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फिर मुझे दिनेश का कहा वाक्य याद आया, "पापा अगर आप को मेरी जिंदगी से जरा–सी भी दिलचस्पी है तो यह अखबार छोड़ दो।"

कितनी बड़ी बात कह दी दिनेश ने पापा से! मेरी और भैया की तो अभी तक हिम्मत न पड़े। और पापा को दिनेश की कही हुई बात जरा भी अस्वाभाविक नहीं लगी और मम्मी को भी साधारण लगी। उन्होंने तो बस धीरे से इतना ही कहा, "हाँ अखबार छोड़ दो न...।"

और पापा ने चुपचाप अखबार एक तरफ रख कर कहा, "हाँ भई सुन तो रहा हूँ सब कुछ।" पापा के चेहरे पर न तो हैरानी का भाव था न ही गुस्से का और न ही दुख का। बस एक स्थिरता थी जैसे ऐसा कहा जाना साधारण बात थी।

पापा के लिए यह बात जुर्रत से साधारण कब बनी नहीं जानती। जब से मेरी अपनी शादी हुई है थी, मैं अपने घरबार में लग गई थी, कब यह परिवर्तन आया मालूम नहीं। मुझे तो कल की ही बात लगती है जब भैया झुंझलाए हुए कह रहे थे, "तीन बजे फिल्म शुरू होती है, छः बजे खत्म हो जाएगी इसके लिए पापा को आफिस फोन करके पूछने की क्या जरूरत है" भैया मम्मी पर नाराज हो रहे थे, "पापा को पता लगना जरूरी है क्या...फिल्म देखना इतनी बड़ी बात है
क्या...और पूछने पर वे हाँ कर देंगें क्या...?

ले
किन मम्मी आज्ञा देने को राज़ी नहीं थी। भैया की झुंझलाहट में अब निराशा भी मिल गई थी। "इस से तो अच्छा होता आप को भी न बताता। चुपचाप देख आता" भैया कह रहे थे और मम्मी का जवाब, "देख आता फिर, किसने रोका था। पर मैं आज्ञा नहीं दे सकती।"

भैया बड़बड़ाते हुए मुझसे कह रहे थे, "नहीं बताऊँगा आगे से –यही सिखा रही हैं मम्मी मुझे। पापा को बताना जरूरी है क्या?"
"और पापा को पता चल गया तो मालूम है कि कितना नाराज होंगे मम्मी पर...।" मम्मी का पक्ष ले कर कहा था मैंने।
"
यह भी कोई बात हुई – पापा से पूछे बिना कोई पत्ता भी नहीं हिले यहाँ।"

यह सच है कि पापा से पूछे बिना कोई पत्ता भी नहीं हिलता था। और अगर हिलता था तो यह जान कर कि या तो पत्ते को हिलना पापा को पता नहीं चलेगा और या फिर पत्ते के हिलने का कारण पापा को बताया जा सकेगा। भैया अपना गुस्सा मम्मी को दिखा देते थे पर मैं तो इस बात का मौका ही नहीं आने देती थी। न मम्मी को और न ही खुद को


कितनी बार मेरा नीरा के साथ जाने का मन होता था। लेकिन जानती थी पापा जाने नहीं देंगें। इसलिए मैं पूछती नही थी। तभी तो हमेशा नीरा ही हमारे घर आई रहती थी। कभी यह कहकर कि तू तो मेरे यहाँ आती नहीं–वह भी आना छोड़ दे
ती थी। फिर अपने आप या तो खुद मुझसे दूर नहीं रहना चाहती थी और या फिर मेरी बेबसी पहचान–कर वापिस आना शुरू कर देती थी।

