क़मीज़ें यदि सब मैली हो गई हों
और जेब में पैसा न हो, तो इस मशीन से यह कहने से काम नहीं
चलेगा, ''रामू, यह कमीज़ शाम तक चाहिए हमें और देखो, धुलाई
अगले हफ़्ते मिलेगी।''
हम दोनों की हँसी वाशिंग-मशीन के शोर के ऊपर छा गई थी, और
आसपास की मशीनों में अपने वस्त्र डालने वाले कोट-पैंटधारी,
चौंक-चौंक कर हमारी ओर देखने लगे थे।
पर वह डेढ़ वर्ष पुरानी बात
है।
तब मुझे शिकॉगो आए हफ़्ता-भर भी नहीं हुआ था। उस दिन सवेरे ही
हम लोग 'कोऑपरेटिव हाउसिंग' में एक फ्लैट देखकर आए थे। फ्लैट
आरामदेह था, पर कीमत भी काफ़ी थी। सोचते-से स्वर में भैया बोले
थे, ''देख निर्मल, सात सौ डॉलर 'डाउन पेमेंट' देने पर, हमें हर
महीने केवल दो सौ डॉलर देने पड़ेंगे, और जैसे ही पूरी कीमत
चुकता हो जाएगी, यह फ्लैट हमारा हो जाएगा। नगर में ऐसा अच्छा
फ्लैट किराए पर लेंगे, तो एक सौ पचहत्तर से कम में नहीं
पड़ेगा।''
मैं चुप-चुप सुनता रहा था।
भैया अपनी ही धुन में कहते जा रहे थे, ''तेरी पढ़ाई डेढ़ साल
में पूरी हो जाएगी, ज़्यादा-से-ज़्यादा दो साल में। तुझे नौकरी
मिल जाएगी, तो कमल को यहाँ बुला लेंगे। तीनों भाई मिलकर
रहेंगे। साथ रहने से आराम भी रहेगा। ख़र्चे में भी बचत होगी।
कौन जाने शायद और कोई यहाँ आना चाहें- अम्मा, या बाबू जी, या
बरेली वाले चाचा जी। तब होटलों में कमरा खोजते नहीं घूमना
पड़ेगा।''
दो दिन पहले ही मैं आया था।
चलते समय माँ ने कहा था, ''देख बेटा, वहाँ ज़्यादा अक्लमंदी न
छाँटना। जैसे बड़े भैया कहें वैसे ही करना, परदेश में बड़ों की
बात मानकर चलना ही ठीक है।''
माँ की वही बात मेरे कानों में गूँज रही थी। अतः कुछ न कहकर,
मैंने चुपके से स्वीकृति में सिर हिला दिया था।
अगले ही दिन, हम लोग अपने नए फ्लैट में आ गए थे।
वह फ्लैट आज भी उतना ही आरामदेह और सुविधाजनक है, किंतु आज
उसका मालिक कोई और है। और मेरे हाथों में यह चिट्ठी है- छोटे
भाई कमल की। इसके खूबसूरत, बारीक अक्षरों के बीच मानों उसका
उत्सुक चेहरा चमक रहा है- भैया, बोलो, तुम मुझे कब अपने पास
बुला रहे हो?
मार्गरेट लॉन्ड्रोमैट के बाहर
निकल आई हैं। अब वह चौराहे पर खड़ी हरी बत्ती की प्रतीक्षा कर
रही हैं। शीघ्र ही लाल बत्ती हरी में बदल जाएगी। वह सड़क पार
कर, सामने के इस दरवाज़े में कदम रखेगी, और अपनी ऊँची एड़ियाँ
खटकाते, निकट आकर, मेरे पास पड़ी इस कुर्सी पर बैठ जाएगी।
आधे घंटे तक वस्त्र मशीन में धुलते रहेंगे। आधे घंटे मार्गरेट
को मेरे पास बैठने और बातें करने की फ़ुरसत रहेगी। बस, इससे
अधिक नहीं, मशीन से कपड़े निकलते ही उसे अपने घर लौटना होगा,
क्यों कि 'ओवन' में वह मुर्गा पकने के लिए रख आईं हैं और ओवन
में लगी घड़ी में पकने का समय 'सैट' कर चुकी हैं। यदि वह समय
से नहीं पहुँचेगी, तो मुर्गा ओवन में ही जल जाएगा, और खिड़की
बंद उन दो कमरों में गंध भर जाएगी।
सवेरे से शाम तक का उसका
जीवन, इन्हीं घरेलू यंत्रों में लगी, ऑटोमैटिक सुइयों के सहारे
चलता है। जब भी उसे देखता हूँ, मुझे लगता है- मशीनों के साथ
ज़िंदा रहने से, इंसान को भी मशीन बनना पड़ता है।
और आज की तरह, कभी यों अकेले दो क्षण चुपचाप बैठने का अवकाश
मिल पाता है, तो मन में दबी वह बात घबराई-सी उभर आती है- इस
मशीन-सी दुनिया में रहकर, क्या मैं मशीन बनता जा रहा हूँ? क्या
मैं भी इंसानियत के वे प्यारे-प्यारे रेशे खोता जा रहा हूँ?
मन छटपटा उठता है और बोझिल-सी वह आवाज़, अवचेतन के गीले गारे
पर, कसे तार का-सा निशान छोड़ जाती है- तेरी एक ज़िंदगी पीछे
हैं, एक कहीं आगे हैं। इन दोनों के बीच, यह जो आज की ज़िंदगी
है, इसका सूत्र कहाँ है, और परिणति कहाँ है?
