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					 बिजली 
					की तरह एक विचार उसके मन में आया। उसने सुन्दरी 
					को गले लगाया, उसके आँसू पोंछे और अपना फ़ैसला सुना दिया, “तुम 
					अकेली नहीं जाओगी इन्डोनेशिया। मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। 
					तुम्हारी सहायता करूँगी, कुछ लोग-सेवा करूँगी, पुण्य कमाऊँगी!” 
 शेफ़ाली ने अपनी सर्जरी अपने सहयोगी डॉक्टर जैक कॉलिंज़ को 
					सौंपी और उसी शाम दोनों सहेलियाँ इन्डोनेशिया के लिए लम्बी 
					हवाई यात्रा पर निकल पड़ीं।
 
 सुमात्रा की राजधानी मेडान के उत्तर-पश्चिम में एक छोटा-सा 
					तटीय क़स्बा है मोलाबो, जहाँ सुन्दरी के परिवार का एक छोटा-सा 
					घर है। मेडान तक तो कोई सीधी उड़ान होती नहीं, लेकिन उन्हें तो 
					जकार्ता तक की भी कोई सीधी फ़्लाइट नहीं मिल सकी। पहले 
					सिंगापुर और फिर जकार्ता में विमान बदलने पड़े। मेडान से दोनों 
					सखियाँ बस द्वारा मोलाबो पहुँचीं तो रात हो चुकी थी। क़िस्मत 
					अच्छी थी। इर्द-गिर्द की अथाह बरबादी के बावजूद सुन्दरी का घर 
					और उसके माता-पिता सही-सलामत मिल गए। दिल को तसल्ली हुई। इतने 
					लम्बे सफ़र के बाद दोनों बहुत थक चुकी थीं। ऐसी स्थिति में 
					इच्छा होते हुए भी बाहर जाकर कुछ भी कर सकना असम्भव था। रातभर 
					विश्राम करना ज़रूरी थी, सो उन्होंने किया।
 
 तड़के सवेरे ही तीन साल के एक नन्हे से बालक की चीख़ों ने 
					उन्हें जगा दिया। कीचड़ में लथपथ रोता हुआ यह बच्चा ‘ईबू, ईबू’ 
					चिल्लाता, लड़खड़ाता हुआ-सा सागर की ओर चला जा रहा था। 
					इन्डोनेशिया की भाषा में ‘ईबू’ का मतलब है ‘माँ’। यह बच्चा 
					अपनी माँ को ढूँढ़ रहा था। सुन्दरी उसके पीछे भाग ली और उसे 
					पकड़ कर घर ले आई।
 
 उसने अपना नाम बतलाया, वरजा। सुन्दरी ने माँ का नाम पूछा तो 
					बालक ने जवाब दिया, ‘ईबू’। वरजा तो माँ का नाम भी नहीं जानता 
					था। माँ को रिश्ते को ही वह उसका नाम समझता था। अपने पिता का 
					नाम उसने बतलाया, तुहान। वहाँ की भाषा में तुहान परमात्मा के 
					अनेक नामों में से एक है।
 
 जब सुन्दरी ने पूछा, तुम्हारे पिता कहाँ रहते हैं? तो बच्चे ने 
					आसमान की ओर उँगली कर दी। स्पष्ट हो गया कि वरजा का पिता तो 
					पहले ही चल बसा था और कभी उसकी माँ ने उसे समझाया होगा कि उसके 
					पिता परमात्मा हैं जो ऊपर आसमान में रहते हैं!
 
 वरजा अब भी चिल्लाए जा रहा था, “ईबू, ईबू। मुझे ईबू के पास 
					जाना है।”
 सुन्दरी ने समझाया, “इस तरह से गन्दे बने हुए जाओगो तुम ‘ईबू’ 
					के पास? उन्हें बहुत बुरा लगेगा!”
 अपने स्कूल के दिनों में जब वह कलकत्ता में हुआ करती थी, 
					शेफ़ाली ने हायर सेकेंडरी तक संस्कृत पढ़ रखी थी और वह इस विषय 
					में बहुत होशियार भी थी। यहाँ इन्डोनेशिया में आकर यहाँ की 
					भाषा में, उनके नामों में संस्कृत के शब्द सुनकर उसे बहुत 
					अच्छा लगा। सुन्दरी को तो वह पहले से जानती थी। सुन्दरी 
					मुसलमान थी। धर्म अलग हो गए तो क्या, नाम तो अब भी साझे थे! 
					किन्तु वरजा एक ऐसा नाम था जिससे वह बहुत प्रभावित हुई। वरजा- 
					मानो वह किसी के वरदान से- शायद किसी देवता के वरदान से 
					उत्पन्न हुआ था।
 
