वह
बड़बड़ाने लगी, ''बाहर व अंदर के टेंपरेचर में यहाँ इतना अंतर रहता है कि बाहर
निकलो तो ऐसी कड़ाके की ठंड कि मोटे ओवरकोट में भी कंपकंपी छूटने लगे और घरों के
भीतर बदन इनमें एकदम से पसीना छोड़ने लगता है।''
ओवरकोट उतार
कर मंजूषा ने गलियारे में लगे पाइप पर हैंगर से लटका दिया।
पैरों पर तने भारी व ऊँचे चमड़े के बर्फ़ में चलने वाले बूट
उतार कर रैक पर रख दिए। एक सरसरी नज़र मेज़ पर रखे पत्रों पर
डाली। सोचने लगी, पहले ब्लैक कॉफी बनाई जाए। बड़ी देर से तलब
हो रही है। यहाँ डेनमार्क में दो सालों से रहते हुए उसे ब्लैक
कॉफी पीने की बड़ी आदत पड़ गई थी। किचन में आकर मंजूषा ने कॉफी
मशीन का स्विच ऑन किया। ऊपर कपबोर्ड से कॉफी का डिब्बा निकाला।
सेम की तरह कॉफी के दानों को वह मशीन में डालने लगी कि खामोश
घर में फ़ोन की घंटी खनखनाने लगी। कॉफी का डिब्बा हाथ में
पकड़े-पकड़े वह वापस कमरे में आई।
"हेलो," फ़ोन का रिसीवर उठा कर
धीरे से बोली।
"वेलकम होम, मॅनेजर साहिबा।" फ़ोन के दूसरे छोर से आवाज़ आई।
प्रभाष का फ़ोन था।
"कब पहुँची?"
"बस अभी-अभी।"
"कैसी रही कॉन्फ्रेस?"
"ठीक रही।"
"और सब ठीक-ठाक?"
"हाँ।"
"अच्छा तो तुम अभी आराम करो, फिर शाम को मिलते हैं।"
मंजूषा खामोश।
"और कुछ?" प्रभाष ने पूछा।
वह कहने को हुई कि इंडिया से मयंक
व ईशा के जवाब आ गए हैं, लेकिन स्वयं को उसने रोक लिया। प्रभाष पूछेगा कि क्या लिखा
है तो क्या कहेगी? उसने तो अभी पत्र खोल कर पढ़े भी नहीं।
"नहीं, और कुछ नहीं," धीमे से वह बोली।
"अच्छा तो फिर। । ।" प्रभाष ने कहा और फ़ोन की लाइन काट दी।
मंजूषा ने रिसीवर नीचे रख दिया।
एक नज़र मेज़ पर पड़े पत्रों पर फिर डाली। एक लंबी साँस ली और किचन की ओर बढ़ गई।
पानी बुरी तरह खौलने लगा था। कॉफी के सारे दाने दरक गए थे। मंजूषा कॉफी बना कर हाथ
में प्याला पकड़े फिर से कमरे में आ गई। सोफे पर बैठ कर सामने मेज़ पर रखे पत्रों
को घूरने लगी। सोचने लगी कि पहले कॉफी पी ली जाए, कहीं ऐसा न हो कि पत्रों में ऐसी
बात लिखी हो जो उसका मूड बिगड़ दे और यह ब्लैक कॉफी, जिसकी इतनी देर से तलब हो रही
थी, हलख के नीचे न उतर सके। चुपचाप वह कॉफी के घूँट भरने लगी, परंतु दिल नहीं माना।
हाथ बरबस पत्रों की ओर बढ़ने लगे। उसने स्वयं को धिक्कारा, "बहुत हो गया। जल्दी से
इन चिठि्ठयों को पढ़ो और मन की धुकधुकी को शांत करो।"
उसने पहले मयंक का पत्र उठाया। उससे झिझक उसे कम थी, लेकिन फिर भी पत्र को खोलने
में उसके हाथ थरथराने लगे।
काँपते हाथों से पत्र खोल कर वह
एक सरसराहट से पूरे पत्र को पढ़ कर उसका निचोड़ देखने लगी। खुशी से वह खिल उठी।
मयंक ने उसके व प्रभाष के विवाह में कोई आपत्ति नहीं जताई थी, लिखा था कि उसे
लेशमात्र भी आपत्ति नहीं। मंजूषा के दिल की बढ़ी हुई धड़कन एकदम से स्थिर हो गई।
पूरे इत्मीनान से वह मयंक का पत्र पढ़ने लगी,
"प्रिय माँ, तुम्हारी चिठ्ठी मिली। पहले तो तुम्हारी चिठ्ठी देख कर ही हैरत हुई।"
मंजूषा मुस्कुरा पड़ी। हाँ, सचमुच कहाँ वह अपने बच्चों को चिठ्ठी लिखती है। हर
हफ़्ते उनसे फ़ोन पर ही बात कर लिया करती है, फिर आजकल इलेक्ट्रॉनिक मेल का ज़माना
