कनु अकेले में चुपचाप कभी कान्हा
की तस्वीर के कानों पर स्टैथस्कोप सजा देती तो कभी सुबोध के
होठों पर
बाँसुरी। पर दोनों ही अटपटे से
लगते और कनु के प्रश्न उत्तरों के बिना बिन ब्याहे ही रह जाते।
वैसे भी कनु को प्रश्न पूछने की चीजों को समझने की कोई और न
बताए तो रातदिन सोचने की जब तक उत्तर खुद चलकर उसके पास न आ
जाए एक मजबूर सी आदत थी – बचपन से ही।
लोग मरते हैं तो कहीं
जाते हैं – फिर लौटकर क्यों नहीं आते – क्या कोई उन्हें पकड़कर
कहीं बंद कर देता है – वगैरह वगैरह?
दादी से पूछो तो बस एक ही जवाब – सब उस
नीली छतरी वाले साँवले सलौने की
मर्जी है।
कनु का बड़ा मन करता उस मनमौजी भगवान से मिलने को। कैसे वह इतनी
अपने मन की करता है? कोई उसे रोकता–टोकता नहीं कनु को तो हर
समय टोका जाता है – कनु यह मत करो यहाँ मत जाओ वहाँ मत बैठो।
अच्छे बच्चों को यह नहीं
करना चाहिए वह नहीं। परेशान कर दिया था कनु को अच्छे बच्चों के
इस खेल ने – आखिर क्यों – कब तक लोग उसे बच्चा समझते रहेंगे?
बड़ों से तो कोई नहीं कहता कि अच्छे बड़ों को भी इतना डाँटते
नहीं रहना चाहिए।
कनु की इस हरदम सोचने और
समझने की आदत ने दादी को पापा को सबको बहुत परेशान कर रखा था।
जब दादी बहुत परेशान हो जातीं तो कनु को पापा के पास भेज
देतीं। अब दादी कोई इन्साइक्लोपीडिया तो थीं नहीं। वैसे भी वह
पाँच साल की कनु के आगे कब की हार मान चुकी थी।
"दादी दादी तुम कितनी बड़ी हो?"
"पचपन की" दादी ने हँसकर बताया था।
"पचपन क्या होता है?"
"पाँच और पाँच"
"अच्छा! तब तो तुम
करीब–करीब मेरी जितनी ही बड़ी हो – तभी तो मेरी तुम्हारी इतनी
दोस्ती है।"
कनु को बात कुछ–कुछ समझ
में आ रही थी।
"माँ तो हम लोगों से बहुत बड़ी है पूरी पच्चीस की। हर समय धूप
में मत बैठी रहा करो" दादी के सूखती अमियों जैसे झुर्रियों
वाले हाथों को सहलाते हुए कनु ने चिंता व्यक्त की। अब वह
आश्वस्त थी कि अगले पाँच साल में वह भी दादी जितनी बड़ी हो
जाएगी और फिर मम्मी–पापा सभी उसकी बात सुना करेंगे। सुबह ही तो
तीस तक की गिनती उसने मास्टरजी को सुनाई थी और उसने खूब अच्छी
तरह से उँगलियों पर कंचों के संग गिनकर देख लिया है कि पच्चीस
से तीस बस पाँच ही बड़ा
होता है।
अचार के लिए सुखाई अमियों को लेने आई माँ ने भी यह सब सुना और
रात को खूब हँस–हँसकर पापा को भी बताया। सुनकर पापा भी हंसे
बिना नहीं रह सके थे! जोड़ घटाने में बिल्कुल तुम पर गई है
तुम्हारी लाडली माँ को छेड़ते हुए पापा ने कहा था। अगले दिन कनु
ने माँ को पकड़ लिया –
"माँ माँ पूरा आसमान बस
नीला क्यों हैं?"
माँ ने जान छुड़ाने के लिए कह दिया क्योंकि भगवान जब आसमान बना
रहे थे उनके पास बस एक नीला ही रंग था। अचानक कनु की बहुत सारी
समस्याओं का समाधान हो गया। पानी आसमान क्यों सब दिन में हल्का
नीला रात में गहरा नीला है – क्यों सब कुछ चारों तरफ हरदम बस
वही नीला का नीला। भगवान ने तो जरूर नीला रंग ही खत्म कर दिया
होगा तभी तो घास हरी बनानी पड़ी।
.....
