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घर की बंदिशे अचला की बर्दाश्त से बाहर थी ऱोज-रोज वही दिनचर्या, उब, एकरसता, बेचैनी। तभी अचला ने एक दिन नौकरी करने का फैसला कर लिया था। बस नौकरी के बहाने बाहर निकलती तो पति का सामना करने से बचने के लिए और भी देर से घर लौटती। रोज़-रोज़ तक्रार शुरू हो गई। पति बोला नौकरी करने की ज़रूरत नहीं। घर पर बैठो और बच्चों की देखभाल करो।

पर बच्चे तो बड़े हो चुके थे। देखभाल का मतलब था दिन भर उनका इंतज़ार, चिढ़न और कुढ़न। आखिर अचला ने घर और बच्चों सभी को एक साथ छोड़ दिया। अब अचला की अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी थी पर भारती जैसे लोग उसे बार-बार अपने अतीत की ओर खींचने लगते। यों यहाँ की ज़िंदगी में भारती जैसे लोग एकदम फालतू थे, उनसे रखे-रखाये बिना भी आराम से काम चलाया जा सकता था। आखिर ये लोग उसके वर्तमान जीवन में कोई भी अहम भूमिका अदा नहीं करते। बस एक नास्टेल्जिया-सा ही तो है भारती का साथ! जब चाहे उसे झटका जा सकता है। हमेशा के लिए तो उस नास्टेल्जिया में बहा भी नहीं जा सकता। पर भारती को वह चाहे कितना दोष देती रहे ज‍ख्म को छेड़ देने के लिए। ज़ख्म तो उसका अपना ही है।

पति को छोड़कर एक बेहतर ज़िंदगी की सोची थी। पर कोई भी तो पुरुष ऐसा नहीं मिला जो उसके लिए सही हो। जिससे मन भी मिले और उसकी अपनी माँगे भी वह पूरी कर सके। ऐसा पुरुष जो उसे मुक्ति भी दे सके और प्यार भी। उसके पहले पति की तरह, उसकी हर हरकत, उसकी हर चालढाल को मात्र संदेह से ही न देखता रहे।

वह सुंदर है इसलिए वह किसी एक से प्यार नहीं कर सकती, यह मानना कितना गलत है। यह सच है कि उसे पुरुषों का अपने प्रति आकर्षण सुख देता है और वह उन्हें इससे हटाना नहीं चाहती, पर वह उनके प्रति समर्पित भी नहीं होना चाहती। अगर समर्पित होना है तो उस किसी विशेष के प्रति ही होगी। हर किसी के प्रति तो नहीं। क्या कोई भी पुरुष उसके मन की इस स्थिति को समझकर उसे अपना बना सकेगा? उसे प्यार दे-ले सकेगा!

पर जब भी कोई पुरुष उसके निकट आया, उसे संदेह की निगाह से ही देखता। अचला का अपना मन हिंदुस्तानी पुरुषों से ही मिलता था और उसे मुक्ति के साथ प्यार देने वाला कोई भी पुरुष नहीं मिला। यह बात नहीं कि वह एक से अधिक पुरुषों के साथ शारीरिक संबंध बना कर रखना चाहती थी, पर मूल रूप से मुक्ति की माँग ज़रूर करती थी कि किसी की संपत्ति बन कर नहीं रहना है उसे। शायद इसीसे पति से तलाक के बाद से ज्यों-ज्यों वक्त गुज़रता जा रहा था, उसकी किसी सही पुरुष से मिल पाने की उम्मीद धुंधली पड़ती जा रही थी और अकेले रह जाना उसकी ज़िंदगी की सच्चाई बनती जा रही थी।

खाना खाके सब फिर से गाना गाने बैठ गए थे। सब कह रहे थे कि अब अचला की बारी है। उसे एक गाना तो गा ही लेना चाहिए।
अचला का मन भरा-सा था। उसने बहुत दर्दभरा एक पुराना फिल्मी गीत गाया। किसी ने गौर नहीं किया उसकी आँखें सच में भरी हुई थीं। सबने कहा, ''आज तो वाकई में अचला ने बहुत ज़ोरदार गाया है।''

