वह अपनी माँ
से किस हद तक जुड़ी थी और अपने पिता से कितनी नफ़रत रखती थी यह
मैंने तब जाना जब उसने एक रात अपना अलबम मुझे दिखाया। अजीब बात
थी! उसके अलबम में उसके पिता का एक भी चित्र नहीं था।बस माँ और
वह! छोटी सी निमी माँ की गोद में, खेलती निमी माँ के पास
बैठी, माँ के साथ किसी पिकनिट स्पाट पर, यात्रा में, कहीं भी।
बस माँ हर जगह, पिता अनुपस्थित। लेकिन वह पिता की बातें करती
थी! पिता बहुत बड़ी कम्पनी में मैनेजर हैं। वह उनके साथ रही थी,
दो बरस पहले।माँ की मौत के बाद पापा साथ ही लिवा ले गए थे,
हालाँकि वह बिल्कुल नहीं चाहती थी।वह उनसे मिलने गई थी, पिछली
छुट्टियों में।इसी तरह की तमाम बातें वह करती।
मैंने अनुमान
लगाया कि शायद ऐसा इसलिए है कि इसकी माँ अब दुनिया में नहीं
हैं और पिता से उनका शायद डाइवोर्स हो चुका होगा। पूछने का
साहस नहीं हुआ।यूँ भी मैं उसे पूरा समय देना चाहती थी कि वह
कभी अगर खुद चाहे तो मुझे बतलाए, जैसे उस दिन उसने मुझे अपना
अलबम दिखाया था, डायरी के कुछ पन्ने पढ़ाए थे।
प्यारी सी लड़की थी वह। कपड़ों से लेकर कमरे के रख रखाव तक में
उसके सौन्दर्य बोध की स्पष्ट छाप थी। वह क्यों बॉटनी में शोध
कर रही थी, पता नहीं। वह पूर्णत: कलाकार थी।
पेन्टिंग करना,
कविता लिखना, अपने कपड़े खुद डिजायन करना और शहर में मामा के घर
जाकर मशीन पर सिलना, उनपर कढ़ाई करना, यह सब उसकी आदतों में
शुमार था। रंगों का चयन भी अद्भुत। व्यक्तित्व में एक गरिमा।
चाल में आत्मविश्वास। यह आत्मविश्वास शायद उसके अमीर होने की
वजह से है, मैं सोचती और उससे दूरी बनाए रहती। हॉस्टल में कई
लड़कियाँ उसकी जबर्दस्त फ़ैन थीं। एक ने उस पर कविता भी लिख डाली
थी। सारे वक्त उसका हँसता चेहरा किसी को भी दोस्त बना लेता था।
और फिर साहित्य में रुचि।इसी रुचि ने उसे सेन्ट्रल लाइबेरी में
बंटू से मिलवाया था, जब एक दिन विभाग से लौटने के बाद उसने
मुझसे अपेक्षा की थी कि मैं उसके दोस्त से मिलूँ।
"राका दी, आप बंटू से मिलेंगी? वह मेरा दोस्त है।
मेरी- आपकी
तरह साहित्यिक रुचि है उसकी। हम किताबें पढ़ते हैं और फिर उस पर
चर्चा करते हैं।"
"अच्छी बात है। लेकिन मैं क्यों मिलूँ? मुझे तुम्हारे दोस्तों
से दोस्ती करने में कोई दिलचस्पी नहीं।" मैंने अरुचि दिखाई थी।
'क्या है दीदी! जरा सा नीचे चल नहीं सकतीं ? एक फ़्लोर ही तो
है। सीढ़ियों के नीचे वह खड़ा है।"
उसका मुँह फ़ूल गया। जरा जरा सी बात पर मुँह फुलाना भी उसके
स्वभाव मे था।
मैं अनिच्छा से उठी। कमरे में आने के बाद फिर नीचे जाने का
मतलब कपड़े बदलना। जाने किस-किस के मित्र, अभिभावक हॉस्टल के
बरामदे या मैदान में होते हैं और हॉस्टल का नियम भी है कि हम
फ़ार्मल ड्रेस में नजर आएँ।
नीचे वह खड़ा था।मँझोले कद का, दुबला-पतला लड़का। बड़ी-बड़ी आँखें
जो जाने क्यों मुझसे नजर नहीं मिला रही थीं। अतिरिक्त संकोच और
लड़कों में? नहीं, यह उसका निमिषा के प्रति आकर्षण है और पकड़े
जाने का डर- जो उसे नजरें उठाने नहीं दे रहा। मैंने सोचा और
वहाँ से हट जाना उचित समझा।
मैने औपचारिक परिचय किया और कमरे में वापस आ गई। निमी लौटी,
घंटे भर बाद। चहकती हुई, हमेशा की तरह।
"दीदी, बंटू अच्छा है न? आपको कैसा लगा?"