ऊँचे पहाड़ समुंदर बादलों
पर छलांग मारता दौड़ता कूदता जहाज बड़ी कनु को उसके बड़े–बड़े
प्रश्नों के साथ लेकर आखिर इंग्लैंड पहुँच ही गया। सद्यस्नाता
की तरह नहाया धोया देश बड़ा ही मनमोहक लग रहा था। इसके माहौल
में भी एक ठंडी सी दूरी एक ताजगी थी बिल्कुल कनु के अपने
स्वभाव की तरह। उसके मन की गर्मी भी खुद–बखुद यूँ ही बाहर नहीं
आ भभकती थी पर अगर उठ आए
तो दरिया बन आसपास की हर चीज को नम करने की सामर्थ्य रखती थी।
कनु की उत्सुक आँखें पूरा माहौल पी गईं – सब कुछ कितना नया और
अजनबी था – पैरों की बैसाखी पर चलती वे अक्सर बेचैन होकर दौड़
जातीं लंबे कौरिडोर के इस पार से उस पार तक अपने सुबोध को
ढूँढने के लिए। अचानक दो फैले हाथों ने उसे रोक दिया –
"क्या मैं आपका सामान देख
सकता हूँ?"
"क्यों नहीं"
कनु ने खुद को इस अप्रत्याशित हमले से बचाते हुए कहा और खुद ही
यंत्रवत वह भारी सूटकेस ऑफिसर के आगे रख दिया। पर उसकी चंचल
आँखें उड़ती बयार सी फिर से आसपास की हर चीज पर डोलने लगी।
"इसे खोलिए।"
आवाज जंज़ीरों में जकड़ी
कनु पुनः धरातल पर आ गिरी।
इधर उधर ढूँढने के बाद
आखिर पर्स के एक कोने में उसे चाभी मिल ही गई। कनु ने चाभी
ताले में लगाई और घुमाने ही जा रही थी कि एक जाने पहचाने भय ने
उसे आ घेरा। बस अभी चौबीस घंटे पहले की ही तो बात है जब पापा
ने बार–बार कपड़े निकालकर बार बार तह करके बार–बार गिन–सँभालकर
फिर भैया को उस पर बिठाकर बड़ी मुश्किल से यह अटैची बंद की थी –
वह भी इस हिदायत के साथ कि अब इसे घर जाकर ही खोलना। ऑफिसर की
आँखों में देखने के लिए अपनी लंबी गर्दन बहुत लंबी खींचकर
एड़ियों पर उचकती कुछ शरमारी कुछ सकुचाती छोटी सी कनु ने कहा–
"मैं इसे खोल तो दूँगी पर वायदा कीजिए आप इसे बंद कर देंगे
क्योंकि असल में न तो मुझे अटैची लगानी आती है और न ही बंद
करनी। इतनी ज्यादा भरी हुई तो बिल्कुल ही नहीं।"
वयस्क कपड़ों में लदी फँदी उस बालिका पर ऑफिसर को तरस आ गया।
"चलो रहने दो बस इतना बताओ इसमें कोई ड्रग वगैरह या कोई अवैध
सामान तो नहीं है?"
"नहीं"
कनु ने बड़ी राहत और इत्मिनान के साथ जवाब दिया।
"तुम्हारा जहाज कहाँ–कहाँ रूका था?"
"बस जैनेवा में।"
बेहद अनमने मन से वह बोली। उसे बाहर जाने की जल्दी थी। सुबोध
पता नहीं कितनी देर से उसका इंतजार कर रहे होंगे और देर से
पहुँचना कनु की आदत नहीं थी। पापा कहते थे कि अगर तुम समय की
कद्र करोगे तो समय तुम्हें इज्ज़त देगा।
"तुमने वहाँ घड़ी वगैरह
नहीं खरीदी?"
ऑफिसर ने फिर से पूछा। अब कनु को विश्वास हो चला था कि वह
ऑफिसर निश्चय ही कुछ खिसका हुआ है।
"नहीं बाबा सिर्फ तीन ही पौंड तो हैं मेरे पास। तुम्ही बताओ
इनमें कोई घड़ी वगैरह कैसे खरीदी जा सकती है?"
कनु ने प्रश्न पर प्रश्न पूछा।
"तुम्हारी अपनी घड़ी कहाँ
है या घड़ी नहीं लगातीं?"
