मार्था भी
जिधर को कदम उठे चल दी। कुछ अंदाज़ा ही नहीं था कि किधर जा रही
है। पतली-सी एक पगडंडी थी जिसके दोनों ओर शाह-बलूत के पेड़
अपने हरे-हरे पत्तों से मुक्ति पा चुके थे। काली-काली शाख़ें
लिए नंग धड़ंग, लजाए-लजाए, शर्मिंदा-शर्मिंदा से खड़े थे। पीले
और आग के रंग में रंगे हुए पत्ते मार्था के कदमों के नीचे
दब-दब कर ऐसे कराह रहे थे जैसे किसी बच्चे का गला घोंटा जा रहा
हो। जो हाथ बढ़ा-बढ़ा कर सहायता माँग रहा हो, गिड़गिड़ा कर
प्रार्थना कर रहा हो कि मुझे बचाओ, मुझे बचाओ। मेरा क्या कुसूर
है? मैंने क्या अपराध किया है? मुझे किस बात की सज़ा दी जा रही
है? मार्था घबरा कर तेज़-तेज़ और लंबे-लंबे कदम उठाने लगी,
किंतु आवाज़ भी वैसी ही तेज़ होती चली गई। मार्था का गला रूँध
गया। कदम रुक गए और वह पास ही पड़ी एक बेंच पर बैठ गई। आँखें
डबडबा आईं और फिर सबकुछ धुँधला-धुँधला नज़र आने लगा। आँखों से
मोटे-मोटे और गरम-गरम आँसू गालों पर बहने लगे। जैसे उसके
आँसुओं में सारा संसार डूब गया हो, ग़र्क हो गया हो। आँखें बंद
थीं पर सब कुछ देख रही थीं। दरख़्तों की ओट से क्लिनिक की
इमारत दिखाई दे रही थी। किंतु मार्था बार-बार इस भवन से आँखें
चुरा रही थी कि कहीं कोई यह न समझ जाए कि मारिया को उसने वहाँ
छोड़ा हुआ है। फिर हर व्यक्ति के दिमाग़ में हज़ारों प्रश्न
उठेंगे. होंठों तक आएँगे और उनका इज़हार किया जाएगा। मार्था
किस किस को जवाब देगी? कितने झूठ बोलेगी? एक झूठ से दसियों
सवाल और पैदा होते हैं। अगर एक बार हिम्मत करके सच बोल दिया
जाए, तो सिर्फ़ एक ही जवाब तमाम सवालों का जवाब हो जाता है।
किंतु सच बोला कैसे जाए? बेहद कड़वा सच! चुभने वाला सच कैसे
होठों तक लाया जाए? कैसे अदा किया जाए? बेचारी मार्था इसी
उधेड़बुन में बैठी रोती रही, सिसकती रही। पतझड़ की मार खाए
पत्तों को कुचलते हुए राहगीर आते रहे जाते रहे। मार्था बैठी,
पत्तों की चीख़ पुकार सुनती रही। घड़ी देखी, अभी बहुत समय
बाक़ी था। क्या करे? किधर जाए?
प्रकृति का तमाशा भी ख़ूब है।
सृजन में समय लगता है जबकि विनाश कुछ ही पलों में हो जाता है।
दम घुटा जा रहा था। खुले आसमान के नीचे भी साँस लेना दूभर हो
रहा था। मार्था का जी घबराने लगा और बेइख़्तियार जी चाहने लगा
कि दौड़ कर किसी अंधेरे कमरे में जा कर, किसी की बाहों में
मुँह छुपाकर अपने सारे दुख उसकी सफ़ेद टी-शर्ट की आस्तीन में
ख़ुश्क कर दे। वह अपना दायाँ हाथ मार्था के बालों में फेरता
रहे, पेशानी पर प्यार करता रहे और कहता रहे, "सब ठीक हो जाएगा,
सब ठीक हो जाएगा।"
मार्था की अनिश्चित गहरी गहरी साँसें और आहें सुन-सुन कर सीने
से लगा ले और हल्की-हल्की डाँट के अंदाज़ में अपनी नर्म और
कानों में शहद घोलती आवाज़ में कहे, "तुम तो पागल हो।" किस कदर
इंतज़ार रहता था उसके मुँह से पागल शब्द सुनने का। जब वह पागल
कहता तो मार्था भी कहती, "तुम दीवाने हो!" वह और ज़ोर से गले
लगा लेता और प्यार करता।
मार्था साँस रोके उसकी आग़ोश
में बच्चों की तरह लेटी रहती। सुरक्षा का अहसास किस कदर यक़ीन
पैदा करता है ! प्यार में कितनी परिपक्वता पैदा हो जाती है!
