वे दोनों घर के लोगों और अपने कामों की भीड़
से बहुत समय बाद आज निकल पाए थे। टहलते हुए उसने झील के इस
हिस्से की तरफ लगभग दौड़–सी लगा दी थी और वहाँ पहुँच घास पर लेट
गई थी। राज को हैरानी हुई थी। वह कभी 'पब्लिक प्लेसेज़' में ऐसे
खुलकर व्यवहार नहीं कर पाती थी, टहलने आए अन्य लोगों को करते
देख कर भी नहीं, कुछ पल वह उसके पास अनिश्चित भाव से खड़ा रहा
था फिर घास पर उसके पास ही अधलेटा–सा हो आया।
"आए हुए दो मिनट नहीं हुए और तुम शुरू हो गए।"
"मैंने क्या कहा?" यह राज का छुपा हुआ अस्त्र था। जब बात
बिगड़ती, वह यह अस्त्र फेंकता। सामने वाला इस अस्त्र से बचने के
लिए दाएँ–बाएँ करता, तब राज बात को दोहराता, फैलाता,
तर्क–कुतर्क की रस्सियाँ बुनता–खोलता और दूसरे जब तक बात को
पकड़ पाते, वह विजयी भाव से अपना निर्णय सुना रहा होता।
गीता उसकी इस चाल से कुछ–कुछ परिचित हो चली थी पर अक्सर
उत्तेजना में आकर पुनः इस खेल में फँस जाती।
आज उसने इस बात का कोई जबाव नहीं दिया, बस झटके से गर्दन मोड़
कर राज को एक क्षण घूरा।
राज इस प्रत्युत्तर के लिए तैयार नहीं था। आज वह सब कुछ अलग
ढंग से कर रही थी।
उसने पैंतरा बदला और खिसक कर उसके हाथ को सहलाते हुए पुचकार के
स्वर में बोला,
"यहाँ तो आओ।"
"क्यों?"
"क्यों क्या? पास आने में क्या हर्ज है?"
वह क्षण भर चुप रही। शायद 'हर्ज़' और उसके 'फ़ायदे' के हिसाब में
अटक गई, फिर मुस्कुराकर खेल के स्वर में बोली,
"तुम लहर नहीं, पानी नहीं, फिर क्यों तुम्हें छुऊँ?"
"तो क्या तुम हवा हो।"
उसने आँखें बंद कर लीं, "हाँ, शायद, देखो बाँस के झुरमुट में
सुनों मेरी सर–सर करती आवाज़। देखो मैंने तितलियों के पर दुलरा
दिए . . .मैंने बादल के गोलों को कितना ऊपर उछाल दिया . . ."
वह आँखें बंद करे समाधिस्थ–सी बोल रही थी।
राज असंपृक्त–सा उसे कुछ पल देखता रहा – उसका मन किया वह उठ कर
वहाँ से चला जाए। उसे लगा अगर वह चला भी जाए तो भी शायद गीता
को पता नहीं चलेगा। वह यों ही बोलती रहेगी – जानेगी भी नहीं कि
हवा बन कर उसने क्या खोया।
आज वह उसके लिए अनजान बनती जा रही थी। जब कभी छठे–छमाहे गीता
बहकती तो राज के लिए वह अपरिचित हो उठती। वह महसूस करता कि इस
गीता के जीवन में वह नहीं है, कोई नहीं है – वह कुछ की कुछ हो
जाती है। राज को इस बात से चोट पहुँचती।
वह और भी बहुत कुछ सोचता पर ठीक उसी पल गीता अपनी दुनिया में
लौट आई। पट से उसकी आँखें खुल गईं और राज के चेहरे पर टिक गईं।
कुछ पल वह राज को पढ़ती रही फिर बोली,
"तुम्हें बरदाश्त क्यों नहीं होता?"
"क्या?"
"मेरा 'कुछ' हो जाना।"
"क्या 'कुछ' हो गईं तुम?"
"कुछ भी होना, मेरा कुछ भी होना तुम्हें बरदाश्त नहीं।"
गीता के चेहरे पर हिकारत उभरने को हो आई।
"क्या 'ब' से करती हो?" वह डपटते से स्वर में बोला।
"ब से माने क्या?"
"'ब' के माने 'ब' " – बात का खेल फिर अब उसके पक्ष में आ गया
था।
"माने मैं बकवास कर रही हूँ।" वह आँधी बनने को तैयार थी।
"मैंने कब कहा।"
"तो क्या कहा?"