कनु का ध्यान अपने हाथ पर
गया। घड़ी वाकई वहाँ नहीं थी। उसने जरूर उतारकर जेब में रख दी
होगी। जेब में हाथ डाला निश्चय ही घड़ी वहाँ नहीं थी। दूसरी जेब
में हाथ डाला घड़ी वहाँ भी नहीं थी। जमीन पर पड़े सैंडविच बाक्स
को उठाया। उसमें आधी खाई सैंडविच के साथ नई नवेली दुल्हन के
सारे गहने तो पड़े हुए थे पर घड़ी नहीं थी।
परेशान कनु ऑफिसर से बोली
"मेरी कोई चीज कभी नहीं खोती। यहीं कहीं होगी अपने आप मिल
जाएगी।" आफिसर उसकी अबोध लापरवाही से थोड़ा घबरा गया था।
"क्या यह सब असली है?"
"मैं नकली गहने नहीं
पहनती। असल में तो मैं कैसे भी गहने नहीं पहनती।"
"तुमने क्या यह सब पासपोर्ट पर लिखवाए हैं?"
उसने थोड़ा चिंतित हो कर पूछा?
"आप ही लिख दीजिए पर संभालकर। बस कुछ गिराइएगा नहीं। सब आपस
में उलझ गए हैं।"
खुला हुआ डिब्बा उसकी तरफ बढ़ाती कनु बोली। अब ऑफिसर वाकई में
डर गया था।
"नहीं नहीं रहने दो तुम
जा सकती हो।"
उसने डिब्बा बंद किया कनुप्रिया को दिया और उसकी अटैची उठाते
हुए उसके साथ बाहर आ पहुँचा।
"तुम पहली बार अकेली आई हो न?"
"हाँ!"
"किससे मिलने आई हो?"
"अपने पति से। अब हम यहीं
रहेंगे जब तक वह यहाँ से कोई अच्छी सी डिग्री न ले लें और फिर
उसके बाद हम पूरा युरोप अमेरिका वगैरह सब घूमने जाएँगे।"
कनु की आवाज में बच्चों जैसा उत्साह था।
"अच्छा अच्छा!"
उसकी स्वप्न–श्रृंखला को बीच में हो तोड़ता हुआ ऑफिसर बोला
"तुम अपने पति को पहचान
तो सकती हो न?"
कनु की आँखों में आश्चर्य अविश्वास और उपहास की ज्वाला एक साथ
कौंधी और ऑफिसर डरकर तीन कदम पीछे हट गया।
"क्यों नहीं?"
"तुम इससे ज्यादा और कुछ
नहीं बोलती क्या?"
दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए उसने कनुप्रिया की तरफ देखा।
पर कनु की आँखें तो अब बस सुबोध को जल्दी से ढूँढ लेना चाहती
थीं।
ऑफिसर ने अटैची बाहर
बरामदे में रखी और जाने के लिए मुड़ गया। वह समझ गया था कि यहाँ
दुर्घटना तो हो सकती थी पर कोई गड़बड़ घोटाला नहीं। कनुप्रिया की
आँखों में क्रांतिकारी सा एक योगी सा एक अबोध शिशु सा सच्चाई
का अथाह सागर जो लहरा रहा था। कनुप्रिया की आँखों की वह
दीवानगी वह कुछ कर गुजरने की ललक ऑफिसर को अच्छी लगी।
"बेस्ट आफ लक।" वह मुस्कराकर जाते–जाते पलटकर बोला-
अब कनु के आगे एक सीमेंट और कंक्रीट का घना जंगल था। लोग
बेतहाशा इधर से उधर भागे जा रहे थे। हजारों आवाजें
चारों तरफ परिंदों सी उड़ रही
थीं। कनु को सब कुछ दिखाई दे रहा था सुनाई दे रहा था सिवाय
सुबोध के। सुबोध जिसके लिए कनु उनकी पत्नी कनु अकेली यहाँ तक
पहुँची थी उसी सुबोध का दूर–दूर तक कहीं कोई पता नहीं था।
कैसे करे क्या करे कनु की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
"कहाँ जाना है बहन?"
