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                     इस बार पार्टी अचला के घर पर 
                    थी। दरअसल अचला इन पार्टियों की ख़ास जान थी। वहीं सबसे फोन 
                    कर-कर के पार्टी में आने के लिए इसरार करती और इस तरह के 
                    फ़ैसले भी करती कि अगली पार्टी कहाँ, किसके घर होनी चाहिए और 
                    कौन क्या बना कर लाएगा। देर तक वह इन लोगों से फोन पर बात करती 
                    पर सिवाय पार्टी का समय-स्थान मुकर्रर करने के और कोई ख़ास बात 
                    न होती।  
                    पति से अलग होने के बाद से 
                    अचला का अपना कोई सामाजिक दायरा रहा नहीं था। तब सारा रख-रखाव 
                    विवाहित जोड़ों के साथ ही होता था। पति से अलग होते ही जैसे उस 
                    पूरे समाज से वह कट गई थी। न केवल वे जोड़े ही अचला से कन्नी 
                    काटने लगे थे, वह खुद भी उनके बीच अटपटा महसूस करती थी। उन 
                    जोड़ों का पुरुष वर्ग या तो उसे कोई उपलब्ध वस्तु मानने लगा था 
                    या फिर वे उसे कोई अनुचित प्रकार का प्रभाव मानकर अपनी 
                    पत्नियों से दूर रखना चाहते थे। दूसरी और महिलाओं के लिए वह एक 
                    कौतूहल की चीज़ बन गई थी और उनके अपनी दबी इच्छाओं से सुलगते 
                    सवालों को सुन-सुन कर अचला के कान पकने को आ गए थे। फिर उस 
                    समाज के साथ बनाए रखने का मतलब यह भी था कि पति की उपस्थिति से 
                    वह कभी मुक्त नहीं हो सकती थी।  
                    अब वह अपनी मर्ज़ी से गढ़ रही 
                    थी अपना समाज। ऐसा समाज जो अचला को ज्यों का त्यों स्वीकार 
                    करें। उस पर अपने नियम न लादे, अपनी माँगों का बोझ न डाले। 
                    हिंदुस्तानियों के इलावा पाकिस्तानी, बंगलादेशी, गयानी, विविध 
                    तरह के लोग थे उसके इस समाज में। ये सभी हिंदी फ़िल्म संगीत का 
                    ख़ास शौक रखते थे, सुनने के साथ-साथ गाने का भी। अचला ही इस 
                    समाज की मैनेजर थी, उसकी नेता और संस्थापक। वही इसके नियम 
                    बनाती थी और उन्हें कार्यान्वित करती थी। 
                    अचला को खुद गाने का बहुत शौक 
                    था। कभी उसने सिनेतारिका बनने के सपने देखे थे अब सिनेमा के 
                    गानों से ही दिल बहला लेती थी। यों गाती तो वह बहुत मामूली थी। 
                    बल्कि लगभग बेसुरा ही गाती पर इस महफ़िल में फिर भी उसे सुनने 
                    वाले मिल जाते जो यह भी कह देते कि ''आज तो आपने पहले से बहुत 
                    अच्छा गाया है'' और अचला को तसल्ली हो जाती कि वह अब बेहतर 
                    गाने लगी है और अगली पार्टी के लिए वह किसी न किसी नए गाने का 
                    खूब रियाज़ करती। उसने एक बिजली का बाज़ा ख़रीद रखा था जिसमें 
                    लगभग उन सभी पुराने फ़िल्मी गीतों की धुनें उसने भरवा रखी थी 
                    जिनको वह गाना जानती थी। 
                    लोग उसके गाने को पसंद करे या 
                    न पर उसका व्यक्तित्व खूब प्रभावशाली था। पाँच फूट छह इंच कद। 
                    गोरा रंग। खूब मक्खन-सी मुलायम त्वचा। नए फैशन के चटक रंगों के 
                    कामदार सलवार-कुरते पहन कर पैंतालीस की उम्र में भी वह 
                    तीस-पैंतीस से ज़्यादा की नहीं लगती थी। तभी तो पति इतना 
                    ईष्यालु और भयभीत था कि हर वक्त उसे बाँधे ही रखना चाहता था। 
                    पर अचला बाँधे जाने पर और भी कसमसाती और रस्सा तुड़ाकर भागने 
