वरजा को
हस्पताल पहुँचाकर सुन्दरी ने शेफ़ाली के मन को भीर ठेस पहुँचा
दी। ठीक है, वह कुँवारी है! फिर भी उसके मन में दृढ़ है
मातृ-भाव। किन्तु वह कर भी क्या सकती थी? वह तो स्वयं सुन्दरी
की अतिथि थी! फिर भी वह हस्पताल के अपने काम से समय निकलाकर
प्रतिदिन वरजा को देखने जाती। जितना प्यार-दुलार वह उस पर लुटा
सकती थी, लुटाती। उसने अपने हाथों से खिलाती-पिलाती। उसके लिए
नए कपड़े, नए खिलौने लाती। अब तो वह शेफ़ाली को अपनी सगी माँ
समझने लगा था और उसे ‘ईबू, ईबू’ कहकर बुलाने लगा था। उसके इस
सम्बोधन से शेफ़ाली भी अपने को भरी-पूरी माँ समझने लगी!
हस्पताल में शेफ़ाली की मुलाकात हुई डॉ. वीर से। पहली बार उनका
नाम सुना तो वह समझी कि यह कोई भारतीय डॉक्टर हैं जो इस
हस्पताल में लगे हुए हैं। लेकिन जब वह उनकी क्लिनिक में गई तो
बाहर नेमप्लेट पर पढ़ा, ‘एच. एम. वीरादिपुत्र’ बाद में पता चला
पुरा नाम- हैरी मुस्तफ़ा वीरादिपुत्र। नाम क्या था,
इन्डोनेशिया का पुरा इतिहास था- तीन धर्मों का संगम! शेफ़ाली
ख़ुब प्रभावित हुई डॉक्टर के नाम से, उनके रूप से, उनके
निर्मल, मृदुल, शांत स्वभाव से। चार-छह ही मुलाक़ातों में
दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई। दोस्ती हो गई, प्यार भी हो
जाता। प्यार हो जाता, तो शायद शादी भी हो जाती, लेकिन...
एक शाम वे दोनों डॉक्टर वीर के क्लिनिक में कॉफ़ी पी रहे थे।
डॉक्टर वीर ने अचानक बात छेड़ दी- “क्या मैं इंग्लैंड में रहकर
प्रैक्टिस नहीं कर सकता?”
“वहाँ की कुछ परीक्षाएँ देनी होती हैं। पास हो जाओ तो वहाँ
रहकर प्रैक्टिस भी कर सकते हो।”
“किसी ब्रिटिश लड़की से शादी हो जाए, तब भी तो...”
“तब वहाँ रह सकोगे, प्रैक्टिस नहीं कर सकोगे।”
“किसी तरह से तुम बात बना दो। शादी कर लो मुझसे। वहाँ पर कोई
रास्ता निकाल लूँगा,” डॉ. वीर झिझकते हुए बोले।
“मतलब यह कि तुम अपना मतलब निकालने को शादी करोगे। शादी का
आधार प्यार होना चाहिए। सिर्फ़ प्यार! शर्तों पर हुई शादियाँ
चला नहीं करतीं। यही सब करना होता तो मैं भी यहीं से किसी को
ढूँढ़ लेती। किसी को वरजा का पिता बना देती और उसे गोद ले
लेती।”
“वरजा? कौन वरजा?”
“सुनामी का एक अनाथ है। यहीं हस्पताल में रहता है। बड़ा प्यारा
बच्चा है। मैं उसे गोद लेना चाहती हूँ।”
वह वरजा को वहाँ ले आई और डॉक्टर भी उससे मिल लिये। डॉ. वीर और
शेफ़ाली की शादी नहीं हो सकी। फिर भी वे अच्छे दोस्त बने रहे।
शादी का एक और भद्दा और घृणित प्रस्ताव शेफ़ाली को बाद में
मिला।
मोलाबो में रहते उसे अब पाँच महीने हो चले थे। उसने सोचा
इंग्लैंड लौटने से पहले अब वरजा को गोद लेने की कार्रवाई शुरू
कर देनी चाहिए। अतः उसने अपनी अर्ज़ी अधिकारियों को भेज दी।
उसे इन्टरव्यू के लिए बुलाया गया। वार्तानुवाद के लिए सुन्दरी
उसके साथ थी। पाँच व्यक्तियों की एक कमेटी बैठी हुई थी जिसका
चेयरमैन था हाजी अब्दुस्सलाम! हाजी के सिर पर थी एक सफ़ेद
नमाज़ी टोपी। आँखों पर चढ़ा हुआ था एक बारीक चश्मा। बारीक-सी
मूँछ थीं जो ठोड़ी पर टिकी तिकोन दाढ़ी से जुड़ी हुई थीं।
दाढ़ी के नीचे के बाल कुछ यों मरोड़े गए थे कि वे देखने में
चूहे की पूँछ लगते थे।
इन्टव्यू में कई सवाल पूछे गए।
“तुम अकेली आई हो। अपने ख़ाविन्द को क्यों साथ नहीं लाई?”
“अकेली हूँ, शादी नहीं की।”
“लेकिन बच्चे को तो बाप भी चाहिए होगा।”
“वरजा पूरी तरह से यतीम है और ‘तुहान’ को अपना पिता कहता है।”
“बड़ा हो जाएगा तो बाप को ढूँढ़ेगा। फिर क्या करोगी?”
इस प्रश्न का उसके पास कोई उत्तर नहीं था। लेकिन जो अगला सवाल
उससे पूछा गया, उसका उत्तर ठीक था, मगर अस्वीकार्य!
