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						 आज क्रिसमस ईव है। क्रिसमस के जादुई प्रभाव से उत्तेजित 
						सभी बच्चे आज की रात ड्राइंगरूम के 'फायर प्लेस' और दरवाज़े 
						के पास मीठी 'मिंस–पाई' और रेड वाइन का गिलास, फ़ादर 
						क्रिसमस के लिए रख रहे होंगे, उनके लाए उपहारों के लिए 
						जुराबें लटका रहे होंगे। रात जब बच्चे सो रहे होंगे, फ़ादर 
						क्रिसमस अपने हिरनों की गाड़ी स्लेज पर सवार लाल नाक वाले 
						रूडाल्फ़ हिरन के साथ 'जिंगल–बेल, जिंगल–बेल' गाते हुए 
						बच्चों को उनके मन पसंद खिलौने और किताबों का 
						उपहार देने 
						उनके घर चिमनी से उतर कर आएँगे। 
 बच्चे रात भर जागने का प्रयास करेंगे, पर जाने कैसे 
						आधी–रात को उनकी आँखें झपक जाएँगी और फ़ादर क्रिसमस चुपचाप 
						उनके उपहार सिरहाने रख कर, खिसक लेंगे। सुबह बच्चे चकित रह 
						जाएँगे। यह खेल सदियों से पाश्चात्य जीवन में चलता आ रहा 
						है। बचपन का जादू। वह बच्चों के बारे में सोच कर मुसकरा 
						उठती हैं। बच्चे कितने सच्चे और अच्छे होते हैं, चिंता 
						विहीन। सहज–सरल, ना छल, ना कपट। उसे नन्हीं रुख़साना याद आ 
						गई।
 
 आज से बारह साल पहले, उसने भी तो फ़ादर क्रिसमस का यही खेल 
						नन्हीं रुख़साना के लिए खेला था। गोल–मटोल गबदू सी 
						घुँघराले, लंबे बालों और शरबती आँखों वाली रुख़साना अभी हाल 
						ही में पाकिस्तान से आई थी। रुख़साना को अंग्रेज़ी नहीं आती 
						थी। अतः वह सारे दिन प्ले–हाउस में तरह–तरह के कपड़े 
						पहन–पहन कर कक्षा के अन्य बच्चों के साथ मम्मी डैडी का खेल 
						खेलती हुई, अंग्रेजी भाषा से परिचित हो रही थी। रुख़साना 
						बड़े ही हँसमुख और प्यारे स्वभाव की थी। उसकी हँसोड़ 
						प्रवृत्ति के कारण सभी बच्चे उससे दोस्ती करना चाहते थे। 
						बच्चे रुख़साना की भाषाई आवश्यकता को अच्छी तरह समझते थे 
						अतः वे उससे दिन–प्रति–दिन के क्रिया–कलापों में 
						आवश्यकतानुसार संकेतों और छोटे–छोटे वाक्यों में बात
						करते।
 
 रुख़साना ज़्यादातर अंग्रेज बच्चों के सामने जया से बातें 
						नहीं करती। पर जब बच्चे सामने नहीं होते तो वह अपनी ज़बान 
						में अपनी सारी समस्याएँ आँखें मटकाते हुए, बड़ी बेबाकी से 
						उसके सामने रख देती। जया भी उसकी नन्हीं–मुन्नी समस्याओं 
						का जादुई हल उसके मनोविज्ञान को समझते हुए तुरत–फुरत कर 
						देती। वह शरत्कालीन सत्र का आखिरी दिन था। सभी बच्चे घर जा 
						चुके थे। रुख़साना अपनी माँ का इंतज़ार करते हुए थोड़ी देर 
						'जिगसॉ–पज़ल' से खेलती रही। फिर वह जया के मेज़ पर रखे 
						कलमदान और किताबों से खेलती हुई उसका ध्यान अपनी ओर 
						आकर्षित करने की बेहिसाब कोशिश करती रही। जब जया ने उसकी 
						ओर कोई तवज्जुह नहीं दी तो वह उससे सट कर खड़ी हो गई, और 
						बिल्ली की तरह अपना बदन उससे रगड़ने लगी।
 