पूछते हुए अचानक किसी ने उसकी पीठ पर हाथ रख दिया। इस
अप्रत्याशित सहानुभूति से कनु तृप्त भी हुई और घबराई भी। कौन
सा एहसास ज्यादा मजबूत था कहना मुश्किल है।
"मैंसफील्ड।"
"में रग्बी जा रहा हूँ।
चलो तुम्हें मैंसफील्ड छोड़ दूँगा। ज्यादा दूर नहीं है।"
"नहीं नहीं इसकी जरूरत नहीं। यह आ ही रहे होंगे।"
कनु की आवाज सहज और मीठी थी। उस अजनबी के अपनेपन ने कनुप्रिया
के मन को छू लिया था –
"तुम फोन क्यों नहीं कर लेती कि भाई वहाँ से चला भी है या
नहीं।"
"आप ठीक कहते हो।"
कनु ने नंबर जेब से
निकाला और उसी के साथ रखा वह तीन पौंड में से एक पौंड का
सिक्का भी।
"आप ही इसे तोड़कर चेंज दे दीजिए।"
सहृदय सरदारजी को उस पर
बहुत दया आ रही थी शायद उनकी अपनी बहन इसी उम्र की अबोध और
नासमझ थी।
"अपनी जेब में इसे संभालकर रख बहना। पराए मुल्क में अकेली खड़ी
है तू।"
कनुप्रिया की आँखें भर आई– उसे किसी का अहसान लेना कभी अच्छा
नहीं लगा – विशेषतः स्नेह और सहानुभूति का तो हरगिज ही नहीं।
क्योंकि एक यही ऐसा कर्ज था जिसे उतारने में वह स्वयं को सदैव
ही असमर्थ पाती थी। पर आज उस जन्मों
के बिछड़े भाई ने उसे ऋणी कर ही दिया था।
उस अपरिचित की आवाज में
इतना प्यार– इतनी परवाह और इतना आग्रह था कि कनु चाहकर भी मना
कर ही न सकी।
दस पैनी का वह सिक्का कब उसकी हथेली पर आया कब वह टेलीफोन बूथ
की तरफ घूमी कब उसने नंबर घुमाया कनु को कुछ पता नहीं चला –
दूसरी तरफ से आवाज आ रही थी कि डॉ. सुबोध तो आज छुट्टी पर हैं
और अपने किसी व्यक्तिगत काम से लंदन गए हुए हैं। कनु ने
आश्वस्त होकर फोन रख दिया। देर सबेर ही सही उसका बंसी वाला उसे
लेने आ रहा था –
फोन रखते ही उसकी आँखें धन्यवाद देने के लिए उस फरिश्ते भाई को
ढूँढने लगीं पर फरिश्ते कब जमीन पर ज्यादा देर तक टिकते हैं?
चेहरों की रेलपेल में वह नव परिचित चेहरा कब का गुम हो चुका
था।
कनु ने एक लंबे इंतजार के
लिए पास पड़ी बेंच पर खुद को सैटल कर लिया। अभी मुश्किल से दो
ही पल बीते होंगे कि सामने से आते हुए मुस्कराते नवयुवक ने
झुककर उसे विनम्र नमस्कार किया –
"आपने मुझे पहचाना? बताइए तो भला मैं कौन हूँ?" नवांगुत नौजवान
बार–बार पूछे जा रहा था।
कनु की आश्चर्यचकित आँखें इस मिलनसार देश की एक भी बात नहीं
समझ पा रही थी। पहले सहृदय सरदारजी अब पहेलियाँ बुझाता यह
अपरिचित–अचानक स्मृति की बिजली कौंधी धुंध के बादल हटे और
सुबोध के चचेरे भाइयों के चेहरे एक के बाद एक बरसाती बूँदों से
उसकी आँखों के आगे टपकने लगे –
"ध्रुव भैया" विश्वस्त कनु ने मुस्कराते हुए कहा।
"अरे भाभी आपने तो मुझे पहले कभी देखा ही नहीं फिर कैसे
पहचाना?" लुका–छिपी के इस खेल में अब कनु को भी आनंद आ रहा था।
"मेरे पास एक जादू का चश्मा जो है।"
इसके पहले कि कनु का
वाक्य पूरा हो दोनों ही खुलकर हँस पड़े।
"और जनाब कहाँ छुपे हुए हैं?" कनु ने इधर–इधर सुबोध को ढूँढते
हुए पूछा – ध्रुव भैया के कुछ कहने के पहले ही सामने वाली
दीवार के पीछे से सुबोध निकल आए फिर तो बस एक दो तीन चार पाँच
क्या पूरे बीस–पचीस लोगों का ताँता लग गया –एक के बाद एक।
"स्वागत भाभी!"
"वेलकम होम कनुप्रिया!"
कनु को समझ में नहीं आ रहा था उस प्यार और स्वागत का इस अपनेपन
का कैसे जवाब दे।
"धन्यवाद! धन्यवाद!"
