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उस दिन सुबह से ही घर में खूब गहमागहमी थी। माँ
चाह रहीं थी कि पास पड़ोस वालों को न्यौता देने के लिए घर से कोई जाए। अनौपचारिक
रूप से तो सभी को सूचित कर ही दिया गया था पर बरसों की आदत है जब तक कोई न्यौता
देने ना आए माँ खुद भी किसी के घर खुश हो कर नहीं जाती। मान सम्मान की बात जो ठहरी।
स्नान पूजा से निवृत्त होते-होते माँ को साढ़े दस बज जाते हैं। तब तक कोई न कोई पास
पड़ोसन आ बैठती हैं। वह बतियाने और घरेलू कामों की देखभाल साथ-साथ करतीं हैं।
"ए फागनी," माँ ने गुहार लगाई, "ये कुक्कर की आवाज़ कम कर।" "ये कुक्कर भी मरे इतनी
ज़ोर सी सीटी मारे है जैसे गली के आवारा लड़के, न कोई बात कर सके है न मश्वरा।"
ज़रा झुँझलाई हुई ज़रूर थीं पर मुझे तो नहीं लगा कि इसमें माँ की कोई और मंशा थी
लेकिन पास ही बैठी सत्तू की घरवाली बिलबिला उठी।
"किसे सुना रही हो बहना। हमारा ओम तो बिल्कुल सुधर गया है। रोज़ चाचा के साथ दुकान
जावे हैं आजकल। अबके बरस उसके लगन की बात चलाई है।"
"हद करो हो सत्तू की बहू, मैंने फागनी को कुकर के नीचे आँच कम करने को कहा है इसमें
तुम्हारा ओम कहाँ से आ गया?" माँ भी जब तक बात खुलासा कर अपनी कही समझा न लेंगी
मानेंगी नहीं।
"मैं तो उड़ते पंछी के पर गिन लूँ क्या समझती नहीं कि तुम्हारे दिल में क्या है।"
"बिन बाप का अनाथ बालक उसने देखा जाना ही क्या?"
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