स्वयं भी वह सज–धज कर बाहर कुर्सी पर ले आई गर्इं। उन्होंने
हाथ में मखमल की लाल थैली पकड़ रखी थी। कुछ वर्षों से पहिये
वाली कुर्सी ही उनका एकमात्र सहारा थी।
लोग हंसी मखौल कर रहे थे। हिजड़े की खिंचाई हो रही थी। वह
अँग्रेज़ी में जवाब दे रहा था, "इक्सक्यूज़ मी! ब्यूटी लाइज़ इन द
आइज़ आफ़ द बिहोल्डर!" सुनने वाले इस पर भी
हँस रहे थे।
"यार हिजड़ा भी अंग्रेज़ी सीख गया है। क्या ज़माना आ गया है।
फ़िल्में जो ना करा दें थोड़ा।"
हिजड़ा मर्दानी परंतु सुरीली आवाज़ में गाता है,
"हरियाला बन्ना लाड़ला, बी एम डब्ल्यू पे मचला जाए
बन्ने के चाचा हैं लखपतिया, चाची का प्यारा लाड़ला, बी एम
डब्ल्यू पे मचला जाए।"
सुनकर राहुल के चाचा रंग में आ गए और बोले,
"भई यह तो बड़ी ऊँची छलाँग है। हमारे ज़माने में तो सिर्फ़
मोटरसाइकिल पर मचलते थे बन्ने।"
"अय–हय, ज़रा शर्म करो। दुल्हन लाओगे करोड़पतियों के घर से तो
उसे फटफटिया पर बैठाओगे चचा जानी?" हिजड़ा अभिनेता राजकुमार की
नकल उतारकर उसी स्वर में बोला।
राहुल के 'चचा जानी' कब चुप रहने वाले भला!
"बी एम डब्ल्यू पता भी है किसे कहते हैं?"
"बड़े आए अंग्रेज़ी वाले। तुम तो इम्तहान पर से उठ गए थे, मैंने
तो बी .ए .पास किया है पक्का, हाँ...। डिगरी रखती हूँ डिगरी,
लिटरेचर में हाँ...।" और वह कुल्हे मटकाकर ताली बजाता है
हिजड़ों वाली!
घर का पुराना नौकर रामलुभावन बोला,
"अकेली क्यों आई है? दो चार को संग लाती तो नाच ज़रा जमता।"
"अय आजकल मुई पार्टनरशिप का ज़माना नहीं है। एजेंट को भी देना
पड़े है और नई तो।" कहकर उसने लॉन में खड़े माली की ओर भवें मटका
कर इशारा किया, फिर बोला, "पहले तो मुए बीड़ी–सिगरेट से खुश हो
जावें थे। अब इंपोर्टेड बियर का डिब्बा
माँगे हैं पीने को।
देसी कहो तो नाग की बोतल से कम बात नहीं करते।"
मैं दुल्हा–दुल्हन को लिए दरवाज़े में खड़ी थी। सामने राहुल का
दोस्त कैमरा साधे विडियो खींच रहा था। हमें आया देखकर अगली
कतार में कुर्सियाँ खाली कर दी गई। मेरी बहन, राहुल की
माँ भी
रसोई में से निकलकर आ गई।
हिजड़ा ज़ोर–ज़ोर से ठुमका लगाकर नाचने लगा। उसका थुलथुल बदन
थिरकने लगा। ढोलक की थाप रंग पकड़ती गई। काला पक्का रंग, भरी
हुई देह, करीब साठ पैंसठ की उमर, खूब काले बालों के जूड़े पर
बेला के फूलों का ताज़ा गजरा। नकली हैंडलूम की टैरीकोट की साड़ी
और उसी के लाल रंग की पूरी बांह की कुर्ती जिससे शरीर का अंग
ना झलके। आँखों पर काले शीशों का चश्मा चढ़ा था। गले में
भौंडी–सी नकली मोतियों की दुहरी माला, हाथ में मर्दानी घड़ी और
दूसरे हाथ में मौली बाँधे था।
मैंने मन में सोचा, देखो मुए को, बायें हाथ में मौली बाँधे है
औरतों की तरह, जैसे औरत होने का सबूत चाहिए दुनिया के वास्ते।
हिजड़ों को साड़ी का पल्ला संभालना तो कभी आया ही नहीं सदियों
से! इसने भी सीधे पल्ले से साड़ी बाँधी थी और छोटा–सा, पेट ढकने
तक का पल्ला, ब्रीच से कंधे पर सँभाल रखा था। बार–बार उसे
उठाकर पसीना पोंछता था, गोया उसका उद्देश्य वक्ष ढँकना नहीं,
अपितु कंधे के गमछे की तरह प्रयोग करना हो।
उसका पूरा चेहरा चेचक के गहरे दागों से भरा था।
राहुल के चाचा फिर चमके। बोले, "क्या यार इतना बदसूरत हिजड़ा,
पूरा विडियो ही ख़राब कर दिया।"
"अब क्या कमी है मुझमें ज़रा सुनूँ तो?" ठिंगनी–सी चाची की ओर
कटाक्ष करके हिजड़ा बोला, "लंबी ऊंची हूँ। चिकनी–चुपड़ी हूँ!