"तुम बोलो, तुमने क्यों बकवास सोचा, तुम्हें क्यों लगता है कि
तुम बकवास करती हो?"
वह इस खेल से झल्लाने लगी और राज बातों की लगाम फिर से अपने
हाथ में थाम कर खुश था।
"तुम से बात करना बेकार है।" यह गीता का अस्त्र था।
राज उसे विजयी नहीं बनने देना चाहता था। बातों के खेल को वहीं
रोक कर बोला,
"अरे! 'ब' से माने बात।"
"यह भी क्या बात रही।" वह फिर झल्लाई।
"मैं तो यही बात कह रहा था। तुम हर समय नाराज़ क्यों हो जाती
हो?"
वह भड़क कर कुछ तीखा कहने को थी पर आस–पास के सन्नाटे का या हवा
का असर था कि वह धीमी पड़ गई।
"मैं नाराज़ हो रही हूँ?" वह चौंकने के से भाव में बोली।
"और नहीं तो क्या? हर बात में तुम नाराज़ हो जाती हो।" राज ने
आक्षेप के से स्वर में कहा।
वह रोने–रोने को हो आई। बात की सच्चाई से वह आज भाग नहीं पाई।
धीमी सी सरसराहट के से स्वर में उसने कहा,
"मैं कतरा–कतरा मुहब्बत बन कर तुम्हारी बाँहों में पिघलना
चाहती थी . . ." उसका स्वर पनीला हो गया, "बह जाना
चाहती थी, सब बहा देना चाहती थी।
अपने भीतर का और तुम्हारे भीतर का।"
राज मन की गहराइयों से उभरती उसकी आवाज़ को सुनता रहा। पर उसमें
उसमें बहने को वह तैयार नहीं हुआ। ऐसा कभी–कभी होता था, गीता
का पनियाया हुआ स्वर उसके मन की चट्टानों पर बहने लगता, वह
स्वयं भी बहने–बहने को हो आता – पर उसे अपने मन की चट्टान
तोड़ना मंज़ूर न था। चट्टान ढहने के बाद क्या होगा? वह नहीं
जानता था। उसे डर लगता, वह गीता जैसा हो जाएगा या उसके
नियंत्रण में चला जाएगा या फिर . . .कुछ नहीं रहेगा . . .वह
स्वयं नहीं जान पाता। अजाने की आशंका उसे कठोर बना देती, वह
अपनी ज़मीन कस कर थाम लेता और गीता की पनीली आवाज़ उसपर बेअसर
बहती रहती।
उसकी चुप्पी ने गीता के बहने को बाँध दिया। वह थके से स्वर में
बोली,
"कुछ कहते क्यों नहीं?"
"सुन रहा हूँ।"
"वो तो देख रही हूँ, पर बात का कोई जबाव या प्रतिक्रिया नहीं
होती क्या?"
"मुझे नहीं पता था कि तुम
सवाल कर रही हो।"
गीता की आँखें लहरें बनने को तैयार हो गईं। वह उतरते अँधेरे
में झील के स्याह पड़ते पानी को ताकने लगी। राज क्यों ज़िद करता
है। क्यों नहीं उसके बहाव को अपनी बाँहों में बाँध, सीने में
उतार लेता। गीता उसके भीतर का सैलाब देखने को अकुला जाती पर वह
इतना निसंपृक्त–सा बैठा, गीता का बढ़ना देखता रहता कि उसे अपने
पर शर्म आने लगती, खुद पर बेतरह गुस्सा उमड़ता कि वह इतनी कमज़ोर
क्यों पड़ जाती है। चट्टान होने में राज की ताकत है तो वह भी
चट्टान क्यों नहीं बनती?
कभी–कभी उसे सातवीं आठवीं क्लास में पढ़ी यह पंक्तियाँ याद आ
जाती थीं . . .
'रसरी आवत जात तो सिल पर परत निसान', क्या यह कहावत सच थी?
राज पर तो कोई असर नहीं दिखाई देता है। पर इस बीच इतने निशान
उसके अपने दिल पर पड़े हैं कि उसकी भावनाओं के पंख तक काले पड़
गए।
फुर्सत मिलने पर कभी वह आईना देखती तो पूछती –
"तुम कौन हो?" अपरिचित शक्ल आइने में विद्रूपता से हँस देती –
"तेरी गल्ती।"
"पर मैंने क्या गल्ती की?"