मारे आभार के वह दुहरी
हुई जा रही थी अचानक एक सख्त सा चेहरा अपने लंबे–चौड़े शरीर
सहित ठीक उसके आगे आकर खड़ा हो गया।
"मैं तुम्हारा जेठ हूँ और यह तुम्हारी जेठानी। हमारे पैर छुओ।"
कनु की हँसती तरल आँखों में विद्रोह तैर आया। पहले जेठ वाला
प्यार और व्यवहार तो करो फिर यह अधिकार मैं स्वयं ही दे दूँगी।
अभी के लिए बस यह परिचय की नमस्ते ही काफी हैं। जुड़े हुए हाथों
के संग दंपति की तरफ देखती विनम्र कनु कुछ कह भी तो न पाई।
सामान कब और किस कार में गया कनु को पता नहीं हाँ उसने खुद को
जरूर एक कार में सुबोध और कथित जेठ–जेठानी के संग पाया। ध्रुव
भैया स्टीयरिंग पर थे जिससे लग रहा था कार उन्हीं की थी।
"तो तुमने साहित्य पढ़ा
है?" रोबीली आवाज कनु का इंटरव्यू ले रही थी।
"जी कोशिश की है।"
"शेक्सपीयर के कौन–कौन से नाटक पढ़े हैं।?"
"इस शब्द का उच्चारण क्या
होगा?" वगैरह–वगैरह जैसे निरर्थक शब्द इधर से उधर मुड़ती
स्क्रीच करती कार की तरह हर दिशा से आकर बारबार कनु के कानों
से टकरा रहे थे – अनचाही कर्कश आवाजें कर रहे थे। थकी कनु पर
तरस खाकर नींद ने आगे बढ़ झट से उसे अपने आँचल में छुपा लिया।
एक भी जवाब न मिलता देखकर आखिर में खिसयाये जेठजी ने अपनी
बंदूक सुबोध पर तान दी – "यह किस बच्ची को उठा लाए हो?"
अगली सुबह चहल–पहल वाली
थी। घर मेहमानों से खचाखच भरा हुआ था। पर सिवाय उस कमरे के
जिसमें कनु सोई थी उसने तो अभी अपने घर का एक कोना भी ठीक से
नहीं देखा था।
"सोई आराम से?" सुबोध ने गुसलखाने से सर निकालकर अधसोई पत्नी
से प्यार से पूछा –
"नाश्ते में क्या लोगी?"
"मैं बनाती हूँ।" ज्यादा सो लेने पर कुछ शर्मिंदगी के साथ कनु
बोली।
"नहीं–नहीं थोड़ा आराम और
कर लो अभी तो सिर्फ साढ़े छह ही बजे हैं। मुझे जरा अस्पताल एक
राउंड लेने के लिए जाना पड़ेगा। कपड़े सब मैंने वाशिंग मशीन में
धो दिए हैं। तुम बस सब के लिए थोड़ी खिचड़ी बना लेना। सारा सामान
मसाले वगैरह सब वहीं चौके
में ही रखे हैं।"
कनु बिजली की तरह बिस्तर
से निकली और दो ही मिनट में कपड़े बदलकर चौके में थी। वहीं चाय
का दौर चल रहा था। अनगिनत देवर और जेठों में से किसी एक ने
खिचड़ी चढ़ा भी दी थी। सब कुछ जल्दी–जल्दी निपट रहा था। शेरवुट
फोरेस्ट घूमने जाना था। इतने सारे छड़ों के बीच एक भी देवरानी
नहीं थी। हाँ एक जेठानी जरूर थी और कनु को जेठानियों से बहुत
डर लगता था। हिंदुस्तान में वह कई जेठानियों से मिल चुकी थी।
रंग थोड़ा सांवला है। कद
थोड़ा लंबा है। उठने बैठने का कोई शऊर नहीं। अभी बच्ची ही तो है
दब ढककर चार दिन ससुराल
में रहेगी तो सब सीख जाएगी – खुद ही खिल जाएगी – वगैरह–वगैरह
जैसी टिप्पणियों के बिना खाने की कौन कहे इनका तो पानी तक नहीं
पचता। वैसे भी दूरबीन के नीचे रखे कीड़े की तरह ऑब्जेक्शन में
रहना कनु को कभी अच्छा नहीं लगा वह चुपचाप अपने कमरे में वापस
लौट आई।
धीरे से वाशिंग मशीन खोली कपड़े सुखाने के लिए तो इस विदेश की
धरती पर पहली आहुति उसकी प्रिय छह साढ़े छह गज की कांजीवरम की
साड़ी आधुनिक तकनीकियों से कोप न कर पाने की वजह से मारे शर्म
के डेढ़ गज की होकर मुँह छुपाए बैठी थी। कनु की लाख कोशिशों के
बावजूद भी उसका सिकुड़ा–सिमटा अस्तित्व अपने पूर्ण निखार पर फिर
कभी भी नहीं आ पाया।
