पर
आज
रात जब वह देर से सोया और पिछले कई दिनों की तरह ही फिर नींद नहीं
आई, तो उसने तय कर लिया कि कल किसी कीमत पर काम पर नहीं जाना
है। आराम तो करना जैसे यहाँ के लोग जानते ही नहीं। बस काम!
काम! किसी को किसी से कुछ भी लेना देना नहीं। सबकी एक छोटी-सी
दुनिया है। गोल! दायरा सीमित होता है। बस! उसी में घूमते रहो।
बाहर से यह दुनिया हरी भरी
ऊँची-नीची कटाव-घुमाव से भरी लगती, लेकिन यह हकीकत नहीं थी। यश
मखीजा को लगता यह बिल्कुल सपाट मैदान की तरह है यह और कुछ भी
नहीं। इस धरती को नापने की फिराक में जो भी चला, वह सीधा
वहीं आ जाता है, जहाँ से चला हो, यानी कि परिणाम शून्य! वह जब
भी अपने जीवन की यात्रा पर दृष्टिपात करता तो ठीक यही नतीजा
सामने आता। पंजाब के एक छोटे से कस्बे निकल कर यूरोप की यात्रा
करते हुए जब डेनमार्क के नोरेब्रो शहर में पहुँचा तो जीवन
उत्साह से भरपूर था। तब उसे लगता कि यह उत्साह उसको यहाँ के
जीवन और जीवन शैली से मिला, लेकिन अब उसे लगता कि उत्साह असल
में उसकी आकांक्षाओं और इच्छाओं में था। भैया चाहते थे कि उस
ज़माने में नई आरम्भ हुई व्यापार की पढ़ाई समाप्त करके यश उनके
खेल के सामान की दुकान को निर्माण कम्पनी में तब्दील कर दे,
लेकिन तब उनका तर्क था कि जिस देश में खिलाड़ियों की ही कद्र
नहीं वहाँ भला खेल के सामान में भविष्य कैसे बन सकता है?
भविष्य तो बन गया इसमें कोई
संदेह की बात नहीं रही। आज उसका आयात-निर्यात का काम पूर्व से
लेकर पश्चिमी यूरोप के तमाम दशों में फैला है। हस्तशिल्प के
काम में उसकी अपनी पहचान है। पैसे भी तो खूब कमाए ही आधी
दुनिया भी देख ली!
यूरोप का पश्चिमी भाग तो जैसे
उसका अपना घर हो! घर? इधर जैसे यह शब्द मस्तिष्क में आता वह
उलझने लगता, लेकिन ठीक तभी एकाएक ध्यान आया कि आज तो जर्मनी से
आने वाले भारतीय खेल-सामान-निर्यातक अनीस खान से मीटिंग है
ग्यारह बजे। इसका अर्थ है कि रात के इस संकल्प का कोई मतलब ही
नहीं कि आज काम से छुट्टी! वह उठकर अंगड़ाई लेता हुआ बाथरूम के
बेसिन के सामने खड़ा हो गया। अचानक निगाह सिर के बालों पर चली
गई। बाल बस नाममात्र के लिए बचे थे। कनपटियों के हल्के बाल भी
सफेद हो चले थे। शरीर के दूसरे हिस्सों के साथ ठुड्डी के नीचे
माँस का भार बढ़ गया था, लेकिन चेहरा रक्तिम होने के बावजूद आज
उसे अजीब-सा लग रहा था। वह वाइन का प्रयोग एक उचित मात्रा में
ही करता आया है, लेकिन जब बेचैनी बढ़ती है तो मात्रा भी बढ़
जाती है। आज शायद इसीलिए चेहरा कुछ सूजा लग रहा है, इधर अक्सर
ऐसा हो जाता था। वह अपने शरीर को लेकर बेहद सजग रहता है, मगर
इस समय इसे तात्कालिक समस्या मानकर उसने अपने ध्यान को हटाया,
तैयार होकर नाश्ता गरम किया, खाया और बाहर निकल आया।
उसकी सामने वाली विंग के कोने
वाले फ्लैट की बाल्कनी में सीधे धूप आती थी, उसकी पंसद का
फ्लैट वही था और वह उसे लगभग मिल ही गया था कि तभी डीलर ने
सूचना दी कि एक वरिष्ठ नागरिक मिस कैप्री ने वह फ़्लैट चुन
लिया है। नैतिकता का तकाज़ा यही था कि वह उस फ्लैट के बारे
में सोचना छोड़ दे। उसने सोचना छोड़ भी दिया, लेकिन वह फ्लैट न
जाने क्यों उसे आकर्षित करता? कभी कभी उसे लगता कि इसका कारण
मिस कैप्री हैं। कैप्री- जिसके बारे में वह सिर्फ दो बातें जानता
है- एक तो यह कि उन्होंने वही फ़्लैट पसंद किया था जो उसे पसंद
था और दूसरी यह कि वे अक्सर अपने फ्लैट की बाल्कनी में ही आकर
बैठती हैं। उनसे कभी हाय-हैलो नहीं होती, फिर भी मखीजा को न
जाने क्यों लगता कि वे बराबर उसकी गतिविधियों पर निगाह रखती
है। यह उसे अच्छा लगता। धीरे-धीरे वह मिस कैप्री का इतना आदी
हो गया कि अगर आते-जाते कभी एक बार भी वे उसकी आँखों से ओझल
होतीं तो उसे खालीपन का एहसास होता। एक मौन नाता-सा बँध गया
था।
कैप्री के चेहरे से उनकी आयु
