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जय सारी भाग-दौड़ करता रहा था। उसके लिए रिक्शा बुलाने से लेकर ज्योति कुंज होस्टल की वार्डन के घर ले जाने तक। फिर डी. आई. जी. पुलिस से मिलना। पुलिस चरित्र प्रमाण पत्र की ज़रूरत थी उसे, अपने वीज़ा के लिए। हर कहीं वह छोटे भाई की भूमिका निभाता रहा। उसके सारे काम करवाता रहा। इतना छोटा है मुझसे- वह मन ही मन सोचती। फिर भी पुरुष होने मात्र से हर कहीं यह मेरा अभिभावक बन जाता है और लोग कितने सहज भाव से स्वीकार भी लेते हैं। रिक्शेवाला भी रिक्शे के पैसे मुझसे न माँगकर उससे माँगता है। इच्छित भाड़ा न मिलने पर मुझसे कुछ न कह कर उससे जिरह करता है। क्या संरचना है समाज की!
तब पहली बार जय ने उससे खुलकर इतनी बातें भी की थीं। अपने करियर, महत्वाकांक्षा एवं अपने भविष्य से जुड़ी हज़ार बातें। युनिवर्सिटी में सीनियर होने के नाते वंदना उसे दीदी कहती थी, तो वह जय की भी दीदी थी। लेकिन इस सबके बावजूद वह यह नहीं बता पाया कि वह कविताएँ लिखता है!

हो सकता है उसने इंटरनेट पर मेरी कविता पढ़ी हो। शायद वह भी न जानता रहा हो कि वह लिखती है। आज समान अभिरुचि की जानकारी पाकर उसने उसे लिखने की सोची हो।
उसे कविता अच्छी लगी। उसने दो पंक्तियाँ लिख दीं।
अच्छी कविता है। छपने की कोशिश करो।
आशा के विपरीत अगले ही दिन जवाब आ गया।
कहाँ कोशिश करूँ?
उसे हँसी आ गई। इस क्षेत्र में भी उसे जय की दीदी की भूमिका निभानी है। दिशा-निर्देश पाने के लिए ही शायद इस लड़के ने उसे अपनी कविता भेजी। वह चाहे तो थोड़ी खिंचाई भी कर सकती है। प्रेमभंग की कविता है क्या? लेकिन अभी जाने दो। कहीं नाराज़ न हो जाए। वंदना के बारे में भी तो जानना है।
उसने थोड़ा लंबा पत्र लिखा।
स्थानीय अख़बारों से शुरू करो। फिर पत्रिकाओं तक पहुँचो। पाठकों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करो। हो सके तो कवि गोष्ठियों में भाग लो और खूब पढ़ो। वंदना कैसी है? स्नेह - अनु दीदी।
इस बार कई दिनों बाद पत्रोत्तर आया।
कौन वंदना? अख़बारों से संपर्क किया है। प्रतिक्रिया आने पर सूचित करूँगा। आपको पेंटिंग्स भी अच्छी लगती हैं या सिर्फ़ हिंदी कविता? - जय।
उसे हँसी आई। बात टालने का यह अच्छा तरीक़ा है। ज़रूर दोनों भाई बहन लड़ बैठे हैं। वंदना मेल का जवाब नहीं देती, जय पूछता है कौन वंदना!
खाने की मेज़ पर उसने विवेक को बताया।
जानते हो, मुझे लगता है जय और वंदना लड़ बैठे हैं। वंदना ने तो मेल लिखना छोड़ ही दिया है, जब से मैंने उसे विनोद का विवाह प्रस्ताव गंभीरता से लेने को कहा। आजकल जय के मेल आ रहे हैं। कविताएँ लिखता है! मैंने वंदना का हाल पूछा तो कहता है कौन वंदना?
स्वभाव से विनोदी विवेक मुस्कराए।
उससे कहो, वही वंदना जो बनारस में तुम्हारे घर में रहती है।
हाँ, मुझे जानना था कि वंदना की शादी का क्या हुआ। कुछ समय पहले उसने मुझे बतलाया था कि फिर एक रिश्ते को उसने मना कर दिया। लड़केवाले पूरी तरह तैयार थे। लड़का भी। लेकिन उसे बातचीत कर लगा कि यह परिवार बहुत संकीर्ण विचारोंवाला है। वह सामंजस्य नहीं बिठा पाएगी। घर पर सब उससे दुखी हैं।
तुमने क्या कहा?
मैंने भी उसे डाँटा कि कबतक वह अपने घरवालों को परेशान करती रहेगी। इस तरह फ़ैसले लेना बिल्कुल ग़लत है। इतनी आसानी से किसी का स्वभाव समझ में आ जाए तो फिर क्या बात है! कभी लड़ाइयाँ हों ही नहीं। लेकिन वह कहती है कि उसकी दीदी के साथ जो कुछ हुआ उसकी वजह से उसे डर लगता है कि वैसा कुछ, कभी भी, किसी हालत में उसके साथ नहीं होना चाहिए।
विवेक गंभीर हो गए। वह भी चुप हो आई। वंदना के घर की कहानी विवेक से छुपी न थी। वंदना से सिर्फ़ दो साल बड़ी निधि विवाह के साल भर के अंदर ही दहेज के लिए प्रताड़ित होकर वापस घर आ गई थी और एक स्कूल में नौकरी कर रही थी। वकील पिता की संतान होने का इतना ही फ़ायदा मिला कि वह वापस आ सकी और जल्द ही कानूनी तौर पर उसे तलाक़ भी मिल गया। दो बरस पहले जब अनु वंदना के घर पर थी तो वंदना के पिता उसे बेहद परेशान लगे थे। एक अनब्याही और एक तलाकशुदा बेटी का बाप दुखी और परेशान न हो तो क्या हो!

