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“भाई जी, आप भी बस कमाल ही करते हैं, कभी तो सीरियस बात किया करिये।”
“भाई अगर हम सीरियस हो गये तो तुम परेशान हो जाओगे। तुम्हारे आसपास ओढ़ी हुई गंभीरता वाले लोगों की कमी है क्या?”
“सर जी, मेन बात बताइये, आज कमल जी की पत्नी के अंतिम संस्कार में शामिल होने जा रहे हैं कि नहीं?”
“ओह गॉड! यार मैं तो भूल ही गया था। ... कितने बजे पहुँचना है?.. और है कहाँ?” प्रश्न पर प्रश्न किये जा रहा था वह। रवि भी शायद चकरा गया होगा कि उसे आख़िर हुआ क्या है।
“भाई साहब हैनवर्थ क्रैमेटोरियम में है, शाम को चार बजे। वैसे आपको पता है कि हुआ क्या था कमल जी की पत्नी को?”
“भाई पक्के तौर पर तो नहीं कह सकता लेकिन सुनी सुनाई बता सकता हूँ। ... कहते हैं कि जॉन्डिस हो गया था। इसी वजह से एक एक कर के सभी अंग बेकार होते गये। आख़िर में डाक्टरों ने लाईफ़ स्प्पोर्ट मशीनें हटा दीं। बस हो गया काम पूरा।”
“किस्मत देखिये कमल जी की। पहली पत्नी कैंसर की भेंट चढ़ गयी तो दूसरी पीलिये की।”
सुबह से पत्नी की डांट खाता वह बस बोल ही तो गया, “यार, काश! कमल जी जैसी किस्मत अपनी भी हो जाये।”
किस्मत देखिये, पत्नी ने ये आख़िर वाली बात सुन भी ली। यह पत्नियाँ भी कमाल की होती हैं। जो सुनना चाहती हैं वो सुन ही लेती हैं। बस फट पड़ीं, “हाँ.. हाँ.. अब यही तो चाहते हो कि मैं भी तुम को खुला छोड़ कर मर खप जाऊं! सुन लो जी अच्छी तरह, मैं नहीं यूं मरने वाली। अगर मेरे मरने के बाद भी किसी चुड़ैल से चक्कर चलाया न तो भूत बन कर तुम्हारा पीछा करूंगी। छोड़ूंगी नहीं। ध्यान रखना।”
“सुनो, तुम मेरे साथ बाक़ी की ज़िन्दगी क्यों बिताना चाहती हो?.. जो बीत गई उसे पूरा जानो। यार तुम जहाँ ख़ुश रह सको वहाँ जा कर रहो। मैं कोई शिकायत नहीं करूंगा।”
“देखोजी, मैं रहूँगी भी यहीं और तुम्हारी छाती पर मूंग भी दलती रहूँगी।”
बात तो सही कह रही थी। मूंग तो दल सकती है। वह कम से कम एक मामले में तो पूरा मोहताज है। उसे कार चलानी नहीं आती। कभी सीखने का प्रयास ही नहीं किया।

दरअसल उसकी समस्या दूसरी है। करीब पच्चीस साल पहले उसका एक स्कूटर एक्सीडेंट हो गया था। बहुत ही भयंकर हादसा था। वह दिल्ली के मथुरा रोड से भोगल की तरफ़ स्कूटर मोड़ ही रहा था कि अचानक सामने से आते एक ट्रक ने उसे टक्कर मारी। उसके स्कूटर का हैंडल मुड़ कर सीट के साथ आ लगा। वह उछल कर सड़क पर गिरा और उसका सिर पैदल पार-पथ के पत्थर से जा टकराया। उसके हेलमेट में एक चिटक उभर आई थी। आज सोचता है कि अगर हेलमेट न पहना होता तो उसके सिर का क्या हाल होता। बस उसी डर का मारा वह बेचारा लंदन में कार नहीं चला पाता। अगर कहीं भी जाना हो तो कार पत्नी को ही चलानी पड़ती है। वो कार भी चलाती रहती है और उसे ताने भी मारती जाती है।
आज भी कार तो पत्नी को ही चलानी है। कई बार सोचता है कि पत्नी उसकी परेशानी को समझ क्यों नहीं पाती? यदि उसके दिमाग़ में कार या कोई भी वाहन चलाने को लेकर एक डर बैठा हुआ है तो यह ड्राईविंग से बचने का बहाना मात्र तो नहीं हो सकता। पत्नी का आज का ग़ुस्सा तो बिल्कुल ही नहीं समझ पा रहा है। मौत का सुन कर तो कोई भी पिघल जायेगा। फिर उसकी पत्नी..?