 'क्या बात है रुख़साना?'
 'मिस आपसे एक बात कहनी है।'
 'बोलो न रुख़साना' जया ने स्कूल डायरी के पन्ने से सिर उठा 
						कर कहा,
 'मिस, अब्बू कहते हैं, फ़ादर क्रिसमस हमारे घर नहीं आ सकते 
						हैं। उनको हमारा पता नहीं मालूम है। वो हमारे मुल्क के 
						नहीं हैं न।' कहते हुए उसका गला घरघराया और वह हिलकियाँ 
						लेते हुए रो पड़ी। मोटे–मोटे आँसू उसके सुनहरे सुर्ख गाल को 
						भिगोने लगे।
 'रो मत रुख़साना,' जया ने उसके सिर को प्यार से सहलाते हुए, 
						टिशू से गालों पर आए आँसुओं को पोंछते हुए कहा,
 'ऐसा कुछ नहीं है रुख़। फ़ादर क्रिसमस सभी बच्चों को प्यार 
						करते हैं। उनका कोई एक मुल्क थोड़े ही होता है। वो सब 
						बच्चों के घर जाते हैं। उनको सबका पता मालूम होता है। 
						अच्छा बताओ तो तुम्हें क्या तोहफ़ा चाहिए?'
 'बता... दूँ?' वह रोते हुए, उसके गले से लिपट गई।
 'हाँ–हाँ बताओ न... ।'
 'बस थ्री बेयरस' वाली 
						किताब, बार्बी डॉल, 'रूबिक क्यूब' और हमीद के लिए ताली 
						बजाने वाला बन्दर जैसा लिंडा के पास है।'
 
 'तुमने आज उन्हें चिठ्ठी तो लिखी थी न। मेरा ख़याल है 
						तुम्हारे मन की बात फ़ादर क्रिसमस अच्छी तरह जानते हैं। कई 
						बार ऐसा होता है रुख़साना कि अगर किसी का घर अंदर से बंद हो 
						और उनके घर पर चिमनी न लगी हो तो, फ़ादर क्रिसमस उनका तोहफ़ा 
						घर के बाहर भी रख जाते हैं। बहरहाल तुम रात को सोना मत, बस 
						खिड़की से देखती रहना। वो तुम्हारे घर आएँगे ज़रूर।'
 
 'पर मिस, वो अब्बू से डर तो नहीं जाएँगे न! अब्बू का 
						गुस्सा बड़ा खौफ़नाक है। उनके पास एक बड़ा–सा, बेहद पैना, 
						हलाक़ करने वाला चाकू है।' रुख़साना ने अपने सुर्ख होठों को 
						तरह–तरह से मोड़ कर, बड़ी–बड़ी शरबती आँखों को मटकाते हुए, 
						गर्दन पर छुरी चलाने का नाटक करते हुए कहा तो, उसके गालों 
						पर गहरे खूबसूरत गड्ढे उभर आए।
 जया नटखट रुख़साना के भोलेपन पर मुस्कराई,
 'नहीं, फ़ादर क्रिसमस 
						किसी से नहीं डरते हैं।'
 
 भयंकर बर्फ़ गिरने के बावजूद वह क्रिसमस ईव की रात रुख़साना 
						के दरवाज़े पर चुपचाप चॉकलेट और खिलौनों का पार्सल रख आई 
						थी। स्कूल खुलने पर नन्हीं रुख़साना सारे स्कूल को फ़ादर 
						क्रिसमस का उपहार दिखाती रही थी। कितनी खुश और चिड़ियों–सी 
						फुदक रही थी वह, अपने झालरदार फ्राक में। सोचते हुए जया ने 
						उत्फुल्ल मन से खिड़कियों के पर्दे खींचे।
 
 'अभी भी घर पूरी तरह से गर्म नहीं है।' उसने अपने आप से 
						कहा, और बाक्स रूम के अंदर लगे कंट्रोल–स्विच से 
						सेन्ट्रल–हीटिंग का तापमान बढ़ा दिया। 'अभी घर गर्म होने 
						में कुछ समय लगेगा।' सोचते हुए वह नीचे आई।
 
