|  क़मीज़ उतारे पंखे के सामने बैठा और आइसक्रीम 
                    खाता वह आदमी अचानक ही आई इस गर्मी की लहर के सारे मज़े उठा 
                    रहा था। रिधू का तो जैसे मन ही पढ़ लिया था उसने। ''अच्छा है 
                    ना यह मौसम गुलाबी-गुलाबी गर्मियों का. . .बिल्कुल तुम्हारी 
                    गुलाबी-गुलाबी सरदी की तरह, भारत की याद आ रही है ना?'' इसके पहले कि रिधू कुछ भी पूछ पाए कि 'इतनी अच्छी हिंदी कहाँ 
                    से सीखी,' या कुछ भी और, खुद ही बोल पड़ा वह,
 ''पाँच साल रहा हूँ भारत में। सन 42 से सैंतालीस तक। अब भी 
                    अक्सर जाता हूँ। मुझे भारत बहुत अच्छा लगता है। वहाँ के लोग 
                    बहुत अच्छे हैं, खाना-पीना, रीति-रिवाज़ सभी कुछ। दुनिया में 
                    छुट्टी मनाने की एक बेहद अच्छी जगह है। कितनी विविधता है उस 
                    देश में।''
 फिर खुद ही उसके पास आकर बोला वह, ''ले जाओ 
                    इसे। अच्छा लगेगा तुम्हें। लगेगा कि भारत ही वापस आ गया 
                    तुम्हारे बगीचे में या फिर तुम खुद ही वापस भारत पहुँच गईं।“ 
                    और अब रिधू कैसे रुक पाती, झटपट पैक करवाकर घर ले आई।रास्ते भर अब आँखें नए-नए सपने देख रही थीं। कभी पल भर में 
                    दिल्ली पहुँच जाती, चाणक्य पुरी के घर में जिसके दरवाज़े पर वह 
                    अमलतास का पेड़ था जहाँ वह दरबान बैठा करता था तो कभी अपने 
                    लंदन के घर के दरवाज़े पर अमलतास फूलों से लदा-फंदा दिखने लगता 
                    उसे। वैसे तो उसकी पूरी गली पर ही ये अमलतास की टहनियाँ 
                    छतरी-सी तन जाया करती थीं और जब-जब धूप से तपती सड़कों पर ये 
                    पत्तियाँ अपना सुनहरा कालीन बिछातीं तो रिधू तुरंत ही तपती धूप 
                    में भी चप्पल हाथों में लेकर चलने लग जाती।
 वह तो यहाँ भी वे सारे ही पेड़ लगाएगी, जो 
                    भारत में उसके अपने कमरे की खिड़की के नीचे थे, पेड़ जो एक 
                    हल्के हवा के झोंके के साथ खुशबू भर-भरकर उसका स्वागत किया करते 
                    थे। पेड़ जिनकी फूलों लदी टहनियाँ उसके कमरे की दीवारों को 
                    अपनी परछाइयों से तस्बीर-सा सजा देती थीं। रात की रानी, 
                    हार-सिंगार, सभी कुछ तो। यों तो यहाँ भी एपल ब्लौजम और चेरी 
                    ब्लौजम की पत्तियाँ वैसे ही झर-झर के सफ़ेद गुलाबी कालीन बनाती 
                    हैं पर इनमें उन फूलों जैसी मस्त महक नहीं होती और यह बात 
                    अक्सर ही रिधू की आत्मा तक को तरसाती रहती। गरमी की उन महकती 
                    रातों की याद आते ही आज भी रिधू का मन भारत के लिए तरसने लग 
                    जाता पर कौन कहता है कि भारत छूट गया रिधू से। उसने तो कभी दूर 
                    ही नहीं होने दिया भारत को खुद से। जहाज़ में बैठते ही आठ घंटे 
                    में ही तो दिल्ली पहुँच जाती है वह। कभी-कभी तो नागपुर वाली 
                    दीदी को ज़्यादा वक्त लग जाता है घर तक पहुँचने में। अब दादा 
                    जी की मौत पर ही ले लो,  दादा जी के बुलाते ही रिधू तो तुरंत 
                    ही पहुँच गई थी पर दीदी उनके गुज़रने के दो दिन बाद ही पहुँच 
                    पाईं थीं।  दूरियाँ तो बस मन में ही होती हैं और फिर 
                    जहाँ चाह वहाँ राह। अब रिधू को अपनी समझ और दूरदर्शिता पर 
                    कुछ-कुछ भरोसा-सा होने लगा था या फिर उसने खुद को फुसलाना सीख 
                    ही लिया था। ''सबकुछ मिलने लगेगा अब यहीं पर धीरे-धीरे, इन सब्ज़ी और 
                    मसालों की तरह ही।'' बच्चे उसके मन में उठती भारत के प्रति 
                    बेताबी को देखकर उसे समझाते न थकते। फिर रिधू खुदको भी तो रोज़ 
                    एक नई तसल्ली दे लेती थी, कभी यह कहकर कि, ये क्या समझेंगे 
                    अपनी मिट्टी से बिछुड़ने का गम, यह तो यहीं पैदा हुए हैं। तो 
                    कभी यह कहकर कि उसका दुःख बर्दाश्त नहीं होता इन बच्चों से 
                    इसीलिए तो नयी- नयी बातों से उसे बहलाना पुसलाना चाहते हैं ये। 
                    वैसे भी तो वही धरती-आसमान, सूरज, चाँद तारे हैं सब जगह पर. . 