सुबह से हल्की हल्की बारिश हो रही है। बीच बीच में तेज़ भी हो जाती है। उसे दोपहर को हारमोनियम सीखने भी जाना है। हर शनिवार को शक्ति स्थल में पंडित राजेश्वर जी महाराज से हारमोनियम सीखता है। बुढ़ापे का इश्क भी बुरा होता है। अब पचास के बाद यह शौक़ चर्राया है। पत्नी को शिकायत है कि अपने शौक पूरे करता रहता है; उसकी ओर ध्यान नहीं देता। एक तो लोग भी चैन नहीं लेने देते। जब कभी किसी महफ़िल में कुछ गुनगुना देता है तो कहने से बाज़ नहीं आते, "भैया जब इतनी सुरीली आवाज़ भगवान ने दी है, तो कुछ तो ख़ुद भी करिये। रियाज़ कीजिये , हारमोनियम सीखिये और हो जाइये शुरू।"
वह लोगों की बातों में आसानी से आ जाता है। अपने आप को मुहम्मद रफ़ी से ले कर पण्डित जसराज तक न जाने क्या क्या समझने लगता है। हारमोनियम बजाने में भी तुक्कड़ है और गाने में तो बस माशा-अल्लाह! एक बार फिर पत्नी ही काम आती है। वही उसे उसकी असली औक़ात बताती है कि वह कितना बेसुरा है।

