उसे यह परेड अच्छी लगती है और यदि परेड के दौरान दर्शकों की
तरफ़ फेंके गए चॉकलेट, मोतियों की माला, कूपन आदि में से
शैमरॉक ( तीन पत्तियों के आकार वाला) का चिन्ह यदि उसे मिल गया तो वह आम आइरिश की
तरह मान लेती है कि यह उसके लिए सौभाग्य लाने वाला है। दरअसल ऐसा ही उसके साथ होता
भी आया है। पहली बार वह जबरन इस परेड के दर्शकों में शामिल
हुई थी। वह सप्ताह भर का सौदा- सुलुफ़ लेने बाज़ार निकली थी
और लौटते वक्त जाना कि घर तक पहुँचने के रास्ते बंद
हैं। सड़क पर शेरिफ़ की गाड़ियाँ हॉर्न देती घूम रही थीं। फ़ुटपाथों
पर लोग जमे थे और किसी भी तरह कार निकालने की गुंजाइश नहीं थी। मजबूरन उसने कार
पार्किंग लॉट में कार पार्क की थी और सड़क के दोनों ओर हज़ारों
की संख्या में खड़े दर्शकों में शामिल हो गई थी।
तब उसने पीली शर्ट पहनी हुई थी और कुछ भी हरा
नहीं। वह भीड़ से अलग दिखाई दे रही थी कुछ थोडे़ से अन्य लोगों की तरह जो उसी की तरह
शायद
फँस गए थे। हरे रंग के गुब्बारों और
शैमरॉक के चिन्ह से सजी विभिन्न कंपनियों
का इश्तहार लगाए हुए गाड़ियाँ, जिनकी खुली छतों से ढेर सारे लोग दर्शकों को लक्ष्य
कर मालाएँ फेंक रहे थे, एक-एक कर गुज़रती
रहीं। गुज़रती हुई गाड़ियों को वह दिलचस्पी से देखती रही थी।
दर्शकों में बच्चे अधिक थे और उनके अभिभावक पिछली पंक्तियों में खड़े चॉकलेट आदि
लूटने में उनकी सहायता कर रहे थे। एक ट्रक या कार गुज़रती
और बीड्स-बीड्स की गुहार मच जाती। हैप्पी सेंट
पैट्रिक्स डे के नारों से आकाश गूँज उठता। "प्राउड टू बी एन
आइरिश" के नारे गुज़रती गाड़ियों पर पढ़ कर वह मुस्कराती रही
थी।
तरह-तरह की गाड़ियाँ - कोई
जूते के आकार की, कोई घर बना हुआ. .
.बडलाइट की ट्रक से उस शराब का विज्ञापन करती
गाड़ियाँ की-चेन फेंक रही थीं जिसमें कार्डबोर्ड की बडलाइट की बोतल जुड़ी हुई थी।
सबकुछ हरे रंग का। बीच-बीच में बच्चों की टोलियाँ खूबसूरत हरे रंग की ड्रेस पहने
जिमनास्टिक के क़रतब भी दिखा रही थीं। कुछ गीत गाते हुए
बच्चे भी गुज़रे। एक म्यूज़िक कंपनी
की गाड़ी कर्णप्रिय धुनें बजाती गुज़र गई। कुल मिला कर सुषमा
को यह जुलूस बहुत अच्छा लगा था। दर्शनीय!
हालाँकि उसने बाकी लोगों की तरह चिल्लाकर बीड्स
नहीं माँगे थे तब भी काफ़ी कुछ उसके पैरों के पास आकर गिरा था। कई रंगों की मोतियों
की मालाएँ, चॉकलेट और एक टिन की बनी चमकीली तीन पत्ती भी।
बीड्स वे लें जो ईसाई हैं, उसे क्या. .