                    की कोशिश करती। बेटा पैदा होने के कुछ दिन बाद ही उसने पति से 
                    कहा था, ''मैं तो बोर हो गई घर में पड़े-पड़े। फ़िल्म दिखाने 
                    ले चलो न।'' सास ने इस बात पर खूब बुरा-भला सुनाया। तब अचला 
                    कसमसाती रही, और गुस्सा उस नन्हीं जान पर निकालती रही। कभी उसे 
                    अपने दूध से वंचित करके, तो कभी अपने आप से। सास कुढ़ती और पोत 
                    को अपने अंक में समेट लेती। कुछ बरस बाद अचला सास से रस्सा 
                    तुड़ाकर पति के साथ अमरिका पहुँच गई थी। 
                    यहाँ उसे कोई रोकने-टोकने 
                    वाला तो था नहीं। मन होता तो घर पर रहती या फिर निकल जाती। 
                    बेटा किसी तरह बड़ा हो ही गया। एक बेटी भी हुई जिसे पालने में 
                    बेटे की मदद भी खूब रही। बेटी के होने तक अचला बच्चों की आदी 
                    भी हो चुकी थी इसलिए बेटी को माँ की सास के प्रति खीझ उस तरह 
                    से नहीं सहनी पड़ी जैसे उसके भाई को। लेकिन पति की शिकायतें 
                    दिन-ब-दिन बढ़ती ही रही। 
                    खूब खुली तबियत की थी अचला। 
                    आराम से खुलकर चुहल करना, या मर्दों की ठरक का ऐसा मीठा जवाब 
                    देना जिसमें न स्वीकार हो न अस्वीकार, न बीवी को चोट पहुँचे न 
                    मियाँ को, यह सब सलीका उसे खूब आता था। अकेली जो रहती थी। 
                    सलीका न होता तो रोज़-रोज़ मिलने वाले मर्दों से कैसी निभाती। 
                    फिर हर किसी मर्द को अपने करीब तो आने दिया जा नहीं सकता। 
                    गुस्सा दिखाओ तो भी जल्दी भाग जाते है वे। सो कोई ऐसा ही तरीका 
                    अचला ने ईजाद किया था जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। 
                    मर्द उसके ईद-गिर्द मक्खियों की तरह भिनभिनाते थे पर पास जाकर 
                    छूने-छेड़ने की हिम्मत किसी की नहीं थी। 
                    यों यह बात नहीं कि कोई ऐसी 
                    छुईमुई थी कि पास आने से या छूने से मुरझा जाती। पर छूनेवाला 
                    या पास आनेवालों को वह इन पार्टियों से दूर ही रखती थी। उनका 
                    वक्त और जगह अलग थी। वह उसके इस समाज का हिस्सा नहीं थे। न ही 
                    उनकी रुचि उसके इस समाज में थी। उनके साथ एक दूसरी दुनिया बसती 
                    थी, अलग समाँ बँधता था, और अपने अंधेरे-उजालों के साथ वह 
                    दुनिया उसके भीतर ही कही सिमटी रहती थी। अगर गलती से कोई इस 
                    दुनिया में आ भी टपकता तो उतना फ़र्क नहीं पड़ता था क्योंकि 
                    उसका किसी भी रूप में परिचय कराया जा सकता था म़ित्र-जन, 
                    सहयोगी। किसके पास फुरसत थी रिश्ते की तह में जाने की! एक बार 
                    आपसी हालचाल बाँटने के बाद पूरी शाम गाने-बजाने में ही तो 
                    निकलती। अगर कोई गाना न सुन गप मारने भी लगता तो दूसरे उन्हें 
                    घूर कर चुप करा देते। मतलब होता कि आखिर जब गाना सुनने के लिए 
                    बुलाया गया है तो ठीक से सुनिए वर्ना जब आपकी गाने की बारी 
                    आएगी तो हम भी गप मारने लगेंगे। इस तरह एक दूसरे का लिहाज करते 
                    हुए सब घंटो सुनते ही रहते थे एक दूसरे का गाना। बात यह है कि 
                    अपने गाने को यह सब लोग बड़ी गंभीरता से लेते थे। नौकरी-धंधे 
                    की खुश्क दुनिया को वह यहीं से रस पाकर सींचते थे। 
                    अचला की भी और एक दुनिया थी। 