अचला का मन हो रहा था अब सब चले जाए। इनमें से किसी को नहीं मालूम था कि उस पर आज क्या बीत रही थी। उसका खुलापन, हँसी-मज़ाक, उत्साह से गले मिलना या गाल पर चूमना, यही तक का तो नाता था इन सब से। इससे ज़्यादा न वह खुद आगे बढ़ती थी न दूसरे! बेटे की शादी का जो भी मतलब इस या उस या किसी भी समाज में हो, अचला के लिए तो वह एक ज़ख्म बनता जा रहा था और वह यह ज़ख्म किसी को भी दिखाने की हिम्मत नहीं रखती थी।

इधर दफ्तर में हालात बिगड़ गए थे। सब कर्मचारियों को अंदाज़ा हो गया था की भारती ही उनके खिलाफ़ अचला के कान भरती है। उन्होंने आपस में मिलकर मीटिंग की जिसमें भारती को बाहर रखा गया और इस मीटिंग में अचला के खिलाफ वाईस प्रसिडेंट को खत लिखा गया कि वह उन्हें स्कूल के बच्चों की तरह अनुशासित करना चाहती है। उन पर देर से आने के झूठे इल्ज़ाम लगाए गए हैं। दफ्तर का माहौल काम करने लायक नहीं रहा। उनका ऐसे कड़े अनावश्यक अनुशासन में दम घुटता है। इस बारे में कुछ किया जाए। वर्ना वे सब मिल कर यूनियन तक अपनी शिकायतें ले जाएँगे और आखिरी दम तक लड़ेंगे।

वाईस प्रेसिडेंट ने खत दिखाते हुए अचला से इस बारे में बातचीत की थी और हल ढूँढ़ने की हिदायत दी थी। उसका कहना था, ''मुझे नहीं पता था कि तुम इस तरह के सख्त नियम लागू कर रही हो। मैं इस मामेले में कुछ नहीं कर सकता। तुमको ही कुछ न कुछ हल खोजना होगा वर्ना तुम्हें त्यागपत्र देना पड़ सकता है। कुछ सोच समझ लो फिर मुझसे डिस्कस करना।''

अचला ने तो सोचा था कि ऐसे ऊँचे स्तर की नौकरी मिल गई है तो उसकी ज़िंदगी सुधर गई। दब कर काम करेगी और शामों को मज़े करेगी। पर यह नौकरी तो मुश्किल से साल भी नहीं गुज़ार पाई। अब फिर से कहाँ खोजेगी काम? इतनी मुश्किल से तो यह नौकरी मिली थी। कहाँ से देगी अपार्टमेंट का किराया? और रोज़मर्रा के खर्चे?
पर अचला का कष्ट शायद इतना ही नहीं था।
उसके भीतर लगातार एक संवाद चला जा रहा था।
गानों के बीच वक्फा पड़ा तो वह फिर से यह संवाद सुनने लगी थी, ''अरे हमें तो पता ही नहीं था कि आपका बेटा भी है! कितना बड़ा है।''
''आप तो इतनी यंग लगती है। हम सोच ही नहीं सकते कि आपका शादी लायक बेटा भी है। क्या सच में आपका अपना ही है!''
''अपना नहीं होगा तभी तो शादी में गई नहीं।''
''सच! बेटे की शादी पर आप नहीं गईं?''
और अचला उन अदृश्य आवाजों को जवाब देती रही, ''क्या करूँ! छुट्टी ही नहीं मिली। तभी तो आज उसी के लिए पार्टी कर रही हूँ।''
''बेटा बहू कहाँ हैं?''
''वे लोग भारत से ही सीधे हवाई गए हैं, हनीमून के लिए।''
यों शादी पर नीली भी नहीं गई थी। पर नीली का कहना था कि अगर ममी नहीं जाएगी तो वह भी नहीं जाएगी। यों भी इसे अपने हिंदुस्तानी रिश्तेदारों के गोलमोल सवालों का जवाब देने में बहुत तकलीफ़ होती थी। उसे कभी पता नहीं चलता था कि वह सही कर रही है या गलत। वह जो भी कहती, उसके मतलब से अलग अर्थ तो लगाए ही जाते थे क्योंकि बाद में उसे ममी या पापा से यह ज़रूर सुनना पड़ता था, ''नीली ऐसे नहीं कहते।'' ''ठीक है तुम्हारा मतलब यह ज़रूर रहा होगा पर यहाँ पर इस तरह नहीं कहा जाता।''