                    .इतने दुःख की तो कोई बात नहीं। बस एक अपने लोग ही तो नहीं 
                    यहाँ पर, पर अब भारत में भी तो धीरे-धीरे कौन बचा रह गया है और 
                    फिर बेटी हो या बेटा किसी न किसी बहाने सबको ही अपना घर छोड़ना 
                    ही पड़ता है। घर की तो छोड़ो, एक दिन तो यह शरीर तक छोड़ना 
                    पड़ता है? रिधू ने नम हो आईं आँखें पोंछ डालीं, जबसे मम्मी 
                    पापा गए हैं, कैसी बहकी-बहकी बातें सोचने लग गई है वह और कितना 
                    बदला-बदला लगता है सब उसे, मानो धूप कुछ कम चमक वाली हो गई हो 
                    और चारो तरफ़ उमड़ती वह खुशी किसी ने चप्पा-चप्पा पोंछ डाली 
                    हो। अब तो वह बाजार में नयी रेशमी साड़ियों की सरसराहट और 
                    चूड़ियों की खनक तक पुलकित नहीं कर पाती उसे। जबसे पापा गए है 
                    कहाँ इतना घूमती फिरती वह। फिर क्यों इतना सोचती है भारत के 
                    बारे में, अब तो उसके बच्चों के भी बच्चे हैं। यहीं तो है उसका 
                    देश और यहीं तो है उसका पूरा परिवार!
 अभी कुछ दिन पहले ही तो केली और नयनतारा के 
                    फूल तक देखे थे उसने यहां इसी पास वाली चौमुहानी पर। कितना 
                    अच्छा लगा था उन्हें यहाँ इंगलैंड में देखकर उसे। स्नो ड्रौप्स 
                    के साथ-साथ सफ़ेद और गुलाबी, प्याजी फूल, नीली-नीली बूँदों में 
                    अनोखी छटा बिखरी पड़ी थी, मानो सियाह रात में आकाश रंग-बिरंगे 
                    तारों से भर आया हो।और तब घंटों स्केच करती कई वह अलसाई दुपहरियाँ याद आ गईं थीं 
                    रिधू को जब वह किसी ऐसे ही छतनारे पेड़ के नीचे बैठी फूलों को 
                    निहारती रह जाती थी। अब पोती को सिखाएगी स्केच करना. . .पहले 
                    बोलना और कलम पकड़ना तो सीख ले लाडली! 