                    उसके दफ्तर की। जहाँ वह एक बैंक मैनेजर थी। यों इस दफ्तर तक, 
                    ख़ास तौर से इस पद तक पहुँचने के लिए ज़रूर उसे एक तीसरी 
                    दुनिया के नुमाइंदे की मदद लेनी पड़ी थी। पर वह नुमाइंदा बैंक 
                    की चारदीवारी में कभी कदम नहीं रखता था। उसकी हस्ती अदृश्य ही 
                    बनी रहती थी। शायद इसीलिए इस वक्त जबकि उसके बैंक में खूब 
                    खलबली मची हुई थी, वह प्रगट नहीं हो पा रहा था। 
                    जब से वह इस बैंक में आई थी, 
                    उस पर एकदम से काम का खूब बोझ डाल दिया गया था। बैंक के वाईस 
                    प्रेसिडेंट ने अपने दोस्त की सिफ़ारिश पर अचला को नौकरी भी 
                    इसलिए दी थी कि ऐसे प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली महिला अपने रौब 
                    से इन सारे बहुसंस्कृति वाले कर्मचारियों से काम ले पाएगी। 
                    बैंक में पैसा बचाने का दौर चल रहा था। इससे कुछेक कर्मचारियों 
                    को निकाल दिया गया था। अचला को ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी कि 
                    किसी तरह वह इन बचे हुए कर्मचारियों से ज़्यादा से ज़्यादा काम 
                    ले ताकि पहले से कम लोग होने पर भी बैंक का काम ढीला न हो। 
                    अचला पूरे जीजान से इस काम 
                    में लग गई। उसने देखा कि बैंक के सारे कर्मचारी मूलत: सुस्त थे 
                    और काम करने में उनकी कतई रुचि न थी। इसीसे बैंक घाटे में जा 
                    रहा था। उसने बैंक के वाईस प्रेसिडेंट से सलाह करके कुछ नए 
                    नियम बनाए और उन्हें लागू करने लगी। उसने देखा सब काम पर देरी 
                    से आते थे और रजिस्टर में वक्त वही भरते थे जो कि काम पर आने 
                    का नियमित समय था। इसी तरह लंच एक घंटे का मिलता था। सब 
                    रजिस्टर में एक घंटा ही दर्ज करते जबकि दो-दो घंटे बाद लंच से 
                    वापस आते। सब चूँकि ऐसा करते थे इसलिए उनकी मिलीभगत थी। कोई एक 
                    दूसरे की शिकायत न करता था। 
                    ऊपर से यों सब बहुत विनीत थे। 
                    जो भी अचला कहती वे सुन लेते। बड़ी मुलायमियत से सहमति जताते। 
                    ये और बात थी कि करते वही जो खुद चाहते। अचला बहुत कम जान पाती 
                    थी कि उनके भीतर क्या-कुछ चल रहा है। चूँकि उसका बाहरी 
                    व्यक्तित्व इतना रौबीला, आकर्षक और प्रभावशाली था, बहुत से लोग 
                    उसकी सामर्थ्य को कुछ ज़्यादा ही आँक बैठते थे और अकसर उसे 
                    इससे लाभ ही मिलता था। 
                    अचला के लिए रोज़-रोज़ सबके 
                    आने जाने के वक्त पर निगाह रखना मुश्किल था। कुछ दिन तो वह यही 
                    सब करती रही। पर इससे मैनेजमेंट के दूसरे देखभाल के कामों में 
                    ढील पड़ने लगी। 
                    बैंक कर्मचारियों में एक 
                    क्लर्क हिंदुस्तानी भी थी। नाम था भारती। भारती उसे बड़ी 
                    जिज्ञासा से टोहती रहती थी। बात होने पर पता लगा कि दोनों एक 
                    ही कॉलेज की पढ़ी थी। भारती उम्र में कुछ कम थी पर अचला उससे 
                    कहीं ज़्यादा जवान या छोटी लगती थी। अचला ने भारती की आँखों 
                    में पढ़ डाला था एक चुपके से उभरती ईर्ष्या को कि कहाँ तो अचला 
                    बैक मैनेजर और कहाँ भारती अदना सी क्लर्क। फिर भी दोनों की बात 
                    शुरू होती तो होती ही जाती जबकि अचला को अपने मैनेजर होने का 
