मौत के घर
में जाते ही खाने-पीने का डौल नहीं बन पाएगा। यह सब
अच्छा भी तो नहीं लगेगा। पूछनेवाला होगा भी कौन? भइया-भाभी
बेचारे जाने किस हाल में होंगे! पता नहीं कौन-कौन होगा वहाँ पर!
लेकिन भूख- प्यास! शरीर अपनी माँग करेगा ही।
उसने उठ कर कमरे का ताला लगा दिया। पाँव होटल की ओर बढ़ चले।
रास्ते में भी वह हितेन के बारे में सोचता रहा। बड़ी छेड़ने की
आदत थी, 'चाचा, चाची के और बहने होंगी?' यार, चाचा तुमने कुछ
सूट-ऊट के कपड़े नहीं खरीदे?' वह कह
देता, 'अब मैं लेकर क्या
करूँ, सब वहीं से आ जाएगा।' जब से शादी तय हुई थी कुछ-न-कुछ
परिहास करता ही रहता था।
'हाँ चाचा, अब तो कुछ नाम इकठ्ठा कर लो।' बात बड़े पते की कहता
था। बीच-बीच में उसे भाई का गमगीन चेहरा और पछाड़ें खाती भाभी
के चित्र दिखाई देते रहे। एक मन हुआ खाना खाने न जाय! लेकिन
मेरे न खाने से क्या होगा? वहाँ जाकर पता नहीं कब क्या हो!
दौड़-भाग भी तो सारी उसी को करनी पड़ेगी। पता नहीं क्या-क्या
होगा! उसका मन बड़ा भारी हो आया। भूख बड़े ज़ोर की लग रही थी।
खाना खा लेना ही ठीक है, चाय भी तो नहीं पी है! इस तरह न खाने
को देखेगा भी कौन?
रास्ते में गुप्ता दिखाई दे गया। उसने कतरा कर निकल जाना चाहा,
जैसे देखा ही न हो। पर गुप्ता आवाज़ दे बैठा, 'क्या मुँह
लटकाए चले जा रहे हो?
शादी क्या तय हुई, दुनिया-जमाने का भी होश खो
बैठा, मेरा यार।'
उसने सोचा कह दूँ भतीजा मर गया है, वही हितेन जो यहाँ आया था-
पर वह रुक गया। यह भी क्या सोचेगा, सगा भतीजा मर गया और चले जा
रहे हैं खाना खाने!
'आज पता नहीं माइंड बड़ा अपसेट हो रहा है,' वह गुप्ता की ओर
हल्के से मुस्करा दिया।
'यह बात! पेट में चूहे कूद रहे होंगे। चलो, तुम्हें कुछ स्पेशल
खिलाएँ!'
उसने होटल के नौकर से दाल और फुल्का ले आने को कहा, गुप्ता ने
बीच में टोक दिया, 'कहाँ बहक रहे हो आज? ओ शंभू कबाब और टमाटर
प्याज की प्लेट बाबू के आगे ला कर रख।'
'नहीं यार, आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं।'
'तो खाने से क्या दुश्मनी
है? चल, बिल मेरी तरफ़! तू क्यों फ़िक्र करता है? आखिर दोस्ती
किस दिन के लिए है?'
वह इंकार नहीं कर सका। बढ़िया खाना और चार जनों के बीच
हा-हा-हू-हू में उसके ध्यान से सब उतर गया। जितना उदास और भारी
मन लेकर वह आया था, उतना ही हल्कापन और भरा पेट लेकर बाहर
निकला। उसे लगा खाली पेट में हर दुख बहुत बड़ा लगा करता है।
मेरे अफ़सोस करने से होगा भी क्या! जो होना था हो चुका, उसके
लिए कुछ किया भी तो नहीं जा सकता! मेरे पास आता था तो मुझे
इतना भी लगा नहीं तो किसी के मरने पर किसी और को कौन-सा फ़र्क
पड़ता है? सुनकर चच-चच सभी कर देते हैं एकाध बात खोद कर पूछ
लेते हैं और अपना रास्ता लेते हैं। अपनी-अपनी व्यस्तताओं में
दूसरे के सुख-दुख का ध्यान किसे?
