"बच्चे
तो राकेश भी रख सकते हैं, वो कहाँ मना करते हैं मुझे जाने
से, पर छोटा रोएगा मुझे छोड़ते हुए, फिर सुबह की लायी सब
सब्जियाँ साफ कर रखने का काम भी पड़ा है, सुबह से घर –बाहर
दौड़ते–दौड़ते थक भी कितना गयी हूँ।" 'हुहँ' मन द्वंद्व में
और उलझता, उससे पहले ही जया को संक्षप्ति सा उत्तर देकर
"फोन करूँगी साढ़े चार तक", वह निकल आयी थी...चाहती नहीं थी
कि मन की छायाएँ कोई दूसरा पढ़े...
घर जाने से पहले छोटे को स्कूल से लेकर आयी...घर आकर
चाय–दूध–नाश्ता करते–कराते कुछ समय निकल गया...चाय का कप
लेकर वह राकेश के पास आ बैठी।
"तुम अगर कहो तो मैं शाम को 'नेहरू सेंटर' हो आऊँ, जया जा
रही है।"
राकेश ने नज़र उठा कर विनीता को देखा, फिर खरखराए शब्दों
में कहा– "जाना है तो जाओ, मुझे क्या कहती हो?"
"नहीं...मतलब… तुम सब संभाल लोगे? खाना मैं बना कर रख
जाऊँगी, पर बच्चे"
"हाँ, कर लूँगा" एक तना हुआ सा उत्तर कानों पर आकर पड़ा।
'हाँ' कह तो रहा है वो, फिर क्यों मन चाहता है कि वह प्यार
से उससे कहे," कितना समय हो गया, तुम कहीं गई ही कहाँ हो,
तुम ज़रूर जाओ।" ऐसा मनुहार भरा स्वर सुनने को पिछले दस साल
से उसके कान तरस रहे हैं पर राकेश को यह सब "लाग–लपेट"
वाली बातें नहीं आतीं...
एकाध बार विनीता ने खुल कर
कहा भी था कि "जब तुम काम में कमियाँ जोश–खरोश से निकाल
सकते हो तो किसी बात की तारीफ़ भी तो कर सकते हो, कभी प्यार
से भी तो कुछ कह सकते हो।"
उसे
राकेश का दिया तर्क याद है, उसने कहा था– " तुम
'सेल्फ़–सिम्पैथी' चाहती हो, सोचती हो, मैं बेचारी यहाँ घर
के काम–काज कर रही हूँ, बच्चे संभाल रही हूँ तो सबको मुझसे
सिम्पैथी होनी चाहिए कि 'बेचारी' बहुत मेहनत कर रही
है...मैं भी तो नौकरी करता हूँ, रोज़ ऑफिस से आकर मैं तुमसे
उम्मीद करूँ कि तुम कहो कि 'हाय! बेचारा कितनी मेहनत करता
है', तो कैसा लगेगा तुम्हें?"
यह सब कहते हुए राकेश की भाव–भंगिमा ऐसी थी कि विनीता के
दिल पर घूँसा सा लगा था, लगा चेहरे पर किसी ने कस–कस कर कई
थप्पड़ जड़ दिए हों — "सेल्फ़ पिटी"! "सेल्फ़ सिम्पैथी"!! कहाँ
प्यार के चंद शब्द सुनने चाहे थे और कहाँ यह क्रूर,
विचित्र विश्लेषण सुनना पड़ा...दफ़्तर में की गई पैसे वाली
नौकरी और घर की चौबीस घंटे की बिन पैसे की ताबेदारी – क्या
समानता है दोनों में? जी में आया था भीतर के बिलबिलाते
आँसुओं को साध, ज़रा यह बात पूछूँ उससे, पर राकेश की चढ़ी
भौंहें और फूले नथुने बता रहे थे कि बात आगे बढ़ी तो नारी
जाति की 'महानता' पर ऐसे जुमले सुनने को मिलेंगे कि…...उस
दिन के बाद उसने प्यार भरे, कोमल, सम्वेदनशील शब्दों की
माँग नहीं की...शब्द सुने भी पर उनके ताप से बचने की बराबर
कोशिश की...आज भी मन जब फिर उस नेह के लिए छटपटाया तो पल
दो पल में ही उसने खुद को साध लिया...घड़ी देखी तो चार बज
रहा था...झटपट दाल चढ़ाई, सब्जी काटी–छौंकी, चावल धो कर,
नाप कर पानी भर, भगौना गैस पर ही ढक कर रख दिया...जाकर
राकेश को बताया कि सब बन कर तैयार है, बस चावल वाली गैस ऑन
कर लेना।
कितना काम बाकी पड़ा था और पौने पाँच बज गया था...उसे लगा,
वह एकदम पस्त हो गई है...अभी फ़ोन करके जया को बताना भी है
कि वह आएगी भी कि नहीं? क्षण भर को विनीता पस्त सी सोफ़े पर
बैठ गई...सोचा – "मना कर दूँ, भागा–दौड़ी कर रही हूँ सुबह
से, अब ऐसी थकी हुई सी जाऊँगी तो क्या 'एन्जॉय' करूँगी,
फिर ट्रेन बदल–बदल कर जाना, मौसम भी इतना ठंडा है, लौटने
पर सबके मुँह फूले होंगे, छोड़ ही दूँ – ऐसा भी क्या कर
लूँगी प्रोग्राम में जाकर?"
