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शरारत भी क्या... हम भाइयों से भरे परिवार में चारों तरफ़ लड़के ही लड़के तो थे। ले देकर एक बस रामसखी की बेटी जानकी ही थी जिसके साथ जिज्जी खेल सकती थीं, ख़ास करके गुड़ियों से। हम भाइयों को रोज़-रोज़ बैठकर उन गुड़ियों के तरह-तरह के कपड़े बदलना, रोज़-रोज़ बस वही खाना पकाने वाला खेल, बिल्कुल ही अच्छा नहीं लगता था और माँ को जिज्जी का जानकी के साथ खेलना। जिज्जी और जानकी में करीब-करीब बहनों जैसा रिश्ता जुड़ गया था। बिना कुछ बोले भी वह घंटों एक दूसरे के साथ खेल सकती थीं। कभी-कभी तो रामसखी भी लग जाती थी उनके खेल में। गुड़ियों के बिछौने, रंग-बिरंगी फ्राकें, सब उसी की तो सिली हुई हैं। माँ कितना भी डाटें मारें, इतवार की दुपहर को बाल सुखाने के बहाने जिज्जी अपनी गुड़िया लेकर चुपचाप बगीचे में निकल ही जाती थीं और जानकी भी तुरन्त वहाँ पहुँच जाती थी, मानो सुबह से इंतज़ार कर रही हो।

वहीं पीछे, अपने बगीचे के सर्वैंट-क्वार्टर में ही तो रहती थीं जानकी और उसकी माँ। बस इतना छोटा-सा ही, दो जनों का परिवार था उसका। उसके बापू को मरे तो आज तीन साल होने को आए। सुनते हैं उसके पहले उसका बाबा भी यहीं रहता था और बगीचे में माली का काम करता था जैसे जानकी का बाप करता था और उसकी दादी घर का, जैसे अब जानकी की माँ करती है। आज जिज्जी, जानकी वह खुद, सब कितने बड़े हो गए हैं।

जिज्जी पहली बार गोलू को लेकर घर आई हैं। गोल-मटोल गोलू बहुत ही प्यारा है। हम सब दिन-रात उसी की सेवा में लगे रहते हैं। पापा भी हँसकर छेड़ते रहते हैं, "आखिर मामा यों ही तो नहीं बन जाते।" कल सुबह-सुबह पापा को गोलू की पॉटी साफ़ करते देख माँ ने पापा को भी छेड़ ही दिया था, "आखिर नाना भी तो यों ही नहीं बन जाते।" बगल में नैपी पकड़कर खड़ा हरभजन भी मुसकुराता हुआ मम्मी से बोल पड़ा था, "यह सुख तो किस्मत वालों को ही मिलता है बहू जी। देखो हम चुपचाप बगल में खड़े हैं और बाबू जी आधी-रात में भी भाग-भागकर भैया का काम कर रहे हैं... यह ममता चीज़ ही कुछ ऐसी है।" गोलू क्या मानो पूरे घर में जैसे एक खुशी की लहर आ गई थी। अभी बस आँख लगी ही थी कि मम्मी की आवाज़ के शोर ने पूरे घर को जगा दिया।

"क्या काँय-काँय लगा रक्खी है? आइंदा इस पिल्ले को तो तू घर ही छोड़कर आया कर। ऐसा हेज भी किस काम का...? न खुद चैन ले... न दूसरे को लेने दे। दो घंटे में मर नहीं जाएगा यह।"
हाथ के बर्तन को ज़मीन पर रखकर जानकी ने गीले राख-सने हाथों से ही सर्वेश्वर सिंह को गोदी में उठा लिया। और थकी काया को चूसता सर्वेश्वर माँ की गोदी की राहत से पल भर को चुप भी हुआ, पर शायद छोटी-सी काया का दर्द बड़ा था और वह फिर से वैसे ही ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।

अचानक ही सबको चकित करती जिज्जी आईं और जानकी के राख सने हाथों से... 'ला मुझे दे' कहतीं, बिना जवाब सुने ही जानकी की गोदी से बच्चे को उठाकर कमरे में वापस चली भी गईं। उसी सहजता और सुगमता से जैसे बरसों पहले उसके हाथ से गुड़िया ले जाया करती थीं। सर्वेश भी बिल्कुल चुप हो गया, जाने उनके हाथों में क्या जादू था?
गोलू के लम्बे चौड़े साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर, खा पीकर सर्वेश आराम से सो गया। उसने गोदी की भी माँग नहीं की। यहाँ तो बिस्तर ही माँ की गोद से भी ज़्यादा गरम और गुदगुदा था।

घंटे भर बाद जब सब काम निबटाकर अपने गीले हाथों को धोती के पल्लू से पोंछती जानकी आई तो जिज्जी ने मुँह पर उँगली रखकर, दूर से ही इशारे में फुसफुसाकर कहा, 'बाद में ले जाना। बस अभी-अभी सोया है।' जानकी भी चुपचाप जैसे आई थी, चली गई। उसे अपनी सहेली पर पूरा विश्वास जो था। उनकी सह्रदयता को वह भली-भाँति जानती थी। जानती थी माजी कुछ भी कहें, समझें, जिज्जी की गोद में सर्वेश पूरी तरह से संतुष्ट और सुरक्षित रहेगा, बल्कि उससे भी ज़्यादा अच्छी तरह से रखेंगी वह तो उसे। इससे ज़्यादा और क्या चाहिए किसी माँ को। जानकी के होठों पर संतोष की मुस्कान थी और हाथ-पैरों में उमंग।