कनुप्रिया जग गई। ऐसे
नहीं चलेगा। चार्ज स्वयं लेना पड़ेगा। गीले बालों को तौलिए से
सुखाकर बाहर आई तो सारी आँखें उसी पर थीं। अपने बालों का जादू
कनु जानती थी पर उस स्तंभित मौन से तो वह कुछ ज्यादा ही शरमा
गई – विचलित हो उठी। और लड़खड़ाती कनु ने नमस्कार कहकर एक बंद
अलमारी का पट यूँ ही खोल डाला। अनायास ही कुछ ढूँढने लगी। तभी
अचानक कथित जेठजी पीछे से आकर कानों में फुसफुसाए –
"इन बालों को यूँ ही खुला रखा करो। कितनी सुंदर लगती हो –
खाम्ख्वाह ही इन्हें जूड़े चोटी में बाँधे रहती हो।"
कनु मुड़ी और बिना कुछ
बोले कमर पर मनमानी कर रहे बालों को कसकर जूड़े में बाँध दिया।
अगली
सुबह खुशनुमा थी। इंग्लैंड का रूप अपने यौवन पर था। चारों तरफ
गुलाब की कतारें महक रही थी। बिजी–लिजी और पुटैनिया से सजी
संवरी वरांडे में लटकी हैंगिंग बास्केट्स खुद अपने ही फूलों के
बोझ से जमीन तक लटकी जा रही थीं और हरा भरा लॉन कमरे के कालीन
से भी ज्यादा गुदगुदा और खुशनुमा लग रहा था। कनु का मन किया
प्याली बाहर ले जाए ओस से नहाए हरी–भरी घास पर नंगे पैर दोड़े
लुढ़के पुड़के और फिर वहीं बादलों को ओढ़कर सो जाए। वैसे भी कनु
करे भी तो क्या करे? मेहमान अपने–अपने घर जा चुके थे और सब
सामान अपनी–अपनी जगह पर।
अस्पताल के सिटिंग रूम
में अप्रवासी भारतीयों का झुंड एशियन प्रोग्राम देखने के लिए
आतुर बैठा था। कनु की उत्सुक आँखें भी स्क्रीन पर जा अटकी।
बड़े–बड़े अक्षरों में लिखा था "अपना ही घर समझिए" कनु के गले
में पत्थर अटक गया और आँखें धुंधली हो आई... यह और अपना घर? एक
भी तो पहचानी शकल नहीं हैं यहाँ पर। उदासी के बादलों ने उसे
चारों तरफ से आ घेरा। अपने घर में तो माँ दादी काकी भैया पापा
सब होते हैं। कैसे मान ले इसे वह अपना घर? इस अकेले घर में तो
दूर–दूर तक अक्सर कोई आवाज ही नहीं आती। कभी–कभी तो इतना
सन्नाटा रहता है कि फोन पर बात करते समय खुद अपनी ही आवाज
अनजानी सी लगने लगती है। डबडबाई आँखों को कनु सबकी नजर बचाकर
पोंछने लगी पर कनु को क्या पता था कि काफी देर से कोई उसे देख
रहा था पढ़ रहा था –
"मैं आतिया शरीफ हूँ। मेरे पति इसी अस्पताल में काम करते हैं।
मैं आई थी तो मुझे भी तुम्हारी तरह बहुत अकेला–अकेला लगा था।
शाम को घर आना गपशप करेंगे कुछ अपनी कहेंगे कुछ तुम्हारी
सुनेंगे। तुम चाहो तो मुझे आपा भी कह सकती हो वैसे भी तुम मेरी
छोटी बहन आनिया की तरह ही लगती हो बिना बाजी के बात–बात पर रो
पड़ने वाली।"
बाजी की प्यार भरी
गुदगुदी से कनु के सारे आँसू खिलखिला पड़े और अगले दिन ही वह
दौड़कर उनके यहाँ जा पहुँची।
प्यारी–प्यारी रोटी–दाल
की महक ने कनु की रूठी भूख को वापस बुला लिया। आपा ने कनु को
जी भरकर प्यार दिया और साथ में दीं जी भरकर हिदायतें पास के
ग्रोसरी वाले का पता और नंबर पोटैटो पीलर श्रेडर बेलन और न
जाने क्या–क्या? कनु को पहली बार लगा कि वह वाकई में कनुप्रिया
है तभी तो बंसीवाले ने अपने आप ही बहन को उसके पास भेज दिया।
"मैं खुद चलते–फिरते तुम्हारे हाल–चाल लेती रहूँगी। फोन भी
करूंगी और ऐसे ही टपक भी पडूंगी।"
"जरूर बाजी।" कनु ने गद्गद् होकर कहा था। और फिर वह सच में टपक
ही तो पड़ी थीं वह भी अगली सुबह ही। कनु सुदामा की तरह बौखला गई
थी कहाँ बिठाए क्या खिलाए?