                    या भारती को अपने क्लर्क होने का ख़याल कभी न भूलती। अचला को 
                    भारती से बात कर बड़ी तसल्ली मिलती कि एक जन तो यहाँ है जिसे 
                    वह पहचानती है और शायद उसके माध्यम से कुछ और भी समझ हाथ लगे। 
                    अचला ने एक दिन उसे कह ही 
                    दिया कि क्यों न वे दोनों एक दिन लंच साथ करें। भारती तो फूल 
                    कर कुप्पा थी। कहाँ तो बैंक मैनेजर कभी उसके होने से भी वाकिफ़ 
                    न थे और यह वाली मैनेजर तो उसे लंच के लिए बुला रही है। 
                    अचला जो भी भारती से कहती वह 
                    उल्टे अपने-आप को महत्वपूर्ण मानकर खूब खुशी से पूरा करती। 
                    धीरे-धीरे कौन कितने बजे आता है और कितने बजे का रजिस्टर में 
                    हस्ताक्षर करता है इस सब की सूचना भारती ही अचला तक पहुँचाने 
                    लगी। भारती से अचला मित्र की तरह व्यवहार करने लगी थी इसीसे जो 
                    भी अचला कहती वह उसमें कोई उज्र न समझती। यहाँ तक कि भारती 
                    रोज़ घर से ही खाना बना कर लाने लगी और दोनों अचला के ही कमरे 
                    में साथ बैठकर खाना खाने लगी। अचला इस खाने के घंटे का बड़ी 
                    बेताबी से इंतज़ार करती जैसे कि किसी बच्चे को नए मिलनेवाले 
                    खिलौने से खेलने का इंतज़ार रहता है। इसी खाना खाने के वक्त ही 
                    भारती दफ्तर के फ्लोर पर होने वाली सारी बातें अचला का सुना 
                    जाती। 
                    अचला को जैसी जिज्ञासा भारती 
                    से दफ्तर के कर्मचारियों के बारे में होती थी भारती को वैसी ही 
                    जिज्ञासा अचला के व्यक्तित्व को लेकर। वह ढेरों सवाल पूछती 
                    प़ति, परिवार, बच्चे, नौकरी कैसे मिली। 
                    अचला जवाब देती। आखिर कुछ तो 
                    कीमत उसे भी चुकानी ही थी भारती की सूचनाओं की। पर अपने बारे 
                    में वह खबर देती पूरे सेंसर के साथ। फिर भी उसने इतना तो भारती 
                    को बता ही दिया था कि पति से उसका तलाक़ हो चुका है। दो बच्चे 
                    हैं, एक बेटी और एक बेटा। बेटी पढ़ती और नोकरी करती है। अलग 
                    रहती है। बेटा पहले बाप के साथ रहता था अब नौकरी के बाद वह भी 
                    अलग शहर में रहने लगा है। पति कुछ बीमार रहता है इसलिए जल्दी 
                    रिटायर होकर अपने घर में ही रहता है। अचला खुद अलग अपार्टमेंट 
                    लेकर रहती है। 
                    साथ ही अचला ने मन में सोचा 
                    था कि इस महिला को वह अपने घर पर कभी नहीं बुलाएगी। जबकि 
                    भारतीने उसे बताया था कि वह भी अच्छा गा लेती है। 
                    हर किसी के पास सूचनाओं के 
                    टुकड़े ही थे। अगर घर और बाहर के लोग साथ मिल कर बैठ जाए तो 
                    टुकड़े जुड़कर एक तस्वीर भी बन सकती थी। अचला को लगता कि क्यों 
                    वह तस्वीर बनाने का मौका दे। यों ही टुकडों में अधूरापन या 
                    गुप्त-रहस्यमय सा कुछ बना रहे तो शायद वह बची रहेगी। 
                    बस इतना ही तो चाहिए था उसे। 
                    खुद को दूसरों की अपेक्षाओं से बचाकर अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी 
                    गढ़ना। विवाहित रहते हुए कितना असंभव था अपनी मरज़ी से जीना। 
                    हर रोज़, हर छोटी-छोटी आज़ादी के लिए जंग करना पड़ता था। अब 
                    अपनी ज़िंदगी और अपने समाज की नियामक वह खुद है! 
                    ...... 