मम्मी ने भी अपने आप को इस स्थिति में ढ़ाल लिया था। वह पापा से कोई भी ऐसी बात की उम्मीद ही नहीं रखती थी। मुझे याद है, पापा अक्सर हमारे साथ खेलते थे। हँसी मजाक करते थे। लेकिन जैसे ही हम किसी ऐसी बात की इजाज़त माँगते थे। जो उन्हें पसन्द न हो पापा के चेहरे पर चुप्पी छा जाती थी। हमें ऐसा महसूस होता था जैसे बहुत बड़ा पाप हो गया हो। बड़े भैया तो अक्सर पापा से थोड़ी बहुत बहस कर लेते थे पर मैं और राजेश तो कुछ नहीं कहते थे।

अगर कोई बात मन में आती तो मैं राजेश से ही बात करती थी। जानती थी अगर भैया से कुछ कहा तो बस शुरू हो जाएँगें। पापा के अन्याय पर बहस करने लगेंगें। तभी तो जब भैया ने सुधा भाभी से शादी की तब पापा की तरह मैंने
भी उसे पापा के खिलाफ बगावत की निशानी समझा।

सुधा भाभी भैया के साथ कालेज में पढ़ती थी। मम्मी को काफी पसंद थी और मुझे भी। राजेश भी काफी हसीं मजाक करता था। दिनेश उन्हीं दिनों पैदा हुआ था। दिनेश का होना एक ऐसा किस्सा था जिसको ले कर मम्मी पापा आज भी झेंप जाते हैं। हमें भी यह बात बहुत देर के बाद स्वाभाविक लगी। शुरू में यह बात सिवा नीरा के मैंने किसी से नहीं की थी।

दिनेश के होने पर मम्मी ऐसी हो गई थीं जैसे पहली बार माँ बनी थीं। दिनेश को उन्होंने यूं पाला था जैसे उनकी इकलौती संतान हो। जब एक बार शुरू–शुरू की शर्मिंदगी दूर हो गई दिनेश अपने आप ही मेरा लाडला बन गया था। मेरे सोचने के ढंग में जो यह अंतर आया था और भैया को भी जो इस बात को स्वाभाविकता का अहसास हुआ था उसके पीछे भी सुधा भाभी का हाथ था। हाँ, यह बात और है कि तब वे सुधा भाभी नहीं बल्कि सुधा दीदी थी। लेकिन मैं अपने
भैया को जानती थी इसलिए यह समझती थी कि एक दिन सुधा मेरी भाभी बनेगी।

पापा समझते थे कि सुधा भैया की जिंदगी में खास महत्व रखती है फिर भी वे इस बात को खुले आम मानने को तैयार नहीं थे। मम्मी अक्सर कहती थी जैसे भैया को समझा रही हो "सुधा बहुत ही अच्छी लड़की है पर ...।"
मुझे यह 'पर' कभी समझ नहीं आता था।

एक दिन मम्मी के कमरे में भैया बहुत देर तक कुछ कह सुन रहे थे। बीच–बीच में उनकी आवाज कभी ऊँची हो जाती थी कभी रुँध जाती थी। मेरा मन हो रहा था अभी अंदर जाकर पता लगाऊँ पर हिम्मत नहीं हो रही थी। और वैसे भी दिनेश मेरे पास था। कुछ देर बाद भैया जब बाहर आए तो कह नहीं सकती कि उनके चहरे पर गुस्से का भाव था या दु
ख का। मम्मी के चेहरे पर गुस्सा तो नहीं था, शायद दुख था या फिर बेबसी...।
"क्या बात है मम्मी"
"कुछ नहीं।" मम्मी ने बस बात ही खत्म कर दी।
"फिर भी...." मैने शायद पहली बार जिद की थी ।
"बस सुधा को लेकर।"
"क्या सुधा को लेकर .. . .।"
"
कुछ नहीं।" इस बार जब मम्मी ने यह जवाब दिया तो जान गई वे और कुछ नहीं बताएँगी।

मे
रे अंदर कुछ धुकधुकी लगी रही। मैंने भैया से जाकर पूछ लिया और भैया ने सब बता दिया। शायद उनका भी मन कुछ कहने को उतना ही उतावला था जितना मेरा जानने को।