(सचमुच उसके गालों पर दाढ़ी की छाया नहीं दिख रही थी) और
अंधेरे में गोरा–काला क्या पता चले हैं? बेड में तो मैं भी लैस
वाली नाइटी पहनती हूँ! हाँ...!"
लोग इशारा समझ कर हँस–हँस कर दुहरे हो गए। चाचा फिर पछाड़े गए
थे। हिजड़ा भरपेट हँसा रहा था। आगे बोला, "अरे तुमसे तो मुझे
यों भी शादी नहीं करनी। ज़रा बन्ने की चाची से जाकर पूछो। एक को
तो तुम निभा नहीं पा रहे अब...!" कहते–कहते वह फिर नाचने
लगा, "टटपूँजियों से ना अँखियाँ मिलाना, टटपूँजियों का है घर
ना ठिकाना..."
इतने शोरगुल में भी मेरा ध्यान राग रंग में डूब नहीं पार रहा।
कहीं कोई तार अवचेतन में ढीला लटक रहा है– उसमें से चिंगारियाँ
छूट रही हैं – कनेक्शन
माँग रहा है। मेरी आत्मा यादों की
गहराइयों में गोता लगाकर कुछ ढूंढ लाना चाहती है। उसे घुटन हो
रही है।
गाने की धुन एक और गाने से जा टकराती है जिसे रागिनी गाया करती
थी।
••
रागिनी, हाँ रागिनी श्रीवास्तव!
यह हिजड़ा बिल्कुल उसी की तरह काला है। उसके भी सारे
मुँह पर
चेचक के गहरे दाग थे। उसकी एक
आँख चेचक खा गई थी। और उसकी
पुतली पर सफ़ेद झिल्ली थी। मुझसे लंबी और पतली थी। उसकी बाहों
पर घने बाल थे। उस ज़माने में ब्यूटी सैलून नहीं हुआ करते थे।
अक्सर हँसती थी, उसे भगवान ने गलती से लड़की बना दिया।
रागिनी, कोकिल कंठी रागिनी।
कितनी कुरूप थी मगर हमारे मंच का कोई कार्यक्रम उसके बिना सटीक
ना बैठता था। क्या मस्त तबला बजाती थी। क्या सितार पर गतें
निकालती थी! अक्सर संगीत की अध्यापिका सुधा घोषाल अनुपस्थित हो
जाती थीं। हम उससे आसावरी का झाला बजाने को कहते। इतिहास की
श्रीमती शीला गुप्ता की नकल वह ऐसे निकालती थी कि यदि देखो ना
तो असली–नकली का फ़र्क ना पता चले। कोई फ़िल्म देखकर आती, सारे
डायलाग अभिनेता पात्रों के स्वर में सुनाती।
हिजड़े की मर्दानी आवाज़ फटे दूध की तरह वातावरण में बिखर रही
है...
नाना ने भेजी पालकी
और नानी मोती हार
यह हमारी सुघर सलोनी
नित्य नये सिंगार।।
मेरी विचार श्रृंखला पीछे की ओर मुड़ जाती है...
नाना–नानी? कहाँ चले गए?
कहीं सितारों में से देख रहे होंगे। कितनी साध थी हमारी अम्मा
को राहुल की बहू लाने की। रोज़ मंसूबे बांधा करती थीं। बिना बात
बन्ने घोड़ियाँ गाने लगती थीं। पिछले साल ही तो गुज़र गईं अचानक।
काश!! एक बरस और रुक जातीं!!!
