|  बहुत दिन बीत गए उनसे मेरी 
                    मुलाक़ात फिर नहीं हुई और उनका ख़याल भी मेरे जेहन से उतर गया। 
                    मैं रिसर्च के लिए आई थी। उसी में व्यस्त हो गई। इसी बीच 
                    विश्व-विद्यालय में उप कुलपति के यहाँ से निमंत्रण मिला। मैं 
                    भी उत्साह से भरी पार्टी के कपड़ों में अलग अपनी पहचान बनाने 
                    की नियत से गई। अंदर जाकर मैं देखने लगी शायद कोई परिचित मिल 
                    जाए क्यों कि यह पार्टी प्रवासी विद्यार्थियों की थी। फिर पास 
                    में खड़ी एक प्राध्यापक से बात करने लगी। थोड़ी देर बाद 
                    'इक्सक्यूज़ मी' कह कर एक महिला मेरे पास आकर खड़ी हो गईं। 
                    मैंने अपने दिमाग़ पर ज़ोर डाला। लगा जानती तो हूँ पर परिचय का 
                    सूत्र नहीं पकड़ पा रही हूँ। उन्होंने चहकते हुए याद दिलाया, 
                    ''आपसे सुबह की सैर पर मेरी मुलाक़ात हुई थी, कुछ महीने 
                    पहले।'' मैंने 'ओ हाँ हाँ, कह कर बड़ी ही अंतरंगता से पूछा, 
                    ''फिर दुबारा तो आपसे मिलना नहीं हुआ। मैं तो रोज़ घूमने जाती 
                    हूँ, पर आप किसी दिन दिखीं नहीं।'' 
                    ''मैं यहाँ थी ही नहीं। मैं 
                    शांति-आंदोलन में व्यस्त रहती हूँ और उसी सिलसिले में जर्मनी 
                    गई थी। मुझे भारतीय दर्शन में सब कुछ मिल जाता है। योगाभ्यास 
                    बहुत पसंद है उसके करने के बाद कितनी स्फूर्ति मिलती है। भारत 
                    में महावीर, बुद्ध और गांधी जैसे महान लोग हुए हैं। मैं सोच 
                    रही थी आपके यहाँ आत्मा की शांति के लिए क्या कुछ नहीं है। एक 
                    न एक दिन मैं भारत ज़रूर जाऊँगी। आपके यहाँ अहिंसा की धारणा 
                    कितनी ऊँची है।'' मेरा मन अंदर ही अंदर गदगद हो रहा था। हम 
                    कितने भी ग़रीब हों पर हमारे पास गर्व करने लायक बहुत कुछ है। मेरे लिए रास्ता थोड़ा सुगम 
                    हो गया। ऐसी बड़ी और औपचारिक पार्टियों में बातचीत का कोई सिरा 
                    मिल जाए तो समय आसानी से कट जाता है। अन्यथा छुट्टियों में 
                    कहाँ गए या मौसम की बात करके पूरी शाम बिताना आसान नहीं होता। 
                    मैंने कहा, ''हाँ, धारणा तो सचमुच अच्छी है, पर सब लोग इसमें 
                    ईमानदारी से विश्वास करते हैं यह भी सच नहीं है।'' इस बातचीत 
                    में खिंचे और भी तीन चार लोग पास आ गए, और उन्होंने पूरी तरह 
                    से भारतीय दर्शन और अहिंसा में अपना उत्साह दिखाया। अहिंसा की 
                    बात आते ही खाने-पीने की बात भी आ गई। जानवरों के प्रति अपनी 
                    ममता और उत्तरदायित्व को महसूस करते हुए उन्होंने बताया कि 
                    उनके मन में अपार करुणा है। मेरा मन कुछ हीन भावना से भरता जा 
                    रहा था। इसी वक्त एक दूसरी महिला ने अपने तर्क दिए, ''हाँ 
                    अहिंसा की बात तो ठीक है पर विकासशील देशों मे इतनी ग़रीबी है 
                    अगर लोग मांस नहीं खाएँगे तो और भी भूख से मरेंगे।'' इन सारे 
                    तर्कों को सुन कर मैं भ्रमित, चकित, बस चुप हो गई। मुझे लगा 
                    बातचीत का सारा सूत्र अब उन्हीं के हाथों में था, मैं अवाक। 
                    वैसे भारत के बारे में बोलना एक फ़ैशन-सा हो गया है इसका अहसास 
                    मुझे कुछ ही दिनों में हो गया था। और वही क्यों हमारे कुछ 
                    भारतीय बच्चे भी इस तरह बातें करते हैं जैसे कि वही अच्छी तरह 
                    सब कुछ समझते हैं, हमें उनसे सब कुछ सीखना है। वही कुछ एक 
                    संरक्षक की तरह शर्ली का बोलना भी मुझे लगा पर मैं उसकी तमाम 
                    बातें सुनती रहती। इसी बीच मिसेज़ मार्टिन आईं और बोलीं चलिए 