गुप्ता को नहीं बताया अच्छा ही किया, उसने सोचा दुख तो केवल
उन्हीं लोगों को होता है जिनका कुछ संबंध होता है। अन्य लोगों
के लिए उसका महत्व ही क्या। और सब ऊपरी दिखावा करते हैं। हाँ
भाई को तो दुख होगा ही, बहुत दुख। घर का बड़ा बेटा था। उसी पर
सारी आशाएँ केंद्रित थीं। पाले-पनासे की ममता, घर के एक बहुत
ख़ास सदस्य की दुखद हानि! और किसी-किसी बाहरवाले को क्या फ़र्क
पड़ता है उसके होने या न होने से? यों मुँह देखी सभी कह देते
हैं।
गुप्ता को मेरा चुप रहना अजीब लग रहा होगा, सोच कर उसने उसकी
ओर मुस्करा दिया। दोनों ने साथ-साथ सिगरेट पी फिर वह अपने कमरे
पर चला आया।
अंदर कदम रखते ही उसे वही तार दिखाई दे गया। घड़ी देखी, गाड़ी
जाने में अभी बहुत देर है। चलो दफ्तर चल कर ही एप्लीकेशन दे
देंगे यहाँ बैठ कर भी क्या होगा। उसने तार उठा कर जेब में डाल
लिया - एप्लीकेशन के साथ नत्थी दर दूंगा - हो सकता है बाद में
छुट्टी बढ़ाने की ज़रूरत पड़ जाए।
उसे एकदम ध्यान आया - कल तो छुट्टी है सेकंड सेटर डे की और
परसो संडे! आज छुट्टी लेता हूँ तो ये दोनों बेकार जाएँगी। आज
अगर तार न आता तो! फिर उसके दिमाग में आया, आजकल तो तार भी
अक्सर साधारण डाक से भी देर में मिलते है। मैं ठहरा अकेला
आदमी! कोई ज़रूरी नहीं तार के टाइम कमरे पर ही मिलूं! तो ये दिन
निकाल दूं, तीन छुट्टियाँ एकदम बच जाएँगी। और अब वहाँ धरा ही
क्या होगा, शुरू का सारा काम निबट चुका होगा! उसके पांव ऑॅफ़िस
की ओर चल पड़े।
अच्छा हुआ गुप्ता से कहा नहीं और छुट्टी की एप्लीकेशन भी नहीं
दी। एक बड़ी बेवकूफ़ी से बच गया। उसने चैन की साँस ली।
हाँ, बेकार की भावुकता में क्या धरा है? आज ऑॅफ़िस करके रात की
ट्रेन से चला जाऊँगा, हद-से-हद कल सुबह! यह भी तो हो सकता था,
मैं पहले ही कहीं निकल जाता और फिर तार आता! मैं खाना खाने
होटल जा चुका होता, फिर वहीं से दफ्तर चला जाता, तब तो शाम को
ही कमरे पर पहुँचता! वह काफ़ी निश्चिंत हो गया। ऑॅफ़िस में उसका
मन काफ़ी हल्का रहा, खाया भी तो खूब पेट भर के था! चार जनों के
साथ ही तो हँसने-बोलने की इच्छा होती है, नहीं तो चला जा रहा
होता ट्रेन में मोहर्रमी सूरत लिए!
लेकिन हितेन था बड़ा हँसमुख! जब भी आता भाभी से काफ़ी-सा नाश्ता
बनवा लाता था। मठ्ठियाँ तो उसे बहुत पसंद थीं और उनके साथ आम
का अचार! चचा-भतीजे वहीं कमरे में चाय बनाते और मिल कर खाते
थे। अब कौन लाएगा मठ्ठियाँ! वैसे तो कभी भाभी ने भेजी नहीं, वो
तो ये कहो अपने बेटे के साथ भेजती थीं सो मैं भी साथ खा लेता
था! पर भाई? भाई के लिए उसके मन में बड़ी करुणा उपजी। पिता के
बाद उन्हींने गृहस्थी का भार सम्हाला था। उसे पढ़ाया-लिखाया और
अब तो शादी भी तय कर दी थी- वहीं कहीं। पर अब साल भर तो उसकी
शादी होने से रही!