आ गया है। पढ़ना, लिखना सब कुछ अब कंप्यूटर पर होने लगा। लेकिन यह बात ऐसी थी कि न
तो इस विषय में उसकी अपने बच्चों से फ़ोन पर बात करने की हिम्मत हुई, और न ही
कंप्यूटर पर टाइप करके इंटरनेट से भेजने की इच्छा हुई। यह मामला बेहद संवेदनशील व
व्यक्तिगत था, जिसे वह अपने हाथों से पत्र में लिख कर बहुत ही व्यक्तिगत रूप से
भेजना चाहती थी।
मुस्कुराते हुए मंजूषा पत्र को
आगे पढ़ने लगी, "तुम्हारे प्रश्न ने और भी चौंका दिया। पर यह आश्चर्य पीड़ाजनक नहीं
बल्कि बड़ा सुखद था। जबसे हमने होश सँभाला, तुम्हें जीवन के संघर्षों से अकेले ही
जूझते पाया। अगर तुम्हें ज़िंदगी के इस मोड़ पर कोई साथी मिल रहा है तो हम सभी के
लिए इससे अधिक खुशी की बात और क्या हो सकती है। माँ, तुम्हारे पुन: विवाह में हमें
लेश मात्र भी आपत्ति नहीं है और जहाँ तक मैं प्रभाष गुप्ता के विषय में समझता हूँ,
वे तुम्हारे लिए हर दृष्टि से उपयुक्त है।"
मयंक का पत्र पढ़ कर मंजूषा का साहस बढ़ गया। वह पत्र मेज़ पर रख कर उसने तुरंत ईशा
का पत्र उठा लिया। ज़्यादा झिझक उसे ईशा से ही थी। कहीं वह यह न लिख दे, माँ, तुम
मेरी शादी की चिंता छोड़ अपनी शादी की सोच रही हो। मंजूषा ने ईशा का पत्र फटाफट
खोला व एक सरसरी नज़र से उसके पत्र का भी पूरा निचोड़ जान लेना चाहा।
खुशी से वह दुहरी हो गई। आँखों में हर्ष के आँसू छलक आए। पत्र को अपनी छाती से
चिपकाते हुए बुदबुदाई, ''ये मेरे छोटे-छोटे से बच्चे कितने बड़े व समझदार हो गए हैं
क़ैसी बड़ी-बड़ी बातें करने लगे हैं।''
मंजूषा आराम से पसर कर ईशा का पत्र पढ़ने लगी- "माँ, तुम्हारी अपने हाथों से लिखी
चिठ्ठी मिली। सच में माँ, तुम्हारी हाथों की लिखावट देख कर इतना अच्छा लगा कि ख़ैर,
छोड़ो इसे। हाँ तो माँ, जब मैं तुम्हारे पास डेनमार्क आई थी, और वहाँ प्रभाष अंकल
से मिली थी, तभी से मैं तुम्हारे और प्रभाष अंकल की शादी के ख़्वाब बुनने लगी थी।
प्रभाष अंकल बहुत अच्छे इंसान हैं। तुम्हारे लिए बिल्कुल सही भी हैं। तुम उनसे
ज़रूर शादी करो, माँ। हमें ज़रा भी ख़राब नहीं लगेगा। हमें ही नहीं, किसी को भी
ख़राब नहीं लग रहा है। मैंने नानी को तुम्हारे व प्रभाष अंकल के बारे में सब कुछ
बता दिया है। वह भी बहुत खुश है।"
मंजूषा एक प्रफुल्लता व सुखद अहसास से भर उठी। ज़िंदगी इतनी अच्छी भी हो सकती है।
आँखे बंद किए वह भावविभोर-सी वहीं सोफे में पसर गई। अतीत सामने आने लगा। इंसान अपना
अतीत ही तो जानता है। उसके साथ क्या हो रहा है, क्या होगा, इसका तो उसे केवल
अंदाज़ा ही रहता है। अगर उसे पूर्णतया: कुछ पता रहता है तो सिर्फ़ यह कि उसके साथ
क्या हो चुका है।
विनोद, उसका पति, एअर इंडिया
विमान में चालक था और वह ग्राउंड ऑफ़िसर की डयूटी पर तैनात थी। पाँच वर्ष का मधुर
समय गुज़रा था विनोद के साथ। पाँच वर्षो में दो बच्चे हुए, मयंक व ईशा। फिर वह
हादसा हुआ जिसने उसकी शांत, सरल व सुगंधित ज़िंदगी को एकदम बदल दिया। मयंक उस समय
मुश्किल से चार साल का और ईशा एक साल की थी, जब विनोद की विमान दुर्घटना में