और अचला यह किसी से नहीं कह पाएगी कि उस के बेटे ने संदेस भिजवाया था कि उसकी माँ शादी पर नहीं जाएगी। अगर माँ गई तो वह शादी करेगा ही नहीं। वह नहीं चाहता कि ''उसकी पत्नी पर उसकी माँ का साया पड़े'' और ये शब्द अंदर ही अंदर खाये जा रहे थे अचला को।

यह सच था कि बेटे को इस बात पर आपत्ति थी कि ममा पापा को छोड़ रही है। उसका यह भी कहना था कि पापा तो बीमार रहते हैं इसलिए ममा उनकी देखभाल नहीं करेगी तो और कौन करेगा। उसने ममा को यह धमकी भी दी थी कि ममा ने पापा को छोड़ दिया तो वह कभी उनसे बात नहीं करेगा।

कभी कभार बात फिर भी हो जाती थी। पर वह कहता रहता कि ममा स्वार्थी है। उन्हें पापा से ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए आखिर वे उनके पति है। रिश्तों में इस तरह से मनमानी करना ममा को शोभा नहीं देता। वे जानती है कि पापा तो उन्हीं पर निर्भर करते हैं। दिल के मरीज़ है। किसी न किसी को तो पास होना चाहिए। ये नहीं सोचती कि वे कितने अकेले रह जाएँगे?

शादी ब्याह के मामले में तो गिले-शिकवे ख़त्म हो जाते हैं। पर यहाँ तो वह गाँठ ही डाल कर बैठ गया है।
किस ने सिखा-पढ़ा दिया ऐसा? द़ादी ने, या बाप ने! ऐसी अवमानना। ऐसा प्रहार! इतनी बड़ी सज़ा!

पता नहीं क्या कुछ कहा होगा अचला के खिलाफ़! वर्ना इस तरह से माँ का अस्वीकार! क्या उसको माँ की ज़रूरत महसूस नहीं हुई होगी! क्या सच में माँ को तिरस्कृत करके वह चैन से बैठा रह सकता है!
क्या नयी पत्नी माँ के स्थान को इतना भर देगी कि माँ को देखने तक की ज़रूरत नहीं महसूस होगी! भूल जाएगा माँ को!

दुनिया भर के रिश्तेदार तो इकठ्ठे हुए उसकी शादी में। बस एक माँ ही ज़िसे कि सबसे पहले, सबके आगे, सबके उपर होना चाहिए था!
क्या कभी नहीं मिल पाएगी अचला अपने बेटे-बहू से!
सच में इतनी बुरी है वह, माँ का साया नहीं पड़ने देगा पत्नी पर!
क्या सच में ये उसी के शब्द हो सकते हैं!
अचला का मन किसी छीजे हुए पुराने कपड़े-सा हो रहा था। ज़रा-सा भी तानो तो फटता जाता था।

नीली माँ की पीड़ा को समझती थी और बस नीली ही समझती थी। सिर्फ़ उसी ने ममा का घुटना और तड़पड़ाना देखा था। बचपन से देखती आ रही थी। पापा की माँगों का तो कभी अंत ही नहीं था। भईया भी तो बिल्कुल पापा के जैसा। ममा को तो जैसे घर का नौकर बना कर रखा हुआ था। बस इनकी ज़रूरते पूरी करते रहो, इनके आगे-पीछे घूमते रहो। अगर न घूमो तो बस स्वार्थी है। जैसे कि हमारा तो जन्म ही इनकी देखभाल के लिए हुआ है। बस एक ममा ही थी जो नीली को पापा और भईया के नाजायज़ फ़ायदा उठाने से बचाती थी। ममा ज़ोर देती कि बेटी और बेटे की परवरिश में फ़र्क नहीं करेगी। पर पापा और दादी से इस बात पर बार-बार लड़ाई हो जाती। बस यही सुनाया जाता कि लड़की बिगड़ रही है। ममा बिगाड़ रही है!

जमीला ने एक पुराना फिल्मी गाना शुरू किया -
''मेरे बन्ने की बात न पूछो, मेरा बन्ना हरियाला है
मेरे बन्ने के रूप के दम से चारों तरफ़ उजियाला है।''

अचला को अचानक किसी ने ढोल-बैंड से लदी-सजी बारात में पहुँचा दिया था। घोड़ी पर बैठा उसका इकलौता बेटा! सेहरे के फूलों से ढका कोमल पर मज़बूत चेहरा। सफ़ेद अचकन में राजकुमार जैसा। रिश्तेदार, दूर के नाते, पुरानी सहेलियाँ। नाच, गाने, गप्पे, मिठाइयाँ, पकवान और गिले शिकवे!