"आप चाय पिएँगी या काफी? ठंडी या गरम?"
"अरे बाबा जरा बैठने तो
दो।"बाजी हँसकर बोली थीं "चलो चाय पी लेते हैं।"
कनु के पैरों में पंख लग
गए दौड़कर कैटल रख आई। उसकी बच्चों जैसी विस्मित आँखों में
जोशीला कौतुक था। अपनी बाजी के बारे में वह सब कुछ जान लेना
चाहती थी – अच्छा तो आप लाहौर से है हम अजमेर से। अजमेर और
लाहोर की बातें करते–करते कैसे पूरे चार घंटे निकल गए दोनों
में से किसी को कुछ पता ही नहीं चला। "अब तो भई चाय पिला ही
दो।" अचानक बाजी बोलीं।
"अरे राम मेरी कैटल" कनु
को मानो करेंट लग गया। वह तीर की तरह किचन में पहुँची। कैतली
के नाम पर बस एक प्लास्टिक का हैंडल कनु का बड़ी दयनीयता और
बेबसी से इंतजार कर रहा था। कनु की आँखों में चमक आ गई। इतना
सुंदर चमचमाता रंग। उसके अंदर का कलाकार सब कुछ भूलकर पास पड़ी
ट्रे और चाकू उठा तल्लीन हो गया। पीछे खड़ी बाजी मंत्रमुग्ध सी
देख रही थीं। एक सधे कलाकार के हाथ सज संवरकर ट्रे पर दो
सूरजमुखी के फूल बड़ी नजाकत से मुस्कुरा उठे। बाजी ने छोटी बहन
को गले से लगा लिया। उसका माथ चूमा और कहा "तुम सच में बहुत
अच्छी हो बहुत ही प्यारी।
चलो मैं अब तुम्हें चाय पिलाती हूँ।"
"नहीं! चाय तो मैं ही
बनाउँगी" कनु ने कुछ शरमाते कुछ झेंपते हुए कहा और दोनों बहनें
खिलखिलाकर हँस पड़ी।
महीने दिनों में बीत रहे थे। गुनगुनी सुबह को कनु चाय के संग
चुस्कियों में पी रही थी।
"अब क्या करने का इरादा है?" छुट्टियाँ बिताने आए हुए जेठजी ने
कनु की तरफ मुड़कर पूछा।
"नहाने जाउँगी।" कनु ने अलसाते हुए जवाब दिया।
"मैं आज की नहीं भविष्य
की बात कर रहा हूँ। एम.ए. हो कोई नौकरी कर सकती हो। तस्वीरें
बनाकर बेच सकती हो। सुबोध को थोड़ी आर्थिक मदद मिल जाएगी।
तुम्हारे आने से खर्चे बढ़े हैं। कल को घर गृहस्थी भी बढ़ेगी। एक
तनख्वाह में कैसे गुजर होगी? तुम्हें खुद ही सोचना और समझना
चाहिए। पढ़ी–लिखी हो। शादी का अर्थ सिर्फ पति के साथ सोना और
मस्ती करना ही तो नहीं होता?" नंगे शब्दों की मार कनु के कान
गाल सब लाल कर गई। समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या
सुन रही है – क्यों सुन रही है? कल ही की सी तो बात है जब अपनी
नई जिन्दगी की शुरूआत करते हुए उसने और सुबोध ने दोस्त बनकर
कसमें खाई थीं – हर समस्या हर उलझन और परेशानी को मिल–जुलकर
समझने सुलझाने और सहने के वादे किए थे। क्या यही मिलाजुला
प्रयास है कि अपने घर का नंगा हालचाल दूसरे आकर सुनाएँ। कनु के
प्रयास में तो कभी दूसरों के काम के लिए भी कमी नहीं आई। फिर
उसके अपने सुबोध ने कैसे उसे इस लायक भी नहीं
समझा। शर्म और ग्लानि से वह जमीन में धँसी जा रही थी बस जमीन
ही नहीं फट पा रही थी। विवेक और संतुलन ढूँढती सामान्य रहने के
प्रयास में वह सहज होकर बोली –
"आप हमारे मेहमान हैं। बैठक और मेहमान घर के दरवाजे आपके लिए
सदैव ही खुले रहेंगे पर दया करके उसके आगे मेरे शयनकक्ष और