"एक गल्ती?" छाया हँसती, "गल्ती पर गल्ती की हैं तूने।"
वह कातर हो उठती . . ."क्या किया मैंने?"
"बह जाने की इच्छा, क्या यह कम बड़ी गल्ती है? तुम कौन सी
दुनिया में हो? लोग कुछ बनने–जोड़ने की भागा–दौड़ी में लगे हैं,
तुम बह जाना चाहती हो, बहा देना चाहती हो, जो है – उसको ख़त्म
करने में क्या अक्लमंदी है?" छाया मुँह सिकोड़ती, "उहूँ! सब
किताबी बातें। लगता है शरतचंद्र कुछ ज़्यादा ही घोंटा है तुमने"
– छाया व्यंग्य से ठठा पड़ती – "यह तुम्हारी गल्ती है कि तुम
बहुत भावुक हो और दुनिया बहुत व्यवहारिक।"
"तो आज की दुनिया में भावुक होना गलत है?"
"एक हद तक।"
"और मैं वह हद तोड़कर आगे बढ़ गई हूँ क्या?"
"हाँ, तुम तो मुहब्बत होना चाहती हो, हवा, आसमान, झरना बनना
चाहती हो, यह सब चाहना क्या गलत नहीं है?"
गीता का दिमाग भन्ना उठता। वह
गलत हो गई? हद है, चाहने तक में
वह गलत हो गई? पाने में गलत कोई भले हो जाए, चाहने में कौन गलत
होता है? पर वह चाहने में भी गलत हो गई? दुख और क्षोभ उसके
गालों को गीला कर देता और वह खुद को कोसती उठ खड़ी होती और साफ
घर में कम साफ कोनों पर झल्लाती बड़बड़ाने लगी। सोचा हुआ गलत,
माने, उसका 'होना' गलत, पूरा का पूरा वजूद गलत। इस गलत वजूद से
जो संबंध उपजेगा वह भी तो गलत होगा? क्यों वह गलत वजूद और गलत
संबंधों के साथ, एक बड़ी गल्ती बनी जी रही है? क्यों?
इस प्रश्न पर आकर उसके दिल के पांव थम जाते। यहाँ से दिमाग की
हद शुरु होती थी, दिल के किस्से–कहानी यहाँ आकर ख़त्म हो जाते
और दिमाग उसे दुनियावी व्यवहार का चश्मा पकड़ा देता और वह
देखती, एक घर है, बच्चे हैं, पति है, पैसा है। पति दफ़्तर से
घर, घर से दफ़्तर आता है, बच्चे घर से स्कूल और स्कूल से घर।
'घर' जो उसने बनाया है, जहाँ गर्म रोटियाँ और ताज़ी बनी भाप
छोड़ती सब्जियाँ उनका इंतज़ार करती हैं, बच्चों की पसंद की चीज़ें
मेज़ और फ्रिज में सजी हैं। वे चहकते, खुश होते उसे दिन भर के
अपने काम बता रहे हैं। वह खुद से बाहर होकर देखती, एक माँ, एक
पत्नी, हँसती–बोलती। उसे एक दृश्य दिखाई देता, खाने की मेज़ पर
सब चहकते हुए, बैठे हैं, अपनी दिन भर की कहानियाँ आपस में बाँटते हुए, छोटे–छोटे बच्चे, माता–पिता की सराहना पाने को
ललकते, प्यार का भरापन उनकी आँखों मे चमकता, वह अपने से बाहर आ
कर अपनी छोटी सी दुनिया देखती और अपने परिवार को मन के पंखों
में समेट लेना चाहती है .
. .पर यह दृश्य क्षण भर रहता . .
.फिर बैठी हुई दुनिया खड़ी हो जाती और प्यार का स्थान व्यस्तता
ले लेती –
"चलो भई बरतन समेटो।"
"इसे फ्रिज में रखो।"
"तुम मेज़ साफ करो, नहीं, तुम भागो नहीं, काम में हाथ बँटाओ।"
"चलो कल के लिए कपड़े निकालो – "
"राज . . .तुम्हारी शर्ट आयरन करनी है क्या, मैं अपने और
बच्चों के कपड़े आयरन कर रही हूँ कल के लिए।
सब कुछ तो सामान्य है . . .व्यस्त घर . . .व्यस्त ज़िंदगी . .
