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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.के. से शैल अग्रवाल की कहानी— 'बसेरा'


सोचा भी नहीं था कि यों मिलेगा. . .अचानक ही साथ हो लिया था आंचल से लिभड़ा-लिभड़ा! पलटकर हाथ में लेकर, खुशी से बल्लियों उलझते मन के साथ रिधू देखे जा रही थी। विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कुछ उसे. . .कैसे आया, कहाँ से आया यह?

फिर तो ढूँढ़ती आँखें बयार की बेचैनी से चारों तरफ़ घूम गईं और तुरंत ही ठीक आँख के सामने, वहीं दरवाज़े के पास मिल भी गया वह उसे. . .वही सुनहरा चमकता रंग, मानो आकाश का सारा सोना नाज़ुक पंखुड़ियों मे सिमट आया हो। वही रंग-रूप, आकार, सब कुछ तो वही था। झुककर नाम पढ़े, इसके पहले ही सेल्स काउंटर पर खड़ी लड़की समझाने आ पहुँची। ''कितना सुंदर है. . .है ना. . .जब पूरी रवानी में खिलेगा तो और भी सुंदर लगेगा! लबर्नम की नई किस्म है, पहली बार यहाँ इंग्लैंड में। हमारे नारंगी फूल जो आग की लपटों से चमकते हैं, उनसे थोड़ी फरक। इंडियन लबर्नम। हर साल इन्हीं दिनों खूबसूरत समां बाँध दिया करेगा।

''क्या तुम भारत से हो?''  अचानक ही वृद्ध से दिखते उस व्यक्ति ने काउंटर के पीछे से ही पूछा।
''हाँ।'' रिधू ने घूमकर देखा।

क़मीज़ उतारे पंखे के सामने बैठा और आइसक्रीम खाता वह आदमी अचानक ही आई इस गर्मी की लहर के सारे मज़े उठा रहा था। रिधू का तो जैसे मन ही पढ़ लिया था उसने। ''अच्छा है ना यह मौसम गुलाबी-गुलाबी गर्मियों का. . .बिल्कुल तुम्हारी गुलाबी-गुलाबी सरदी की तरह, भारत की याद आ रही है ना?''
इसके पहले कि रिधू कुछ भी पूछ पाए कि 'इतनी अच्छी हिंदी कहाँ से सीखी,' या कुछ भी और, खुद ही बोल पड़ा वह,
''पाँच साल रहा हूँ भारत में। सन 42 से सैंतालीस तक। अब भी अक्सर जाता हूँ। मुझे भारत बहुत अच्छा लगता है। वहाँ के लोग बहुत अच्छे हैं, खाना-पीना, रीति-रिवाज़ सभी कुछ। दुनिया में छुट्टी मनाने की एक बेहद अच्छी जगह है। कितनी विविधता है उस देश में।''

फिर खुद ही उसके पास आकर बोला वह, ''ले जाओ इसे। अच्छा लगेगा तुम्हें। लगेगा कि भारत ही वापस आ गया तुम्हारे बगीचे में या फिर तुम खुद ही वापस भारत पहुँच गईं।“ और अब रिधू कैसे रुक पाती, झटपट पैक करवाकर घर ले आई।
रास्ते भर अब आँखें नए-नए सपने देख रही थीं। कभी पल भर में दिल्ली पहुँच जाती, चाणक्य पुरी के घर में जिसके दरवाज़े पर वह अमलतास का पेड़ था जहाँ वह दरबान बैठा करता था तो कभी अपने लंदन के घर के दरवाज़े पर अमलतास फूलों से लदा-फंदा दिखने लगता उसे। वैसे तो उसकी पूरी गली पर ही ये अमलतास की टहनियाँ छतरी-सी तन जाया करती थीं और जब-जब धूप से तपती सड़कों पर ये पत्तियाँ अपना सुनहरा कालीन बिछातीं तो रिधू तुरंत ही तपती धूप में भी चप्पल हाथों में लेकर चलने लग जाती।