जमीला ने गाना बंद किया तो मानो अचला को फिर से ज़मीन पर लाकर पटक दिया। सहसा उसे अपनी छूटती हुई नौकरी का ख़याल आ गया।
अगर वह भारती को दफ्तर से निकाल दे तो शायद उसकी अपनी नौकरी बच सकती है। भारती को इतना करीब ले आना गलत बात थी। वाइस प्रेसिडेंट से इस बारे में बात करेगी।
पर बेचारी भारती!
तो अचला क्या करे? फिर से नयी नौकरी की तलाश?
नहीं! क्या जाने इस स्तर की नौकरी मिले या न?

महीना तो देखते-देखते गुज़र जाता है। कहाँ से लाएगी किराया हर महीने। कहीं से कुछ मिलने का आसरा नहीं।
भारती को तो क्लर्की कहीं भी मिल जाएगी। अचला मुस्कुरायी। पर उदासी मिटी नहीं थी।
ये सब लोग गाने गा कर चले जाएँगे।
क्या ये लोग भी इसी तरह जीते होंगे? आज नौकरी है तो कल नहीं। सब पर वही तलवार लटक रही है।

पर अचला खुद किसी के अंदरूनी मामलों के बारे में कुछ नहीं जानती। सब हँसते-खुश होते आते हैं, वैसे ही लौट जाते हैं। किसी के भीतर से तो उसका कोई सरोकार नहीं! न ही उसे अपने से इतनी फ़ुरसत मिलती है कि दूसरों के गरेबान में झाँक सके!

इनमें से भी कोई नहीं जानता कि अचला का भीतरी संसार कैसे चिरा जा रहा है।
यहाँ से छुट्टी हो गई तो शायद उसे भी कहीं क्लर्क की नौकरी ही मिले।
हर बार तो तुक्का नहीं लगता।

पर यह तुक्का उसके लाभ के लिए था या कि बैंक प्रेसिडेंट के। उल्लू तो वही बनी! पहले उसके हाथों दूसरों को निकलवाया, फिर उसी का पत्ता काटने की साज़िश!
पर इतनी कच्ची गोलियाँ तो वह भी नहीं खेली। कुछ न कुछ जुगाड़ तो करना ही होगा।
तो कैसे बचाएगी खुद को।
खुद को बचाकर रखना अब भी उतना ही मुश्किल क्यों है? सिर्फ़ हमलावर ही बदले हैं!
क्या कहना होगा वाईस प्रेसिडेंट से। बहुत सोच समझ कर इस की तैयारी करनी होगी। अपने उसी मित्र की सलाह लेगी जिसने यह नौकरी दिलवायी थी।

.....

अचला ने सारी योजना सफाई से समझा दी तो वाईस प्रेसिडेंट ने उसकी सूझ की दाद दी और कहा, ''अरे आपने तो बैंक की और भी बचत करा दी। मैं प्रेसिडेंट से आपकी तनखा बढ़ाने के लिए रिकमैंड करूँगा।''

अचला ने पल भर को चैन की सांस ली थी कि चलो उसकी नौकरी तो बच गई पर मन फिर भी उद्विग्न बना रहा।

अगले दिन ऑफिस में गई तो भारती उसके कमरे में आकर भभक पड़ी, ''क्या करूँगी मैं? कहाँ जाऊँगी। इन लोगों ने तो मुझे निकाल दिया है। सब ने कह दिया है कि वे ऐसे विश्वासघाती के साथ काम नहीं कर सकते। मेरी कान्फीडेंशल रिपोर्ट भी ख़राब कर दी है। मेरा भला क्या कुसूर है इसमें? मैं तो जो आप पूछेगी वही बताऊँगी। मैंने कोई जानबूझ कर किसी के खिलाफ़ आपके कान तो नहीं भरे।''