 वरजा को नहला-धुला कर पड़ोस से माँगे गए साफ़-सुथरे कपड़े 
					पहनाकर जब सुन्दरी उसे शेफ़ाली के सामने लाई तो वह एक राजकुमार 
					लगता था। सचमुच एक देवता का वरदान! गोल-मटोल भोले-भाले चेहरे 
					पर सजी हुई दो बड़ी-बड़ी चमकदार आँखें और चौड़े माथे पर लहराते 
					हुए घुँघराले बाल। लड़का भले घर से लगता था। बालक में कुछ तो 
					था जो शेफ़ाली को बहुत भा गया था। लेकिन वह अब भी सहमा, ठिठका 
					हुआ ‘ईबू, ईबू’ पुकारे जा रहा था।
 
 सुनामी की लहरें लगभग तीन दिन पहले आक गुज़र गई थीं। तब से यह 
					बच्चा कहाँ पड़ा रहा? क्या यह अब तक बेहोश था? क्या इसकी माँ 
					भी इसके साथ थी? ऐसे कई प्रश्न शेफ़ाली और सुन्दरी के मन में 
					जागे। शेफ़ाली ने वरजा का मेडिकल चेकअप किया। वह ठीक था, मगर 
					थका हुआ था। शायद तीन दिन से भूखा था। दोनों सहेलियों ने उसे 
					खूब प्यार किया और दूध पिलाकर सुला दिया।
 
 वरजा को सुन्दरी के माता-पिता के हवाले कर दोनों सहेनियाँ राहत 
					के काम पर निकल गईं। रेडक्रॉस की एक टीम वहाँ पर पहले से 
					पहुँची हुई थी। उस टीम को एक लेडी डॉक्टर की कमी महसूस हो रही 
					थी। यह दोनो भी उनके साथ जुड़ गईं। शेफ़ाली के चार्ज में 
					महिलाओं और बच्चों की जाँच के लिए फ़टाफ़ट एक अलग ख़ेमा खड़ा 
					कर दिया गया। सुन्दरी उसकी सहायिका नर्स थी। जिन लोगों का इलाज 
					शेफ़ाली स्वयं कर सकती थी, कर देती थी। शेष सभी को पास के एक 
					हस्पताल में भेज दिया जाता था। अपने होश में जो भी महिला वहाँ 
					आती या लाई जाती, सुन्दरी उससे वरजा के बारे में पूछ लेती, 
					लेकिन किसी से भी उसकी माँ का की सुराग़ नहीं मिला।
 
 काम बहुत कठिन था, फिर भी सुन्दरी के माता-पिता ने नन्हे बालक 
					को दिल बहलाए रखा। उसे समझाया गया कि शेफ़ाली और सुन्दरी उसकी 
					‘ईबू’ की तलाश में गई हुई हैं और उसे अपने साथ लेकर आएँगी।
					देर शाम को जब दोनों सखियाँ घर पहुँचीं तो वरजा ने 
					पूछा, ‘मेरी ईबू मिली?’ उन्हें इनकार करना पड़ा। वह गुमसुम-सा 
					उदास हो गया और रोने लगा। किसी तरह 
					से उसे चुप कराया गया। फिर डिनर के बाद जब सोने का समय आया, 
					उसका बिस्तर शेफ़ाली के साथ उसी कमरे में लगा दिया गया।
 
