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                     "अरे तौबा अ़ब छोड़ो भी। बहुत काम है आज। तीजों का 
न्यौता भी आज ही जाएगा पड़ोस में। तुम यह काम फागुनी को साथ ले कर कर आओ।" असली नाम 
तो मैंने उनका कभी जाना ही नहीं पर नाईन होने के नाते सत्तू की बहू ही बुलावे 
बाँटवे का काम करतीं। हम सभी भाई बहन उन्हें मौसी कहते। "अरे बिटिया आई है कर लेन देयो फागनी को काम, मैं बिटिया को साथ ले जाऊँगी।''
 "नहीं मौसी आप ही हो आओ। मैं ज़रा और सो लूँ।" मैंने कहा।
 मुझे आए दो दिन ही हुए थे। अब तक समयांतर का प्रभाव मुझ पर हावी था। इस बार भारत 
आने का प्रोग्राम बनाते समय तीज का ख़याल मेरे आसपास से भी न गुज़रा था, पर मेरे 
पहुँचने के चार दिन बाद ही तीज थी। मुझे बचपन से ही झूलों का बहुत शौक रहा है तो 
उनसे जुड़ा यह दिन भी मेरा पसंदीदा त्यौहार क्यों न होता।
 ख़ास मौकों पर घर पहुँचने का यह भी मज़ा है कि 
अधिकाधिक भूले बिसरे लोगों से भी मिलना हो जाता है। मैं माँ से तीजों पर बुलाए गए 
मेहमानों के नाम पूछ रही थी सबसे मिलने की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। पहले से जानना 
चाहती थी कि किस किस से मिलना होगा इस बार। मेरी सहेलियाँ जो विवाह उपरांत इसी शहर 
में बस गई थी। पड़ोस के मित्र पड़ोसी और बुआ के परिवार के सभी सदस्य।बुआ के परिवार से आने वालों में जब नई नवेली सदस्य अनुराधा का नाम नहीं लिया गया तो 
मैंने पूछ ही लिया, "विवेक और अनु क्यों नहीं आ रहे?" मेरे पूछने से ही इस गुत्थी 
का पता चला कि बुआ व अन्य परिवार वालों ने विवाह के दो साल बाद तक भी अनु को अपनी 
पुत्रवधू स्वीकार नहीं किया था।
 मेरी इस नवयुगल से पहचान सिर्फ़ दूरभाष से मिली सूचनाओं तक ही सीमित थी। यों विवेक 
को तो उसके जन्म से जानती थी। वह मुझसे छोटा सही पर हम साथ खेलते बड़े हुए।
 बुआ और फूफा जी ने रिश्तेदारी में एक विवाह समारोह 
में अनुराधा को देखा था। उसे देख कर वह दोनों उसके रूप लावण्य और मिलनसार हँसमुख 
व्यवहार से प्रभावित हुए बिना न रह सके थे। उन दिनों उसके भाई की नौकरी के चक्कर 
में मुंबई के पास जा कर बसे इस परिवार की बेटी उन्हें बहुत पसंद आई थी। बातों ही 
बातों में उन्होंने अनु के पिता को यह जता भी दिया था। फैसला तो विवेक की हाँ पर ही 
था।वापस घर पहुँच कर कुछ ही दिनों में विवेक अनु व उसके परिवार से मिलने चला गया था कि 
दोनों एक दूसरे से मिल परख कर अपनी रज़ामंदी बताएँ और दोनों पक्ष रिश्ते को पक्का 
करने की मुहर लगा सकें।
 माँ बाप की इच्छा से जब विवेक अनुराधा को देखने 
मुंबई गया था तब अपनी स्वीकृति हाथों हाथ उन्हें बता आया था। उन्हें भी विवेक की 
ज़िम्मेदाराना शख़्सियत बहुत भायी। साथ ही वह उन्मुक्त विचारों वाला हँसमुख युवक भी 
था। अनुराधा ने भी खुशी से इस संबंध के लिए हामी भरी थी। विवेक के देहरादून लौटने 
के बाद उन दोनों का परस्पर संपर्क फ़ोन व इलेक्ट्रॉनिक डाक द्वारा जारी रहा।दो साल पहले यकायक मुझे विवेक के विवाह की सूचना मिली थी। हैरानी भी हुई कि न किसी 
ने फ़ोन पर ज़िक्र किया। मुझे कोई निमंत्रण न फ़ोन काल। माँ से हालचाल पूछा तब पता 
चला कि शादी तो हो गई पर कोई समारोह नहीं किया गया अब तक। दोनों ने सादे ढ़ंग से 
शादी की है। शादी में सिर्फ़ लड़की वाले ही शामिल थे।
 दोनों तरफ़ के पंडितों ने विवाह का मुहूर्त तीन 
माह बाद निकाला था। यों तो लगभग रोज़ ही दोनों की बातें होतीं थी। इस बीच दो बार तो 
काम के सिलसिले में मुंबई गया विवेक उनके यहाँ उनके घर हो आया था। घर वालों से 
अच्छी ख़ासी पहचान भी हो गई थी।एक दिन फिर विवेक ने अनु के कहने पर मुंबई जाने का विचार बनाया। उसकी बहन और माँ 
हँसी ठिठोली करते रहे और किसी को कोई एतराज़ ना था। बुआ खुले विचारों वाली सुघड़ 
स्त्री हैं, वो बेटे से हँसी दुलार करतीं और हर बार होने वाली बहू के लिए उपहार 
