सच पूछो तो साल भर यहाँ सेल लगी रहती है। हर चीज की। मिट्टी से
लेकर टेलीविजन तक, सबकुछ बिकाऊ है यहाँ। कभी–कभी सुमि को लगता
है पूरा अमेरिका एक बहुत बड़ा बाज़ार है। हर चीज बिकाऊ है यहाँ
और सेल पर है। फिफ्टी परसेंट ऑफ, सेवेंटी फाइव परसेंट ऑफ, बाई
वन, गेट वन फ्री। स्थायी तो जीवन में जैसे कुछ है ही नहीं।
"यहाँ लोग बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। थोड़े–थोड़े समय पर नयी चीज़ें
खरीदते रहते हैं। पाँच साल में कार बदल ली। दस साल में घर। तुम
भी चाहो तो गराज सेल लगाकर अपने पिछले साल खरीदे कपड़े वगैरह
बेच सकती हो।" रवीश ने बताया था।
"मै क्यों बेचने लगी।" वह चिंहुकी।
"नये ले लेना।" रवीश ने चिढ़ाया।
"एक नया पति न ले लूँ। बोर हो गई मैं तो तुमसे भी।" उसने
बनावटी गंभीरता से कहा।
रवीश ने कसकर एक धौल जमा दी थी।
सुमि को पता है। गराज सेल यानी अपने घर के गराज के बाहर दूकान
लगाकर बैठ जाओ। पूरे सबडिवीजन में नुक्कड़ों पर, हो सके तो
सबडिवीजन की बाहर खुलती मुख्य सड़क पर और तमाम मित्रों–परिचितों
के बीच अग्रिम लिखित अलिखित सूचना चिपका दो, बाँट दो। पहली बार
जब अपने मेक्सिकन पड़ोसी की सेल देखी थी तो अजीब लगा था। अब सब
सामान्य लगता है। लोगों के हर रोज बदल जाते रिश्ते भी।
शुरू–शुरू में जब नयी–नयी अमेरिका आई थी तो उसे बड़ा मज़ा आता
था। उसे याद है, वह चकित रह गई थी कि कूपन भरकर भेज देने से
इतनी सारी चीज़ें मुफ्त में अपनी हो जाती हैं। उसने उस साल
घूम–घूम कर खूब खरीददारी की थी। उन तमाम चीज़ों की, जो बाद में
उसकी हो जानेवाली थीं। ढेर सारी अनाप–शनाप चीज़ें, जिनकी उसे
बिल्कुल ही जरूरत नहीं थी। बस, मुफ़्त में पाने का मज़ा! केवल
लिपस्टिक, नेलपॉलिश वगैरह ही ढेर सारे जमा करने पर भी बेकार
नहीं होनेवाले थे। वह जब भारत जाएगी तो अपने मित्रों–परिचितों
को बाँट देगी। फिर अगले कई दिनों तक वह कूपन भर–भर कर भेजती
रही थी। और आश्चर्य, पैसे आए भी थे।
"ये इस तरह मुफ़्त में चीज़ें क्यों देते हैं?" उसने रवीश से
पूछा था।
"इसलिए कि इन्हें पता है कि आधे लोग कूपन भरकर भेजना भूल
जाएँगे, अपनी अति व्यस्त दिनचर्या में। कूपन भेजने की तारीख
होती है, उस दिन तक नहीं भेजा तो बेकार। दूसरी बात, पुराना माल
क्लीयर करना है और फिर यदि इनकी चीज तुम्हें पसंद आ गई तो अगली
बार सेल न होने पर भी तुम खरीदोगी। यहाँ ग्राहक बनाने की होड़
है।"
"हाँ, जैसे कि मुझे उस सीरियल की आदत पड़ गई है और मैं वही खाती
हूँ। सेल तो नहीं होती हमेशा।"
"तुम समझदार हो रही हो।" रवीश मुस्कराए।
अब सुमि का जोश ठंडा पड़ गया है। घर में जरूरत की तमाम चीज़ें
जुटा चुकी है वह। सेल में खरीद–खरीद कर। सच तो यह है कि सेल
में चीज़ें खरीदने की ऐसी आदत पड़ चुकी है उसे कि जरूरत होने पर
भी तबतक टालती रहती है जबतक वह चीज़ें सेल में न आ जाएँ। यहाँ
तक कि हर सप्ताह सारी दूकानों के सेल के काग़ज में भाजी के
दामों की तुलना कर वह यह तय करती है कि इस सप्ताह "फूड टाउन"
जाएगी या "फियेस्टा" या कहीं और। इतनी बड़ी दूकानें। एक भाजी
खरीदने जाओ तो चल चलकर पैर दुख जाते थे। अब आदत पड़ गई है।