वह तो यहाँ भी वे सारे ही पेड़ लगाएगी, जो भारत में उसके अपने कमरे की खिड़की के नीचे थे, पेड़ जो एक हल्के हवा के झोंके के साथ खुशबू भर-भरकर उसका स्वागत किया करते थे। पेड़ जिनकी फूलों लदी टहनियाँ उसके कमरे की दीवारों को अपनी परछाइयों से तस्बीर-सा सजा देती थीं। रात की रानी, हार-सिंगार, सभी कुछ तो। यों तो यहाँ भी एपल ब्लौजम और चेरी ब्लौजम की पत्तियाँ वैसे ही झर-झर के सफ़ेद गुलाबी कालीन बनाती हैं पर इनमें उन फूलों जैसी मस्त महक नहीं होती और यह बात अक्सर ही रिधू की आत्मा तक को तरसाती रहती। गरमी की उन महकती रातों की याद आते ही आज भी रिधू का मन भारत के लिए तरसने लग जाता पर कौन कहता है कि भारत छूट गया रिधू से। उसने तो कभी दूर ही नहीं होने दिया भारत को खुद से। जहाज़ में बैठते ही आठ घंटे में ही तो दिल्ली पहुँच जाती है वह। कभी-कभी तो नागपुर वाली दीदी को ज़्यादा वक्त लग जाता है घर तक पहुँचने में। अब दादा जी की मौत पर ही ले लो,  दादा जी के बुलाते ही रिधू तो तुरंत ही पहुँच गई थी पर दीदी उनके गुज़रने के दो दिन बाद ही पहुँच पाईं थीं।

दूरियाँ तो बस मन में ही होती हैं और फिर जहाँ चाह वहाँ राह। अब रिधू को अपनी समझ और दूरदर्शिता पर कुछ-कुछ भरोसा-सा होने लगा था या फिर उसने खुद को फुसलाना सीख ही लिया था।
''सबकुछ मिलने लगेगा अब यहीं पर धीरे-धीरे, इन सब्ज़ी और मसालों की तरह ही।'' बच्चे उसके मन में उठती भारत के प्रति बेताबी को देखकर उसे समझाते न थकते। फिर रिधू खुदको भी तो रोज़ एक नई तसल्ली दे लेती थी, कभी यह कहकर कि, ये क्या समझेंगे अपनी मिट्टी से बिछुड़ने का गम, यह तो यहीं पैदा हुए हैं। तो कभी यह कहकर कि उसका दुःख बर्दाश्त नहीं होता इन बच्चों से इसीलिए तो नयी- नयी बातों से उसे बहलाना पुसलाना चाहते हैं ये। वैसे भी तो वही धरती-आसमान, सूरज, चाँद तारे हैं सब जगह पर. . .इतने दुःख की तो कोई बात नहीं। बस एक अपने लोग ही तो नहीं यहाँ पर, पर अब भारत में भी तो धीरे-धीरे कौन बचा रह गया है और फिर बेटी हो या बेटा किसी न किसी बहाने सबको ही अपना घर छोड़ना ही पड़ता है। घर की तो छोड़ो, एक दिन तो यह शरीर तक छोड़ना पड़ता है? रिधू ने नम हो आईं आँखें पोंछ डालीं, जबसे मम्मी पापा गए हैं, कैसी बहकी-बहकी बातें सोचने लग गई है वह और कितना बदला-बदला लगता है सब उसे, मानो धूप कुछ कम चमक वाली हो गई हो और चारो तरफ़ उमड़ती वह खुशी किसी ने चप्पा-चप्पा पोंछ डाली हो। अब तो वह बाजार में नयी रेशमी साड़ियों की सरसराहट और चूड़ियों की खनक तक पुलकित नहीं कर पाती उसे। जबसे पापा गए है कहाँ इतना घूमती फिरती वह। फिर क्यों इतना सोचती है भारत के बारे में, अब तो उसके बच्चों के भी बच्चे हैं। यहीं तो है उसका देश और यहीं तो है उसका पूरा परिवार!