                    आज की महफ़िल में अचला की 
                    बेटी नीली भी शामिल थी। यों तो नीली माँ से बहुत अलग किस्म की 
                    लड़की थी। उसे न तो हिंदुस्तानी संगीत की समझ थी न रुचि। फिर 
                    भी चूँकि पार्टी आज अचला के यहाँ थी इसलिए वह और उसका 
                    ब्वायफ्रेंड वहाँ आए हुए थे ममा की मदद करने। नीली को जिस 
                    कंपनी में नौकरी मिली थी यह लड़का भी वही काम करता था। नीली 
                    उसे पसंद थी और अचला को वह लड़का नीली के लिए ख़ास तौर से 
                    इसलिए पसंद था कि बहुत शरीफ लड़का था और जो कुछ भी नीली कहती 
                    वह उसे करने को तैयार रहता था। जैसे कि अभी उसके कहने से वह 
                    उसकी माँ की मदद करने इस गाने-बजाने की महफ़िल में आ गया था। न 
                    उसने कुछ सुना, न किसी मेहमान से बात की। बस नीली के पीछे-पीछे 
                    लगा काम करता रहा। कभी ग्लास उठाने, तो कभी ड्रिंक सर्व करने, 
                    तो कभी खाना लगाने के तरह-तरह के काम बेचारा नीली को खुश करने 
                    के लिए, जो कोई भी कुछ कहता, बिना चूँ किए कर देता। 
                    नीली और उसके दोस्त एरिक, 
                    दोनों को ही अचला पसंद थी। नीली ममा की शुक्रगुज़ार थी कि 
                    उन्होंने उसे खुली छूट दे रखी थी साथ ही वह खुद भी ममा की अपनी 
                    आज़ादी के हक में थी और तलाक के वक्त उसने पापा के बजाय ममा का 
                    ही साथ दिया था। ममा के व्यक्तित्व की ज़रूरतों के प्रति नीली 
                    के मन में हमदर्दी थी। न्यूयार्क में पली-बढ़ी नीली तो खुले आम 
                    यह महसूस करती और कहती थी कि पापा का बस चलता तो माँ बेटी 
                    दोनों को ही ताले में बंद कर के धर देते। 
                    खाना लगने की देर थी कि गाना 
                    बजाना भूल सब खाने की मेज़ के आसपास आकर इकठ्ठे हो गए। कितने 
                    किस्म की तो चीज़ें बनी थी। अचला ने खुद चाट और रसमलाई बनाई 
                    थी। बाकी सब लोग कुछ न कुछ बनाकर साथ लाये थे म़ुर्ग मखनी, 
                    कीमा मटर, गोभी-आलू, बिरयानी, पराठे वगैरह-वगैरह। 
                    यों अचला ने तो सोचा था कि आज 
                    का सारा खाना वह खुद ही बनाएगी क्योंकि वह अपने बेटे की शादी 
                    की पार्टी करना चाहती थी पर शरीर में वैसा उल्लास और उर्जा 
                    नहीं ला पायी थी सो उसने सोचा कि वह अकेली क्या बनाएगी, जैसे 
                    सब मिल कर बनाते हैं इस बार भी वैसा ही चलने दो। एक तरफ़ उसे 
                    लगता रहा कि उसे परवाह नहीं कि पार्टी हो या न, आखिर बेटा तो 
                    उसके साथ है नहीं। दूसरी तरफ़ भीतर कहीं उठता रहता कि बेटे की 
                    शादी का शगन तो कर ही लेना चाहिए! फिर संगीत पार्टी भी शादी के 
                    ईदगिर्द उसी के यहाँ पड़ रही थी, दोनों काम आराम से साथ-साथ हो 
                    सकते थे। पर आज मन बुझा-बुझा-सा था। 
                    यों भी दफ्तर में जो नियम 
                    लागू करने में समय और ताक़त लगती थी उससे वह मानसिक तौर पर 
                    बड़ी थक जाती थी। भारती की सूचनाओं का फ़ायदा काफी हुआ था और 
                    इससे वह दफ्तर में कड़ा अनुशासन रखने में भी सफल हो गई थी। दो 
                    एक बार तो उसने कर्मचारियों को रंगे हाथों झूठा वक्त भरते पकड़ 
                    लिया था। वाईस प्रेसिडेंट ने तो कहा कि वह उनके खिलाफ़ फाइल 
                    तैयार करे ताकि इस तरह उनको बैंक से निकाला जा सके। 
                    यों अचला को खुद इन लोगों से 
                    कोई लेना-देना नहीं था, दूसरे की नौकरी छीनने का ज़िम्मेदार 
                    बनने में उसे झिझक होती थी, पर अपनी नौकरी को बरकरार रखने के 
                    लिए उसे यह सब करना ही था। 
                    बैंक में उस के अधीन लोग अब 
                    उसे संदेह की निगाह से ही देखने लगे थे और भारती के सिवा और 
                    किसी भी मातहत से उसकी खुली बात न होती थी। पर साथ ही मन में 
                    इस ताक़त का उसे सुख भी मिलता था। ख़ास तौर से भारती तो उसकी 
                    इस समर्थन से बेहद प्रभावित थी और उसे और भी ज़्यादा दफ्तर की 
                    गप्पे सुना डालती थी। 
                    यों भारती का कौतूहली मन अचला 
                    के करीब आने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता था पर साथ ही 
                    अपनी दी सूचनाओं की ऐवज में यह भी जानना चाहता था कि अचला की 
                    निजी ज़िंदगी किन तत्वों से बनी है, दूसरे पुरुषों की क्या जगह 
                    है वहाँ, आखिर अचला तो तलाकशुदा है, सो क्या अचला दूसरे 
                    पुरुषों के साथ शारीरिक संबंध रखती है? 