चार घंटे कैसे बीत गए जानकी को पता ही नहीं चला। आज उसने अपनी बीमार माँ को सर धोकर नहलाया। उनका बिस्तर भी बदला। और खिचड़ी भी खूब मन से बनाकर माँ को खिलाई बिना जलाए, जैसी माँ को अच्छी लगती है वरना सर्वेश्वर दयाल सिंह जी की फरमाइश पर तो हाथ का हर काम अधूरा ही छोड़ना पड़ता है उसे। माँ भी तो उसकी तरफ़दारी लेकर डँटियाने लग जाती हैं, "हमार नाती को जिच ना किया करो... हमार किसन कन्हाई पहले, अऊर कमवा पाछे-पाछे।"
"आज तो किसन-कन्हाई माँ और नानी को भूलकर मौसी के पास सो रहे थे। अरे एही तो दिन हैं ओके तनिक लड़ियाने के फिर तो बड़ा होके तोहरे लग्गे भी ना बैठ पइहँ। पहले पढ़ाई फिर आपन नौकरी-चाकरी।"
माँ-बेटी दोनों ही नन्हे सर्वेश के सुनहरे भविष्य में डूबी बैठी थीं। आज जानकी के पास वक्त ही वक्त था क्योंकि उसकी सहेली, उसकी बहना उसके जिगर के टुकड़े को सँभाले हुई थी। माँ के बाल काढ़ती जानकी सुनाए जा रही थी कैसे ससुराल में रोज़ सर्वेश्वर का बापू, चाहे कितना ही थका हो, जबतक सर्वेश्वर के साथ खेल न ले, सोता नहीं। असल में उसी ने तो बचवा की सब आदत बिगाड़ी हैं... जानकी के मुख पर गर्व और प्यार की चमक थी।
"क्यों हमारे जीजा जी की बुराई कर रही हो जानकी? आने दो उन्हें हम और सुरू मिलकर शिकायत करेंगे तुम्हारी। क्यों बेटू ठीक है न?" और छोटे-से बेटू ने चैन की अंगड़ाई लेकर मौसी को अपनी स्वीकृति दे दी। जिज्जी ने प्यार से उसका माथा चूम लिया। जिज्जी कब आईं माँ बेटी को बातों ही बातों में पता ही नहीं चल पाया था। माँ की खटिया के कोने को जानकी ठीक से झाड़ भी पाए इसके पहले ही जिज्जी और सुरू उस पर विराजमान थे। जिज्जी के हल्के से गुदगुदाने पर वह खिलखिलाकर हँस रहा था।
"मौसी को पहचानते हो क्या सर्वेश्वर दयाल सिंह?" जानकी ने खुशी और आभार में आए आँसुओं को धोती से पोंछते हुए बेटे से पूछा? नन्हा सर्वेश माँ की आवाज तुरन्त पहचान कर और कसकर हाथ पैर फेंकने लगा। इधर-उधर गरदन घुमाकर उसे ढूँढ़ने लगा। लगता था मानो उसके बीमार हाथ-पैरों में नई जान आ गई थी। पर साँस अभी भी खड़खड़ की आवाज़ के साथ ही चल रही थी।
"बस यों ही इसे लम्बे चौड़े नाम के साथ बुलाती ही रहेगी या इसका थोड़ा बहुत ध्यान भी रक्खेगी। ठंड के मारे पूरा सीना जकड़ा हुआ है। विक्स लगाकर खूब मालिश की है मैंने तब जाकर सो पाया था कहीं।" विक्स की शीशी जानकी को पकड़ाते हुए जिज्जी ने प्यार भरी शिकायत की।


अचानक जानकी की उदास आँखें अंगूठे से ज़मीन कुरेदती आभार के दो शब्द ढूँढ़ने लगीं पर जिज्जी की आँखों में तो बस प्यार ही प्यार था। मन की बातें खुद ही बाहर आने लगीं। अपनों से कैसी शरम? कैसा आडंबर?
"असल में जिज्जी दो ही स्वेटर हैं न इसके पास और इतनी जल्दी गीला कर देता है उन्हें। फिर जाड़े में सूखने में भी तो टाइम लगता है।" एक ही साँस में जानकी ने हिम्मत जुटाकर पूरी बात कह डाली।
जिज्जी सब समझ गईं। "तू आना शाम को। गोलू के दो-तीन स्वेटर जो छोटे हो गए हैं इसको बिल्कुल सही आएँगे। ऐसे तो बिचारा कभी ठीक ही नहीं हो पाएगा।" जिज्जी ने बच्चे की सेहत पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा।
जानकी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। "एक बात कहूँ जिज्जी, प्रणव बाबू को गोलू मत कहा करिए। सबसे पहले नाम से ही आदमी का पहचान होता है। आदर इज़्ज़त होता है। नाम हमेशा दमदार होना चाहिए।"
"अच्छा अब समझ में आया क्यों तू छोटू को सर्वेश्वर दयाल सिंह जी कहकर ही बुलाती है।" आदत से मजबूर जिज्जी एक के बाद एक प्यार के नाम दिए जा रही थीं उसे।
"अच्छा चलती हूँ मैं। गोलू नानी को परेशान कर रहा होगा।"
"चाय नहीं पिएँगी जिज्जी आप?" जानकी ने जाती हुई सहेली से पूछा।
"आज नहीं," मुसकुराती जिज्जी ने मुड़कर जवाब दिया, "और हाँ शाम को स्वेटर लेने आना मत भूलना।"

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