.! उसने सोचा था किंतु फिर सारा कुछ
बटोरती चली गई। वह दिन अच्छा गुज़रा था। मन में जैसे
हरियाली छा गई थी। बहुत कुछ आँखों के रास्ते भी मन में उतरता है।
जब उसी दिन पोस्ट किए गए रिसर्च पेपर की स्वीकृति की सूचना, क़रीब
महीने भर बाद मिली तो उसने मान लिया कि यह तीन पत्ती सचमुच शुभ शगुन है। अगले साल
वह फिर से जुलूस देखने गई। उसने भीड़
के साथ उछल-उछल कर बहुत कुछ लपका था। उसके हाथ कई शैमरॉक के चिन्ह वाले रैपर लगे
चॉकलेट आए थे। उसके बाद जब अचानक ही एक दिन लुइस आकर उसके पैसे लौटा गया तो वह
सोचने पर मजबूर हो गई थी। इस तीन पत्ती के आकार में कुछ तो है। सेंट
पैट्रिक डे एक शुभ दिन का नाम है। तब से हर साल वह अपनी
किस्मत जानने को इस भीड़ में शामिल हो जाती है। फिर कोई तीन
पत्ती मिलेगी क्या? कोई चॉकलेट ही, जिसके रैपर पर यह चिन्ह बना हो! बल्कि अब तो वह
अपनी मित्र मंडली को भी यह जुलूस देखने के लिए प्रोत्साहित करती है। दूसरी सारी
वजहों को किनारे कर देने पर भी यह जुलूस दर्शनीय तो है ही और थोड़ी देर के लिए आप
बच्चों में शामिल हो कर खुद भी बच्चे हो जाते हैं।
यही सब सोच कर उसने वंदिता को फ़ोन किया था।
"कल सेंट पैट्रिक्स डे है। आ रही है?"
"वह क्या होता है?"
"कम ऑन यार! तेरे दो बच्चे हैं और तुझे ही नहीं मालूम?"
"बता न।"
सुष ने विस्तार से जानकारी दी थी। शैमरॉक और गोल्डेन बीड्स से जुड़े
आइरिश विश्वास और संत पैट्रिक के बारे में उसने कंप्यूटर पर
पढ़ा था। ईसाई मान्यताएँ यों भी उसके लिए नई नहीं थीं। वह
बचपन से ईसाई कान्वेंट स्कूल में
पढ़ी थी। ईसाई धर्म भी की भी इतनी शाखाएँ हैं और एक चर्च
दूसरे से अपनी मान्यताओं को लेकर कितने भिन्न हो सकते है उसी जीसस क्राइस्ट पर
विश्वास के बावजूद, यह ज़रूर उसने अमेरिका आने के बाद जाना।
यहाँ आकर ईसाइयत के इतने विभिन्न रूप देखने को मिलेंगे यह उसके लिए भारत में रहते
हुए कल्पनातीत था। और अभी तो वह अपना सारा ज्ञान वंदिता के
सामने उड़ेल रही थी। लेकिन वंदिता तो
वंदिता ठहरी। अमेरिका में उसी की तरह पिछले पाँच साल से
रहने के बावजूद थोड़ी भी नहीं बदली। अपनी भारतीय मंडली में घूमेगी। हर महीने उसके घर
सत्यनारायण कथा या उस जैसा ही कोई उत्सव होगा। विश्व हिंदू
परिषद से जुड़ी होने के कारण भी उसका दायरा काफ़ी बड़ा है। आए
दिन भीड़ लगी होती है। कभी-कभी सुष को आश्चर्य होता है, कैसे
सँभालती है यह सबकुछ। दो बच्चे, नौकरी, पति और आए दिन चले
आने वाले अतिथि। फिर वह हर किसी के घर पूजा में जाएगी
भी। यह दीगर बात है कि उसी की वजह से सुष भी कुछ पर्व त्यौहार मना लेती है। होली-दीवाली
में उसके घर चली जाती है तो अकेला नहीं लगता!
"हाँ, हाँ, समझ गई। अरे अभी चैत्र के नवरात्र चल
रहे हैं, यह समय तो शुभ होता ही है!"
सुष को लगा यह कभी नहीं सुधरेगी!
'"अरे यार, बच्चों को तो भेज। वे मज़े कर लेंगे। सब होते
हैं, हिंदू, मुस्लिम, ईसाई। आइरिश और नॉन-आयरिश। यह अमेरिका
है!"