अचला चुपचाप भारती की बात सुनती रही।
''आप मेरा कुछ कीजिए। मैं तो फालतू मे मारी गई। देखिये मेरे पति के पास भी आजकल ठीक नौकरी नहीं है। बच्चे अलग पढ़ रहे हैं। प्लीज़!''
उसने भारती के आरोप से बचने के लिए कहा, ''मैं क्या करूँ? मेरी तो अपनी नौकरी को ही ख़तरा है।''
फिर बड़ा अपनापन जताते हुए बोली, ''इस दफ्तर में हमी दोनों हिंदुस्तानी है। इसीसे किसी को समझ नहीं आता हमसे कैसे पेश आए। सो डर के मारे अब हम दोनों की ही छुट्टी किए दे रहे हैं। खैर मैं बात करूँगी, पर मुझे उम्मीद नहीं कि मेरी सुनेंगे।''

अचला को भारती पर तरस भी आ रहा था। साथ ही ग्लानि भी कि वह उस को झूठा आश्वासन दे रही थी जबकि उस को नौकरी से निकलवाने की साजिश खुद अचला को ही करनी पड़ी थी। पर करती तो क्या! या तो उसे खुद निकलना पड़ता या भारती को वर्ना दफ्तर के दूसरे कर्मचारियों का विश्वास कैसे जीतती!

रात बहुत बीच चुकी थी। लोग गा-गा कर थक चुके थे। फिर भी उत्साह कम नहीं हुआ था इसलिए थके फटे गलों से मिलकर पुराने लोकप्रिय फिल्मी गीत समवेत स्वर में गा रहे थे, ''बचपन के दिन भी क्या दिन थे, उड़ते फिरते तितली बन के।''
अचला विद्रूप से मुस्कुरायी। उड़ती-फिरती तितली कितनी देर तक सुरक्षित रह पाती होगी! कोई न कोई झप्पट्टा मारेगा ही!
किसी ने कह दिया, ''अचला आज तुम्हारा जोश कहाँ चला गया। ये वाला तो मिल कर गाओ।''
फिर सब ने गाना शुरू कर दिया था, ''राजा की आएगा बारात, रंगीली होगी रात, मगन मैं नाचूँगी।'' गान चलता रहा। अचला बचपन, यौवन और अपने मौजूदा हालात के साथ गाने का अर्थ जोड़ती खामोश ही रही। शामिल नहीं हो पाई गाने में।

अचला उठकर रसोई में आकर बर्तनों का काम करने लगी। उससे गाया नहीं जा रहा था। नीली ने किसी से कहा, ''दो तो बज गए। मुझे तो सुबह काम पर जाना है।''
''इतवार को भी?''
''हाँ एक ख़ास प्रोजेक्ट चल रहा है।''

वह उठी तो पार्टी उखड़ गई। लोग उठने लगे।
अचला रसोई से निकल कर दरवाज़े पर आ कर खड़ी हो गई।
अगर वह किसी से शादी का ज़िक्र न ही करती तो शायद बेहतर होता!
पार्टी तो हो ही रही थी। उसे शादी के मौके से जोड़कर वह क्या हासिल करना चाहती थी? बेटे के प्रति अपने कर्तव्य का निभाए! या कि बेटे के नाम पर शादी का उत्सव करके उस की शादी में सम्मिलित होने की मन की उड़ान या मन की तसल्ली! कि उसने नहीं बुलाया तो न सही! पर माँ के हक से कोई शादी का उत्सव करने से तो रोक नहीं सकता!

यह सब उस बेटे के लिए जो इसलिए उससे तोड़ चुका है कि उसने अपने पति को क्यों छोड़ा?
या यह बेटे का दबा आक्रोश था और अचला की कोई दबी अपराध भावना थी। जिसके अनचाहे आगमन ने उसके यौवन को चारदीवारी में बाँधकर कसमसा दिया था, अब जब वह फूल बन कर महक उठा तो अचला भी अपनी फुलवारी पर गर्व से सर उठा कर ताकने लगी थी। पर उस फूल का मालिक अब कोई और बन बैठा था। अचला दूर खड़ी जैसे पराये माल को ललचायी आँखों से निहार रही थी।

लोग बेटे की शादी की बधाई दे-दे कर रुख़सत होने लगे थे। अचला उन्हें धन्यवाद भी करती जा रही थी पर मन ऐसे हो रहा था कि जैसे मसल-मसल कर किसी ने कूचे में फेंक दिया हो। उसकी सारी हस्ती ऐसा महसूस कर रही थी जैसे वह किनारे का कोई पेड़ हो जिसके आसपास से कितनी ही नदिया गुज़र जाती हो पर वह वैसे ही ठूँठ खड़ा हो। कोई भी पानी उसे नहीं छूता।

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१६ नवंबर २००३

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