मेरी आँखों की नमी हिजड़ा भांप जाता है। मेरे सामने आकर दामन
पसार कर बधाई गाता है। उसके ठुमके के साथ उसकी भवें नाचती हैं।
रागिनी भी भवें नचाती थी। कानी
आँख थी तो भी उसकी भवें
लहरों–सी डोलती थीं। चेचक के गहरे दागों से भरी उसकी तीखी नाक,
पतले होंठ। उफ! कैसा था वह चेहरा, जैसे उसका कुरूप होना ही
उसका सबसे बड़ा आकर्षण हो।
हिजड़ा भोंडी–सी आवाज़ में दुहाई देता है, "नानी की बधाई ये
लंदनवाली देवें। डबल लूंगी।"
मैं चुपचाप अंदर चली जाती हूँ। पांच–पांच सौ के दो नोट अम्मा
बाबूजी की फ़ोटो से स्पर्श कराके लाती हूँ और उसकी झोली में
डालती हूँ। मेरी आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी है। स्वर को संयत
करके उसे आश्वासन देती हूँ, अगली बार डबल बधाई दूंगी!
हिजड़ा रुपए को माथे से लगाकर ढोलक वाले के पास बैग में रखवाता
है। इसके बाद आशीर्वादों की बौछार करता है। दुल्हा–दुल्हन को
संबोधित करके कहता है।
"सुन लिया मौसी का वचन? अब लड़का पैदा होगा तो डबल बधाई लूंगी।"
राहुल और करिश्मा का रंग लाल हो जाता है। मेरी बहन कहती है,
"अभी देर लगेगी। लड़की को पढ़ाई पूरी करनी है। साल बाकी है।"
"अय काहे की देर? नींव तो कल रात को ही पड़ गई तुम्हारे पोते
की। राम तेरी गंगा मैली हो गई, हाँ...।"
हिजड़ा बिल्कुल मेरे पास खड़ा है। एक मिनट के लिए गर्मी के कारण
वह अपना काला चश्मा उतारता है और आँखें पोंछता है, फिर चश्मे
के शीशों को पल्ले से रगड़ता है। मैं देखती हूँ, उसकी एक आँख
में जाला है। क्षण भर को मेरी धड़कन रुक जाती है...
रागिनी – बड़ी थी मुझसे, हम सबसे।
उसके केवल दो विषय मुझसे मिलते थे – संगीत और इतिहास। संगीत के
समय वह सितार की क्लास में जाती थी और मैं गायन की क्लास में।
अलबत्ता इतिहास के घंटे में उससे मुलाकात हो जाती थी। हफ़्ते
में बस तीन दिन। उससे ज़्यादा बातचीत नहीं थी हमारी। उसकी एक
अभिन्न सहेली थी पद्मा – सुंदर, गोरी और शादीशुदा। वह भी उम्र
में बड़ी–बड़ी लगती थी। शायद तीन बरस से इंटर में फेल हो रही थी।
दोनों अक्सर इतिहास की अध्यापिका शीला गुप्ता की डांट खाती
थीं। कारण उनकी खुसर–फुसर चलती ही रहती थी। इसके बावजूद रागिनी
बराबर नोट्स लेती जाती। किस तरह वह लेक्चर और पद्मा की गप्पें
एक साथ जज़्ब करती जाती थी, पता नहीं। उसकी लिखाई मोतियों जैसी
होती थी। अंगे्रज़ी, हिंदी, संस्कृत आदि सामान्य विषय थे मगर वह
इन सबमें 'सी' कक्ष में थी और मैं 'ए' कक्ष में। हमारी कोई बात
नहीं मिलती थी। सुबह उसका रिक्शा भी मुझसे विपरीत दिशा से आता
था। उसी ओर से अधिकांश बुर्केवालियाँ भी कालेज आती थीं। मैंने
मन में जैसे मान रखा था कि वह किसी मुसलमानी मुहल्ले में रहती
होगी। उन दिनों मेरा शहरी भूगोल का ज्ञान अपने घर से कालेज और
बाज़ार तक सीमित था। शहर के अन्य मुहल्लों के केवल नाम ज्ञात
थे। इंसान की जीवन शैली पर उसके पर्यावरण का कितना प्रभाव होता
है, यह उस समय मेरी समझ से परे था।
मेरे रिक्शे में सुचिता दीदी भी आती थीं जो उन दिनों बी .ए
.में पढ़ती थीं। अर्धवार्षिक परीक्षा दो सिटिंग्स में रखी गई
थी, अतः उन्हें आठ बजे ही पहली सिटिंग के लिए स्कूल में आना
होता था। नवंबर की ठंडी सुबह थी, परंतु मुझे भी उनके साथ आना