                    लंगड़ी दौड़ मारती सोचपर रिधू खुद भी मुस्कुराए बगैर न रह सकी। 
                    किसने बोई खेती और किसने बुनी कपास? दादी का मुहावरा अनायास ही 
                    मुँह से निकला तो रिधू को भी आश्चर्य-चकित कर गया! कितनी माँ 
                    और दादी-सी ही होती जा रही है वह। कल ही तो खाने की प्लेट लेकर 
                    अवनी के पीछे-पीछे भाग रही थी, बिल्कुल वैसे ही जैसे दादी और 
                    माँ उसके पीछे भागा करती थीं कभी? सामने लटके शीशे में देख 
                    कनपटी तक लटके सफ़ेद बाल को माँ और दादी के ही अंदाज़ में ही 
                    कान के पीछे कर लिया उसने।
 घर पहुँचते ही ठीक मेन गेट के पास हाइडरेंजर की झाड़ के बगल 
                    में ही गाड़ भी दिया रिधू ने उसे।
 अब तो मानो रिधू के प्राण लटक गए थे उस पेड़ में। खिड़की से 
                    सटी खड़ी, निहारती ही रह जाती वह दिनभर उसे।
 ''शुरू शुरू में कुछ हफ़्ते दिन में दो बार 
                    थोड़ा-थोड़ा गुनगुना पानी डालना।'' चलते वक्त उस आदमी ने 
                    हिदायत दी थी, पर रिधू तो पूरी तरह से व्यस्त हो चुकी थी उस 
                    पेड़ की देख-रेख में। जितनी बार चाय बनाने जाती, केतली में 
                    दुगना पानी उबालती। और सबसे पहले बचा पानी पेड़ में जाता फिर 
                    किसी को चाय मिलती। दिन में बीस बार जाकर उन हरी-भूरी टहनियों 
                    को देख आती, कहीं नया पत्तियों का कोई कुल्ला तो नहीं फूटा, 
                    फूलों के कुछ नए गुच्छे तो निकल नहीं आए? पर दो दिन बाद भी. . 
                    .बस वही दो गुच्छे ही लटके दिखाई दिए निराश रिधू को। वापस घर 
                    में लौटते ही पति ने मज़ाक किया, ''कल देखना पूरा पेड़ निकल 
                    आएगा वैसे ही चाणक्य पुरी की तरह, फूलों से लदा-फंदा खड़ा हो 
                    जाएगा तुम्हारे दरवाज़े पर!'' रिधू भी तो यही चाहती थी, बिना कोई जवाब दिए, बस मन-ही-मन 
                    मुसकुराकर रह गई थी वह क्यों नहीं, देखना ज़रूर ही होगा ऐसा 
                    एक दिन!
 दिन क्या महीनों यों ही निकल गए उस बेसब्र इंतज़ार में। 
                    कहीं-कहीं कुछ कुल्ले फूटे भी थे, एक-आध पत्तियाँ आईं भीं थीं, 
                    पर खुद ही कुम्हलाकर भूरी भी पड़ गईं और झर भी गईं पर रिधू कब 
                    आस छोड़ सकी?
 ''बीबी जी, कहो तो इस सूखी लकड़ी को निकाल दूँ।'' जितनी बार 
                    माली पूछता, उतनी ही बार रिधू खुद टूट जाती अंदर-ही अंदर। अब 
                    वह पेड़ बस एक पेड़ नहीं, रिधू की अस्मिता से जुड़ चुका था. . 
                    .उसकी नज़र में पूरे भारत की आशाओं से जुड़ गया था। अगर एक 
                    भारतीय पेड़ तक को न रोप पाई वह इस धरती पर, तो भारतीय 
                    मान्यताओं और संस्कारों को क्या रोप पाएगी भला? यहाँ इंग्लैंड 
                    की इस धरती पर इसे पनपना ही होगा। हज़ारों उन शहीदों की ख़ातिर 
                    पनपना होगा, जिन्होंने देश के लिए जाने न्योछावर की थीं। आखिर 
                    हम भी तो इनके रंग में रंगे थे, हम पर से तो इनका रंग आजतक 
                    नहीं उतरा!.
 एक आधुनिक आत्मविश्वास से 
                    भरपूर आज़ाद भारत के सपने की ख़ातिर पनपना होगा इसे। हमारी इस 
                    गुलामी को भी तो अब अरसा गुज़र गया, वक्त और ज़माना दोनों ही 
                    बदलना चाहिए अब। यह सदी हमारी है, हमारे भारत की है. . .इसे तो 
                    पनपना ही होगा. . .फलना-फूलना ही होगा! रिधू का देश-प्रेम और 
                    स्वाभिमान दोनों ही बच्चों से मचलते रहते।तरह-तरह की खाद डालती रिधू उस पेड़ में, पर पेड़ पर कोई असर ही 
                    नहीं होता। पूरे जाड़े भर पाले से बचाकर रखा था उसने पॉलिथीन 
                    में लपेट-लपेटकर रखा था उस पेड़ को। हाथों से सहलाया, घंटों 
                    बातें कीं, इसलिए शायद मरा नहीं, पर रिधू की हिम्मत ही नहीं 
                    हुई कि कभी डंडी उठाकर भी बस एक बार देख भर ले कि पेड़ ने 
                    जड़ें पकड़ी भी या नहीं, उसे खुद पर और अपने भगवान पर एक अटूट 
                    विश्वास जो था।
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