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						"क्लासिकल म्यूज़िक का प्रोग्राम है, सुनने चलोगी?" पड़ोस की 
						जया मुखर्जी ने पूछा।"म्यूज़िक प्रोग्राम" सुनकर उसकी आँखें कुछ चमकी थीं, अरसा 
						हो गया किसी संगीत कार्यक्रम या नाटक या किसी भी तरह के 
						ऐसे महौल तक में गए हुए उसे।
 "कितने बजे हैं?" उसने उत्सुकता से पूछा।
 "पौने सात से शुरु होगा पर घर से साढ़े पाँच तक तो निकलना 
						ही पड़ेगा।" मैनेज कर लो तो चलना, मैं जा रही हूँ" जया ने 
						पूरी सूचना दे दी थी। जाने – आने का साथ भी है, जगह ढूँढने 
						की दिक्कत से भी बचा जा सकता है। मन में लालच आ गया विनीता 
						के।
 "देखती हूँ, कोशिश करती हूँ। सब काम हो गए तो फोन करूँगी 
						आने का, हाँ लौटने में क्या बज जाएगा?" सब खबर रखना ज़रूरी 
						था।
 " साढ़े नौ से दस के बीच का समय हो सकता है। चल सको तो 
						अच्छा है पर न हो पाए तो कोई मलाल की बात नहीं, मेरे बच्चे 
						छोटे थे तो मैं भी कहाँ जा पाती थी, यह ख्याल रहता था कि 
						ये अकेले न रहें या मेरा उनके पास रहना ही मेरा सबसे बड़ा 
						काम है।"
 
 जया शायद विनीता की मनःस्थिति समझ रहीं थीं। भीतर की माँ 
						और निजी अस्तित्व में द्वंद्व शुरु हो गया था।
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