दर्दनाक मौत हो गई। सब कुछ पूरा बदल गया। विनोद के असमायिक निधन से उसकी ज़िंदगी एक
मरुभूमि बन गई जिसमें केवल काँटे उग सकते थे, पुष्प नहीं खिल सकते थे।
विधवा जीवन की त्रासदी उसे झेलनी
पड़ी, और झेलना पड़ा दो बच्चों की उचित परवरिश के लिए घोर संघर्ष। पुन: विवाह की वह
कभी कल्पना भी नहीं कर पाई थी। फिर विधवाओं को अपने देश में नया सुहाग आसानी से
मिलता भी कहाँ है? मंजूषा ने नए सुहाग पाने की दिशा में कभी कोई प्रयत्न किए भी
नहीं। वैसे ईद-गिर्द मँडराते कितने ही पुरुषों ने उसे मोहित नज़रों से निहारा। उनकी
मोहित नज़रों ने उसके दिल में खलबली भी मचाई, लेकिन बस यहीं तक। इससे आगे न वह बढ़
पाई और न ही वे पुरुष। मंजूषा के जीवन का मकसद केवल अपने दोनों बच्चों को पाल-पोस
कर बड़ा करने तक ही रह गया। उसके जीवन की अंतिम चुनौती - दोनों बच्चों को पढ़ा-लिखा
कर आत्मनिर्भर बनाना, ताकि समाज को उसके बच्चों के रूप में दो अच्छे नागरिक मिलें।
उसको कोई आर्थिक संकट नहीं था। उसकी अपनी नौकरी अच्छी थी और फिर पति की मौत ने उसे
अच्छा मुआवज़ा दिलाकर उसे अमीर बना दिया था। किस्मत से उसकी अपनी माँ का साया उसके
व उसके बच्चों के सिर पर बरकरार था।
समय बीता, स्थितियाँ बदली। बच्चे
पहले किशोर, फिर युवा हो गए औ़र मंजूषा एक युवती से प्रौढ़ा हो गई। एक पदोन्नति के
बाद, दूसरी पदोन्नति होते-होते वह चवालीस वर्ष की आयु में मैनेजर के पद पर पहुँच
गई। डेनमार्क एअर इंडिया ऑफ़िस में मैनेजर का पदभार सँभालने के लिए भारत से
डेनमार्क आ गई। इस बीच मयंक ने मुंबई से अपनी इंजीनियरिंग पूरी करके बड़ोदा,
एल-एंड-टी कंपनी ज्वाइन कर ली और ईशा ने मुंबई में ही नानी के साथ रह कर अपनी
एम।सी।ए। की पढ़ाई जारी रखी।
डेनमार्क आगमन के एक महीने बाद ही
मंजूषा को इंडो-डेनिश सोसाइटी के एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला। यह संस्था
अपने पचास वर्ष पूर्ण कर रही थी, जिसके उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में मंजूषा
को भी आमंत्रित किया गया था। वह एअर इंडिया की नई मैनेजर जो थी। इस संस्था के सदस्य
इंडियन व डेनिश दोनों थे- वे डेनिश जिन्हें भारतीय संस्कृति में दिलचस्पी थी।
डेनमार्क में स्थित भारतीय राजदूत ने समारोह का उद्घाटन किया। मंजूषा का परिचय यहाँ
डेनमार्क में रह रहे काफ़ी हिंदुस्तानियों से हुआ। यहीं उसकी प्रभाष गुप्ता से पहली
बार मुलाकात हुई थी।
आयोजन में मंजूषा ने लकी लॉटरी
ड्रॉ के तहत एअर इंडिया की तरफ़ से दो नि:शुल्क टिकट भेंट किए। एक इंडिया व दूसरा
लंदन आने-जाने के लिए। इंडिया वाला टिकट एक डेनिश महिला ने जीता, और लंदन वाला टिकट
प्रभाष ने जीता था। प्रभाष मंजूषा को धन्यवाद कहने उसके पास चला आया। वह पहला
वार्तालाप ही उनके बीच बड़ा रोचक था।
"मैं प्रभाष।" वह बोलने को हुआ।
"मैं मंजूषा," उसके मुख से फिसल गया। दोनों हँस पड़े।
एक पल बाद प्रभाष बोला, "मैं यहाँ टाटा कन्सल्टैन्सी कंपनी का इंचार्ज हूँ। अभी हाल
में ही मुंबई से यहाँ पहुँचा हूँ।"
"अरे आप मुंबई से हैं, मैं भी तो मुंबई से आई हूँ। मुंबई में आप किस जगह रहते थे?"