ज़रूर भेजतीं।
 परंतु इस बार जो हुआ उसकी बुआ फूफा को उम्मीद न थी। हालांकि फ़ोन पर विवेक ने 
उन्हें सूचित कर दिया था। अबकी बार विवेक अनुराधा को पत्नी के रूप में लेकर ही लौटा 
था।
 घर आया तो बहन के सिवा कोई घर पर न था। घर के सभी 
लोग उनके आने के बारे में जानते थे तो फिर यह क्या? विवेक ने बता तो दिया था कि अनु 
के परिवारिक हालात देखते हुए यह निर्णय लेना ज़रूरी हो गया था। विधिवत विवाह का 
समारोह घर पहुँचने पर ही होगा। पर घर पहुँच कर कुछ और ही माहौल देखने को मिला। 
स्वागत के लिए घर न रह कर घर वाले अपनी नाराज़गी दिखा रहे थे यह समझने में उन्हें 
देर न लगी। पर आगे जो हुआ उसकी विवेक ने कल्पना भी न की थी।सुबह उठे तो सभी के साथ नाश्ते की मेज़ पर पहुँचे नवदंपति को किसी ने स्नेह स्वागत 
या आशीर्वाद न दिया वरन फूफाजी ने शाम तक उससे अपना ठिकाना ढूँढ़ लेने का परामर्श 
दिया।
 अनु की याचना और अनुरोध पर दोंनो को प्रताड़ना ही मिली। बुआ ने तो यहाँ तक कह डाला 
कि शाम तक न जाएँ तो वह बाल पकड़ कर उसे घर से निकाल देंगी। उनका मानना था कि विवाह 
से पहले ही उनका बेटा उसके कहने में आकर परिवार से बाहर हो चुका था।
 ऐसा कभी इस कुल के सदस्य ने नहीं किया कि बिना किसी सगुन गीत कोई लड़की ब्याह लाया 
हो। स्थिति गंभीर थी वो दिन और आज का दिन उस समय के झगड़े कलह से बचने निकला विवेक 
कभी वापस घर नहीं लौट पाया था।
 पारिवारिक उद्योग वह यथापूर्व चलाता रहा। शुरू में 
दोनों एक होटल में रहे फिर उन्होंने एक छोटा-सा फ्लैट ले लिया था। शहर में ही रहने 
वाले अन्य रिश्तेदार भी उन दोंनो से आना जाना नहीं कर पाए सभी को बुआ फूफा का डर 
था। कोई भी परस्पर नाराज़गी मोल नहीं लेना चाहता था।उस दिन के बाद से अनु कभी मुंबई नहीं लौटी थी। आठ महीने पहले उनकी बेटी के जन्म के 
समय उसकी माँ आकर दो महीने उसके पास रह गई थी।
 बुआ के परिवार में से किसी ने न कभी बच्ची को देखा और न कभी किसी से पूछा। उसके 
जन्म की ख़बर भी फैक्ट्री के चपरासी से मिली कि आज विवेक भैय्या काम पर नहीं आए और 
अस्पताल से उनका फ़ोन आया था कि बिटिया का जन्म हुआ है।
 माँ इन दोनों से दो एक बार बाज़ार और मंदिर में 
मिल चुकी हैं। पहली बार बाज़ार में विवेक के साथ ख़रीदारी करते समय। और दूसरी बार 
जब नेहा करीब छ: सप्ताह की थी तो एक दिन मंदिर में अनु अपनी माँ और बच्ची के साथ 
मिली थी। विवेक शायद काम पर था उसके बिना माँ तो पहचानती ही ना। अनु ने स्वयं आकर 
'प्रणाम मामी' कह कर पैर छुए और बिटिया को माँ की गोद में डाल दिया। माँ ने उसका 
हालचाल भी पूछा और बच्ची को देख गद्गद भी हुई पर उनकी हिम्मत बुआ को नाराज़ करने की 
न थी। न तो उन्हें घर पर न्यौता दिया न पोती का कोई शगुन व्यवहार किया। अब यह सब बातें विस्तार में जानकर मैं चकित हुए 
बगैर न रह सकी। बुआ कोई अनपढ़ गँवार तो नहीं। अपने समय में उन्होंने पढ़ाई पूरी कर 
दो चार माह कालेज में पढ़ाया भी। घर गृहस्थी की आरंभ से ही उन्होंने बड़ी सुघड़ता 
से फूफा जी के वृहत घर परिवार को सँभाला था। अब अपने बहू बेटे के लिए यह व्यवहार। 
क्या हुआ अगर विवेक ने विवाह मुहूर्त की प्रतीक्षा नहीं की। उनके संस्कार लेकर बड़े 
हुए बेटे ने कुछ सोच समझ कर ही ऐसा निर्णय लिया होगा। कितनी लगन से परिवार का 
व्यवसाय चला और बढ़ा रहा है। कभी किसी ने उससे इस सब का कारण पूछा? अपने ही मन के 
दर्पण में सामाजिक मान सम्मान प्रतिष्ठा से जूझते परिवार के सब सदस्य प्रश्न को 
भीतर दबाए बैठे थे। विवेक ने ऐसा किया ही क्यों? जाने क्यों यह सब जानने के बाद मन काफ़ी उद्विग्न 
हो रहा था। लग रहा था कि समाज में बस दिखावे का मोल है। प्रामाणिकता के मापदंड 
अनूठे हैं। जिस हरकत से किन्हीं माँ बाप की नाक कट जाती है वही करनी किसी और की हो 
उन्हीं खुले विचारों वाले माता पिता से तारीफ़ पा जाती है। |