कनुप्रिया
लड़की नहीं एक पहाड़ी नदी थी जब अपनी रौ में बहती तो सबको अपने
साथ बहा ले जाती। सब कुछ अपने में समेटे हुए फिर भी सबसे दूर।
एक ऐसा पुराना बरगद का पेड़ जो जितना बाहर दिखता था उससे कहीं
ज्यादा जमीन के भीतर था। जिसकी छाँव में थके लोग सहारा ले सकते
थे और भूले भटके शांति और ठहराव। इसकी नित उठती शाखें पूरे
तारों भरे आसमान को अपनी बाहों में भरने की सामर्थ्य रखती थीं।
कनुप्रिया
नाम कब और कैसे रखा गया उसे याद नहीं पर जब भी बच्चे चिढ़ाते कि
उसका नाम कन्नु–प्रिया इसलिए हैं क्योंकि उसकी दोनों कंचे जैसी
आँखें खेलते समय हरे पीले भूरे अलग–अलग रंगों में चमकती हैं,
तो दादी अपना डंडा लेकर उस वानर सेना के पीछे पड़ जातीं। फिर
रोती कनु को चुप कराते हुए कहतीं जब मेरी लाडो को बंसीवाला खुद
ब्याहने आएगा तो तू ही बता वह बस प्रिया कैसे हो सकती है – वह
तो कनुप्रिया ही होगी न –
अपने कान्हा की प्यारी।
उम्र के बीस बसंत निकाल दिए कनु ने इस बंसीवाले के इंतजार में
और फिर एक दिन अचानक उसकी शादी तय हो गई सुबोध से। सुबोध जो
शादी करके तुरंत ही इंग्लैंड भी चले गए बिना कनु को बताए कि
शादी क्यों की, इंग्लैंड जाना था इसलिए या फिर उनका और कनु का
जन्मों का नाता था। |