राकेश से फिर एक बार टटोलने की गरज से पूछा, "तो मना कर
दूँ क्या?"
आधुनिक पुरुष का पत्नी को स्वतंत्रता का 'अधिकार देता सा,
वही खरखराया स्वर आया–
"जो करना है, सो करो, फिर मुझसे न कहना।"
थकावट और इच्छा के बीच चलते द्वंद्वयुद्ध में वह पलभर
स्तब्ध सी राकेश को देखती रह गई–
"क्या मुसीबत है 'हाँ' कहूँ तो मुश्किल और न जाऊँ तो भी
चैन नहीं, कहीं कोई प्रोत्साहन का स्वर नहीं – बात
नहीं...औरत घर से कदम निकाले तो घर के सब काम करके और घर
के काम करने को ही, अपनी इच्छापूत्र्ति के लिए बाहर निकले
तो अपराधिनी भाव से, सबके सब काम ख़त्म करके! ऐसे में कितनी
ताकत रह जाती है और कितना उत्साह रह जाता है कुछ करने का!
ख़ैर!! फ़ोन तो करना ही था दोनों हालातों में...चुस्त हाथों
से उसने फ़ोन उठा, नंबर मिलाया तो उधर से जया का प्रफुल्ल
स्वर सुनाई दिया,
"हलो!"
मन अभी तय नहीं कर पाया था, यही बात अगर अपने लिए न होकर
राकेश के लिए होती, उसके साथ कहीं जाना होता या बच्चों के
काम से जाना होता तो क्या इतने थके होने के बाद भी क्या
तुरंत वह चल न पड़ती? फिर जया को देखो, ५५–६० वर्ष के बीच
में है, अभी नौकरी से रिटायरमेंट लिया है, पर नई भाषाएँ
सीखने और इधर–उधर के कई कामों में बराबर व्यस्त रहती है,
लंदन की विदेशी भूमि पर अपनी पहचान से जुड़ने के लिए बराबर
नेहरू सेंटर जाती रहती है...वह खुद भी तो इसी पहचान से
जुड़ने के लिए भटक रही है, तब मौका पाकर क्यों ऐसी पस्त है?
