश इन्द्र भी लकी हो, उसकी तरह। इन्द्र एक्स रे रूम में है।
कई एक्स रे होने हैं। बाहर वेटिंग रूम में बैठी श्रुति फिर
फ़ूट-फ़ूट कर रोना चाहती है और खुद को समझाती है, "यह बहुत देर
हो गई है न, भूखी हूँ मैं, इसीलिए रोना आ रहा है। नहीं, कुछ
नहीं हुआ है इन्द्र को।"
अपने चारों ओर देखती है। कोई नहीं देख रहा उसके चेहरे के बदलते
रंग। वह उस स्पैनिश स्त्री की बकबक समझने की कोशिश करती है जो
लगातार अपनी बोतल से बियर के छोटे घूँट भरती हुई कुछ तो बोल
रही है। कहीं नहीं टिकता दिमाग। एक्स रे रूम का दरवाजा कब
खुलेगा?
कुछ एक घंटा और.... इन्द्र बाहर आता है।
कुछ नहीं हुआ है तुम्हें। तुम एकदम ठीक हो,है न?" गले में आती
हुई रुलाई को घोंटती हुई वह रोनी आवाज में बोलती है और अपनी
निगाहें इन्द्र के चेहरे पर टिका देती है।
इन्द्र मुसकराता है - "मैं ठीक हूँ।"
वह जी गई।
दो दिनों बाद
अटलांटा पहुँचने पर भी जब इन्द्र गर्दन घुमा कर उसे देख नहीं
पा रहा था तो सारे चेक अप हुए फिर से और तब से इन्द्र की
फ़िजियोथेरापी चल रही है। इन्द्र की हालत सुधर रही लगती है।
न्यूयार्क में बैठी उसकी वकील की बातें श्रुति ने कल सुनीं।
बेवकूफ़ है श्रुति!
नहीं, बेवकूफ़ नहीं है।
मनीष अरोड़ा को आज तक मुआवजा नहीं मिला है। सचमुच में कटे पैरों
के बावजूद। छह लाख डॉलर का खर्च आया था उसे। केस चल रहा है अब
भी।
"ये साला न्यूयार्क। इतना गन्दा शहर। जितना करप्शन है यहाँ,
दुनिया के किसी शहर में नहीं।" अरोड़ा की आवाज गूँजती है कानों
में।
उसने कहना चाहा था तब "लेकिन तुम भले इन्सान हो!"
कह नहीं पाई। लोकल ट्रेनों के स्टेशन पर इन्द्र के साथ भटक-
भटक कर थक चुकी थी तब। कार कम्पनी ने साफ़ मना कर दिया था। जब
तक दुर्घटना की पूरी रिपोर्ट नहीं मिल जाती, वे दूसरी कार नहीं
देंगे। आज शनिवार है। छुट्टी का दिन। सोमवार से पहले कुछ नहीं।
सोमवार को तो वापस लौटना है। चलो एयर पोर्ट जाने के लिए कार
होगी। सामान ढोने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी। रिपोर्ट का क्या।
वह तो वास्तव में उन्हें मिल भी चुकी होगी। पुलिस रिपोर्ट तो
घंटे दो घंटे में पहुँच जाती है। जब वे लिंकन हॉस्पीटल के बाहर
मैकडोनाल्ड की तलाश में भटक रहे थे तभी मिल चुकी होगी। लेकिन
उससे क्या! ... कार कम्पनियों को भी सारे तरीके मालूम हैं,
इन्श्योरेन्स से डीळ करने के। ग्राहक की सुविधा उसके बाद आती
हैं।
सम्मेलन का विचार हवा हो चुका था। होटल वापस पहुँचने के रास्ते
तलाशने थे। वह उन्हें मैनहट्टन में सब वे की सीढ़ियों पर मिला
था। सेल फ़ोन पर बातें करता हुआ, रेलवे की वर्दी में, ऊँचा -
पूरा आदमी। उसे हिन्दी में बात करता सुन श्रुति खुश हो गई।
"इससे पूछॊ, यह हिन्दी बोल रहा है।"
नीचे जाने वाली सीढ़ियों पर लिखा था वे डाउन टाउन के लिए हैं।
उन्हें अप टाउन जाना था, कैसे जाएँ?
"नहीं, इधर से नहीं, सड़क पार करके वो आगे वाला रास्ता है, उससे
जाओ।"
सीढ़ियाँ तो ऊपर भी ले जाती है, नीचे भी उतारती हैं। जानना यह
होता है कि हमें अपने लिए चाहिए क्या! श्रुति और इन्द्र को कुछ
नहीं मालूम था। सड़क पार की, दूसरी तरफ़ की सीढ़ियों से उतर गए सब
वे में। टिकट लिया और अन्दर भूत दिखा जैसे - उस सूने प्लेट
फ़ार्म पर। सामने अरोड़ा खड़ा था। यह यहाँ कैसे आ गया?
"कहा था न, उधर से जाना। तुम फिर वापस आ गए?" वह उनकी नादानी
पर ठहाका लगा कर हँसा।
"लेकिन हम उधर से ही आए हैं।"
"नहीं, तुम्हें एक छोड़कर अगले सब वे में घुसना था।"
"अब? टिकट तो ले लिया। बेकार हो जायेगा।"
"चलो मैं तुम्हें छॊड़ आता हूँ। यहाँ से एक नम्बर ट्रेन ३७
स्टीट पर छोड़ेगी। वहाँ से पोर्ट अथारिटी के लिए ट्रेन लेना।
वहाँ १०२ नम्बर की बस मिलेगी जो तुम्हें परामस पार्क तुम्हारे
होटल के स्टाप पर छोड़ेगी।"
इतना चक्कर?
द्सरा कोई रास्ता भी नहीं। टैक्सी बहुत मंहगी है और टैक्सीवाले
उसी तरह घुमाते हैं बिल बनाने के लिए जिस तरह अपनी मुम्बई-
दिल्ली में। इतने पैसे नहीं। एक ही दिन में इतना तो जान लिया
कि कहीं भी जाना हो, पोर्ट अथारिटी पहुँचने का रास्ता पहले
ढूढो। वही जगह पूरे मैनहट्टन को कनेक्ट करती है। एक ही दिन में
कितने तो ज्ञानी हो गए दोनों!
वह साथ आया। अपनी कहानी सुना गया! |