.क्या कमी है तुम्हें . . .दिमाग दिल को बहलाता।
"और मैं कहाँ हूँ?" दोनों में बहस छिड़ती।
"देने में बड़ाई है।"
"तो क्या मैं नहीं देती?"
"कंजूस के जैसे सोच–सोचकर देती हो, फिर रोती हो उस देने पर भी।
क्योंकि तुम सिर्फ़ लेना चाहती हो।"
"मैं और लेना . . .!" – वह व्यंग्य से कहती।
"हाँ, नहीं चाहतीं तुम कि वाह–वाह करते तुम्हारा परिवार –
तुम्हारे आगे–पीछे घुमे। 'वाह! क्या खाना बनाया है', 'वाह!
क्या घर सजाया', 'वाह! कितना काम करती है गीता – नौकरी के
साथ–साथ।"
"क्या सचमुच?"
वह रुआँसी हो जाती, इतना करके भी, सब करके भी असफल, वह खुद
अपनी लड़ाई से थक जाती।
"तुममें अतृप्ति क्यों है?" वह राज की आवाज़ से चौंकी। वो अभी
तक झील किनारे बैठे थे। अपने भीतर उतर कर वह कहाँ से कहाँ तक
घूम आई थी। पर यथार्थ में उस जगह से इंच भर भी हिली नहीं थी।
वह ऊबे स्वर में बोली, "अब चलें?"
"नहीं, मैंने कुछ पूछा तुमसे?"
"मुझे नहीं पता।"
"कुछ तो पता होगा?"
"पता नहीं . . .वही छोटी–छोटी बातें . . .तुम्हारा काम में हाथ
न बँटाना, बच्चों से चख–चख, सुबह से शाम तक भागा–भाग। सब कुछ
ठीक करने की कोशिश में सब गलत हो रहा है – ऐसा लगता है।"
"सब ही तो ऐसे जीते हैं, तुम अकेली तो हो नहीं।"
"जानती हूँ।"
"फिर क्यों यह सब सोचती हो।"
"पता नहीं", वह खुद को खोलने से डरने लगी, खुलेगी तो ऐसे
बिखरेगी कि सँभालना मुश्किल हो जाएगा।
"तुम्हीं हो ऐसी – बाकी सब तो नहीं ऐसे करतीं।"
"अच्छा . . .," उसने राज को अँधेरे में घूरने की कोशिश की,
जैसे पूछती हो – तुम्हें कितनी कामकाजी औरतों के दिल मालूम
हैं?
"और क्या?" वह विजयी से स्वर में बोला।
"मैंने सोचा, मेरी जैसी और भी होंगी जो भीतर और बाहर के
अधूरेपन से लड़ रही होंगी।"
"अधूरापन तुम्हारा अपना बनाया हुआ है।"
"ठीक कहते हो।" वह कपड़ों पर से घास झाड़ती उठ खड़ी हुई।
"चलो अब।" उसकी आवाज़ थक गई थी, आराम करने आई थी पर लग रहा था
मानो बड़ी जंग लड़कर जा रही हो। राज ने उठते हुए कहा, "तुम्हें
बीच–बीच में काम से समय निकाल कर यहाँ आना चाहिए।"
उसने तरस खाने वाली निगाहों से राज को देखा, उसके सामने जैसे
कोई अपरिचित खड़ा था।
"चलें अब . . ."
राज गीता के कंधे को बाँह से लपेटते हुए कार की ओर बढ़ चला।
"अच्छा लगा?" उसकी आवाज़ में गीता को झील किनारे ले आने का रौब
झलक रहा था, जो गीता बर्दाश्त न कर सकी।
"क्या अच्छा लगा, शाम बेकार हो गई।"
"क्यों, ऐसा क्या हुआ?"
उसे बहसते देख राज आश्वस्त हो गया। बातों का परिचित खेल फिर
उनके बीच पसरने लगा। दोनों जब तक कार में बैठे, वे अपनी–अपनी
पोज़ीशन सँभाल चुके थे। झील का पानी अब गाढ़ा स्याह हो चला था और
आसमान के काले ढक्कन में दो–चार तारों के नगीने खूबसूरत लग रहे
थे। हवा घास की जड़ों में सुरसुरा रही थी और पक्षियों का कलरव
एकदम शांत पड़ गया था। तब राज ने कार स्टार्ट करी और 'बैक' कर
पार्क के दरवाज़े से निकल घर के पहचाने रास्ते पर मोड़ दी। |