दरवाज़ा खुलता है और हवा के
एक हलके झोंके के साथ मार्गरेट अंदर कदम रखती है। आज उसने नीचे
गले का ढीला जंपर पहना है। उसी रंग की, कसी हुई 'शॉर्ट पैंट'
है, जो घुटनों तक नहीं पहुँचती। पैरों में भूरे रंग के 'फ्लैट'
जूते हैं, और हाथ में काग़ज़ का खाली थैला है।
थैला मेज़ के एक पाए के सहारे टिका, वह मेरी ओर देखकर
मुस्कराती है,
''हलो, निर्मल!''
''हैलो, मार्ज! हाउ आर यू?''
'फाइन, थैंक यू!'
बैरा आकर कॉफी का ऑर्डर ले
जाता है। मार्गरेट चुप बैठी खिड़की के बाहर ताकती रहती हैं।
आजकल जब वह इस प्रकार चुप बैठती है, तो मेरा मन डर जाता है,
क्यों कि मैं जानता हूँ पिछले दिनों से उसकी इस चुप्पी में एक
प्रश्न उभर रहा है। दिन-ब-दिन वह प्रश्न अधिक ज़ोर पकड़ता जा
रहा है, किंतु मैं उससे घबराता हूँ। मैं उस प्रश्न को सुनना
नहीं चाहता। मुझे डर लगता है। मेरा मन अभी उसका उत्तर देने के
लिए तैयार नहीं, अभी वह सोचने के लिए कुछ और समय चाहता है।
काउंटर पर से उठकर, कोई हमारी ओर आता है, ''हलो, मार्जी!'
मार्गरेट चौंककर सिर घुमाती है। उसकी नीली आँखों में चमकदार
खुशी की चादरें-सी बिछ जाती हैं, ''ओह, हलो, पीटर!''
अचानक मार्गरेट को ध्यान आता है कि वह मेरे साथ हैं।
मुड़कर वह मेरी ओर देखती है, ''निर्मल, तुम पहले कभी पीटर से
मिले हो? हम दोनों एक ही दफ़्तर में काम करते हैं। पीटर, यह
मेरे मित्र निर्मल कुमार हैं।''
कुर्सी से ज़रा-सा उठ, मैं पीटर से हाथ मिलाता हूँ, ''बड़ी
खुशी हुई आपसे मिलकर!''
''मुझे भी, '' वह मार्गरेट की ओर देखता है, ''मार्जी, पास के
स्टोर से मुझे कुछ खरीदना है। क्या तुम मेरी मदद कर सकोगी?''
''क्यों नहीं, ज़रूर। निर्मल! क्या तुम दो मिनट के लिए मुझे
अवकाश दोगे?'' कहते-कहते वह उठ खड़ी होती है।
जा तो वह रही हैं। जाएगी ही।
औपचारिकता निभाने के लिए मैं भी कह देता हूँ, ''ज़रूर,
ज़रूर।''
मुसकुराकर वह चल देती हैं, पीटर आगे बढ़ दरवाज़ा खोलता है।
मुड़कर, मार्गरेट मेरी ओर देख मुस्कराती है, और सखा-भाव से हाथ
ज़रा हिला, बाहर निकल जाती हैं।
मैं कुर्सी से पीठ टिकाकार बैठ जाता हूँ।
लगता है जैसे काउंटर पर बैठे व्यक्तियों की आवाज़ें सैंकड़ों
मील दूर से सुनाई दे रही हैं..जैसे...मेरी अवचेतना पर कसा तार,
ज़रा-सा सरक कर, एक और गहरी लकीर बना गया है...
आँखें खोली तो देखा सामने कॉफी है। बैरा आया होगा। प्याले
रखकर, लौट गया होगा।
सहसा मन न जाने कितना कड़वा हो उठा।
जेब में बॉल पॉइंट पैन निकाल, नैपकिन के एक कोने पर लिखा, ''मार्ज,
अचानक एक ज़रूरी काम याद आ गया, इसलिए जा रहा हूँ। संध्या को
घर पर ही रहूँगा, अवकाश हो तो फ़ोन कर लेना।''
नैपकिन उसके प्याले के नीचे दबा दिया। बैरे को बुलाकर पैसे
चुका दिए, और समझा दिया कि मार्गरेट के लौटने तक वह प्याले न
उठाए। उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया, तो मैं बाहर निकल, बस-स्टैंड
पर खड़ा हो गया।
मन पर बड़ी लकीर पुनः कसक
उठी-तेरी एक ज़िंदगी पीछे हैं, एक कहीं आगे हैं। उन दोनों के
बीच, यह जो आज का अंतराल है, इसका सूत्र कहाँ है और सम कहाँ
है?
निगाहें पीछे की ओर लौटती हैं, तो सूत्र खोजती ही रह जाती हैं-
कब हुई थी इस नई ज़िंदगी का शुरुआत?
-जब भैया ने व्यापार के सिलसिले में शिकॉगो आने का निश्चय किया
था, तब?
-या तब जबकि मैं रुढ़की इंजीनियरिंग कॉलेज की प्रवेश-परीक्षा
में उत्तीर्ण न हो सका था?
-या तब जबकि भैया की पमेला मार्टिन से पहली-पहली बार मुलाक़ात
हुई थी?
-या तब, जबकि आँसुओं से भीगा पत्र आया था माँ का, और पढ़कर
भैया बोले थे, ''उफ! हमारे घर की ये बड़ी-बूढ़ियाँ!''
-या तब, जबकि... |