मैं हँसी -"क्या मतलब? "
"आपको नहीं लगा कि वह बहुत अच्छा लड़का है?"
इच्छा हुई कहूँ "प्यार हो तो, साधारण चेहरा भी सुन्दर हो जाता
है, असाधारण लगता है। यह तुम्हारा आकर्षण है निमी, जो उसे
हैंडसम बना रहा है।" किन्तु चुप रही, मैं निमी के मामलों में
दखल नहीं देती थी। उससे एक निश्चित दूरी बना रखी थी मैंने
क्योंकि उस कमरे में आए हुए मेरे बस तीन महीने हुए थे और इतना
वक्त उस लड़की को जानने के लिए काफ़ी नहीं था।
फिर यह अक्सर ही होता, कभी विभाग जाने से पहले, कभी
विश्वविद्यालय से लौटते हुए रास्ते में और कभी हॉस्टल के ही
लान में मुझे वे दोनों मिलते - बातें करते हुए। मैं हाथ हिलाकर
आगे बढ़ जाती। शायद उनके निरीक्षण का पूरा मौका वक्त मुझे थमा
रहा था और मुझे बंटू में कम और निमिषा में दिलचस्पी ज्यादा थी।
हम दिन भर अपने अपने विभाग में होते, शाम अलग अलग कटती किन्तु
रात तो साथ ही गुजरती थी।हमारे सोने का समय एक था और खाने का
भी। हॉस्टल के मेस में भी हम साथ ही होते।वह चहकती रहती,
खिलखिलाती रहती। मेस में जैसे जान आ जाती उसकी हँसी और बातों
से और मैं सोचती कितना सुन्दर होता है प्रेम!
शायद मुझे भी उससे स्नेह होता जा रहा था तभी मैं उसकी कहानियाँ
सुनने लगी थी। मन्नू भंडारी से लेकर तुर्गनेव तक की किताबों पर
चर्चा करने लगी थी और नाम सुझाने लगी थी कि अगली कौन सी किताब
उसे पढ़नी चाहिए। वह मेरी सलाह गंभीरता से सुनती। मुझे बड़ों का
सम्मान देती लेकिन जब वह बंटू की बातें करती तो मैं चुप ही
रहती थी।
यह प्यार का पहला सोपान था।
लाइब्रेरी से किताबें लाना, पढ़ना और फिर एक दूसरे को पढ़ाना
यानी कि बंटू से मिलते रहना। लम्बे वार्तालापों का
सिलसिला।"पचपन खंभे लाल दीवारें" "गान विद द विंड",फ़र्स्ट लव",
"अंधे मोड़ से आगे", गुनाहों का देवता, "सारा आकाश"....... उसके
सप्ताहान्त अब बंटू के लिए थे। वह उससे बातें करके कमरे में
लौटती और शुरू हो जाती-
"जानती हैं राका दी, हमारी रुचियाँ बेहद मिलती हैं! कल मैंने
पीला सलवार सूट पहना था तो उसने बताया पीला उसका भी फ़ेवरेट कलर
है।"
.......
"बंटू को भी छोले भटूरे पसंद हैं।"
.....
बंटू के दादा जी स्वतंत्रता सेनानी थे। बनारस की वो गली उसके
दादा जी के नाम पर है। बहुत सम्पन्न लोग हैं वे। लेकिन तब भी
देखिए, जरा भी घमंडी नहीं है। है न?
......
"बंटू को भी राक म्यूजिक पसन्द है। वह शिवकुमार शर्मा और हरि
प्रसाद चौरसिया को भी सुनता है। आज यह कैसेट उसने मुझे
दिया। बजाऊँ?"