स्नान–गृह में झांकने की कोशिश कभी मत करिएगा क्योंकि यह न
सिर्फ शिष्टाचार के विरूद्ध है वरन् अभद्रता
भी है। उन बन्द दरवाजों के पीछे क्या होता है वह हमारा निजी
मामला है।"
इतना दंभ? इतनी दृढ़ता? वह
भी एक अबोध सी लगती बालिका में? जेठजी आश्चर्यचकित थे पूरी तरह
से बौखला गए थे।
"बात को ज्यादा गंभीरता से मत लो। मैंने तो बस ऐसे ही
वार्तालाप को चालू रखने के लिए यह सब कुछ कह दिया था। तुम काम
करो या न करो इससे मुझे कोई फरक नहीं पड़ता – वैसे भी मैं तुमसे
ग्यारह–बारह साल तो उम्र में बड़ा हूँ ही। और यह सुबोध वगैरह तो
सब मेरे चेले–चपाटे रहे हैं। हमेशा मेरे कहे अनुसार ही चले
हैं। ऐसे तो मुझसे आज तक किसी ने भी बात नहीं की।"
स्वस्थापित जेठजी ने
इधर–उधर हवा में हाथ फेंकते हुए कहा।
अचानक कनु सब कुछ जान गई
– समझ गई। सामने बैठे व्यक्ति का हकलाता हलकापन। परिस्थिति की
अनर्थ–अर्थहीनता। घटनाओं की मनगढं.त उपज और अदृश्य तमाचों की
चुनचुनाती तिलमिलाहट। उससे अपने सुबोध तो इस अहं और नियंत्रण
के ताने–बाने में कही थे ही नहीं और फिर गैरों से कैसी
नाराजगी? क्योंकि नाराज भी तो बस उसी से हुआ जा सकता है जिसके
साथ कोई राज हो जो अपना हो।
"आप और चाय पिएँगे? लीजिए
तब तक यह अखबार पढ़िए।"
तुरन्त आए अखबार को
उन्हें पकड़ाकर कनु उठ खड़ी हुई। इस एक ही घटना ने उसे हमेशा के
लिए वयस्क और जिम्मेदार बना दिया था। गृहिणी के दायित्वों से
अवगत करा दिया था। कौवे गिद्ध और चूहे किस गृहस्थी में यदा–कदा
नहीं घुस जाते? पूरा घर साफ करना होगा। हर जाले को तोड़ना होगा।
गन्दी धूल को हटाना होगा और सेंधे भरनी होंगी।
दरवाजे पर दस्तक थी लगता है कोई आया है। सामने बाजी की नन्ही
नताशा सजी–धजी खड़ी थी। हरी फ्राक और गहरे काले बालों में हरे
रिबन के बीच उसका मुस्कुराता गुलाबी चेहरा बिल्कुल ताजे गुलाब
सा खिल रहा था।
"मौसी–मौसी यह बादल नीला
ही क्यों होता है। बताओ ना आप तो आर्टिस्ट हो?"
लगता है भगवान के पास रंग ही नहीं मिट्टी भी एक ही तरह की बची
थी। या शायद उसे कनु और नताशा जैसे इन्सान बनाना पसन्द है।
नीला रंग पसंद है। बात रंग की नहीं रस की ही होती है। जो बात
गौतम बुद्ध को घर छोड़कर समझ में आई थी कनु को घर में रहकर समझ
में आ गई। नीला कृष्ण–कन्हैया बाँसुरी के संग और उसके सुबोध
स्टैथस्कोप के संग दोनों ही अच्छे लगे कनु को आज।
कनु खिलखिलाकर हँस पड़ी –
"क्योंकि मेरी गुड़िया रानी भगवान को नीला रंग अच्छा लगता है।
आसमान नीला हो या पीला कोई फरक नहीं पड़ता। बस आदमी को खुश रहना
चाहिए।"
"तो मैं अपने आकाश को हरा रंग लूँ?" नन्हीं नताशा ने अविश्वास
और बाल सुलभ कौतुक से पूछा।
"क्यों नहीं!" कनु ने प्यार से निशू की तरफ देखते हुए उत्तर
दिया।
हरे आकाश की कल्पना मात्र से नन्हीं निशू हँस–हँस कर दोहरी हुई
जा रही थी और कनु ने आगे बढ़कर उसे गोद में उठा लिया। |