 'आज मौसम बकार्डी और कोक का है।' उसने स्वयं से कहा। नीचे 
						लाउंज में आकर उसने ड्रिंक बना कर, कॉफी टेबल पर रखा। फिर 
						किचन में जा कर सुपरमार्केट से लाए दो बैगेट गार्लिक ब्रेड 
						अवन में रख, बीस मिनट का टाइम लगा दिया। 'आज का खाना बस 
						यही होगा। और फिर ड्रिंक के साथ गाजर, खीरे के टुकड़े, 
						हुमुस के साथ अच्छे रहेंगे।' 'डन।' उसने अपने आप से कहा, 
						'अब मैं आराम से बैठ कर बकार्डी के साथ, जस्टिन जेर्राड की 
						'द सोफ़ीज़ वल्र्ड' पढूँगी।'
 
 तभी दरवाज़े की घंटी बजी। इस वक्त भला कौन हो सकता है? शायद 
						कोई बच्चा हो जो स्कूल में मुझे क्रिसमस–गिफ्ट देना भूल 
						गया हो? या फिर 'कैरल–सिंगर' होंगे? सोचते हुए, उसने तौलिए 
						से हाथ पोछते हुए चेन लगा कर दरवाज़ा खोला, पोर्च लाइट में 
						भी वह, सामने खड़ी आकृति को पहचान नहीं पा रही थी। आगंतुक 
						का पूरा बदन हल्की बर्फ़ के धुनकों से ढँका हुआ था।'
 "यस, कैन आई हेल्प यू एट ऑल?"
 "यस मिस" कहते हुए आगंतुक ने सिर पर ओढ़े हुए हुड को उतार 
						कर खुद को अच्छी तरह हिला कर कोट पर चिपकी हुई बर्फ़ की 
						मोटी तह को झाड़ा फिर जूतों को डोर मैट पर पोंछते हुए कहा,
 'मैं रुख़साना हूँ मिस वर्मा। आज से छः साल पहले आपने मुझे 
						गॉरिंज पार्क स्कूल में पढ़ाया था। आप मेरी अम्मी को 
						भी जानती थीं, उनका नाम सलमा 
						था और मेरा छोटा भाई हामिद... '
 
 'ओह! रुख़साना! रुख़साना अलम। आओ, अंदर आओ न। माई गॉड, कैसा 
						संयोग है। आज अचानक अभी जब मैं एटिक से, व्हाइट क्रिसमस की 
						खूबसूरती को आँखों में भर रही थी तभी मुझे तुम्हारी याद आई 
						थी। 'न्यू इयर पर तुमने समीर और लिंडा ने मिल कर एक विशाल 
						'स्नोमैन', खेल के मैदान में बनाया था। जो कई दिनों तक खड़ा 
						रहा था। जब वह गल गया तो तुम बहुत रोई थीं। तुम्हें नहीं 
						पता था कि बर्फ़ पानी का ही एक रूप है।' उसके मानस–पटल पर 
						नन्हीं रुख़साना उभर आई। उत्फुल्ल उत्तेजना और स्नेह से भरी 
						जया ने, उसे बाहों में भर, गले से लगा, उसका स्वागत करते 
						हुए कहा,
 "दुनिया में टेलेपैथी 
						नाम की कोई चीज़ है ज़रूर रुख़साना। तुम भी मेरे बारे में सोच 
						रही होगी।'
 
 'जी, आज ही नहीं पिछले दो दिनों से मैं आप ही के बारे में 
						लगातार सोच रही थी। जानती थी, मुझ मुसीबतज़दा की अगर कोई 
						मदद कर सकता है तो वह आप हैं। याद है आप ने ही मुझे मेरा 
						पहला क्रिसमस का तोहफ़ा फ़ादर क्रिसमस की तरफ़ से दिया था।'
 'तुम्हें कैसे पता चला?'
 