'कैसे चुपचाप बैठे हो आज यार? नींद आ रही है क्या?'
वह एकदम चौंक गया, फिर चैतन्य हो गया।
'कल रात नींद ठीक से नहीं आई' फिर उसे लगा जवाब कुछ मार्के का
नहीं बन पड़ा तो उसने जोड़ दिया,' जब दिल ही टूट गया' और बड़े
नाटकीय ढंग से सीने पर हाथ रख लिया।
'छेड़ो मत उसे। अपनी होनेवाली बीवी के वियोग का मारा है
बेचारा!'
सब लोग खिलखिला उठे।
अपनी प्रत्युत्पन्न मति के लिए उसने मन-ही-मन अपनी पीठ ठोंकी।
किसी को पता नही लगने देना है अभी। बताने से और दस बातें निकल
आएँगी। अजीब-अजीब बातें जिनका जवाब देने में उसे और उलझन होगी।
अभी तार ही तो मिला है कैसे क्या हो गया कुछ भी तो पता नहीं।
बहुत पहले पढ़ा हुआ रहीम का एक दोहा उसे याद आ गया- 'रहिमन निज
मन की बिथा मन ही राखो गोय' रहिमन बिचारे भी कभी ऐसी परिस्थिति
में पड़े होंगे। क्या पते की बात कह गए हैं!
घर पर उसकी प्रतीक्षा हो रही होगी! पर उसके होने न होने से
फ़र्क क्या पड़ता है? दुख तो वास्तव में उसी को भोगना पड़ता है
जिस पर पड़ता है बाकी सब तो देखनेवाले हैं, तमाशबीन की तरह आते
है चले जाते हैं।'हाय।ग़जब हो गया', 'बहुत बुरा हुआ,' ये सब तो
व्यवहार की बातें हैं। ग़मी में जाना भी तो लोगों की एक मजबूरी
है। कैसे घिसे-पिटे वाक्य कहे-सुने जाते हैं . . .पर भइया-भाभी
बड़े दुखी होंगे। दुख तो होना ही है इतना बड़ा जवान लड़का जिस पर
ज़िंदगी की आशाएँ टिकी हों, देखते-देखते छिन जाए! कैसा लग रहा
होगा उन्हें!
'सेकंड सेटर्रडे' भनक उसके कानों
में पड़ी। मुँह से निकल गया,
'क्या बात है?'
'पूछ कर मना मत कर देना।'
उसकी जगह उत्तर गुप्ता ने दे दिया, 'अरे, हम लोग क्यों मना
करेंगे? मना करे तुम लोग जो दो-दो, चार-चार बच्चों के बाप हो।
ला मिला हाथ!'
गुप्ता ने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया। उसने बिना सोचे-समझे अपना हाथ
दे दिया।
'दो दिन की छुट्टियाँ हैं तो पिकनिक का प्रोग्राम बना रहे
हैं।'
'नहीं, नहीं, मैं तो कल घर जा रहा हूँ।'
'अब धोखा मत दे यार! फिर यहाँ क्या मज़ा आएगा, खाक?'
'नहीं यार गुप्ता, मुझे ज़रूरी जाना है। ता . . .खत आया है . .
.' वह कहते-कहते सम्हल गया।
कहते-कहते उसका हाथ फिर पैंट की जेब में चला गया जिसमें तार
पड़ा था। उसने फ़ौरन हाथ बाहर खींच लिया। उसकी अस्वाभाविकता पर
किसी ने ध्यान नहीं दिया।
'तो कौन वहाँ बीवी इंतज़ार कर रही है तेरी?'
'अरे वही तो चक्कर है,' क्या बोले यह सोचने का मौका उसके पास
नहीं था।
उत्सुकता में दो-चार जने उसके पास खिसक आए।
यह क्या कह दिया उसे पछतावा होने लगा।
'तो यह कह ससुर जी, जेवर चढ़ाने आ रहे हैं?'