बरबस मुँह से निकला, "ठीक है, मैं मिलती हूँ स्टेशन पर
साढ़े पाँच बजे।"
कहने के साथ ही सारा असमंजस बर्फ़ की पतली झिल्ली सा टूट
गया... पैरों में जैसे स्प्रिंग लग गए, भागम भाग शुरु हो
गई...उन्हीं दस मिनट में कपड़े इस्त्री हुए, शॉवर लिया...और
बाल बाँध कर तैयार हो गई...आज पहली बार लंदन की मैट्रो
ट्रेन में सलवार–कमीज़ पहन, बिंदी लगाकर जा रही थी – चाहें
कितने ही भारतीय यहाँ क्यों न रहते हों, तब भी यहाँ किए
लिए सब विदेशी ही हैं...पराए!! वैसे ही लोगों की निगाहें
उठती हैं, बिन्दी लगा लो तो और अधिक निगाहें झेलो,
सलवार–सूट का अधिकांश भाग तो ओवरकोट में छिप जाता है पर
बिन्दी भारतीयता का पासपोर्ट बनी माथे पर दमकती है...कोई
और मौका होता तो 'जैसा देश वैसा भेष" ही चलता पर शास्त्रीय
संगीत सुनने के लिए जैसे ख़ास 'तमीज़' की ज़रूरत होती है वैसे
ही उस सभा में जाने के लिए ख़ास 'तहज़ीब' की भी ज़रूरत होती
है, फिर जया भी साथ थी...दो का साथ अजनबी ज़मीन पर हिम्मत
बन गया।
ठीक ५:३० बजे वह थकावट, बच्चों,
घर, बादल घिरे मौसम और ठंडी हवा को ख्.यालों से निकाल
स्टेशन पर खड़ी थी...चलते समय छोटे लड़के ने कुछ फैल मचाई थी.."कहाँ
जा रही हो? क्यों जा रही हो? मैं भी चलूँगा।" के कई
प्रश्न–इच्छाएँ उसने विनीता के सामने फैला दी थीं — इन्हीं
प्रश्नों–इच्छाओं को तो ओढ़े हुए वह जी रही है और अपनी
पसंद–नापसंद भूलती जा रही है...गनीमत थी कि राकेश ने उसे
'प्ले स्टेशन' पर खेलने का लालच देकर भरमाने की कोशिश
की...उसका मन विनीता से उचाट होकर खेल की तरफ मुड़ गया पर
विनीता के बाहर की ओर बढ़ते कदमों से उसने आखिरी सवाल किया
था, "वापस तो आओगी न?"
वह अचकचा कर रुक गयी थी...'क्या चार साल का छोटा सा बच्चा
भाँप गया था कि वह उन सबकी सामूहिक इच्छा के विपरीत अपनी
इच्छा को ढूँढने निकल रही है? क्या उसे डर है कि माँ की
'निजी' इच्छा में वह दूर, अलग–थलग पड़ जाएगा? विनीता ने
क्षणांश उसे देखा और अपनी बाहों में कस कर बाँध लिया,
"ज़रूर वापस आऊँगी, क्यों नहीं आऊँगी? मैं बहुत जल्दी वापस
आऊँगी – उसके गालों पर अपने स्नेह का विश्वास अंकित करते
हुए उसने कहा था।
वह भी विनीता से अलग
हो, उसके गालों से अपने नन्न्हें होंठ छुआता हुआ सगर्व
बोला, "आई नो, यू विल कम बैक।"
लंदन की तेज़ भागती अंडरग्राउण्ड ट्रेन में बैठे विनीता का
मन बेटे की उसी बात में खोया हुआ था...जब से दिल्ली की
अपनी नौकरी छोड़ बाहर निकली है, तब से घर और घर के लोगों की
इच्छाओं से इतनी बँधी हुई चल रही है कि स्वयं को भी भूल गई
है...कभी कॉलेज के दिन अपनी बड़ी–बड़ी बातें, अपने को कुछ
'होने' कुछ 'करने' के वायदे याद आते हैं तो मन भरभरा जाता
है।
"क्या उम्र यूँ बर्तन धोते खाना बनाते निकल जाएगी?" इस
विदेश में नए सिरे से पढ़ाई करने और कविता–कहानी की दुनिया
छोड़, कम्प्यूटर पर आँकड़े लिखने मिटाने को मन अभी भी नहीं
राज़ी, तब क्या करूँ?