का अनुमान लगाना मुश्किल था। झुर्रियों के बीच केवल उनकी आँखें
ही पहचानी जा सकती थीं, जिस पर चढ़ी ऐनक का बड़ा-सा फ्रेम दूर
से दिखता था। सुबह आफ़िस जाते समय अक्सर वे बालकनी में बैठी
एकटक सामने देखती हुई ऐसी लगती, मानों वह अपने सुदूर अतीत की
टूटती-बिखरी कड़ियों को समेट रही हों। उनको देखकर अक्सर यह बात
मखीजा के मस्तिष्क में आती और वह भी अपने अतीत में खोने लगता।
अम्मा भी तो अपने अन्तिम समय में बिलकुल ऐसी ही हो गई होंगी।
इधर पिछले तीन सालों से घर से कोई सम्बन्ध भी स्थापित नहीं हो
सका है। भाई के काम में गड़बड़ आई और घर में पैसों की कमी हो
गई। भाई ने मदद माँगी, लेकिन यह वही समय था जब यहाँ
निर्यात का काम आरम्भ किया था। पैसे नहीं भेज सका वह। भाई का
कारोबार बैठ गया। बस इसी समय से परिवार से अलगाव आरम्भ होने
लगा। धीरे-धीरे दूरियाँ बढ़ती गईं। बढ़ती दूरियों से कभी-कभी
उसे दुःख तो होता, लेकिन जीवन की आपा-धापी और कुछ कर गुज़रने
की उमंग ने बहुत ध्यान देने नहीं दिया। धीरे धीरे सम्पर्क भी
समाप्त होने लगा। इसी बीच व्यापार के कारण उसका संपर्क नैन्सी
से हुआ और वह साथ रहने लगी। उसने प्रयत्न तो बहुत किया कि
विवाह कर ले, लेकिन वह तैयार नहीं हुई। बढ़ते हुए आयात-निर्यात
के काम ने इधर बहुत कुछ सोचने का समय भी नहीं दिया।
नैन्सी जैसे जीवन में हवा के
झोंके की तरह आई थी, वैसे ही चली गई। फिर लिजा, रोजी,
जेनिथ...आईं लेकिन कोई ठहराव नहीं रहा। तभी ख़बर आई कि माँ
दुनिया से चली गई। एकाएक सीढ़ियों से उतरते हुए उसका ध्यान
कैप्री की तरफ़ चला गया। कैप्री की तरफ़ देखा तो हमेशा की तरह
माँ का ख़याल आया। माँ तो मर गई! कैप्री भी शायद यहाँ मौत की
प्रतीक्षा कर रही हैं। उसके पैर सीढ़ियों पर थम गए। बेचारी!
बिल्कुल अकेली!
माँ को तो अकेले मौत की
प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी होगी। भाई था माँ के पास। दीदी भी आ
गई होंगीं? दीदी जब मरेंगी तो भाई जाएगा। जीजा जी। मधुर,
वनिता, दीदी के बच्चे, अब तो दोनों बच्चे भी स्कूल जाने लगे
होंगे? भैया के बच्चे! वहाँ तो बहुत सारे सम्बंधी हैं। अचानक
स्वंय की तरफ़ ध्यान जाते ही अन्दर से एक सिहरन-सी उठी। यहाँ
सब है। धन वैभव! सब कुछ लेकिन अपना कौन है? अकेलापन और भीड़ का
सन्नाटा! कोई संबंधी नहीं। शादी हुई होती तो... संभवत: कैप्री
ने भी शादी नहीं की इसीलिए अकेली हैं। उसी समय एक बार मखीजा ने
कैप्री की तरफ ध्यान से देखा। वे शून्य में एकटक देखे जा रही
थीं। स्थिर शिलाखण्ड की भाँति। अचानक उसे कैप्री को देखते हुए
लगा कि वह खुद भी पत्थर में तब्दील हो रहा है। उसने पूरे शरीर
को झिंझोड़ा और तेज़ गति से सीडियाँ उतरता हुआ नीचे चला गया।
मखीजा ने सारे दिन अपने काम
निपटाए। आशानुसार उसकी डील भी हो गई, लेकिन बार-बार कैप्री का
चेहरा सामने आ जाता, फिर माँ! न जाने क्यों आज वह बार-बार अतीत
की स्मृतियों में खो रहा था। फगवाड़े की वह गली गोधन में
विरासत में मिला लखौरी ईंटों का मकान, गली मुहल्ले के लोग,
गवर्मेन्ट हाई स्कूल की वह पुरानी बिल्डिंग! और रामगढ़िया कालेज
का लम्बा-चौड़ा खेल का मैदान! फिर दिल्ली की यात्रा। पहली बार
दिल्ली में बाबू जी के मित्र सरदार बिशन सिंह जी के साथ मित्रता
का आरम्भ, जो उसे दिल्ली में अपने पास पढ़ने
के लिए लाए थे। उनसे मित्रता तो आज भी जारी है लेकिन पढ़ाई पूरी होने के बाद भाई के लाख कहने के
बावजूद वह जालन्धर नहीं गया। दिल्ली में भी नहीं रुके उसके पैर।
वहाँ से यूरोप!
पहले तो नौकरी के सिलसिले में
आया, लेकिन जिसकी उड़ान ऊँची हो उसे भला चारदीवारी में कौन बाँध
सकता है? नौकरी छोड़ दी। आयात-निर्यात की छोटी-छोटी दलाली से
अपना काम आरम्भ करके फिर रुका नहीं मखीजा। आगे-आगे बढ़ता
रहा...बढ़ता ही रहा। फिर पीछे मुड़कर देखा नहीं। |