'और हमारी मिठाई?'
उसने मन-ही मन स्वयं को धिक्कारा। कुछ उत्तर सूझ न पड़ा। मुँह
से निकला, 'अब तो घपले में पड़ गई . . .साल . . .साल . . .'
कहते-कहते रुक गया।'
'जाने दे यार! जब कह रहा है जाना ज़रूरी है।'
'तो एक दिन में क्या फ़र्क पड़ जाएगा?'
'वह चुप रहा, हाँ एक दिन में क्या फ़र्क पड़ जाएगा -उसके भी
मन में आया। न हो कल शाम को चला जाऊँगा, रात की गाड़ी
से। परेशान लोगों को रात में न जगाना ही ठीक रहेगा। उसने हामी
भर दी।
अपने आप ही फिर उसका हाथ जेब में चला गया और तार के काग़ज़ से
फिर छू गया। उसका मन फिर दुविधा में पड़ गया। पिकनिक पर जाना
अच्छा नहीं लगता, क्यों न लोगों को बता दूं? पर ये लोग क्या
सोचेंगे? गुप्ता तो सुबह से ही पीछे लगा है। सबसे कहता फिरेगा!
नहीं-नहीं, बेकार है कहना।
कोई सुनेगा तो क्या कहेगा? एक भाई ग़मी में पड़ा है दूसरा पिकनिक
पर जा रहा है। पर किसी को क्या पता कि मुझे तार मिल गया है-
उसने अपने मन को संतुष्ट कर लिया।
इतनी जल्दी उस वातावरण में जाने में उसे उलझन हो रही थी। भाई
के बाद वही घर का बड़ा है। उस स्थिति में वह स्वयं को बड़ा असहाय
अनुभव करने लगा। उसे स्वयं पर बड़ी दया आने लगी। उस दृष्य की
कल्पना कर वह फिर विचलित हो गया।
'क्यों शादी क्यों टल गई? लड़की में कुछ . . .'
'नहीं, नहीं उसकी रिश्तेदारी में मौत हो गई है,' उसने अपना
पिंड छुड़ाया।
'वाह मरे कोई और शादी
किसी की रुके?'
बड़े शायराना अंदाज़ में रिमार्क पास किया गया था। उसे फिर उलझन
होने लगी पर वह चुप रहा।
'इसीलिए ऑफ है मेरा यार?'
गुप्ता ने फिर टहोका
उसका मन समाधान खोज रहा था-जब कल जाना है तो आज बेकार परेशान
हुआ जाय! उसने स्वयं को तर्क दिया - दुख किसी को दिखाने के लिए
थोड़े ही होता है, वह तो मन की चीज़ है। ये ऊपरी व्यवहार तो चलते
ही रहते हैं। चलो, बिगड़ी बत सम्हल गई!
सुबह खाने का बिल गुप्ता ने दिया था। क्यों न आज शाम को उसका
उधार उतार दूँ! वह गुप्ता की ओर मुड़ा।
'ऐ गुप्ता, भाग मत जाना, साथ चलेंगे।'
'भागूँगा कहाँ? हम दो ही तो हैं फ़िलहाल अल्लामियाँ से नाता
रखनेवाले।'
बेकार कमरे पर जा कर क्या करूँगा उसने सोचा, यहीं से घूमने
निकल जाएँगे, फिर खाना खाकर पिक्चर चले जाएँगे, रात भी कट
जाएगी।
उसे फिर भूख लगने लगी थी और ग़म फिर उसके मूड पर छाने लगा था।
जल्दी से जल्दी वह होटल पहुँच जाना चाहता था। खाली पेट में
उलझने और बढ़ जाती हैं।
भतीजे की मृत्यु अब उसके लिए पुरानी बात हो गई थी। घर पहुँच कर
फिर रिन्यू कर लेंगे उसने सोचा।
उसका हाथ फिर जेब में चला गया और उस काग़ज़ से टकरा गया। जैसे
बिच्छू छू गया हो, उसने झटक कर जेब से हाथ निकाल लिया और
गुप्ता के साथ होटल की ओर बढ़ गया। |