बेसुरी तो उनकी शादी-शुदा ज़िन्दगी भी है। वे दोनों कभी एक ही सुर में नहीं बोलते। कभी पत्नी पंचम में बोलती है तो वह पहले काले पर पहुँच जाता हूँ, कभी वह सप्तक से ऊपर निकल जाता है तो पत्नी हेमन्त कुमार की तरह पेट से गा रही होती है। एक दूसरे से शिकायत दोनों को है किन्तु समाधान दोनों में से कोई नहीं ढूंढने का प्रयास करता।
शिकायत कार में ही शुरू हो गई, “आजतक कभी ठीक से एड्रेस ले कर चले हैं क्या? हैनवेल और हैनवर्थ एक जगह नहीं है। कार तो मुझे ही चलानी होती है। आप तो बस कार में बैठे और नाक बजने लगी।.... कितने बोरिंग आदमी से पाला पड़ा है!”
“देखो रवि ने बताया था कि अंतिम संस्कार हाउंसलो के नज़दीक है। अब तुम ही सोच लो कि हाउंसलो के नज़दीक हैनवेल है या हैनवर्थ।... इसमें इतना बिगड़ने की क्या बात हो गई? हाउंसलो वैस्ट और बैल के बीच जो सड़क दाएं को मुड़ती है उस पर मुड़ जाना है और फिर मेन सड़क पर फिर से दाएं। यह रास्ता जाता है, हैनवर्थ या हैनवेल जो भी है, को।”
“इतने साल हो गये लन्दन आए आज तक कार का लायसेंस नहीं ले पाए। फ़्री की ड्राइवर जो मिली हुई है। कभी सोचा है कि इण्डिया से जो गेस्ट आते हैं उनको भी मुझे ही कार में घुमाना पड़ता है। ...शेम!”
“यार हम किसी के अंतिम संस्कार में शामिल होने जा रहे हैं। क्या ज़रूरी है कि अपना मातम भी साथ साथ करते चलें? क्या कभी आजतक हुआ है कि हम दोनों इकट्ठे बाहर निकलें और हम दोनों के बीच लड़ाई न हो... हम अमरीका जाएं, कैनेडा, भारत या जापान या फिर कब्रिस्तान... साली लड़ाई ज़रूर होनी चाहिये।”
“तो फिर सुधर जाओ न। ...घर में कभी मर्दों वाले कोई काम करते हो? क्या गार्डनिंग मेरा काम है? इस देश में सारे मर्द काम करते हैं। कोई भी आपकी तरह आराम नहीं करता है। सारा दिन बस इंटरनेट हो गया या हिन्दी की टाइपिंग हो गई। अरे तुमसे तो इतना भी नहीं बनता कि अगर हिन्दी की टाइपिंग आती है तो इस आर्ट से ही कुछ कमा लो। तुम तो हमेशा घाटे के सौदै ही करोगे। दुनियाँ जहान को सिखाने जाओगे और आने जाने का खर्चा भी अपनी जेब से ही करोगे।”
“यह अब इस वक़्त हिन्दी कहाँ से बीच में आ गई? तुम्हें हर वक़्त लड़ने की कैसे सूझने लगती है?”
“लड़ूं नहीं तो क्या तुम्हारी आरती उतारूं। तुम काम ही ऐसे करते हो।”
“यार इस वक़्त तो कमल जी की पत्नी के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिये जा रहे हैं। इस वक़्त तो ऊंचा ऊंचा मत बोलो।... तुम देखो, क्या मैं कभी ऊंचा बोलता हूँ?”
“अब चुप रहो और बाहर रास्ता देखो। ... बारिश में कुछ ठीक से दिखाई भी नहीं देता।... वैसे वहाँ कौन कौन होगा?”
“भाई कमल जी लम्बे अर्से से हमारे साथ रेडियो स्टेशन पर काम करते हैं। तो हमारे पुराने साथी तो लगभग सभी ही आएंगे।
“इन लोगों को भी इतनी दूर पता नहीं क्यों आना था। दुनियाँ में बस एक ही श्मशान बचा था क्या?”
“तुम भी कमाल करती हो। अगला हाउंसलो गैराज के पास रहता है। तो उनके घर से तो यही सबसे क़रीबी श्मशान पड़ेगा न।... एक मिनट... एक मिनट, ये देखो राइट में क्या है। क्या यही है क्रेमेटोरियम।”
“शायद यही है। उतर के देखो।”
“यह तो क़ब्रिस्तान लग रहा है। हैनवर्थ क्रैमेटेरियम में इतनी क़ब्रें नहीं हो सकती। ये तो ग्रेव यार्ड ही है।”
“तो अब क्या करूं?”
“तुम गाड़ी साइड में रोको। सामने न्यूज़ एजेंट की दुकान है, मैं पूछ कर आता हूँ कि हैनवर्थ क्रिमेटोरियम कहाँ है।”

सरदार जी की दुकान में भीड़ है। बारिश में भी लोग सामान ख़रीदने निकल पड़ते हैं। कार में से निकल कर दुकान तक आते आते उसके सिर के बाल भीग गये हैं। पहले बालों को हाथ से झाड़ता है, उनमें से पानी निकालता है अपना नम्बर आने पर सरदार जी से सामान ख़रीदने की जगह पंजाबी में ही श्मशान का पता पूछता है। “ओ बाऊजी, तुसी एह बोर्ड नहीं पढ़या, असी साफ़ साफ़ लिख दित्ता है कि साढी दुकान पुछगुछ दा काउण्टर नहीं है।”
“ओ सरदार जी हुण मुर्दे नूं तां पता नहीं सी कि तुसी ऐ बोर्ड लाया होया है। ओह तां चलाणा कर गई। थोड़ी बहुत हेल्प तां तुहानुं करणी चाहिदी है।”
“चलो जी पंजाबी भरा दी मदद कर देन्दे हाँ।.... ऐह सामणे जेढ़ा गेट विखाई दे रिहा है न, उसतों अग्गे जेहड़ा राइट टर्न है तुसी उत्थों गड्डी मोड़ लवो ते कोई 400 गज़ दे बाद सज्जे हथ ही इक होर गेट आवेगा। ओह हैनवर्थ क्रैमेटोरियम दा गेट है। वाहेगुरू मेहर करे।”