यहाँ तो यह हाल है कि लोग लोन लेकर पढ़ाई करते हैं। लोन में घर,
कार और जरूरत की तमाम चीजे- मसलन, सोफा, पलंग टी.वी. वगैरह
खरीदते हैं। लोन लेते हैं शादी करने के लिए, बच्चे पैदा करने
के लिए। फिर बच्चों के खर्चे। यों समझ लो एक अंतहीन सिलसिला,
जो दिवालिया होकर सड़क पर आ जाने पर ही खत्म होता हैं। सुमि
इनके जैसी नहीं बनना चाहती।
शुरू में यह सब समझ में नहीं आता था।
वह समझ नहीं पाती थी कि उसके घर मात्र घास काटने के लिए
आनेवाला होज़े इतनी बड़ी गाड़ी कैसे चलाता है। वह गाड़ी तो उसकी
अपनी है। नयी भी है। वह इतने बड़े घर में रहता है। सुमि का अपना
घर तो उससे छोटा है। एक दिन डरते–डरते रवीश से बोली,
"अपना होज़े बहुत अमीर है न?"
"हाँ, तुमसे तो ज़्यादा है ही।"
सुमि का मुंह छोटा–सा हो गया।
रवीश की समझ में आया। हँसे। फिर उसे सहलाते हुए से बोले, "बस
इतना है कि तुम्हारा घर अपना है। कोई लोन नहीं है और वह अगले
कई सालों तक लोन भरेगा।"
"घर का?"
"घर का, कार का, सबकुछ का। आम अमेरिकी गले तक कर्ज़ में डूबा
हुआ होता है।"
तब से सुमि प्रभावित नहीं होती। किसी का बड़ा–सा घर देखती है तो
सोचती है, 'क्या पता, किस नौकरी में है। कितने कर्जे. हैं।
कितना बड़ा लोन है!'
शादियों के सूट तक लोग भाड़े पर लेते हैं। टक्सीडो पहनने का
रिवाज जो है। सुमि को नहीं चाहिए यह सब। न ही उसे चार बजे सुबह
उठकर लाइन में लगना है। गैस स्टेशन से अखबार के कूपन जमा करने
हैं। वह अपने छोटे से घर में, छोटे स्क्रीन का टी.वी. देखकर
खुश है।
लेकिन तब भी कुछ खलता है।
बेटियाँ बड़ी हो रही हैं। तुमुल नौ की होने को आई। तनुज छह की।
इनके लिए जब वह कपड़े खरीदने जाती है और सेल के बावजूद उनकी
ऊँची कीमत देख रुक जाती है, तब बहुत खलता है।
और बच्चों को कहाँ समझ है।
तनु को रोली की लेक्सस कार अच्छी लगती है।"कित्ती बड़ी है न
मॉम।"
"तो क्या हुआ तनु? अपनी कोरोला भी तो अच्छी है। हम सब कितने
आराम से बैठते हैं!"
तनु ने उसे सीधी आँखों से देखा, मानो कह रही हो "क्यों झूठ
बोलती हो मॉम।"
सुमि आजकल परेशान रहती है। यहाँ किसी की नौकरी स्थाई नहीं
होती। कैसे भरोसा करे। ऊपर से ये कंपनियाँ गधे की तरह खटाती
हैं। हर महीने यहाँ वहाँ टूअर पर जाना। रह जाती है अकेली सुमि,
घर और बच्चियों को सँभालती। उन्हें स्कूल ले जाती, वापस लाती।
रवीश की अनुपस्थिति में, सप्ताहांत में उन्हें यहाँ–वहाँ
घुमाती, चकरघिन्नी–सी घूमती रहती है। इस सबके बावजूद उन दोनों
ने जोड़–जोड़कर इतना जुटा लिया है तो वह कम नहीं है। घर अपना,
कार अपनी। सबकुछ तो है और सारे लोन चुक चुके हैं। इससे आगे
चाहिए क्या। अब बस इन दोनों की चिंता है। लेकिन इन बच्चों को
कौन समझाए! अमेरिका की उपभोक्ता संस्कृति में पल–बढ़ रही उसकी
बच्चियाँ रोज ही कुछ देख आती हैं, कुछ सुन आती हैं। अमेरिकी हो
रही हैं ये, सुमि सोचती है, रोके तो कैसे! और रोकना मुनासिब है
क्या! कहीं हीनभावना की शिकार न हो जाएँ उसकी बच्चियाँ। इतनी
बड़ी भी नहीं हैं कि समझ सकें इतनी बड़ी–बड़ी बातें। सोच सकें उस
तरह, जिस तरह सुमि सोचती है। उसे भी तो वक्त लगा था। बड़ी थी वह
तो। तब भी...