सुधा अपने पापा के साथ रहती थी। उसके पापा और मम्मी का तलाक हो चुका था। यहीं नहीं उसकी मम्मी ने तो दूसरी शादी भी कर ली थी। सुधा का छोटा भाई और बहन अपनी मम्मी के साथ थे और वह अपने पापा के साथ। उलझन केवल उनके तलाक को लेकर नहीं थी। यह नया जमाना था और तलाक भले ही आम बात नहीं थी पर ऐसी अनोखी भी नहीं थी। फिर भी मैं समझ सकती हूँ हमारे घर में उस समय यह अनोखी बात थी। मुझे लग रहा था कि पापा हमारे घर के लिए वैसे ही परेशानियाँ खड़ी कर रहें हैं जिनके कारण एक दिन सुधा की मम्मी ने सुधा को होस्टल में डालकर और छोटे दोनों बच्चों को साथ लेकर घर छोड़ा था। सुधा भी अपने आप को उसी मोड़ पर खड़ी पा रही थी। भैया चाहते थे सुधा को ब्याह कर अपने घर ले आएँ..."शादी तो मुझे करनी है और करनी भी सुधा से है तो फिर क्यों नहीं मैं अभी..." भैया के चेहरे पर वही मम्मी के चेहरे वाली बेबसी आ गई।

मैं सारी बात की गंभीरता को समझ गई। इतनी बड़ी बात .. . . जान गई मम्मी के चेहरे पर डर भी था। बात केवल सुधा की समस्या समझने की नहीं थी। वे जानती थीं सुधा ने जो कुछ बताया था वह सब सचा था। फिर भी....भैया की पढ़ाई का यह आखरी साल था...कैसे इस तरह शादी...। फिर सुधा घर छोड़ने को कह रही थी यानि कि शादी बिना किसी धूमधाम से होगी, केवल सुधा को बहू बना कर इस घर में लाने के लिए। पापा के लिए यह कितनी बड़ी बात होगी। कौन करेगा उनसे यह बात, कौन देगा उनके तार्कों का जवाब। भैया आदर्शवादी थे, सवाल जवाब कर सकते थे पर उनसे पापा को केवल ठेस ही पहुँचनी थी। कोई भी आसान रास्ता नहीं था।

आखिर वही हुआ। आज भी याद आता है रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस बात को लेकर कितना भूचाल आया था। पापा ने भैया को कई सुझाव दिए थे... सुधा को होस्टल में डाल देते हैं फिर उसके पापा को समझा देंगें और कुछ सालों में शादी कर देंगे अच्छी तरह से। पर सिवा भैया के कोई यह बात समझ पा रहा था कि सुधा उस घर को केवल शादी के रास्ते से ही छोड़ सकती थी और पापा के लिए केवल एक ही बात के आधार पर इतना बड़ा निर्णय लेना या अपनी अनुमति देना असंभव था जबकि यह बात उनकी अपनी सुझाई हुई नहीं थी।

भैया की अपनी जिद थी। मम्मी को समझ में नहीं आ रहा था कि वे किसका पक्ष लें। इन्हीं हालातों में सुधा मेरी भाभी बन कर घर में आ गई। मैंने न तो भैया की घोड़ी की बाज पकड़ी, न भैया के आँखों मे सुरमा ड़ाला, न ही चाव से कपड़े सिलवाए, न ही बारात के आगे झूम कर खुशी से नाची। जैसे इतनी बड़ी होने पर भी एक छोटे भाई के पैदा होने की शर्मिंन्दगी उठाई थी उससे भी कहीं ज्यादा चोरी छिपे हुए भैया की इस शादी की शर्मिंन्दगी उठाई।
पापा ने रोका नहीं, और ना ही अपनी इजाजत दी। यह बात उनकी मर्जी के बिना हुई है इस बात को भी उन्होंने किसी को भूलने नहीं दिया।

