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सभी एक दूसरे से आँखें चुरा रहे
थे।
अजब-सा माहौल था। हर इंसान पत्र-पत्रिकाओं को इतना ऊँचा उठाए
पढ़ रहा था कि एक दूसरे का चेहरा तक दिखाई नहीं दे रहा था।
सिर्फ़ कपड़ों से अंदाज़ा होता था कि कौन एशियन है और कौन
ब्रिटिश, वर्ना चेहरे तो सभी के ढँके हुए थे। और जो मुजरिम थे
वो शांत और बेफ़िक्र बैठे थे, जैसे उन्होंने कोई जुर्म किया ही
न हो। मुजरिम पैदा करने वाली तो बस माँएँ थीं।
कुछ सिरफिरे तो यहाँ तक कह देते थे कि भगवान का भी तो यह जुर्म
ही है जिसने इस सृष्टि की रचना की। क्या मिला उसे? क्या हासिल
हुआ? हर पल हर लम्हा अपने विद्रोही बंदों के हाथों ज़लील ही तो
होता रहता है! हर घड़ी उसे चुनौती दी जाती है, ललकारा जाता है।
कितने लोग सच्चे दिल और बिना किसी स्वार्थ के उसे याद करते
हैं? सिर्फ़ शिकायतें, फ़रियादें और मुसीबत ही में उसे याद
किया जाता है।
बिल्कुल उसी तरह मारिया की माँ मार्था भी अपनी बेटी के समय से
पहले माँ बनने की घड़ी से शर्मिंदा-शर्मिंदा, भारी-भारी कदमों
से, क्लिनिक से बाहर निकल रही थी। जाते-जाते अपनी ही तरह की दो
तीन माँओं से उसकी मुठभेड़ हो गई। सबने नज़रें झुका लीं। ऐसा
महसूस हो रहा था जैसे सभी कब्रिस्तान में मुर्दे दफ़न करने जा
रहे हों। सबके चेहरे उदास-उदास, बेरौनक़, मुरझाए-मुरझाए से लग
रहे थे। जैसे सब कुछ लुट गया हो – कुछ न बचा हो।
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