शाम को खेल कर लौटी दोनों बच्चियाँ उसे उत्साह से बतला रही
थीं।
"मॉम, मैक का जो टी.वी. है न उसका स्क्रीन ४२ इंच है। सच
हैरी पॉटर देखने में बड़ा मज़ा आया।
हम भी वैसा खरीदेंगे। है न मॉम?"
सुमि के हाथ में सेल के पेपर हैं।
उसने एक फ़ैसला–सा किया। मिनटों में। बोली,
"हाँ बेटे, अभी थैंक्सगिविंग की सेल है न। खरीदेंगे।"
बच्चियों की आँखों में चमक आ गई। सुमि ने उन्हें करीब खींच
लिया। लिपट गईं वे उससे। वह देर तक उनकी कोमल बाँहों को गले के
इर्द–गिर्द महसूसती रही...
रात को उसने रवीश से कहा,
"मैं इस बार टी.वी. बदल डालूँगी। बेटियाँ बार–बार दूसरों के
घर देख आती हैं। उन्हें लगता है कि अपना टी.वी. बहुत छोटा
है।"
"तुम उन्हें समझाती क्यों नहीं? इस तरह तुलना करने की आदत पड़
गई तो कल को सबकुछ बड़ा चाहिए होगा इन्हें। बड़ा घर, बड़ी कार। और
अपने सिर पर बड़ा लोन। यहाँ शिक्षा कितनी महँगी है, जानती तो
हो। इनकी पढ़ाई का खर्च जुटाना मुश्किल हो जाएगा।" रवीश खीझ
गया।
"तुम परेशान क्यों होते हो? मैं थैंक्सगिविंग सेल में जाऊँगी।"
वह शांत थी।
"चार बजे सुबह उठकर?"
"हाँ, क्या हुआ!"
"ठीक है, जाना। मुझे मत उठाना। मैं नहीं आनेवाला।"
"जैसे मुझे कार चलाना नहीं आता।"
"और जो टी.वी. अपने पास है, उसका क्या करोगी?"
"तुम गराज सेल लगा लेना।"
"मज़ाक मत करो।"
"अपने बेड रूम में ले लेंगे।"
रवीश ने हथियार डाल दिए।
सुमि अखबार देख चुकी है। सीयर्स में सबसे पहले आनेवाले पाँच
ग्राहकों को बयालीस इंच स्क्रीन वाला टी.वी. डेढ़ सौ डालर में
मिलेगा। डेढ़ सौ डॉलर तो वे खर्च कर ही सकते हैं। इस बार वह
जरूर जाएगी।
वह अधीरता से इंतज़ार कर रही है।
घड़ी में तीन बजे का अलार्म लगाया था लेकिन पहले ही उठ गई। नींद
कुछ ठीक से नहीं आई। क्या फ़र्क पड़ता है। एक दिन की बात है। कल
सो लेगी।
आधे घंटे की ड्राइव। वह सचमुच सुबह चार बजे सीयर्स के सामने
थी। नवंबर की ठंड! मफलर से कान मुंह लपेटा और मोटे कोट की जेब
में हाथ डाल कार से बाहर निकल आई। गर्माहट का अहसास तब भी गायब
था। वातानुकूलित घरों में रहने की आदत ने बहुत कमज़ोर बना दिया
है। ये लोग कोई शेड क्यों नहीं बनाते। लाइन में खड़े–खड़े दाँत
बज रहे हैं। अच्छा होता वह भी औरों की तरह एक कप कॉफी उठा
लाती। अभी तो खुशबू से ही गर्म होने की कोशिश कर रही है।
टी.वी. लेकर घर जाएगी तो बेटियाँ तो खुशी से नाच उठेंगी। रवीश भी
खुश ही होंगे। चाहे अभी नाराजगी दिखा रहे हों। बस खुले आकाश के
नीचे चार घंटे गुज़ार ले। यहाँ तो लोग पूरे हफ्ते भर इसी तरह