........
"कल हमने जे कृष्णमूर्ति को पढ़ा।
हम कृष्णमूर्ति फ़ाउन्डेशन, राज
घाट जाने वाले हैं।"
"सारनाथ नहीं? बुद्ध अच्छे नहीं लगते? वैराग्य हो जायेगा ?"
मैंने चिढ़ाया।
"आप भी न राका दी!"...... उसका मुँह फ़ूल गया।
बंटू सारा आकाश था और वह उड़ रही थी। मैं उसे देखती और सोचती-
कहाँ जा रही है यह लड़की!
प्रेम का दूसरा सोपान
वह अब गंभीर होती जा रही थी।अंतर्मुखी, आत्मलीन सी। मैं समझ
रही थी, बंटू को लेकर एक सपना पाल लिया है इसने।
मुझे वह लड़का
बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था।बेहद भावुक किस्म का दिखता था
वह। फ़ैसले लेने और उन पर टिकने का माद्दा रखने वाले कुछ और
होते हैं। मैं लड़कों से कभी मित्रता न करने के बावजूद उनके हाव
भाव से इतना तो समझ ही सकती थी।
वह अकारण स्नेह लुटाती रहती।सब पर। अब भी। रविवार को यदि कमरे
में होती तो खाना वही पकाती यदि मेस आफ़ होता। "आप बैठिए, मैं
पकाऊँगी। मैं छोटी हूँ न। आपकी छोटी बहन।"
लेकिन बंटू की बातें करने के बजाय, मुझसे बचने की कोशिश करती।
कमरे में जब हम दोनों होते और सामान्य वार्तालाप चल रहा होता
तो वह जान बूझ कर बंटू-प्रसंग वार्तालाप से बाहर रखती। मैं
चाहती कि वह खुले लेकिन वह जाने किन समस्याओं से जूझ रही थी और
अपनी ही दुनिया में गुम थी! मेरी चिन्ता उसे लेकर बढ़ती जा रही
थी!
तीसरा सोपान
वन्दना मुझे पंडित जी की चाय की दूकान पर मिली- निमी की बचपन
की सहेली और सबसे अच्छी दोस्त। बदहवास। "राका दी आपको कब से
ढूँढ़ रही हूँ! आपके विभाग में लोगों ने बतलाया कि आप यहाँ
हैं!" मैंने चाय का एक प्याला उसकी तरफ़ बढ़ाया - "लेकिन क्यों?
क्यों ढूँढ़ रही थी मुझे?"
"आप हॉस्टल चलिए। निमिषा ने नींद की गोलियाँ खाकर आत्महत्या
करने की कोशिश की।"
"व्हाट नानसेन्स! किसने कहा तुम्हें?"
"मैंने उसे रोका, गोलियों की शीशी छीनी। वह कमरे में ही है। रो
रही है!"
"तुम हॉस्टल गई थी?" मेरी आवाज में अभी भी अविश्वास था।
"हाँ, आप चलिए तो!"
हम दोनों ने अपनी- अपनी साइकिल उठाई। मैने पंडित जी के पैसे
चुकाए और साथ- साथ पैदल चलने लगे। अब उसे भी कोई हड़बड़ी नहीं
थी।हम बातें कर सकते थे। वह यही चाहती भी थी कि मैं पूछूँ और
वह बतलाए।
"निमी ने ऐसा क्यों किया, कुछ बतलाया?"
"बतलाना क्या। मैं तो डर ही रही थी कि वह ऐसा-वैसा कुछ कर न
डाले। इसीलिए तो आज हॉस्टल गई थी।"
"तुम्हे पता था ?"
"वह और बंटू शादी करना चाहते हैं न। कल उसने बतलाया था कि वह
बंटू को अपने बारे में सबकुछ बतला देना चाहती है। जब वह सामने
होता है तो बोल नहीं पाती। बोल कर बतलाना यूँ भी मुश्किल है
इसलिए उसने उसे सबकुछ लिख कर दिया है। वह जानती है कि उसके
जन्म की कहानी जान लेने के बाद वह उससे कभी शादी नहीं करेगा।
बहुत रो रही थी कल।"
"अच्छा।" |