"बांद्रा ईस्ट," प्रभाष ने जवाब दिया।
"दुनिया कितनी छोटी है, मैं बांद्रा वेस्ट में रहती थी," मंजूषा फटाक से बोली।
"बांद्रा ईस्ट और वेस्ट, इतने करीब रह कर भी हम इससे पहले कभी क्यों नहीं मिले?
प्रभाष उसे एकटक निहारते हुए पूछने लगा। मंजूषा ने भी उसे निहारा। उसकी उम्र ढलनी
शुरू हो गई थी लेकिन युवापन अभी कायम था। उसके दिल में लहर-सी उठनी लगी।
दूसरी मुलाक़ात प्रभाष से भारतीय
राजदूतावास कार्यालय में छब्बीस जनवरी के दिन हुई, जब वहाँ गणतंत्र दिवस मनाया जा
रहा था। उसके बाद एक-दो मुलाकातें स्थानीय भारतीयों, जो डेनमार्क में बसे थे, के
घरों में हुई। अन्य अतिथियों के साथ उन दोनों को भी वहाँ भोजन में आमंत्रित किया
गया था। जब-जब वे परस्पर मिलते, एक-दूसरे को देख कर एक जोश से भर जाते। दिलचस्प,
मोहक संवाद में बँध जाते। तीसरी मुलाक़ात तक दोनों को एक-दूसरे के विषय में सभी कुछ
पूरा-पूरा पता चल गया। एक पारदर्शी दर्पण की भाँति दोनों का अतीत व वर्तमान
एक-दूसरे के सम्मुख एकदम उजागर हो गया। मंजूषा को यह जान कर प्रभाष से अपार
सहानुभूति हुई कि वह भी उसी की तरह तन्हा, बिना जीवन साथी के है। उसकी पत्नी का
देहाँत चार वर्ष पूर्व मुंबई के टाटा केंसर इन्स्टिट्यूट में हो गया - ब्रेस्ट
कैंसर था, जो फैल कर फेफड़े व हृदय तक पहुँच गया था। उसका अठारह वर्षीय पुत्र,
दिल्ली हॉस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहा है।
लोगों के एक जैसे दर्द व समान
तकलीफ़ें उन्हें क़रीब ले आती हैं। उनके बीच मित्रता बढ़ती गई। ''आप'' ''आप'' का
संबोधन बदल कर ''तुम'' ''तुम'' हो गया। ''प्रभाष जी'' से केवल ''प्रभाष'' हो गया।
''मंजूषा जी'' से ''मंजूषा'', फिर केवल ''मंजू'' हो गया। दोनों आश्चर्य व्यक्त करते
कि देखो वह दोनों ही मुंबई में रहते थे और वह भी एक-दूसरे से बहुत दूर नहीं, लेकिन
उनकी किस्मत में एक-दूसरे से परदेश में मिलना लिखा था। वे दोनों आपस में तय करते कि
वे डेनमार्क अपना कार्यकाल पूर्ण होने के बाद, मुंबई वापस लौट कर भी मित्रता कायम
रखेंगे।
वैसे उनके बीच मात्र एक कोरी मित्रता ही नहीं रह गई थी, एक गहरा, अंतरग व मृदुल
रिश्ता भी उनके बीच पनप रहा था। किंतु भीतर ही भीतर एक झिझक थी, उसे स्वीकारने में।
अपने भारतीय संस्कार व मान्यताओं से बँधे थे। वयस की इस संधि में एक-दूसरे के प्रति
आकर्षण महसूस तो कर सकते थे, लेकिन स्वीकार करने में हिचकिचाहट थी। लोग क्या
कहेंगे? बच्चे क्या सोचेंगे? इसकी फिक्र मंजूषा को अधिक रहती थी।
उस दिन एअर इंडिया की तरफ़ से ताज पेलेस होटल में एक पार्टी का आयोजन था। काफ़ी लोग
थे उस पार्टी में स़्वदेशी, विदेशी दोनों। प्रभाष भी आमंत्रित था। मौका देख कर
प्रभाष ने उससे पूछ, "मंजू, तुमने अपनी आगे की ज़िंदगी के विषय में कभी सोचा?"
"आगे की ज़िंदगी, क्या मतलब?"
"मतलब जब तुम रिटायर हो जाओगी। नौकरी की यह शान-शौकत चली जाएगी। और तुम।"
"और मैं बूढ़ी हो जाऊँगी," मंजूषा ने हँसते हुए उसका वाक्य पूरा किया।
"नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था," प्रभाष झेंपते हुए बोला।
"तो जनाब ऐसा है. . ." मंजूषा एक अलमस्तता से बोली, "मुंबई में मेरा अपना एक फ्लैट
है। मैं रिटायरमेंट के बाद अपने फ्लैट में रहूँगी।"
"अकेले?" प्रभाष ने पूछा।
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