खरीददारी करते हैं। सुबह से शाम तक। उसके लिए तो कुछ घंटों की
बात है। आठ बजे दूकान खुल जाएगी। वह लाइन में तीसरी है। पाँच
टी.वी. हैं। उसे तो मिलना ही है।
पीछे खड़ा नौजवान जोड़ा एक दूसरे से चिपका खड़ा है। गर्म कॉफी के
छोटे–छोटे घूँट भरता हुआ।
सुमि लाइन से निकलने का खतरा नहीं उठाना चाहती। पहली बार आई
है। किसी को जानती नहीं। क्या पता जगह छिन जाए। नहीं तो
स्टारबक कॉफी पास में ही है। सुबह पाँच बजे से कॉफी और ऐसी ही
नाश्ते की कई दूकानें खुल जाती हैं, इस सेल के मद्देनजर। उन
दूकानों में काम करनेवाले ओवरटाइम कमा लेते हैं। सबका फायदा!
और जो इस तरह सेल लगाते हैं ये, उससे इनका अच्छा–ख़ासा विज्ञापन
भी तो होता है। उसे याद आया जब आइकिया फर्नीचर का शो रूम उसके
शहर में खुला था तो उन लोगों ने पहले पाँच ग्राहकों को कुछ
हज़ार के फर्नीचर मुफ़्त में देने की घोषणा की थी और लोग सफ्ताह
भर पहले से खुले में टेंट गाड़कर बैठ गए थे। वह अखबार में रोज
उनकी खबरें पढ़ती और उन लोगों पर तरस खाती। अभी कुछ–कुछ समझ में
आ रहा है कि कैसे लाइन में खड़े होते हैं लोग, जब वह खुद ऐसी ही
एक भीड़ का हिस्सा बनी खड़ी है। कोई बात नहीं। अभी सुबह हो
जाएगी। इतना भी क्या सोचना। वह क्या रोज–रोज आनेवाली है।
दूकान खुली। सेल्सगर्ल ने मुस्कराकर उसका स्वागत किया।
घटी हुई कीमत चुकाते हुए वह बहुत हल्का महसूस कर रही थी।
"हैप्पी थैंक्सगिविंग" उसने काउंटर पर खड़ी लड़की को
प्रत्यु.त्तर में कहा।
टी.वी. लेकर यों घर लौटी जैसे जंग जीतकर आई हो।
बेटियाँ खुशी से नाच उठीं। रवीश भी मुस्कराए।
सुमि ने संतोष की साँस ली।
सेल चलती रही।
थैंक्सगिविंग से शुरू हुई सेल अब क्रिसमस की सेल में बदल गई।
फिर आफ्टर क्रिसमस सेल।
सुमि को कोई दिलचस्पी नहीं।
वह बेटियों को खुश देखकर खुश है। रवीश उसे देखकर खुश हैं। घर
में शांति है। टी.वी. देखती है तो अपने पर फख्र हो आता है।
सुमि विजेता की तरह घर में घूमती है।
एक साल होने को आया...
थैंक्सगिविंग की छुट्टियाँ हो गईं।
सुमि के लिए ये थोड़े दिन चैन के हैं। रवीश घर पर है। वह एक
सप्ताह चैन से सोएगी।
तुमुल आज का अखबार उठा लाई है।
"मॉम, पता है आजकल फ्लैट स्क्रीन एच डी .टी.वी. की सेल चल रही
है। पचास इंच स्क्रीन वाला।
तुम अखबार में देखो न।"
सुमि चुप।
"मॉम पता है, कार की भी सेल होती है," यह तनुज थी, "
थैंक्सगिविंग में खरीद सकते हैं, है न मॉम!"
"ममा, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?"
क्या बोले सुमि? अपनी जीत में अभी से हार का अहसास होने लगा
था। |