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कहानियाँ  

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
डेन्मार्क से
अर्चना पेन्यूली की कहानी— ''बदल जाती है ज़िंदगी'


मंजूषा त्रिवेदी ने जब अपना लेटरबॉक्स खोला तो उसमें दो पत्र पड़े थे। लिफ़ाफ़ों के रंग, आकार व उनमें लगे डाक टिकटों से साफ़ पता चल रहा था कि दोनों पत्र भारत से आए हैं। मंजूषा का दिल धड़क गया। काँपते हाथों से पत्रों को उठाया - एक मुंबई से ईशा का था, दूसरा बड़ौदा से मयंक का। उसके हृदय की धड़कन और बढ़ गई। बुदबुदाई, "यह क्या दोनों बच्चों का जवाब एक साथ आ गया।" दूसरे ही पल सोचने लगी, ऐसा भी हो सकता है कि दोनों चिठि्ठयाँ तीन-चार दिनों के अंतर में आई हो। वह तो आज पूरे एक हफ्ते बाद अपना लेटरबॉक्स खोल रही है, इसलिए एक साथ मिलीं।
दोनों पत्रों को थाम व ब्रीफकेस उठा वह लिफ्ट की ओर बढ़ गई। आज पूरे एक हफ्ते बाद वह स्टॉकहोम से लौट रही थी। वहाँ स्केंडिनेवियन देशों के एअर इंडिया के अधिकारियों की कॉन्फ्रेंस थी। दसवीं मंज़िल पर पहुँच कर मंजूषा ने कंधे पर झूल रहे बैग से चाबी निकाली, अपने फ्लैट का दरवाज़ा खोला और अंदर घुस गई। अंदर हवा एकदम से गर्म लगी-सेंट्रल हीटिंग जो थी। एक हफ़्ते तक घर बंद होने की वजह से हवा निस्तेज भी हो गई थी।
ब्रीफकेस नीचे ज़मीन पर रखा, दोनों पत्र मेज़ पर रखे व बैग को कंधे से उतार कर सोफे पर पटक दिया। सबसे पहले कमरे की खिड़की खोली ताकि ताज़ी हवा अंदर आ सके, फिर फटाफट अपना ओवर कोट उतारने लगी जो कमरे के भीतर बदन में कंबल की तरह चुभने लगा था।

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