                    खाना लग गया है, खाते वक्त आराम से बातें करिए। फिर मेज़बान का 
                    कर्तव्य निभाते हुए उन्होंने बताया कि शाकाहारी खाने में 
                    क्या-क्या है और कहाँ है। शर्ली ज़रा ऊँची आवाज़ में 
                    बोलीं, ''मैं तो शाकाहार ही लेती हूँ।'' सबने खाना ले लिया और 
                    फिर बातें होने लगी। शांति आंदोलन, पशु संरक्षण से लेकर 
                    आतंकवाद, मुस्लिम समाज गरज कि कुछ भी छूटा नहीं।उस दिन की बातचीत से मुझको को लगा कि शर्ली के विचार औसत लोगों 
                    से बहुत अलग हैं। शायद उन्होंने काफ़ी पढ़ा भी है। भारतीयता के 
                    प्रति उनका सहज झुकाव भी है। रात काफ़ी बीत चली थी, लोगों ने 
                    धीरे-धीरे खिसकना शुरू कर दिया था। मैंने भी मेज़बान को 
                    धन्यवाद दिया और शर्ली के साथ बाहर आ गई।
 रास्ते भर मैं शर्ली के बारे में सोचती रही। क्या शर्ली सचमुच 
                    निश्छल स्वभाव की है।
 दुबली लेकिन क़द में ख़ूब ऊँची, चेहरे पर अभिजात्य का एक झीना 
                    परदा, चाल में आत्म-विश्वास की झलक सब कुछ मिला-जुला कर देखने 
                    में अच्छी लगती थीं। बातचीत में बेहद उत्साह। एक गर्व मिश्रित 
                    आतुरता। मैं मन ही मन शर्ली से प्रभावित हो रही थी।
 कुछ दिन बीते मुझको सुबह-सुबह 
                    शर्ली फिर मिल गईं। अच्छा लगा। बड़ी देर तक खड़ी-खड़ी बातें 
                    करती रहीं और तभी बोलीं, ''अंजू मैं फिर बाहर जा रही हूँ। अंजू 
                    ने पूछा, ''अब कहाँ जा रही हो शर्ली?''''एक रैली है, जो जेल के एशियाई कैदियों के लिए हो रही है, 
                    उन्हें मांसाहारी खाना देते हैं। इसलिए वे खा नहीं सकते। अतः 
                    किसी को तो कुछ करना होगा। पदाधिकारियों को कोई बात जल्दी समझ 
                    में नहीं आती, इतने ज़िद्दी है कि क्या कहें।''
 मैंने कहा, ''आप तो इतना सोचती हैं। कमाल है। आप की इन लोगों 
                    के प्रति सच्ची सहानुभूति देख कर बस कुछ भी कहा नहीं जाता।'' 
                    शर्ली का सर थोड़ा और ऊँचा हो गया।
 यद्यपि मैं चाहती नहीं थी, मन नहीं होता था। फिर भी शर्ली के 
                    सामने पड़ते ही अनायास ही मेरे मुँह से कुछ न कुछ अनचाहा निकल 
                    ही जाता।
 शर्ली ने कहा,  ''नहीं नहीं, मैं तो बहुत अपने को अपराधी अनुभव 
                    करती हूँ। क्या करूँ ऐसा ही मेरा स्वभाव है।''
 अब शर्ली और मेरी मुलाक़ात अक्सर ही होती रहती, और फिर यह 
                    मित्रता भी परवान चढ़ती रही। शर्ली व्यक्तिगत बातें ज़रा कम ही 
                    करती, अधिकतर रैली या दार्शनिक विचार, जेल, रेस रिलेशंस आदि पर 
                    ही बातें होतीं। मैं मन ही मन सोचती यह मुझे क्या हो जाता है, 
                    मैं कुछ बोल क्यों नहीं पाती, आख़िर मैंने भी उच्च शिक्षा पाई 
                    है। फिर मन को समझा लेती मैं अभी इस देश के बारे में अधिक 
                    जानती नहीं हूँ।
 एक बार मिलने पर मैंने शर्ली से एक व्यंजन विधियों की किताब के 
                    बारे में पूछा कि वह कैसी है। शर्ली ने मुझे तुरंत निमंत्रण 
                    दिया, ''मेरे घर मंगलवार को आओ अगले हफ़्ते। मैं मंगलवार को 
                    बेकिंग करती हूँ। अच्छा साथ रहेगी।'' बात पक्की हो गई। दो दिन 
                    बाद शर्ली का फ़ोन आया, ''अंजू मेरी एक मित्र उधर रहती है, 
                    फ्रीडा उसके दो छोटे बच्चे हैं अगर तुम लिफ़्ट दे दो तो वह 
                    बच्चों के साथ आराम से आ जाएगी। उसके पास गाड़ी नहीं है।'' 
                    मैंने कहा, ''हाँ हाँ यह कौन-सी मुश्किल बात है। आप उनका पता 
                    दे दीजिए।''
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