                    अचला ने बड़े आराम से कह दिया 
                    था, उसमें क्या है? क्या भारती नहीं रखती? आखिर चालीस-पैंतालीस 
                    की उम्र में आते-आते तक कोई न कोई दूसरे पुरुष ज़िंदगी में आ 
                    ही जाते हैं।  
                    अचला को अचंभा हुआ था जब 
                    भारती ने उसे कहा था कि अपने पति के सिवाय उसने कभी किसी पुरुष 
                    को खुद को छूने भी नहीं दिया। तब अचला ने यह भी सोचा कि भारती 
                    में सच कहने की हिम्मत भी नहीं होगी। आम हिन्दुस्तानी औरते ऐसी 
                    बातें किसी से नहीं कहती। भारत में रहते हुए अचला भी शायद न 
                    कहती। पर इतने सालों से यहाँ रहते वह इस मामले में खुल गई है 
                    क्योंकि उस की अमरीकी सहेलियाँ खुलकर अपने पुरुष मित्रों के 
                    बारे में बात कर लेती है। 
                    पर कह देने के बाद अचला 
                    पछतायी थी क्योंकि भारती अपने हावभावों से कही उसे यह सुना गई 
                    थी कि अगर वह बैंक मैनेजर है तो सिर्फ़ इसी वजह से। वर्ना 
                    भारती और अचला में सच में कोई फर्क़ नहीं। दूसरी तरफ़ अचला को 
                    यह भी लगता कि भारती जैसी दकियानूसी औरते वही हिंदुस्तानी नारी 
                    की पवित्रता की लीक को पकड़े न कभी खुद आगे बढ़ेगी न दूसरों को 
                    बढ़ने देगी। 
                    शायद उसकी मानसिक थकान की वजह 
                    यह भी रही होगी। 
                    भारती उसके भीतर के एक ऐसे अंश को छेड़ जाती थी जो अभी भी 
                    हमेशा दुखता रहता था और वह था अचला का अपने परिवार और ख़ास तौर 
                    से अपने पति और बेटे के साथ संबंध। 
                    अचला ने अपने पति को खुद 
                    छोड़ा था। पर जिस तरह की बंदिशे उसके पति ने उस पर लगा रखी थी, 
                    अचला का तो जीना मुहाल था। कभी रात को देर से आओ तो सवाल-जवाब। 
                    कभी कहीं बाहर जाओ तो डाँट-फटकार। पति चाहता था कि अचला बस 
                    उसकी और उसके घर की बनी रहे। अचला को अपना-आप भी चाहिए हो सकता 
                    है यह बात उसकी समझ में नहीं आती थी। 
                    वह बार-बार उसे नहीं सुनाता 
                    रहता, ''तू अब वैसी नहीं रही। यहाँ आकर बहुत बदल गई है।'' 
                    अचला चिढ़ जाती, ''वट डू यू मीन? मैं अभी भी वहीं हूँ। बस वहाँ 
                    कुछ करने का मौका नहीं मिलता था, न टाईम होता था। यहाँ फ़ुरसत 
                    भी है और मौका भी।'' 
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