वह हाथ मिला कर सरदार जी का शुक्रिया अदा करता है। उसकी पत्नी गुजराती है और वह स्वयं पंजाबी। लन्दन के भारतीय प्रवासियों में इन्हीं दो भाषाओं को बोलने वाले अधिक लोग हैं। इसलिये ये दोनों इसी तरह काम निकालने का प्रयास करते हैं। जहाँ गुजराती से काम चले वहाँ पत्नी आगे हो जाती है और जहाँ पंजाबी बोलनी हो, वहाँ वह स्वयं। पत्नी को एक शिकायत यह भी है कि उसने गुजराती भाषा नहीं सीखी। वापिस कार में आकर बैठ जाता है।
“अब ठीक से पूछ कर आए हो न? मुझे कार चलानी होती है। मैं कार चलाते हुए रास्ते नहीं पढ़ सकती।”
“हमें आगे से राइट टर्न लेना है। ... और पाँच सौ गज़ के भीतर ही एक और गेट आएगा, उसमें एन्टर करना है।” उसने बात को बिगड़ने से बचाने का प्रयास किया।

वॉक्सहॉल ज़फ़ीरा चल पड़ी। वह सोच रहा है कि इस ज़िन्दगी का अर्थ ही क्या है। सुबह तो वह रवि से मज़ाक कर रहा था। यदि उसकी पत्नी सचमुच मर जाती है तो क्या वह दुःखी होगा? हो सकता है कि वह भगवान का धन्यवाद ही कर दे कि उसे मुक्ति दिलवा दी है। किन्तु भगवान में तो वह विश्वास ही नहीं करता। फिर यह भगवान क्यों अचानक उसके जीवन में घुसपैठ करने लगता है।

वह भगवान को लेकर खासा उहापोह में रहता है। अभी तक उसे पूरी तरह से नकार नहीं पाया है। किन्तु यह भी सच है कि भगवान के अस्तित्व पर जितने सवालिया निशान उसने लगाए हैं, यदि सचमुच कोई भगवान है तो अब तक उसका शरीर घावों से भर गया होगा। वह बन्दा बहुत लॉजिकल है, “देखिये इन्सान की बनाई हुई कोई भी वस्तु प्रकृति एवं स्वयं इन्सान के लिये फ़ायदेमन्द नहीं होती। उसकी बनाई वस्तु उसका नुक़्सान ही करती है। फिर भगवान तो इन्सान की सबसे बड़ी ईजाद है। भला वो कैसे इन्सान के लिये लाभकारी हो सकता है? समाज का सत्यानाश करके रख दिया। मज़हब के नाम पर कितनी बेहूदगी होती है। मारकाट, बलात्कार, हिंसा क्या कुछ नहीं होता?”
हैनवर्थ क्रैमेटोरियम में कार दाख़िल हो रही है। उसकी सोच की शृंखला टूटती है। क्रैमेटेरियम को देखते हुए उसे भारत के श्मशान घाट याद आने लगते हैं। यहाँ न कोई आचार्यजी हैं, न रोते बिलखते रिश्तेदार और न ही श्मशान घाट की रहस्यमयी चुप्पी। यहाँ मृत्यु के सप्ताह भर बाद अंतिम संस्कार होता है। शायद इसीलिये रिश्तेदारों के आँसू यहाँ तक पहुँचते पहुँचते सूख जाते हैं।

वे शायद थो़ड़ा लेट हो गये हैं। क्रैमेटोरियम में कार पार्क पूरी तरह से भर गया है। हल्की हल्की बूँदाबाँदी अभी भी हो रही है। आज शायद दो या तीन मुर्दे लगभग साथ साथ ही आने वाले हैं। उत्तरी और दक्षिणी छोरों वाले सभागृहों में दो मुर्दों का क्रियाकर्म तो एक साथ ही हो सकता है। आज एक तरफ़ अंग्रेज़ मुर्दा है तो दूसरी तरफ़ कमल जी की पत्नी हैं। सभागृहों के बाहर गुलदस्ते क़तारों से सजे हैं। अंग्रेज़ हर काम कितना विधिपूर्वक करता है। एक सलीक़ा है उसके मरने में भी! हम भारतीय उनसे जीना चाहे न सीख पाएं कम से कम मरना तो सीख ही लेना चाहिये।
उसकी पत्नी को कार पार्क करने के लिये स्थान नहीं मिल रहा। एक बोर्ड देख कर वह कह उठता है, “अरे वो देखो, लिखा है ओवरफ़्लो पार्किंग। इधर देख लो।”