"अच्छा, अगली बार देखेंगे। अपने सब डिवीजन में होली- मिलन है आज। ड्राइव तो मुझे ही
करना होगा न। नाइटीन सिक्स्टी बहुत दूर है यहाँ से।"
"तो मिनट मेड पार्क चली जा। डाउन टाउन। वहाँ का जुलूस तो और अच्छा है। तेरा दीपू तो
कह रहा था कि उसे मालूम है सेंट पैट्रिक्स डे क्या होता
है।"
"हाँ, सब स्कूल में सीख आते हैं। मैं तो बहन परेशान हो गई। वाइ.एम.सी.ए.
स्वीमिंग के लिए ले जाओ। फिर कराटे सीखना है। होम वर्क करवाओ।
इन्हें तो फ़ुरसत ही नहीं मिलती। सब मुझे ही करना है।"
"चल, जाने दे।"
सुषमा जानती है, वह नहीं आएगी। न ही बच्चों को उसके साथ
जाने देगी। अमेरिका आने के बाद भी भारतीय पति अन्य मामलों में चाहे बदल जाएँ, पत्नी
को लेकर भारतीय बने रहते हैं। यह सुविधाजनक है!
लेकिन सुष जाएगी। उसे तीन पत्ती चाहिए!
इस बार उसके पास लखनवी अंगूरी रंग का कुर्ता है -
उसका सबसे प्रिय और इस वक्त उसने वही पहना हुआ है।
यह नाइंटीनसिक्स्टी अक्सर उसे भ्रमित करता है। पहली बार तो
जब सुना था तो उसकी समझ में ही नहीं आया था कि यह संख्या किसी रास्ते को सूचित करती
है। अभी भी वह अक्सर ग़लत मोड़ ले लेती है और ग़लत
रास्ते पर पहुँच जाती है लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ। उसने कार सीयर्स के बड़े से गोदाम
के पास पार्क की और कार की ट्रंक से कुर्सी निकाल ली। उसे लगा था कि वह लेट हो गई
है लेकिन अभी परेड शुरू नहीं हुई थी। कई सारे दर्शक सड़क के दोनों ओर कुर्सियाँ डाले
बैठे थे। पार्किंग लॉट में घुसने और निकलने का रास्ता भी कुर्सियों से पटा पड़ा था।
वह नाइंटिन सिक्स्टी के पीछे की तरफ़ से आई थी, इसीलिए घुस
सकी थी। बैठनेवालों में तमाम बड़े थे। बच्चों की कतार तो उत्साह से भरी उचक-उचक
कर सड़कके उस सिरे पर नज़र लगाए थी
जहाँ से जुलूस आनेवाला था। उसने एक कोने में अपनी मुड़नेवाली
कुर्सी खोली और जम गई। उसके ठीक बगल में एक गोरी वृद्धा आँखों पर शैमरॉक के आकार का
हरा चश्मा लगाए हुए है। उसे अपनी ओर देखता पाकर वह मुस्कराई। सुष ने भी इशारा कर
दिया - बहुत सुंदर! वह खुश हो गई।
इस बार फिरअगर शैमरॉक
मिलता है तो ज़रूर उसका चयन
होनेवाला है। वह इंटरव्यू देगी। अब आगे पढ़ाई करने का उसका
इरादा नहीं। वह व्यवस्थित होना चाहती है। अपनी जिंदगी की
अगली पारी खेलना चाहती है। अमेरिका से वापस लौटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ
की सुविधापूर्ण ज़िंदगी की आदतअब
उसे भारत की धूल-पसीने भरी ज़िंदगी से किनारा करने पर मजबूर
करती है। उसने एक छोटा-सा भारत अपने मन में बसा लिया है और
उसी के साथ वह जीती चली जा रही है। जीती चली जाएगी।
मन के उस कोने में जहाँ उसका देश बसता है, वह अक्सर घूम आती
है। अपने दोस्तों, गली-मुहल्लों, माँ बाप, भाई बहनों, फ़ूल-पौधों से बतिया लेती हैं
और फिर अमेरिका में जीने लगती है, जो उसका वर्तमान है। वह
जानती है यह उस जैसे तमाम भारतीयों का सच है। और वंदिता
चाहे अपने धर्म को लेकर आग्रही हो, देश को लेकर वह भी नहीं है।
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