अभी कुछ दिन पहले ही तो केली और नयनतारा के फूल तक देखे थे उसने यहां इसी पास वाली चौमुहानी पर। कितना अच्छा लगा था उन्हें यहाँ इंगलैंड में देखकर उसे। स्नो ड्रौप्स के साथ-साथ सफ़ेद और गुलाबी, प्याजी फूल, नीली-नीली बूँदों में अनोखी छटा बिखरी पड़ी थी, मानो सियाह रात में आकाश रंग-बिरंगे तारों से भर आया हो।
और तब घंटों स्केच करती कई वह अलसाई दुपहरियाँ याद आ गईं थीं रिधू को जब वह किसी ऐसे ही छतनारे पेड़ के नीचे बैठी फूलों को निहारती रह जाती थी। अब पोती को सिखाएगी स्केच करना. . .पहले बोलना और कलम पकड़ना तो सीख ले लाडली! लंगड़ी दौड़ मारती सोचपर रिधू खुद भी मुस्कुराए बगैर न रह सकी। किसने बोई खेती और किसने बुनी कपास? दादी का मुहावरा अनायास ही मुँह से निकला तो रिधू को भी आश्चर्य-चकित कर गया! कितनी माँ और दादी-सी ही होती जा रही है वह। कल ही तो खाने की प्लेट लेकर अवनी के पीछे-पीछे भाग रही थी, बिल्कुल वैसे ही जैसे दादी और माँ उसके पीछे भागा करती थीं कभी? सामने लटके शीशे में देख कनपटी तक लटके सफ़ेद बाल को माँ और दादी के ही अंदाज़ में ही कान के पीछे कर लिया उसने।
घर पहुँचते ही ठीक मेन गेट के पास हाइडरेंजर की झाड़ के बगल में ही गाड़ भी दिया रिधू ने उसे।
अब तो मानो रिधू के प्राण लटक गए थे उस पेड़ में। खिड़की से सटी खड़ी, निहारती ही रह जाती वह दिनभर उसे।

''शुरू शुरू में कुछ हफ़्ते दिन में दो बार थोड़ा-थोड़ा गुनगुना पानी डालना।'' चलते वक्त उस आदमी ने हिदायत दी थी, पर रिधू तो पूरी तरह से व्यस्त हो चुकी थी उस पेड़ की देख-रेख में। जितनी बार चाय बनाने जाती, केतली में दुगना पानी उबालती। और सबसे पहले बचा पानी पेड़ में जाता फिर किसी को चाय मिलती। दिन में बीस बार जाकर उन हरी-भूरी टहनियों को देख आती, कहीं नया पत्तियों का कोई कुल्ला तो नहीं फूटा, फूलों के कुछ नए गुच्छे तो निकल नहीं आए? पर दो दिन बाद भी. . .बस वही दो गुच्छे ही लटके दिखाई दिए निराश रिधू को। वापस घर में लौटते ही पति ने मज़ाक किया, ''कल देखना पूरा पेड़ निकल आएगा वैसे ही चाणक्य पुरी की तरह, फूलों से लदा-फंदा खड़ा हो जाएगा तुम्हारे दरवाज़े पर!''
रिधू भी तो यही चाहती थी, बिना कोई जवाब दिए, बस मन-ही-मन मुसकुराकर रह गई थी वह क्यों नहीं, देखना ज़रूर ही होगा ऐसा एक दिन!

दिन क्या महीनों यों ही निकल गए उस बेसब्र इंतज़ार में। कहीं-कहीं कुछ कुल्ले फूटे भी थे, एक-आध पत्तियाँ आईं भीं थीं, पर खुद ही कुम्हलाकर भूरी भी पड़ गईं और झर भी गईं पर रिधू कब आस छोड़ सकी?

''बीबी जी, कहो तो इस सूखी लकड़ी को निकाल दूँ।'' जितनी बार माली पूछता, उतनी ही बार रिधू खुद टूट जाती अंदर-ही अंदर। अब वह पेड़ बस एक पेड़ नहीं, रिधू की अस्मिता से जुड़ चुका था. . .उसकी नज़र में पूरे भारत की आशाओं से जुड़ गया था। अगर एक भारतीय पेड़ तक को न रोप पाई वह इस धरती पर, तो भारतीय मान्यताओं और संस्कारों को क्या रोप पाएगी भला? यहाँ इंग्लैंड की इस धरती पर इसे पनपना ही होगा। हज़ारों उन शहीदों की ख़ातिर पनपना होगा, जिन्होंने देश के लिए जाने न्योछावर की थीं। आखिर हम भी तो इनके रंग में रंगे थे, हम पर से तो इनका रंग आजतक नहीं उतरा!.