पापा का रोब बिलकुल शेर जैसा था। उनको देखकर मुझे अकसर बचपन सुनी हुई राजा शेर की कहानियाँ याद आती थीं। उनका प्यार भरी गोद में बैठकर मुझे उनकी ताकत का एहसास होता था। घर में काम करने वालों के साथ उनका सहानुभूति का व्यवहार मुझे हमेशा गर्व से भर देता था और इसीलिए मैं कभी समझ नहीं पाई उन्होंने भैया और भाभी के प्रति इतनी देर तक नाराजगी को अपने मन में कैसा रखा। भैया अगर सामने आते थे तो ठीक से बात करते थे लेकिन सिर्फ काम की ही बात करते थे। पर भैया अपनी परीक्षा में व्यस्त थे इसलिए पापा के सामने कम ही आते थे। अगर किसी एक को उन्होंने कटा रखा था तो वह थीं सुधा भाभी।

भाभी पापा के काम से लौटने पर हमेशा उनके पैर छूती थीं और पापा एक तरफ हो जाते थे। अगर वह उनके लिए पानी लातीं तो वे रसोई में जाकर दूसरा पानी पी लेते थे। कभी–कभी जी करता उनको झकझोर कर पूछूँ क्या किया है भाभी
ने। पर मालूम था पापा के पास इस सवाल का जवाब होगा और उनके तर्क के सामने मैं कुछ न कह सकूँगी।

पापा की इस बेरुखी से बदले मैं भाभी को अपना बहुत प्यार देती थी, लेकिन यह जानती थी कि पापा की बेरुखी भाभी को कितना दुख देती थी। भैया को जब दूसरे शहर में नौकरी मिली तो लगा जितनी उतावली से भैया जाना चाहते थे उतनी उतावली से पापा भी उन्हें भेजना चाहते थे। सामने से दूर होंगे तो पापा को रोज़–रोज़ इस तरह अपनी नाराज़गी की नाकाब पहनने का बोझ नहीं उठाना पड़ेगा। मम्मी का बस चलता तो वह कभी भी भैया को दूर की नौकरी न करने देतीं। लेकिन इन हालातों में उनको भी यही ठीक लगा कि भैया–भाभी यहाँ से दूर अपनी ज़िन्दग़ी शुरू करें।

मैं नहीं जानती पापा का मन सुधा भाभी की ओर कब बदला लेकिन यह अच्छी तरह से जानती हूँ कि कब पापा ने इस बात को स्वीकार किया कि उन्होंने भाभी के साथ रूखे रहने का अन्याय किया है। यह बात कई सालों के बाद हुई थी। मेरी शादी के बाद और राजेश की शादी के कुछ समय के बाद। राजेश ने अपनी पसंद से रूपा से शादी की थी। पापा को थोड़ी–सी आपत्ति थी क्योंकि पापा रूपा के परिवार को जानते थे और उनके बारे में पापा की राय अच्छी नहीं थी। "कुछ भी हो लड़की में अपने परिवार वालों का कुछ तो असर आ ही जाता है।"

राजेश रूपा से ही शादी की जिद में था। फिर उसने साफ–साफ तो नहीं पर दबे दबे स्वर में और कुछ घुमा–फिराकर यह
जरूर जता दिया था कि पापा ने जैसा भैया के साथ किया वैसा वह अपने साथ न होने देगा। फिर पापा के पास सिवा आकांक्षाओं के कुछ भी तो आधार नहीं था, तर्क न था, दलील न थी, राजेश की शादी बहुत घूमधाम से हुई। मम्मी ने और मैंने भी अपने सारे चाव पूरे किए जो भैया की शादी में न कर पाए थे। पापा ने भी बहुत गर्व से अपने पहचान वालों को बुलाया था। शादी में सुधा भाभी कुछ लज्जित सी थीं। केवल पापा ही नहीं थे जो कई बार अपने रिश्तेदारों के बीच कह रहे थे देखो कितनी शानदार शादी हो रही है, न चाहते हुए भी हमारे मुँह से भी कई बार ऐसा निकल जाता था कि पहली बार यह सब नहीं कर पाए इसलिए अब दुगनी बार करेंगे।