पड़ा। स्कूल का विशाल प्रांगण एकदम खाली पड़ा था। जमादार झाडू
लगा रहा था। हमारे कमरे अभी बंद पड़े थे। मैं फाटक के सामने
मुँह करके लायब्रेरी के चबूतरे पर बैठ गई। सुनहरी धूप कुछ ताप
दे रही थी। एक–एक करके अध्यापिकाएं आ रही थीं। फाटक पूरा खुला
था ताकि उनके रिक्शे अध्यापिका कक्ष के ऐन दरवाज़े तक...इतने
में रागिनी आती दिखाई दी।
"तुम इतनी जल्दी कैसे आ गई रागिनी। मेरी तो सुचिता दीदी का आज
पेपर था, पहली सिटिंग में।"
रागिनी गंभीर–सी बनी पास आकर बैठ गई। बोली, "जीजा के घर रहती
हूँ ना। कभी–कभी वह कचहरी जाते समय मोटर साइकिल पर छोड़ देते
हैं। रिक्शा के पैसे बच जाते हैं।"
"तुम्हारे
माँ–बाप?"
तब इतनी भी अकल नहीं थी कि किसी से व्यक्तिगत प्रश्न नहीं
पूछने चाहिए।
रागिनी दूर देखती हुई बोलने लगी – डूबी सी आवाज़ में बोलती ही
चली गईं।
"माँ मर गईं। जब सन सत्तावन में चेचक फैली थी हम लोगों को निकल
आई। जिज्जी बच गई क्योंकि उसकी तो दो बरस पहले शादी हो चुकी
थी। वह यहाँ शहर में रहती थी। शीतला माता जब आती हैं, बलि लेकर
जाती हैं। मेरी
माँ और छोटा भाई चल बसे। मेरी उम्र तब पंद्रह
साल की थी। मेरी भी सगाई हो चुकी थी। अगले साल शादी होनी थीं।
मैं अभागी थी सो बच गईं। एक
आँख भी जाती रही। फिर लड़के वाले आए
और सगाई तोड़ गए। अगले बरस पिताजी ने मेरा नाम नौवीं कक्षा में
लिखवा दिया।
कुछ दिन बाद दौरे का बहाना करके मुझे पड़ोसन के घर छोड़ गए और
पास के गांव से एक मोटी–सी बीस बाईंस साल की लड़की ब्याह लाए।
उन्हें वारिस की प्रबल इच्छा थी। मैं पूर्ववत घर संभालती रही,
खाना बनाती रही। वह पलंग पर बैठी–बैठी सुपारी खाती थी और
बात–बात पर पिताजी की अनुपस्थिति में मुझे मारती थी। मैं
बीमारी के कारण सूख कर कांटा रह गईं कि तिस पर मुहल्ला भर मुझे
अभागी कहता था।
फिर उसको लड़का हुआ। मैंने समझा कि मेरा भाई वापस आ गया। मैं
बेहद खुश हुईं पर डायन ने मुझे बच्चे को हाथ तक नहीं लगाने
दिया। कहती थी कानी का साया तक ना पड़ने पाए।
एक दिन लल्ला बहुत रो रहा था तो मैंने उठा लिया क्योंकि वह
नहा–धो रही थी। इसके लिए उसने मुझे कपड़े धोने की पाटी से पीटा।
मेरी बांह की हड्डी टूट गई। तब जाकर मेरे पिताजी को होश आया।
हड्डी जुड़वाने मुझे शहर लेकर आए। यहाँ हम जीजा के घर रहे।
जिज्जी के दो बच्चे हो गए थे और तीसरा पेट में था। दोनों बच्चे
मुझसे हिल–मिल गए। जीजा ने लल्ला का किस्सा सुना तो बोले कि
दसवीं का इम्तहान मैं यहीं से दिलवा दूंगा। रोज़ कालेज जाएगी।
आप इसे यहीं छोड़ जाओ।
अंधे को क्या चाहिए, दो
आँखें। पिताजी झट तैयार हो गए। उनकी
नयी जवानी का मैं कांटा जो थी। जीजा एक बड़े वकील के दफ़्तर में
काम करते हैं। जिज्जी से दस बरस बड़े हैं। ऊपरी आमदनी तनखाह से
ज़्यादा है। पिताजी ने मुझे स्कूल की फीस और पच्चीस रुपया महीना
भेजना तय किया और मैं तबसे यहीं पड़ी
हूँ।"
मैंने हिसाब लगाया यदि सन सत्तावन में वह पंद्रह साल की थी तो
अब सन साठ में अठारह–उन्नीस की हुई। यानि हमसे चार–एक साल बड़ी
थी। मगर वह पद्मा की तरह फेल नहीं हुई थी।
गदगद कंठ से मैंने कहा, "तुम्हारे जीजा तो बड़े भले आदमी निकले।
अब चैन से पढ़–लिख तो सकती हो। अपना भविष्य बना लोगी तो..."