“लड़का मुसलमान है, तुम हिन्दू हो। हम इसे दूसरे मज़हब में
कैसे भेज सकते हैं?”
शैफ़ाली ने सोचा कि उसने नाम के साथ भी तो ‘अली’ जुड़ा हुआ है।
फ़ॉर्म में वह अपना धर्म ‘हिन्दू’ लिख चुकी है, नहीं तो शायद
मुसलमान होने का बहाना चल जाता!
हाजी तनकर बोला, “लड़का तो मुसलमान घर में ही जाएगा।”
“आप मज़हब को बीच में मत लाइए। मैं एक डॉक्टर हूँ। दूसरों के
मुकाबले बच्चे की अच्छी परवरिश कर सकती हूँ। मज़हब का वास्ता
देकर आप उससे उसका यह हक़ क्यों छीनते हैं? बच्चा मुझे पहचानने
लगा है और ‘ईबू, ईबू’ कहकर बुलाता है।”
लेकिन मज़हब आड़े आ ही गया और शेफ़ाली की अर्जी नामंज़ूर हो
गई। वह सुन्दरी के साथ बिल्डिंग से बाहर निकली ही थी कि हाजी
अब्दुस्सलाम ने पीछे से आकर उसके कन्धे पर हाथ रख दिया। फिर
उसे एक तरफ़ ले जाकर टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में बोला, “आई मैरी
यू...यू मैरी मी एंड गो इंग्लैंड...एंड वरजा गो इंग्लैंड।”
शेफ़ाली के दिल में आया कि उस कमबख्त की चूहे की पूँछ वाली
दाढ़ी को खींचकर उसके हाथ में पकड़ा दे। वह चिल्लाई,
“इंग्लैंड?...नॉट इंग्लैंड, यू गो टु हैल!” वह मुट्ठियाँ भींचे
आगे बढ़ गई। अब उसकी समझ में आया कि उसकी अर्ज़ी क्यों स्वीकार
नहीं की गई थी। इस तरह प्रलंयकारी सुनामी की मुसीबतों से उबरकर
आया वह पवित्र रिश्ता यों ही टूट गया। शेफ़ाली ने सोच लिया कि
हो चुकी लोकसेवा...और इसका जो इनाम उसे मिलना था मिल चुका। अब
उसे वापस इंग्लैंड लौट जाना चाहेए। सुन्दरी भी वापस जाने को
तैयार हो गई और दोनों ने वापसी की फ़्लाइट बुक कर ली।
मोलाबो में यह शेफ़ाली का अन्तिम दिन था। आज वह अपने को
ख़ाली-ख़ाली महसूस कर रही थी। जिसके छिने जाने का उसे दुःख था
वह तो शुरू से ही उसका नहीं था! फिर भी वह उसके लिए सब कुछ कर
गुज़रने को तैयार थी जैसे उसकी पूरी ज़िन्दगी इस एक दिन में
सिमटकर आ गई हो। वह उसके लिए बढ़िया से बढ़िया कपड़े और खिलौने
छोड़कर जाना चाहती थी।
सुनामी से हुई तबाही के कारण उसे उसकी मनपसन्द चीज़ें मोलाबो
में तो मिल नहीं सकती थीं। इसलिए वह मेडान की दुकानें छान रही
है। यहाँ वह डॉक्टर वीर के सौजन्य से उनकी कार में आई है।
सुन्दरी तो यहाँ है ही, साथ में हैं सुन्दरी के माता-पिता और
वरजा भी...वरजा जो आज का हीरो है!
वरजा, तो बस आज ही का हीरो है। उसके खिलौटे टूट जाएँगे...कपड़े
छोटे हो जाएँगे या फट जाएँगे और उसे याद भी नहीं रहेगा कि दूर
इँग्लैंड से कभी कोई आई थी उसके साथ वह रिश्ता जोड़ने जो आमतौर
पर हर किसी को ज़िन्दगी में एक बार मिलता है मगर उसको दूसरी
बार मिल रहा था। यह कैसा अभागा है आज का हीरो जो दूसरी बार
यतीम हो रहा है?
अब वे मेडान एयरपोर्ट पहुँच गए हैं। शेफ़ाली और सुन्दरी चेक-इन
कर चुके हैं।
वे दोनों अन्तिम बार सबसे मिलने आईं हैं। शेफ़ाली ने सबसे हाथ
मिलाया। फिर वरजा को गोद में लिया और उसे बाहों में भरकर हज़ार
बार चूमा। फिर रखा कलेजे पर पत्थर और एक झटके के साथ अलग हो गई
और सुन्दरी के साथ आगे बढ़ चली। तभी वरजा की चीख़ों ने
एयरपोर्ट की बिल्डिंग को सिर पर उठा लिया- “ईबू, ईबू। ईबू,
ईबू...मत जाओ, ईबू! वापस आ जाओ। वापस आ जाओ। देखो वरजा रो रहा
है।”
तब सुन्दरी ने शेफ़ाली को टोका, “पीछे मुड़कर मत देखना। वह और
भी रोएगा।”
उन दोनों के ठीक पीछे-पीछे चले आ रहे थे एक पति-पत्नी। पत्नी
की पुश-चेयर में था उनका बच्चा। शेफ़ाली उनकी बातें सुन रही
थी।
पत्नी ने पति से कहा, “नन्हा-सा, इतना प्यारा बच्चा है और यह
माँ उसे छोड़कर जा रही है। कैसी है यह माँ? मैं तो किसी हालत
में अपना बच्चा यों छोड़कर न जाऊँ!”
“यह हराम का होगा...इसलिए!” |