विनीता इसी उधेड़बुन में पड़ी थी कि जया का स्वर सुनाई दिया
– "स्टेशन आ रहा है।"
स्टेशन से बाहर आते ही तेज़ ठंडी हवा ने हमारा स्वागत किया,
मन के उधेड़बुन का जाल उस हवा में छितरा गया...आसमान साफ हो
गया था...अंधेरे की हल्की चादर ने पास के 'हाइड पार्क ',
सड़कों – गलियों को अपने में ढँक लिया था पर सड़कों के
बल्बों, दुकानों के साइन बोर्डों और रेस्टोरेंट्स के आसपास
की रोशिनियों ने छिपते हुए दिन को मानों थाम रखा
था...आसमान पर चौथ का चाँद मुस्कुरा उठा – मन हल्का हो
आया, पैरों में स्वतः दृढ़ता आ गई...वह जया से उस जगह का
इतिहास सुनती, मज़ाक करती चलने लगी।
जया चालीस साल से लंदन में थीं...सन् १९६० में अकेले लंदन
पढ़ने के लिए आकर उसने अपने परिवार के 'प्रोग्रेसिव' होने
का परिचय दिया ही था पर अपने आत्मविश्वास को भी प्रमाणित
किया था...फिर ब्रिटिश युवक से ही सन् ६५' में विवाह करके
उसने अपनी आधुनिकता का भी परिचय दिया था पर उसकी यह
आधुनिकता जींस पहने, कसे टॉप में मेकअप से सँवरी युवतियों
से भिन्न थी जो बाहर से नए कपड़ों में होने पर भी भीतर से
उन्हीं पुराने मापदण्डों से पास–पड़ौस और जान–पहचान वालों
को तौला करती थीं जिन्हें शायद उनकी 'नानी' ने उन्हें
थमाया था...गहरी पीली बनारसी साड़ी और रोली की बड़ी सी बिंदी
में सजी जया बता रहीं कि उनके पति अधिकतर उन्हें साड़ी में
ही देखना चाहते हैं और यही नहीं 3५ वर्ष तक अपनी नौकरी में
भी वे साड़ी ही पहन स्कूल में पढ़ाने जाती रहीं थीं...अपनी
पहचान को साथ लिए वे
विदेशी वातावरण और विदेशी के साथ चमक रहीं थीं – यह बात कम
ध्यान देने योग्य थी।
नेहरु सेंटर पहुँच वह वहाँ पहुँचे लोगों से विनीता का
परिचय करने लगीं पर वह परिचय विनीता के वर्तमान का कहाँ
था, अतीत का था – "विनीता दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी
पढ़ाती थीं।" लोग वर्तमान में अधिक रुचि रखते हैं। "अब क्या
करती हो?" के प्रश्न ने विनीता को बार–बार छीला पर
प्रश्नकर्ताओं ने चेहरे के भावों को देखते ही अपने सलाहों
की सहजता से, छिले हुए पर मानों फाया रख दिया..."कैरियर"
की अनेक सलाहों को संभाले वे लोग हॉल में जा
बैठे...तानपुरे, तबले और हारमोनियम के बीच विभिन्न रागों
में गले की कारीगरी और भावों के लोच के बीच झूलता मीना
मल्होत्रा का स्वर सारे हॉल में छा गया।
विनीता
का मन स्वर की बन्दिशों में डूबने–उतरने लगा...राकेश को
शास्त्रीय संगीत पसंद नहीं अतः कुछ और ही गाने बजते
हैं...आज शादी के बाद अपनी पसंद के कार्यक्रम में आकर उसका
मन खुशी से उमगने लगा...कानों से मन तक उतरते स्वर, मीना
का आत्मविश्वास से चमकता चेहरा और अपने स्वर की पहचान की
छाप दर्शकों के मन पर छोड़ने की ललक… घर की खाने – सफाई की
चिन्ता से बिल्कुल अलग दुनिया में उसे ले जा रही थी –
विनीता को लगा वह पुराने वक्.तों के गलियारों में घूमती
कुनकुनी धूप में गुनगुना रही है – मन की घाटियों – चोटियों
– सब पर उजास फैल गई… गायिका का स्वर तारसप्तक के 'स' को
छू रहा था...सारा हॉल स्वर की चरमता से काँप सा रहा था– –
उस सारी मन्त्रमुग्धता के बीच कैसे न जाने उसकी निगाहें
कलाई पर बँधी घड़ी की ओर उठ गईं...आठ बज रहे थे..."बच्चों
ने खेलना रोक दिया होगा, शायद वे लोग खाना भी खा चुके
होंगे...कहीं राकेश को तंग न कर रहे हों? राकेश यहाँ होते
तो क्या कहते – यह गायन सुनकर? क्या उन्हें अच्छा लगता?