"कोई भले–वले नहीं होते मर्द इस दुनिया में। सब मतलबी होते
हैं। चार बच्चों के संग जिज्जी अकेले थोड़े ही संभाल लेगी
गृहस्थी। नौकर कोई है नहीं। सारा खाना मैं बनाती
हूँ दोनों
समय। रसोई में रहती
हूँ तो किसी बाहर वाले के सामने नहीं जाना
पड़ता। चली जाऊं तो जीजा मेरा परिचय नौकरानी कहकर कराते हैं।
जिज्जी भी इसका विरोध नहीं करतीं। पिताजी तो कभी कोई बात भी
नहीं पूछते अब। एक पत्र भी नहीं आता। स्कूल की फीस, महीना सब
धीरे–धीरे बंद कर दिया। उनके लिए तो मैं
हूँ ही नहीं ना। फिर
क्यों ना दूसरे फ़ायदा उठाएंगे?
"कैसे चलाती हो फिर?"
"अब जीजा ही खिलाते–पिलाते हैं। वही फीस भी दे रहे हैं। मगर
फीस तो मैंने अकड़कर ली है। जेब खर्च भी।"
"जिज्जी ने कुछ नहीं कहा?"
"उसे बताया ही नहीं यह सब। कोई बदले में लिए बिना तुम पर क्यों
खर्चेगा। जीजा की काली करतूत उसे बता दूं तो बेचारी ज़हर खाकर
मर जाएगी। मेरा क्या है...मुझसे कोई शादी तो करेगा नहीं।
ऐसे ही ठीक है। बस पढ़ाई ख़त्म कर लूं। फिर कहीं दूर भाग जाऊंगी।
किसी गांव में टीचर या सोशल वर्कर बन जाऊंगी। सौ–दो सौ कुछ तो
मिलेगा ही।"
"तुम्हें खुद को गंदा नहीं लगता?"
"शुरू–शुरू में बहुत रोती थी..."
"पर अब इसे मज़ा आने लगा है। है ना? इसकी जिज्जी नहा–धो कर, इतर
पाउडर लगाकर बिस्तर में जाती है और जीजा कोयले की कोठरी में
टाट बिछाकर इसको रिझाता है...गोबरचट्टे को कंडों की खुशबू
भाती है..." यह पद्मा बोल रही थी, जो न जाने कब आ टपकी थी।
रागिनी घायल हृदय और पनीली हो गई कानी
आँख से उसे असहाय,
उपालंभ देती हुई घूर रही थी। मुझे अचानक अपनी गाय की याद आ गई
जिसकी पूंछ के नीचे कीड़े पड़ गए थे और वह दर्द के कारण मक्खियों
व पक्षियों को उड़ा नहीं पाती थी। उसकी
आँखों की मूक वेदना
रागिनी की आँखों में उतर आई थी। मुझे दोनों की बेचारगी और
छटपटाहट एक जैसी लगी।
पद्मा शरारती थी। रागिनी ने एक बार बताया था कि उसकी शादी,
दहेज बचाने के ख़ातिर अपने मौसा के विधुर भाई से कर दी गई थी।
वह पद्मा से उम्र में पंद्रह साल बड़े थे। पहली पत्नी से उनके
दो लड़के थे। पद्मा ने उन्हें संभालने के साथ–साथ अपनी पढ़ाई भी
जारी रखी। दसवीं के इम्तहान में अच्छे नंबर आए थे। पति को
दूसरी पत्नी पढ़ी–लिखी चाहिए थी, अतः शादी के बाद इंटर में नाम
लिखवा दिया और उसे पढ़ने दिया।
इस बात से क्षुब्ध होकर बच्चों के नाना उन्हें स्कूल की छुट्टी
के समय अगवा करके ले गए। सारी जायदाद धरवा लेने की धमकी भी दे
गए। इसी कलह–कलेश में पद्मा फेल होती रही। पर हमेशा हँसती रहती
थी। एकदम चिकना घड़ा थी।
पद्मा की ठिठोली को टालते हुए मैंने रागिनी से पूछा, "कुछ और
हो गया तो क्या करोगी?"