 'बरसों बाद, जब फ़ादर क्रिसमस का रहस्य खुला। आपके सिवा और 
						कौन जानता था कि मुझे क्या चाहिए।'
 
 दोनों की शहद जैसी मीठी हँसी से कमरा गूँज उठा। उस हँसी 
						में घुली मिली यादें, और प्यार भरी निर्दोष दोस्ती की 
						अंतरंगता थी।
 
 'हाँ, हाँ वह भी ऐसी ही 'व्हाइट क्रिसमस' थी। पर इतनी रात 
						तुम अकेले? तुम्हारे अम्मी अब्बू कैसे हैं? सब ठीक–ठाक तो 
						है न?' जया ने उसके भीगे चेहरे और बालों के लिए तौलिया और 
						हेयर ड्रायर पकड़ाते हुए कहा।
 
 'जी, मुझ बदनसीब को आपकी मदद चाहिए।' उसने सीधा जया की 
						आँखों में देखते हुए कहा। शुरू से ही ऐसी थी रुख़साना अपनी 
						बात बिना लाग–लपेट, कहती थी।
 'कहो? कैसी मदद? लगता है तुम कहीं दूर से आ रही हो' जया ने 
						उसके रक–सैक पर नज़र डालते हुए कहा,
 'जी, दूर, इतनी दूर से कि आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकें। मैं 
						आपको सब कुछ तफ़सील से बताना चाहती हूँ फिर आप अपने मशविरे 
						के साथ मेरी मदद करें। क्या एक रात मैं आपके पास पनाह ले 
						सकती हूँ?'
 
 'जीजस!' लड़की कहीं घर से लड़ कर तो नहीं भागी है? कहीं 
						कोई पुलिस केस तो नहीं है?' जया ने रुख़साना पर गहरी दृष्टि 
						डाली। हाथ में कोई अंगूठी नहीं थी। बाहर गिरती बर्फ़ ने जया 
						को अंदर भी तूफ़ानी बर्फ़ के दहशत की ठंडी तह जमा दी। पर इन 
						सबके बावजूद जया के हृदय में रुख़साना के लिए उमड़ आई 
						स्नेहसिक्त भावनाओं के गरमाहट में कोई 
						कमी नहीं आई।
 
 अब तक घर अच्छा खासा गर्म हो चुका था फिर भी रुख़साना ठंड 
						से काँप रही थी। नाक सुर्ख और होंठ नीले हो रहे थे। जया ने 
						उसे गैस फ़ायर के सामने एहतियात से बैठाते हुए कहा,
 'माई गॉड! रुख़साना तुम तो बिलकुल ठंडी हो रही हो, यू नीड अ 
						ड्रिंक–चाय कॉफी और या कुछ और... तुम तो अब वयस्क होगी! 
						है ना?'
 
 'इस समय दस बज रहे हैं मिस, दो घंटे बाद मैं अठारह की हो 
						जाऊँगी, मेरा जन्म क्रिसमस के दिन ही हुआ था।' कहते हुए 
						बच्चे सी खिलखिलाई तो उस बर्फीले मौसम में भी जया के 
						चारों ओर हज़ारों जुही की कलियाँ खिल उठीं।
 
 'ओ, यस मुझे याद है तुम क्रिसमस चाइल्ड हो।' हँसते हुए 
						उसने ढेर सारे गर्म पानी में ब्रांडी की कुछ बूंदें ब्रॉडी 
						गॉबलेट में डालीं। फिर रुख़साना के कंधों को कंबल से ढंकते 
						हुए, उसके सुर्ख हो आए गालों को ममता से थपथपाते हुए कहा, 
						'रुख़साना तुम्हें भूख लगी होगी? अवन में दो बैगेट गार्लिक 
						बे्रड रखे हैं। एक पर तुम्हारा नाम लिखा है। अगर ज़्यादा 
						भूख हो तो पीज़ा ऑर्डर कर 
						दूँ या दाल–चावल बना दूँ।' जया ने 
						रुख़साना के हाथ में ब्रांडी गॉबलेट पकड़ाते हुए हुमुस और 
						सलाद की ट्रे को उसकी ओर बढ़ाया,
 'नो–नो मिस कोई तक़ल्लुफ़ नहीं, प्लेन में उन लोगों ने काफ़ी 
						कुछ खाने को दिया था और फिर मीरपुर में हर वक्त 
						मिर्च–मसाले खा–खा कर तंग आ गई। गार्लिक ब्रेड ही ठीक 
						रहेगा।'
 