चाहत किन हदों को छूने लगती है! यह केवल दो सच्ची मुहब्बत और
एक दूसरे से ख़ुलूस बरतने वाले और एक दूसरे पर यक़ीन रखने वाले
ही समझ सकते हैं। कभी मार्था का सिर उसके कंधों पर होता और कभी
उसका सिर मार्था के पहलू में। ऐसा महसूस होता जैसे उसका अपना
बच्चा गोदी में छुपा हुआ हो। भाई हो, बाप हो, पति हो या प्रेमी
– नारी तो एक माँ होती है। वह समय असमय ममता न्यौछावर करने को
मजबूर होती है। बिल्कुल इसी तरह कभी-कभी सारी रात उसका घने और
चमकदार बालों वाला ख़ूबसूरत सिर अपने पहलू में छुपाए पड़ी
रहती। बालों में उँगलियाँ फेरती, पेशानी चूमती और ठोड़ी और
गर्दन को महसूस करती। कभी-कभी वह सोते में आवाज़ देता। मार्था
जवाब में प्यार करके अपने अस्तित्व का अहसास दिलवा कर बिल्कुल
बच्चों की तरह उसके सिर को और ज़ोर से भींच कर सुला देती। वह
फिर एक मासूम बच्चे की तरह इत्मिनान कर लेता कि मार्था गई नहीं
है, और फिर गहरी नींद सो जाता। अचानक अलार्म की घंटी से दोनों
जाग जाते और एक दूसरे से लिपट जाते कि यह जुदाई की घड़ी कैसे
बरदाश्त करेंगे। थोड़ी देर में कार रवाना हो रही होती और वह
खिड़की में से झाँक कर हाथ हिला रहा होता – एक क़ैदी की तरह।
चाहते हुए भी वह उसको विदा नहीं कर पाता था। अंधेरे में मार्था
को जाते देखता तो घबरा जाता और मिन्नत करता कि थोड़ी और रौशनी
हो जाने दो फिर चली जाना। वह जिस रौशनी की बात करता वह तो केवल
उसके व्यक्तित्व से थी। जहाँ वह होता, रौशनी ही रौशनी होती।
उससे दूरी ही अंधेरा पैदा करती। चाहे सूरज कितनी भी तेज़ रौशनी
क्यों न फैला रहा हो। यदि वह नहीं तो कुछ नहीं। और गाड़ी सड़क
पर फिसलती चली जाती।
मार्था शीशा उतार कर हाथ
हिलाती। हाथों से इशारा करके चुंबनों की बौछार करती। जब तक वह
नज़रों से ओझल न हो जाती वह हाथ हिलाता रहता और दूसरे ही लम्हे
टेलिफ़ोन की घंटी बजती। सोई-सोई-सी आवाज़ कानों में रस घोल रही
होती। "अब कहाँ तक पहुँच गईं?.. कैसी हो? ... ठीक हो?.. डर तो
नहीं रहीं?.... "
मार्था अपनी आवाज़ में विश्वास पैदा करते हुए कहती, "नहीं, डर
किस बात का? तुम जो साथ हो! "
जब तक घर न पहुँच जाती वह फ़ोन पर हिम्मत बढ़ाता रहता। गाना
सुनाता रहता और बार-बार मालूम करता कि अब वह कहाँ तक पहुँच गई?
"
मार्था बताती कि वह घर के
अंदर जा रही है। वह फ़ौरन उदास हो जाता और कहता, "तुम बहुत याद
आ रही हो। और ज़िद करता कि छोड़ कर मत जाया करो, बस अब हमेशा
के लिए आ जाओ।"
मार्था उसे दिलासे देती, बहलाती, प्यार से चुमकारती और घर में
दाख़िल हो कर तुरंत सो जाने की हिदायत देती। रूँधी-रूँधी आवाज़
में शुभरात्रि कहती और फ़ोन बंद कर देती। |