पद्मा बीच में ही टपक पड़ी। मुझे बच्चों की तरह पुचकारी देती
हुई बोली, "अच्छा मुन्नी अपना काम देखो। रागिनी की सेहत की
ज़िम्मेदारी मुझ पर छोड़ दो। जाओ बच्ची पढ़ो–लिखो। देखो हम भी तो
तीन साल से ठूँठ बैठे हैं! हैं ना?"
मैं भी कहाँ फँसी। राम ही बचाए इन औरतों से!
क्या–क्या खबरें रखती हैं!
उस दिन हिंदी की अध्यापिका श्रीमती सहाय ने अकारन डाँटा मुझे।
बिहारी का दोहा था – 'भरत, ढरत, बूड़त, तिरत, रहटधरी सों नैन'।
नैन शब्द रागिनी की कानी आँख और उसका आँसू भरा इतिहास दुहराने
लगा था मेरे मस्तिष्क में। ध्यान बँट गया था। सहाय दीदी ने
मुझसे कुछ पूछा होगा। बस... वह तो बरस पड़ीं।
"देख रही हूँ, तुम्हारी सोहबत ख़राब होती जा रही है।" बाद में
रागिनी ने बताया था कि सहाय दीदी के पति भी वकील थे। कायस्थ और
वकील। क्या वह जानती थी इसको? किसी ने सच ही कहा है–
ख़ैर, खून, खाँसी, खुशी, इश्क मुश्क सुत मान।
यह छुपाए ना छुपे, कह गए पीर सुजान।।
•••
हिजड़ा गा रहा था–
"परदे में रहने दो,
परदा ना उठाओ..."
बीबी, राहुल की दादी कहती हैं–
"ए कोई ढंग की बधाई गाओ।"
वह बड़े मधुर स्वर में गाता है–
"सेर मोती मैं वारूँ री बन्ने पे,
दादा तो वारे बन्ने, मोहर अशर्फी
दादी तो वारी–वारी जाए री बन्ने पे..."
बीबी पाँच हज़ार रुपए से राहुल और करिश्मा की नज़र उतारकर थैली
हिजड़े को पकड़ाती हैं। वह उसे बैग के हवाले कर देता है। फिर
अक्षत निकाल कर सब पर छिड़कता है।
अय, बनिये का उधार कभी ना होवे मगर हिजड़े का उधार सदा बना रहे।
एक नारियल वह दुल्हन की झोली में डालता है, फिर उसके सिर पर
हाथ फेरता है। बीबी चिल्लाती हैं,
"रह जाव, छुओ नाहीं"
हिजड़ा ढिठाई से कहता है, "अरे मेरा आशीर्वाद है। क्यों ना
छुऊँ? मैं कोई चूड़ी–चमारी नहीं हूँ। श्रीवास्तव हूँ, हाँ...। अमिताभ बच्चन की तरह। वह चुनरी पहनकर नाचे तो तुम हिजड़ा ना
कहोगी माताजी! फोटो खिंचवाओगी उसके संग – झूठ नहीं बोल रही!"
हिजड़ा बैग समेटकर कंधे पर लटका लेता है और ढोलक वाला ढोलक।
दोनों मटक–मटक कर वापस जा रहे हैं।
मेरी आँखें फिर बरस रही हैं परंतु इस बार
माँ की याद में नहीं। |