तब अनु ने जय को ही सुझाया था कि वह दोनों बहनों के लिए तबतक अख़बार में विज्ञापन दिलवाता रहे जबतक कि उनका विवाह न हो जाए। आख़िर उसका खुद का विवाह भी तो इसी तरह हुआ था और आज वह विवेक के साथ सुखी है।
उसे लगा, एक बार फिर जय से ही बात करनी होगी। पहले उसके पत्र का उत्तर दे ले।
उसने सहज भाव से लिखा-
कुछ भी चलेगा जय। कविता, पेंटिंग्स या फिर कोई चुटकुला। बात तो संपर्क में बने रहने की है न! स्नेह - अनु दीदी।
कई दिन बीत गए।

फिर एक दिन अचानक उसका मेलबॉक्स चेतावनी दे रहा था कि उसने अपने कोटे से अधिक स्थान का उपयोग किया है और कुछ ई-पत्र मिटाए बिना वह अपना मेल बॉक्स नहीं खोल सकती। अनु को पता था ऐसा सिर्फ़ रेखा कर सकती है । बड़ी फ़ाइलें वही भेजती रहती है, मना करने के बावजूद। चित्रों से भरे। अब उसे डाँटना होगा। लेकिन नहीं यह जय था। दो पेंटिंग्स भेजी थीं उसने। अच्छी थीं लेकिन इतनी भी नहीं कि रखने का मन हो। उसने देखा और मिटा दिया। अब फिर मेलबॉक्स में जगह ही जगह थी।

सोचा जय को लिखे, इतनी लंबी फ़ाइलें मत भेजा करो, फिर टाल गई। अपनी प्रतिक्रिया न भेजकर भी आप अपनी असहमति जता सकते हैं। असर अनुकूल रहा। बहुत दिनों तक कोई पत्र नहीं आया। इस बीच वह वंदना से ही संपर्क करने की कोशिश करती रही और जवाब में वही संक्षिप्त उत्तर पाती रही। अच्छी हूँ। कुछ नया नहीं। सब यथावत चल रहा है। आप सब कैसे हैं। वगैरह। वह अक्सर सोचती क्या इसे पता भी है कि जय आजकल उससे संपर्क में है! कभी समय मिले तो कंप्यूटर पर ही बात की जा सकती है। वंदना से पूछे बिना तो वह जय को भी नहीं कह सकती कि इन लड़कों के बारे में पता करो। वंदना को बुरा लग गया तो रिश्ता अनुकूल रहने पर भी मना कर देगी। इसीलिए तो झेल रही है अबतक!
जय का ही मेल आया। फिर इस बार एक कविता थी, थोड़ी लंबी। फिर प्रेम कविता।
अनु को यह विचित्र लगता था।

हर ई-पत्र का जवाब देते हुए वह अंत में स्नेह लिखना न भूलती। और यह लड़का? किसी औपचारिकता की ज़रूरत ही नहीं समझता। कोई संबोधन नहीं। बिना किसी भूमिका संबोधन के कविताएँ, पेंटिंग्स या जो जी में आए भेजेगा। वंदना का हाल पूछो तो बतलाना ही नहीं चाहता। ठीक है, वह वंदना से कब किसी औपचारिकता की अपेक्षा करती है। उसीका भाई तो है। फिर भी उसने फिर अपनी प्रतिक्रिया भेजी और पूछा वंदना का क्या हाल है।
वही नपा तुला उत्तर - आप किस वंदना की बात कर रहीं हैं? ज़रा विस्तार से बताइए। मैंने अपनी कविताएँ अख़बारों में छपने के लिए भेजी हैं। अभी जवाब नहीं आया है- जय।
इस ई-मेल को साथ ही लगा हुआ एक और ई-मेल था। किसी रेणु का -
बहुत सुंदर लिखते हो जयेश। सशक्त अभिव्यक्ति है। लिखते रहो।
यह रेणु कौन है?
उसे अधिकार है, वह पूछ सकती है।
उसने पूछा। जवाब आया -
मैं नहीं जानता। मुझे उसका पता एक पत्रिका में मिला। मैंने उसे अपनी कविता भेजी थी।

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