एक आधुनिक आत्मविश्वास से भरपूर आज़ाद भारत के सपने की ख़ातिर पनपना होगा इसे। हमारी इस गुलामी को भी तो अब अरसा गुज़र गया, वक्त और ज़माना दोनों ही बदलना चाहिए अब। यह सदी हमारी है, हमारे भारत की है. . .इसे तो पनपना ही होगा. . .फलना-फूलना ही होगा! रिधू का देश-प्रेम और स्वाभिमान दोनों ही बच्चों से मचलते रहते।

तरह-तरह की खाद डालती रिधू उस पेड़ में, पर पेड़ पर कोई असर ही नहीं होता। पूरे जाड़े भर पाले से बचाकर रखा था उसने पॉलिथीन में लपेट-लपेटकर रखा था उस पेड़ को। हाथों से सहलाया, घंटों बातें कीं, इसलिए शायद मरा नहीं, पर रिधू की हिम्मत ही नहीं हुई कि कभी डंडी उठाकर भी बस एक बार देख भर ले कि पेड़ ने जड़ें पकड़ी भी या नहीं, उसे खुद पर और अपने भगवान पर एक अटूट विश्वास जो था।

यह बात दूसरी है कि माली अब भी उसे सूखी लकड़ी ही कहता था जो उसकी आँखों में दिन रात खटकती रहती थी। मई जून सब निकल गए। घूरते-घूरते अब तो आँखे जलने लग जातीं रिधू की पर एक नया पत्ता न निकला उस पेड़ में और तब बजाय निराश होने के एक केटल और गुनगुना पानी डाल जाती रिधू उस पेड़ की जड़ों में।
कुछ दिन बाद की ही बात है, उस दिन जब कार रिवर्स कर रही थी रिधू अचानक ही स्टीयरिंग फिसली और पेड़ से जा टकराई और तब उसकी सारी आशाओं पर पानी फेरता वह अनर्थ हो गया जिसकी रिधू कल्पना तक नहीं कर सकती थी। वह सपनों का पेड़. . .वह आधी सूखी, आधी हरी टहनी, कुचली और टुकड़े-टुकड़े होकर उसकी भय-विस्मित आँखों के आगे ही गिर पड़ी, बिल्कुल वैसे ही जैसे कभी अचानक ही देश-प्रेमियों के आगे इन अंग्रेज़ों ने भारत की राजगद्दी सँभाल ली होगी!

''अच्छा हुआ जो यह तुमसे हुआ, अगर कहीं मुझसे हुआ होता तो तुम तो. . .'' उसके चेहरे की असह्य पीड़ा देखकर पति आधी बात कहते-कहते ही चुप और चिंतित हो गए। रिधू कार से उतरी और धम से आकर सोफ़े पर पड़ रही। उसके बाद उसने पलटकर बगीचे के उस कोने की तरफ़ देखा तक नहीं. . .ना ही चौबीसों घंटे बगीचे में रहने वाली रिधू वापस बगीचे में ही जा पाई कभी। गुलाब तक नहीं काटे इस बार तो उसने। पड़ोसन और सहेली ली जब भी दिखती, पूछती आजकल बहुत व्यस्त हो गई हो क्या. . .बगीचे में भी नहीं दिखती। रिधू एक फीकी मुस्कान के साथ ''हाँ'' कहकर बात पलट देती।
पर ली समझ चुकी थी कि कहीं कुछ ऐसा है जो कि खाए जा रहा है उसकी सहेली को. . .पर कैसे जाने वह, क्या करे, कुछ उसकी समझ में नहीं आ रहा था। कभी वह रिधू के लिए फ़ेयरी केक बनाकर लाती तो कभी उसे अपने घर कॉफी पर बुलाती पर रिधू को तो मानो गुमसुम रहने की आदत ही पड़ती जा रही थी। ''सब ठीक तो है घर पर या तुम्हारे साथ?'' कई-कई बार पूछा उसकी चिंतित सहेली ने और हर बार ही वही हल्की-सी और छोटी-सी ''हां'' कहकर वह चुप हो जाती।