पत्नी गाड़ी को उधर मोड़ देती है। सामने एक कार खड़ी है – लाल रंग की रोवर कार है। एक पतली सी सड़क है, जिसमें एक के पीछे एक कारें खड़ी हो सकती हैं। कुल मिला कर पाँच या छः कारें ही खड़ी हो सकती हैं वहाँ। चेहरे पर शांति के भाव आए कि कार पार्क करने के लिये बाहर नहीं जाना पड़ेगा। वह एक पल के लिये उस बोर्ड के पास ही खड़ा रह गया जहाँ लिखा था – ओवरफ़्लो पार्किंग।

अंग्रेज़ी भाषा का हमेशा से ही क़ायल रहा है वह। उसे बहुत अच्छा लगता है कि अंग्रेज़ी में हर नाम का एक लघु रूप बन जाता है। मिसाल के तौर पर युनाइटेड नेशन्स को खाली यू.एन. कह कर काम चलाया जा सकता है। हिन्दी में भाजपा जैसा लघुरूप बनाया तो गया है, लेकिन सब बहुत बनावटी सा लगता है। क्या ओवरफ़्लो पार्किंग की कोई हिन्दी भी हो सकती है?

एक रॉल्स रॉयस में कमल जी की पत्नी का शव आ पहुँचा है। कमल जी की साली और सास भारत से विशेष तौर से आए हैं। केवल वे ही दो व्यक्ति ऐसे हैं जो भारतीय अन्दाज़ में रो रहे हैं। अन्यथा सब चुप्पी साधे हैं। इस देश की यह ख़ास परम्परा है कि जीते जी चाहे इन्सान बिना कार के घिसटता रहे, मरने के बाद तो उसका शरीर एक बार रॉल्स रॉयस के मज़े ले लेता है। कितना प्यारा सा समाजवाद है!

उसने कई दुकानें देखी हैं जहाँ बोर्ड लगा होता है – एशियन फ़्यूनेरेल डायरेक्टर्स। मौत भी एक महत्वपूर्ण धन्धा है यहाँ। हर चीज़ का पैकैज है । ताबूत की क्वालिटी, फूलों की च्वाइस, रोल्स रॉयस का मॉडल, पुरोहित का इन्तज़ाम, क्रियाकर्म की अवधि। जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा। रेट फ़िक्स हैं। न कोई अधिक माँगेगा और न ही कम भी करेगा। आपकी मर्ज़ी आपको मरना है या नहीं मरना है।

वह निरपेक्ष भाव से सारी प्रक्रिया को देख रहा है। मंगल सेन रेडियो के पुराने आदमी हैं। उनके सामने कमल जी जैसे बहुत से लोगों ने काम किया है। वे पत्नी के साथ आए हैं। उन दोनों ने एक दूसरे की उपस्थिति आँखों ही आँखों में दर्ज कर ली। शंकर शर्मा, कौशिक मण्डल, एकता गुप्ता, और शरीफ़ भाई भी हैं। अपनी फ़्रेंच कट दाढ़ी लिये अशोक मुद्गिल भी मौजूद हैं – साथ में पत्नी भी है। आरबा़ज़ मियाँ अपनी पत्नी अलका के साथ हैं। आजकल रेडियो के इंचार्ज आरबाज़ हुसैन ही हैं।

बस अब अधिक समय नहीं लगेगा। सब को हॉल के भीतर जाने को कह दिया गया है। वह अपनी पत्नी से बचने के लिये सभी चेहरों की तरफ़ देख कर उनके भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहा है। वह जान लेना चाहता है कि कौन सच में दुःखी है और कौन केवल खानापूर्ति के लिये वहाँ पहुँचा है। अब भला उसकी अपनी पत्नी को क्या दुःख हो सकता है? वह तो सोच रही है कि कहाँ तो वह आराम से पॉप कॉर्न खाती हुई निःशब्द देख रही होती। कहाँ इस बारिश के मौसम में श्मशान के चक्कर में पड़ गई है।

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