रूपा जब बहू बन कर आई तो पहले दिन से बहुत अंतर दिखा। उसे दोष नहीं देती हूँ। वह नई पीढ़ी की है। राजेश ने वैसे ही उसे घर की बातें बताई हुई थी और शुरू में ही उसने एक दिन पापा से कहा था, "जब आपके पाँव छुऊँगी तो वैसे
मत करना जैसे सुधा भाभी के साथ किया था।" तब पापा ने कहा था कि, "तुम्हें पाँव छूने की जरूरत नहीं है।" रूपा ने उस के बाद कभी उनके पाँव नहीं छुए। रूपा ने अगर यह बात भाभी का पक्ष लेने के लिए कही होती तो मुझे कुछ दुख न होता पर रूपा ने तो यह बात पापा को अपना साहस जताने के लिए कही थी। उनके गर्व की गर्दन को झुकाने के लिए कही थी।

और शादी के छह महीने बाद ही रूपा ने राजेश से अलग होने को कहा। इससे पहले राजेश पापा से आज्ञा माँगता, पापा जान चुके थे और उन्होंने खुद ही राजेश को ऊपर फ्लेट में चले जाने को कहा। बात यहीं खत्म नहीं हुई। ऊपर जाने के बाद रूपा के कारण राजेश कई दिनों तक पापा मम्मी से नहीं मिलता था। दिनेश होस्टल पढ़ रहा था। मैं अपने घर में व्यस्त थी। राजेश और रूपा साथ रहते हुए भी साथ न थे। पापा मम्मी एकदम अकेले पड़ गए थे। उस साल दिवाली की छुट्टियाँ में घर आई तो पापा ने बहुत ही थके हुए स्वर में मुझसे कहा था, "कैसी थी वह सुधा। मैं उसके साथ इतना रूखेपन से पेश आया और उसने नहीं कहा। रूपा को तो मैं ने कुछ भी न कहा फिर भी..."

तब पहली बार मैंने पापा को उस शेर की तरह पाया जो खुद से ही हार चुका था। वह शेर जिसकी दहाड़ से दूर–दूर तक
सब काँप उठते थे। जिसकी हँसी में शामिल होने को सब तरस जाते थे आज कितने थके हुए लग रहे थे।

आज बैठक में भैया बैठे थे। भाभी भी यहीं कहीं आसपास घूम रही है। आज पापा और भाभी का संबंध देखकर कोई सोच भी नहीं सकता कि एक समय पापा को भाभी स्वीकार नहीं थी। भैया के साथ उनकी शादी स्वीकार नहीं थी और या फिर शादी का समय जिसे पापा ने नहीं, भैया ने भाभी के हालातों को देखते हुए किया था स्वीकार नहीं था। जो भी कारण रहा होगा, आज उसका कोई महत्व नहीं था। आज इस बैठक में दिनेश मोनिका के साथ अपनी शादी की बात कर रहा है। मोनिका जो हिन्दू नहीं इसाई थी। पापा सारी बातचीत मम्मी और भैया को करने दे रहे थे। जैसे किसी की जिंदगी, किसी के निर्णय से उन्हे कुछ वास्ता ही न हो कुछ लेनादेना ही न हो।

जंगल का शेर जब बूढ़ा हो जाता है तो वह जरूर पापा जैसा लगता होगा। मेरी दोनों आखों में आँसू आ गए। मम्मी और भैया ने मेरी तरफ हैरानी से देखा। मैं कुछ नहीं बोली। बोलती भी क्या? चुपचाप पापा के पास जा कर बैठ गई और उनके गोद
में सिर रख दिया।

सुधा भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए हंसकर कहा, "क्यों वापिस जाने का दिन पास आ रहा है इसलिए..."
मैं कुछ नहीं बोली। बोल नहीं पाई।

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१६ सितंबर २००४

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