कई-कई गार्डन सेंटर गई रिधू पर अमलतास कहीं नहीं मिला। ''अगली बार भारत से ले आना।'' पति ने समझाने की कोशिश की। ''पर ज़रूरी तो नहीं कि वह भी पनपे ही!'' दबाते-दबाते मन की बात होठों पर आ ही गई उसके।
उसकी आवाज़ की गहराई और थर्राहट से दुःख का तो पता चल रहा था पर असली भेद शायद ही कोई कभी जान पाए. . .फिर ऐसी बातें किसी से कही भी तो नहीं जा सकतीं. . .एक नहीं कई पीढ़ियों का दुःख था यह तो उसका बेहद अपना।
तीन साल निकल गए उस बात को भी। गदर के १५० साल का फ़ंक्शन था इंडियन एंबेसी में, साथ में उसी विषय पर एक नुमाइश भी थी। तैयार रिधू जाने को निकली ही थी कि फूलों का एक गुच्छा एक बार फिर आँचल से लिपटा उसके संग-संग ही गाड़ी में चला आया और गोदी में आन बैठा।

गुच्छे को पागल की तरह सीने से लगाए रिधू भावातिरेक से काँप रही थी। बरसाती नदी-सा भावनाओं का एक ज़लज़ला था अब उसके चारों तरफ़। मन में उमड़ा सारा वह पानी आँखों से बह निकला। नदी के रिसते दो किनारों-सी खुद को सँभालती रिधू अपने ही आवेग में बही जा रही थी. . .राह के रोड़े, यादों की गीली मिट्टी, अच्छा बुरा सब साथ-साथ लिए और समेटे-समेटे।

यह लड़ाई उसके अस्तित्व की थी, जड़ें जमाने की ही नहीं, फलने-फूलने की थी. . .खुली हवा में साँस लेने की थी।
रिधू ने एक-एक करके सारे आँसू पोंछ डाले। अब हज़ारों यादें शंख सीपी-सी इतिहास की रेत में पड़ी भी रह जाएँ, तो भी उसे कोई फरक नही पड़ता, उसका विश्वास फल फूल चुका था, जीत चुका था। नन्हा ही सही, अमलताश का नन्हा-सा पेड़ एक नहीं कई-कई गुच्छों के साथ पीले पंखुड़ियों के कालीन पर उसके स्वागत में उसके अपने दरवाज़े पर खड़ा था, वह भी यहाँ इंग्लैंड में, हर तपन से उसकी रखवाली कर रहा था, छाँव दे रहा था उसे, जैसे कभी चाणक्य पुरी के अम्मा बाबा के घर में दिया करता था।

रिधू का मन किया जी खोलकर हँसे। हर उस अविश्वासी को प्यार की ताकत बताए, जो इस पर विश्वास नहीं करते। उसके विश्वास ने जाने कौन-सा बीज इस धरती में बो दिया था कि अब छाँव ही छाँव थी चारों-तरफ़, आँखों को भी और मन को भी।
हर्षातिरेक से काँपती रिधू को ली ने आकर सँभाला। ''अरे यह तो वही अमलतास का पेड़ है ना जो दिल्ली या भारत के कई और शहरों में दिखता है? हाइडरेंजर्स की तरह इसे भी तो लोग सड़कों के किनारों पर ही लगाते हैं, ना?'' इमीग्रेशन डिपार्टमेंट में सरकारी वकील की तरह नियुक्त ली को अक्सर ही भारत जाने के मौके मिलते रहते है और साधारण जन-जीवन के क़रीब आने के भी।
''हाँ, हाँ, वही है यह. . . अब देखना हर बगीचे में यहाँ पर तुम्हें यही दिखाई देगा।'' पता नहीं किस अंदाज़ और भाव से कहीं थी रिधू ने यह बात कि ली को बहुत ही गंभीर कर गई और तब खुद को और माहौल को हलका करने के लिए मज़ाक किए बगैर न रह सकी वह।
''हाँ, हाँ, क्यों नहीं। तुम एशियन की तरह ही इसे भी यहाँ बसने में बिल्कुल ही टाइम नही लगेगा। हम ब्रिटिश लोग हमेशा से ही बहुत सहनशील कौम रहे हैं।''
यह क्या कह गई यह. . .कितनी गलत-फहमी है इन्हें खुद को लेकर, बेशर्म या अवसरवादी कहती तो ज़्यादा सही था. . .रिधू के सर से पैर तक आग लग गई। ली उसकी सहेली थी पर थी तो ब्रिटिश ही, आखिर अपना रंग दिखा ही दिया, रिधू सोचे बगैर न रह सकी।
पर ली उसके मन में उठते तूफ़ान को देख पा रही थी और उसे दुःखी करने का तो उसका कतई इरादा ही नही था। गले लगाकर बोली, ''40 साल से यहाँ रह रही हो, इतनी स्ट्रौंग इंडियन आइडेंटिटी रखोगी, तो जी नहीं पाओगी यहाँ पर खुशी–खुशी से। किसी भी क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ने देगी तुम्हें तुम्हारी यह अलग-थलग पहचान!''