शायद कहते कि एक ही पंक्ति को पचास तरीकों से दुहराकर गाने
से लाभ क्या? क्या पता अच्छा ही लगता – पर वह तो ऐसे
प्रोग्राम में कतई–कतई आने को तैयार न होते – कलाओं में
उनकी दिलचस्पी अधिक नहीं बल्कि अक्सर विनीता और उनमें
लेखकों, उनकी रचनाओं को लेकर बहस हो जाती थी...राकेश
लेखकों को मात्र उपदेशकर्ता मान कर उनकी कटु आलोचना पर उतर
आता, उन्हें 'पराजीवी' कह जली कटी सुनाता और बात धीरे–धीरे
सार्वजनिक स्तर से हट कर निजी स्तर पर उतर आती, तब विनीता
के कभी आँसू बहते तो कभी स्वर ऊँचा हो जाता।
हार कर
कितनी बार उसने कहा था, "क्या मेरी पसंद या इच्छा का मान
रख तुम इतना कड़वा बोलना छोड़ नहीं सकते?"
"तुम चाहती हो कि मैं जो सोचता – समझता हूँ – वह कहना छोड़,
झूठ बोलने लगूँ? " राकेश तल्ख़ी से कहता।
"झूठ न बोलो पर कम से कम दूसरे की बात, उसके विचार सुनने –
समझने की कोशिश तो करो।" वह स्वर साधने लगती।
"क्या नहीं सुना मैंने और क्या नहीं समझा? बोलो?? यही तो
कह रही हो न तुम…"
और बहस नए सिरे से अपने को दोहराने लगती...शायद इस शाम आए
होते तो 'हॉल' से निकलते ही मुँह बनाते कि कितना टाइम
'वेस्ट' करा दिया —
पर वह क्यों यहाँ होकर भी यह सब सोचने में अपना समय गंवा
रही है।मन के कान जो स्वरों की मिठास की जगह झगड़े की तल्ख़ी
सुनने लगे थे, सजग हो पुनः वर्तमान में आ गए...उसने अब की
बार मन को भी जबरन घर और
राकेश की पसंद की चारदीवारी
से बाहर निकाला।
राग यमन के स्वरों में गायिका के स्वर की मिठास घुल रही
थी… "बारी – बारी जतन करूँ मैं" की पंक्ति पर स्वर–लहरी
भावों के गोते ल्गा रही थी। विनीता भी जतन कर अपने मन को
उस शाम की पहचान से बाँधने लगी...'राकेश के लिये वह यहाँ
नहीं है, है तो अपने लिए है...मन ने कहा–"देखा, कितना
अच्छा किया जो अपने से लड़–झगड़ कर, अपने लिए कुछ समय निकाल
ही लिया...घर रह जाती तो जीवन की अनेक शामों में से फिर एक
शाम अपनी संभावनाओं में तुमसे अछूती रह जाती।"
उसके बाद कार्यक्रम समाप्त होने तक उसका मन स्वर लहरी के
आंनद में डूबता – उतरता रहा...रात नौ बजे जब वे लोग हॉल से
बाहर आए तो उसका मन जया के लिए कृतज्ञता से भरा था – वह न
आ रही होतीं तो रात को रास्ता ढूँढ यहाँ
तक आ पाना, सारी दृढ़ताओं –
प्रतिज्ञाओं के बाद भी उसके लिए असंभव रहता।
बाहर हल्की 'स्नो' शुरु हो गयी थी, जो लंदन के मौसम के लिए
लगभग नयी बात ही थी...उसका मन शाम के वातावरण से बंधा,
खिंचे तार सा झंकृत था...मन का उजास छोटे–छोटे टुकड़ों में
मानों आसमान से झर रहा था और वह सोच रही थी—
"घर के कामों और उजास के ऐसे छोटे लम्हों के बीच कोई
समझोता नहीं हो सकता क्या? ऐसे कुछ घंटों को, हफ़्तों और
महीनों की थकावट भरी ज़िंदगी में पाना असंभव तो नहीं… फिर
क्यों वह ख़ुद को भूल बैठी? अपनी पसंद को धकेलते–धकेलते
इतने पीछे ले गयी कि घर की सीलन और अंधेरे भरी किस अलमारी
में उसे बंद कर… यह भी वह भूल चुकी थी… पर आज की शाम की
उजास ने उसकी 'पहचान' को अंधेरे में भी पहचान लिया था और
अब वह अपनी जुगनुई पहचान का हाथ थामें, उजास के लम्हों से
घिरी वापस लौट रही थी अपनी व्यापक पहचान, अपने परिवार के
पास!!!
|