राजकपूर
की "बॉबी" फिल्म रिलीज़ होकर झण्डे गाड़ चुकी थी। लोग "संगम" को
और किसी दूसरी फिल्म में साधना पर पिक्चराइज किए गीत "झुमका
गिरा रे बरेली के बाज़ार में" को भूलकर "झूठ बोले कउआ काटे" और
"हम तुम एक कमरे में बंद हों" को गुनगुनाने लगे थे। डिम्पल
कपाड़िया एक सनसनी बन गई थीं। यह वह ज़माना था जब लड़के–लड़कियाँ
बुश्शर्ट और बेलबॉट पहनने लगे थे।
लड़कियों की कमीज या बुश्शर्ट
छोटी होती हुई ऊपर उठती गई थी जिससे उनके हिप्स बखूबी
प्रोजेक्ट होने लगे थे और बेलबॉट दोनों के लिए एलीफैंटा हो गए
थे।
हालाँकि, यूनीसेक्स नाम का टर्म तब ईजाद नहीं हुआ था। एक बात
और, लड़के अपनी खतें आज के वीरप्पन की तरह उन दिनों ही रखने लगे
थे । कानों से नीचे तक लम्बी कलमें, और, लड़कियाँ ठीक भौंहों के
बीच गहरे काले रंग की बिन्दी लगाने लगी थीं। ब्यूटी पॉर्लर नाम
चलन में नहीं था ।लेकिन लड़कियाँ अलग ढँग से सजने लगी थीं और
लड़के उनके अंग वस्त्रों में अंतः वस्त्रों के बारे में सोचते
हुए स्वप्न में जवानी बहाने लगे थे। वक्त बदल रहा था और
लड़कियाँ मीनाकुमारी के नकियाने का अंदाज छोड़ रही थीं। पति को
आप की जगह नाम और तुम से पुकारने का रिवाज़ चल निकलने को ज्वार
बन रहा था। तो, भइए ! आप समझ सकेंगे और ज़रूर समझ सकेंगे कि
दुनिया बदल
रही थी।
घर में जो एक महत्त्वपूर्ण सायकिल होती थी वह गरियाई जाने लगी
थी ।उसकी जगह स्कूटर ने ले ली थी। रिपेयर हो सकने वाले जूते घर
में किन्हीं अपाहिज। कोनों में फेंके जाने लगे थे। शहरी
मोहल्लों में किसी एक के घर में श्वेत–श्याम टेलीविज़न आ गया था
और अगर मैं ग़लत नहीं हूँ तो उस पर "मम्मी...मम्मी मॉर्डन
ब्रेड" का कानों को अजीब लगने वाला विज्ञापन जो विविध भारती,
रेडियो पर भी शुरू हुआ था और अजीब भी लगा था, वह पहली बार
घर–घर घुस गया। दुनिया ग्लोबल विलेज उसी टाइम से बनने लगी थी
जबकि यह अवधारणा तब तक ज़मीनी नहीं हो पाई थी, खैर, जिसके घर
में टेलीविज़न था उसके घर इतवार की शाम मेला लगने लगा।
"चित्रहार" और फिल्म देखने के इण्टरवल में उसके दरवाज़े का लॉन
असार्वजनिक होते हुए भी सार्वजनिक मूत्रालय बन जाता जिसमें
लिंग भेद मिट जाता और भारत
की गंगा–जमनी संस्कृति प्रवाहित
होती।
ऐशियाड ८२ की कल्पना साकार होने जा रही थी। विदेश से रंगीन
टेलीविजन बिना कस्टम दिए उतरने की छूट मिली थी। खाड़ी के देशों
से इतने सेट उतरे। इतने सेट उतरे कि भइए! पूछो मत। अमीर और
ग़रीब का भेद एक बार फिर से ऐसा उजागर हुआ कि ब्राह्मण और चमार
बिना वर्णाश्रम व्यवस्था के एक दूसरे के सामने आ गए। जिसके पास
टी वी वह दिग्गज कुलीन ब्राह्मण और जिसके पास नहीं, वह साला
सर्वहारा से भी गया–बीता। चाहे सोहगउरा का तिवारी या मामखोर का
सुकुल ही क्यों न हो, धड़ाधड़ टी वी सेट भी मोहल्लों में उतरने
लगे, किश्तों पर क्योंकि जिसके यहाँ रोज़ जमकर देखते थे उसने
बच्चों को दुत्कार कर भगा दिया। अब भला टी वी न खरीदें तो नाक
कैसे बचेगी नाक बचाने के लिए पड़ोसी को नीचा दिखाना ही होगा और
यह काम बिना टी वी खरीदे नहीं हो सकता कर्ज़ लदता हो तो लदे,
पहले लोग कर्ज़ से बचते थे पर अब... ज़माना बदल रहा था न !