 'तुम मीरपुर से आ रही हो? तुम्हारा ब्याह हो रहा था? और 
						तुम भाग आई?' जया की आँखों में प्रश्न अपनी पूरी बदसूरती 
						के साथ फैल उठा। ओ! गॉड तो यह भी उन तमाम बदनसीब लड़कियों 
						में से हैं जिनके माँ–बाप उनके बालिग होने से पहले ही 
						मुल्क ले जा कर उनकी शादी ज़बरदस्ती अपने अनपढ़–गवाँर, जाहिल 
						रिश्तेदारों से कर देते हैं। आजकल आए दिन नेशनल न्यूज़ 
						चैनेल और अख़बारों में घर से भागी और सताई हुई लड़कियों की 
						खबरें आ रही हैं।
 
 जया को याद आया रुख़साना का पिता बर्तानिया के स्कूलों को 
						हिक़ारत से देखता था। वह सिर्फ़ कानून से डरता था, वर्ना वह 
						रुख़साना को बाहर की हवा भी न लगने देता। वह तो रुख़साना की 
						माँ सलमा थी जो उसे हर रोज़ बिला नागा स्कूल 
						लाती थी। और गाहे–बगाहे जया 
						से कहती आप इसे बिल्कुल अपनी तरह का.बिल बना दे ताकि यह अपने पैरों पर खड़ी हो सके। और उसके चेहरे 
						पर वो तमाम दर्द उभर आते जो एक मज़लूम औरत दूसरी औरत के 
						चेहरे से बिना आवाज़ उठाए अपने अंदर समेट लेती हैं।
 
 वास्तव में उस समय जया इस तरह के परिवारों के अंदर पनपती 
						विचारधाराओं और समस्याओं से कुछ ख़ास परिचित नहीं थीं। 
						मीरपुर से आए आप्रवासियों के लिए लड़कियाँ सिर्फ़ जनानियाँ 
						होती हैं। वे दुनिया में सिर्फ़ अपने मर्दों की ख़िदमत और 
						औलाद पैदा करने के लिए आई होती हैं। उन्हें दुनिया के 
						किसी और मरहले से कोई मतलब नहीं होना चाहिए। उनका ख़ाविंद 
						उनका खुदा होता है जो उनकी ज़रूरतें पूरी करता है।
 
 'जी, अब्बू मेरा ब्याह मेरे फुफेज़ात भाई के साथ रचा रहे थे... जो जाहिल है। जिसे कोई सहूर नहीं है। उसमें कोई 
						लियाक़त नहीं हैं। वह दरिंदा है।' कहते हुए वह बच्चों सी रो 
						पड़ी। उसे अपनी मँगनी की रात याद आई। जब उसे अकेला सोता पा, 
						पीरज़ादे ने उसके सलवार का नाड़ा खोल उसके कोमल अंगों को 
						अपने सख्त हाथों में दबोच लिया था। और जब उसने हल्ला 
						मचाया तो फुफी उस पर ही बरस पड़ी, 'हरामज़ादी वहाँ गोरों से 
						खुद को नुचवाती रही होगी और यहाँ अपने मंगेतर से नखरे 
						बघारती है।'
 
                      बस उसी रात उसने आलमारी में से चुपचाप अपना 
						पासपोर्ट और टिकट उठाया, अम्मी के कानों में कुछ फुसफुसाया 
						और बुर्का पहन, रात के अंधेरे में, घर से भाग निकली। या 
						खुदा! अम्मी का क्या हाल हुआ होगा सोच कर उसका बदन काँप 
						उठा... खैरियत बताने के लिए वह ज़रूर किसी वक्त उन्हें 
						फोन करेगी... मन–ही–मन सोचते हुए, उसने जया से सिसकियों 
						के बीच कहा, 'मिस, मेरे थ्री ए ग्रेड के प्रेडिक्शन हैं। 
						पीट–मार्विक मुझे सी.ए. के लिए स्पॉन्सर कर रही है। मैं 
						अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती हूँ। आपसे मदद की गुज़ारिश करती 
						हूँ। आप इल्म की देवी हैं। आपने संगतराश की तरह मुझे नौ 
						साल तक गढ़ा है। आपने ही मेरे इल्म की बुनियाद रखी है।'
 रुख़साना हाथ जोड़े घुटनों के बल कारपेट पर बैठ गई। उसका 
						चेहरा दुःख और आवेश से सुर्ख हो रहा था। वह आँसुओं को 
						रोकने की पुरदम कोशिश कर रही थी, पर आँखों ने साथ देने से 
						इन्कार कर दिया और टप–टप मोटे–मोटे आँसू उसके गालों पर 
						लुढ़कने लगे। जया सोफे से उतर कर उसके पास आ बैठी उसे बाहों 
						में भर कर, पीठ को हथेलियों से सहलाते हुए बोली,
 'रुख़साना इस तरह दिल छोटा नहीं करते हैं, तुमने अपनी पढ़ाई 
						के लिए इतना बड़ा कदम सिर्फ़ अपने बल–बूते पर उठाया तो फिर 
						तुम्हारी पढ़ाई भला आगे कैसे नहीं जारी रहेगी। अब तो दुनिया की कोई भी ताकत, तुम्हें तुम्हारे नेक फ़ैसले बदलने 
						को मज़बूर नहीं कर सकती है। पीट–मार्विक जैसी बड़ी फ़र्म 
						तुम्हें स्पॉन्सर कर रही है। तुम अब बालिग हो देखो बारह बज 
						गए। चलो तुम्हारी सालगिरह का उत्सव मनाएँ, और एक नई शुरूआत 
						का भी।'
 