 रात आराम से गुज़र रही थी, गुज़र जाती। मगर एक भयानक सपने के 
					बाद ‘ईबू’, ‘ईबू’ चिल्लाता वरजा शेफ़ाली के बिस्तर में आ घुसा। 
					शेफ़ाली को अपनी स्वर्गीय माँ की याद आ गई होगी। उनका प्यार 
					याद आ गया होगा। एक प्यार की लहर उसके अन्तर में जागी और उनसे 
					वरजा को अपनी बाँहों में भींच लिया और चुम्बनों सो उसका मुखड़ा 
					धो दिया! तभी एक विचार उसके मन में आया...एक विचित्र 
					विचार...विचार जो विचित्र तो था ही, पवित्र भी था! वह भी तो बन 
					सकती है वरजा की माँ। वरजा उसका बेटा भी तो बन सकता है। 
					धीरे-धीरे वरजा के साथ उसका प्यार बढ़ने लगा और वह भी शेफ़ाली 
					के साथ घुलने लगा। आए दिन वह उसके लिए नए से नए कपड़े और 
					खिलौने ले आती। वरजा को उसने समझा दिया है क उसकी ईबू ‘तुहान’ 
					से मिलने गई है और जाते समय अपना स्थान उसे दे गई है। जब तक 
					वरजा की माँ लौट नहीं आती, वह उसकी ईबू बनी रहेगी।
 
 सुन्दरी ने शेफ़ाली को लाख समझाया कि वह इस बच्चे से क्यों 
					इतना मोह बढ़ा रही है। यह चार दिन का रिश्ता है। एक न एक दिन 
					तो उसे वरजा को यहाँ छोड़कर इंग्लैंड लौटना पड़ेगा। लेकिन 
					शेफ़ाली का पागलपन दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा था। एक दिन तो 
					उसने सुन्दरी को साफ़ कह दिया, “इंग्लैंड हम दोनों नहीं, हम 
					तीनों जाएँगे। वरजा हमारे साथ जाएगा। मैं उसे गोद ले लूँगी।”
 “क्या आप सचमुच सीरियस हैं? शादी आपकी हुई नहीं और आप बनेंगी 
					एक कुँवारी माँ?”
 “यह क्यों ज़रूरी है कि माँ बनने के लिए नारी किसी पुरूष की 
					तृप्त वासना का बीज अपने अन्दर ग्रहण कर?”
 “मुझे यह ठीक नहीं लगता...आपकी शादी तो हुई नहीं। आप कैसे 
					बनेंगी एक कुँवारी माँ?”
 “हज़ारों-लाखों यतीम बच्चे बिना माँ के प्यार के तड़पते रहें 
					यह ठीक लगता है?” शेफ़ाली को तैश आ गया।
 
					सुन्दरी सोचती रही, न लड़के का 
					पता, न माँ-बाप का, न परिवार का पता और यह चली है इस अज्ञात को 
					गोद लेने! शुरू-शुरू का बुख़ार है, उतर जाएगा!लेकिन नहीं उतरा यह बुख़ार!
 
 ...मगर सुन्दरी चाहती थी वरजा से छुटकारा! उसे डर था कि कहीं 
					यह लड़का उसके वृद्ध माता-पिता पर बोझ न बन जाए। वह उसकी 
					तस्वीर उतारकर अपने ख़ेमे में ले गई और हर किसी से उसकी पहचान 
					करवाई। कोई भी नजदीक का या दूर का रिश्तेदार मिल जाए और इसे 
					उसके हवाले किया जा सके। आस-पास के लोगों से भी पूछताछ की गई, 
					थाने में रपट लिखाई गई, जगह-जगह उसकी तस्वीरें लगाई गईं कि 
					शायद यह किसी की पहचान में आ जाए मगर उसे निराशा ही मिली।
 
 सागर-तट के ख़ेमों का काम अब ख़त्म हो चला था। अब सभी रोगी 
					मोलाबो के जनरल हस्पताल में भेजे जाने लगे। शेफ़ाली और सुन्दरी 
					अब हस्पताल के काम में शामिल हो गईं। उसके लिए उन्हें इंग्लैंड 
					में डॉ. कॉलिंज़ की अनुमति ज़रूरी थी जो सौभाग्य से मिल गई। 
					यदि डॉक्टर ‘न’ भी कर देते, तो ये दोनों तो त्यागपत्र देने को 
					तैयार थीं। यहाँ हस्पताल में स्थिति नाज़ुक थी। एक हॉल ख़ाली 
					करवाना पड़ा था जहाँ वरजा जैसे अनाथ बच्चों की देख-रेख का 
					प्रबन्ध किया गया था। वरजा भी वहाँ रहने लगा और सुन्दरी भी 
					वहीं काम पर लग गई।
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