रिधू का मन नहीं किया कि अब वह उसके साथ कहीं पर भी जाए, पर इतनी नरम दिल थी कि ग़ुस्से में भी किसी का मन दुखाना उसे आता ही नही था, बस।
''क्या आदमी को अपने ही घर में भी मन-माफ़िक नहीं रहना चाहिए, खुश हो पाने का अधिकार नहीं, क्या आगे बढ़ते जाना, इतना ज़्यादा ज़रूरी है ली?'' पूछती चुपचाप कार में जा बैठी रिधू।
अब स्तब्ध होने की अंग्रेज़ सहेली की बारी थी। क्या सब वे हिंदुस्तानी उसकी इसी सहेली की तरह स्वाभिमानी और दृढ़ थे, जिन पर उसके पूर्वजों ने इतने साल राज किया. . .शायद नहीं. . .या फिर उन्होंने कभी एक दूसरे के बारे में कुछ जानना ही नहीं चाहा! दोनों ही सहेलियाँ आज बहुत कुछ नया जान चुकी थीं एक दूसरे के बारे में. . .कुछ ऐसा जो सच होकर भी उद्वेलित कर रहा था दोनों को और उनकी सोच से होड़ लगाती कार भी तो उन घुमावदार सड़कों पर उसी रफ्तार से आगे बढ़ी चली जा रही थी। उतरते ही दोनों ने ही एक दूसरे के उदास चेहरे को देखा और जबर्दस्ती ही मुसकुराने की कोशिश की। जब नहीं रहा गया तो रिधू ने ही पहल की,
''मुसकुराओ ली, तुम मुसकुराती और चहकती ही अच्छी लगती हो।'' ली उसका हाथ अपने हाथ में लेकर खिल-खिलाकर हँस पड़ी, ''तुम बहुत अच्छी, बहुत सरल हो रिधू। अब तुम्हें उदास देखकर मैं कैसे खुश हो सकती हूँ?''  उसकी गहरी रुँधी हुई आवाज़ से रिधू जान गई थी कि सहेली झूठ तो नहीं ही बोल रही और अगर उसने अभी, इसी वक्त इसे माफ़ नही किया तो रो भी पड़ेगी यह।
''आज भी तुम अपनों के ही बीच हो और अपने घर में ही हो रिधू।'' रिधू ने आगे बढ़कर ली को गले लगा लिया। अब ली को गला खखारने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत थी, कैसे भी अपने को संयत करती, रिधू के गले लगी-लगी ही वह दुबारा बहुत ही धीमी और भावभीनी आवाज़ में फुसफुसाई, ''एक और बात बताऊँ तुम्हें रिधू, मुझे पहले से ही पता था कि तुम यही कहोगी, जो तुमने अभी-अभी कहा और वही करोगी, जो तुमने किया भी। तभी तो तुम मेरी सहेली हो। अब हमारे पूर्वजों के बीच जो घटा क्यों न हम उसे इतिहास के पन्नों में ही रहने दें, वैसे भी क्या किसी के कहने भर से फूल अपनी महक बदल देता है, या हीरा चमक खो देगा?''

रिधू और ली के स्नेह-भीगे आँसू एकसाथ सदियों से बंजर पड़ी नफ़रत और ग़लतफ़हमियों की दरारों से तार-तार उस ज़मीं को सींचे जा रहे थे जिसे हज़ारों के खून ने रंगा था, नफ़रत की आग ने झुलसाया था. . .रिधू को लगा आज ज़रूर ही कोई त्योहार होना चाहिए, होली दिवाली-सा बड़ा त्योहार, क्यों कि आज न सिर्फ़ पहली बार रिधू के घर में वह अमलतास ही फूला था, अपितु बरसों से भटकती प्यासी और तरसती रिधू की खुद अपनी जड़ें भी नम हो चुकी थीं. . .एक अपनी ज़मीन, अपना बसेरा पा चुकी थीं।

 

१६ जून २००७

 
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