 दोनों ने ग्लास उठा कर चीयर्स करते हुए जब आने वाले वक्त 
						का स्वागत किया, तो उनके आँखों में सतरंगे इंद्रधनुष की 
						आभा झिलमिल उठी।
 
 जया के सांत्वना भरे शब्दों ने रुख़साना के अंदर जमी 
						आशंकाओं की बर्फीली चट्टानों को पिघला कर पानी कर दिया। 
						वह जया की गोद में नन्हें बच्चे सी सिमटी तो उसका बदन 
						हिचकियों और हिल्कियों से काँपता, सिहरता, जुम्बिश लेता 
						धीरे–धीरे नींद के आगोश में सपनों से बतियाने लगा। जया की 
						उंगलियाँ देर रात तक उसे स्नेह से दुलारती सहलाती, थपथपाती 
						आश्वस्त करती रहीं...
 
                      --- 
                      कंधे पर कुछ बड़ा सा बैग लटकाए जया वर्मा तेज़ कदमों से चलते 
						हुए तक़रीबन भाग सी रही थी। तभी किसी ने उसे पुकारा।
 'सुनिए... '
 
 इस गली में जया पिछले पाँच साल से रह रही है। आज तक उसे इस 
						तरह से किसी ने नहीं पुकारा था। और पुकारता भी कैसे अभी 
						कुछ साल पहले तक, सरे का यह इलाका मिचम, 'कंट्री–साइड' हुआ 
						करता था। यहाँ सिर्फ़ गोरे रहते थे क्योंकि इस छोटे से 
						कस्बे में किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सुविधा नहीं थी। कोई 
						फैक्टरी नहीं थी। कोई बड़ा बाज़ार नहीं था। कोई बड़ा दफ्तर 
						नहीं था। कोई हवाई अड्डा नहीं था, जो किसी देसी परिवार को 
						आकर्षित करे और यह आवाज़, यह पुकार केवल एक देसी इंसान की 
						ही हो सकती है। कल अम्मा की चिठ्ठी आई थी न शायद इसीलिए 
						उसके कानों को यह पुकार 'सुनिए' जैसी लगी होगी। परदेस में 
						देश की याद भी तरह–तरह से भरमाती है कल रात सपने में अम्मा 
						सिर में अमृतांजन लगाते हुए पूछ रही थी,
 'बिटिया अरहर के दाल के साथ भुजिया आलू खइबू कि भांटा के 
						भर्ता। मन करत हो तो दूनों बना देई। बाबू वही बैठे अख़बार 
						पढ़ रहे थे। अब तो अम्मा–बाबू को गुज़रे हुए भी दो बरस हो 
						चुके थे। सपने की कुछ न पूछो बिन टिकट देस–बिदेस की सैर 
						करा देते हैं। कुछ सपने तो ऐसे जीवंत हैं सपने लगते ही 
						नहीं हैं।' सोचते हुए जया ने पलट कर देखा, गोरे चेहरे पर 
						बड़ी–बड़ी शरबती आँखों वाली अनगढ़, पर ज़रा गुदाज बदन की लड़की 
						हरे रंग की छींटदार सलवार कमीज़ 
						पहने उसे बेहद सुरीली और 
						हैरान–परेशान आवाज़ में पुकार कर कह रही थी,
 'देखिए! आप शायद यहीं कहीं रहती हैं। मैं रोज़ सुबू–सुबू 
						आपको इसी रस्ते से आते–जाते देखती हूँ। एक हफ्ता हुए, 
						पाकिस्तान के मीरपुर इलाके से हवाई जहाज़ में बैठकर यहाँ आई 
						हूँ।' उसने चेहरे पर गिर आई लटों को बेपरवाही से कानों के 
						पीछे जल्दी से खोंसते हुए अपने घर के खुले दरवाजे. पर नज़र 
						रखते हुए कहा,
 'मुझे इस मुल्क के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है। बड़ी 
						घबराहट होती है। हर वक्त दिल में हौल उठता है। रुख़ का दिल 
						तो घर के अंदर बिल्कुल नहीं लगता है। मेरे ख़ाविंद 
						सुबू–सुबू काम पर निकल जाते हैं फिर रात देर से आते हैं। 
						पास–पड़ोस में भी अपना कोई नहीं रहता है जिससे दो बातें कर 
						लूँ। मीरपुर में तो हर वक्त लोग आते–जाते रहते हैं। रुख़ 
						दिन भर ऐसे ही पास–पड़ोस में खेलती रहती थी। अब यहाँ वह 
						उकता जाती है।'
 
 जया के पास समय नहीं था। इतनी सब बाते सुनने में उसके तीन 
						मिनट खर्च हो गए। साढ़े आठ पर उसे स्कूल पहुँचना है। क्या 
						करे वह? वह परेशान लड़की उसे बिल्कुल अपनी सी लगी, उसके 
						बातचीत का तरीक़ा उसकी घबराहट, उसकी परेशानी, उसके होठों के 
						मुड़ने और सिकुड़ने का अंदाज़ उसकी आँखों की बेचैनी उसके मन 
						के अंदर एक अजब से अपनत्व का भाव भर रही थी। उसका मन किया 
						वह ठहर कर उसकी बातें सुने... पर जल्दी थी आज उसकी खेल 
						के मैदान पर डयूटी भी है। उसने लड़की की ओर देखा, लगा शायद 
						वह रात भर सो नहीं पाई थी। उसकी आँखों में लाल डोरे उभर आए 
						थे। जया के अंदर ममता ने हिलोरें लीं। तभी खुले दरवाज़े में 
						अलसाई सी अँगूठा चूसती पोनीटेल बाँधे एक नन्हीं सी 
						गोल–मटोल बिल्कुल ग्लैक्सो बेबी खड़ी दिखी।
 
 जया ने लड़की के नर्म हाथों पर हाथ रखते हुए उसके तसल्ली के 
						लिए कहा, 'देखो इस समय मैं ज़रा जल्दी में हूँ, मुझे साढे 
						आठ बजे स्कूल पहुँचना है। मैं तकरीबन साढ़े चार बजे शाम को 
						इधर से गुज़रुँगी, तब तुमसे तफ़सील से बात करुँगी। तुम यहीं 
						गेट पर मुझे मिलना। ठीक।'
 'ओह! तो आप उस्तानी हैं।' कहते हुए उसने बड़े अदब से सिर 
						झुका कर आदाब किया।
 जया हँस पड़ी, 'उस्तानी' शब्द उसे अटपटा और अजीब लगा।
 
 'हाय अल्ला!' कहते हुए वह घर के अंदर भागी, नटखट बच्ची 
						शरारतन धड़ाक से दरवाज़ा बंद करने ही जा रही थी कि उसने अपना 
						दाहिना पैर दरवाज़े और दहलीज़ के बीच अड़ा दिया।
 
 'हाय! रुख़ तूने तो मुझे बाहर ही बंद कर दिया होता! फिर 
						उसने झपट कर बच्ची को गोद में उठा कर, जया को हाथ हिला कर 
						बाय किया पर जया तो तब तक बीचहोम एवेन्यू में मुड़ चुकी थी।
 स्कूल दूसरे मोड़ पर ही था।
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