इन्स्टॉलमेण्ट्स देना फैशन होने लगा था... यह वही समय था जब
मोहल्लों में इक्का–दुक्का दिखने वाले लेम्ब्रेटा स्कूटर और
राजदूत मोटर सायकिलों की संख्या बढ़ने लगी थी। जिसके दरवाज़े पर
मोटर सायकिल खड़ी होतीं वह उसे देर तक रोके रहता ताकि अंधे भी
देख लें कि उनके दरवाज़े पर
फटफटिया खड़ी है। उसे स्टार्ट
करने वाले भी इतनी ज़ोर से एक्सीलेटर देते कि मुर्दे भी जग जाएँ
और जान लें कि एक दुपहिया वाहन अचानक पैदा हो गया है... उससे
निकलते धुएँ को देखकर भी लोगों के सीने पर साँप लोट जाता।
कुछेक लोग नए स्कूटर भी लेते।
लेकिन ये स्कूटर खरीदे हुए नहीं थे। ये दहेज़ में मिले स्कूटर
थे। बजाज सुपर पर ब्लैक चल रहा था, और, चेतक फॉरेन करेंसी पर
मिल रहा था। अप्रवासी भारतीय अपने–अपनों की इस मामले में भी
मदद कर रहे थे। मगर उनकी मदद के अलावा भी स्कूटर ब्लैक के
माध्यम से उतरने लगे थे। जो नया स्कूटर खरीदते वे उसे पोंछते
और साफ करते हुए इस तरह सहलाते कि जैसे अपनी प्रेमिका की पीठ
पर फूलों की तरह कोमल हथेलियाँ फेर रहे हों या उसके बालों में
उंगलियों से कंघी कर रहे हों। वातावरण बदल रहा था। यानी कि
घरों में पैसा आने लगा था। लोगों के पास पैसा आने लगा था। और,
यह पैसा कहाँ से आ रहा था उसे लोग बखूबी समझ रहे थे। देश का
चरित्र बदल रहा था तो उसके नागरिकों का कैसे न बदलता? सच तो यह
है कि नागरिकों के चरित्र से ही देश का चरित्र
निर्धारित होता है । यदि ऐसा न
होता तो जापान का चरित्र उसके नागरिक कैसे तय करते ?
हाँ, तो भइए ! सइकिलिया साली की हवा निकल गई थी और वह घर के एक
अनचाहे कोने में अपनी किस्मतिया पर रोते हुए हाथ–गोड़ मोड़े उसी
में मुँह छिपाए हिचकिया रही थी जैसे उसे माघ की ठण्ड लगी हो।
मगर लोग थे कि उसकी इस दुर्दशा पर दाँत निपोरते हुए फिसफिसा
रहे थे, फिस्स... फिस्स... कभी यही सइकिलिया घर की जान हुआ
करती थी। दुनिया चले, न चले मगर सइकिलिया ज़रूर चलती थी। घर का
एक सदस्य उसे खड़ा करता तो दूसरा उसे लेकर चल पड़ता। जब यह नहीं
होता तो बच्चे लंगड़ी। कइंची और डण्डा चलाने के लिए उसे लेकर उड़
पड़ते। लोग थक जाते मगर सइकिलिया कभी न थकती। वही सइकिलया एक
कोने में मुर्दा पड़ी थी। उसके टायर सड़ रहे थे और अन्दर का
ट्यूब तो लगभग गल ही चुका होगा... सइकिलिया की इस दुर्गति के
साथ साथ कम्प्यूटर क्रांति का नारा सपने में आ गया था। राजीव
गाँधी भविष्य भाँप चुके थे और सिलिकॉन वैली की अमूर्तता एक ऐसे
भविष्य को मूर्त बनाने का ख्वाब दिखाने लगी थी कि राजनीतिज्ञ
कम्प्यूटर के ककहरे को जाने बिना भी उसका राग अलापने लगे थे।
यह राग उनके सेक्रेटरियों ने लिखित ड्रॉफ्ट से उन्हें रटवाया
था... और वे कम्प्यूटर की महिमा उसे बिना छुए बखानने लगे थे...
देश में और चीजें आ गई थीं।
अच्छी विदेशी घड़ियाँ, कैमरे, वी सी आर, म्यूजिक सिस्टम,
इलेक्ट्रॉनिक आइटम्स घर–घर दिखने लगे थे। कोई नेपाल से ला रहा
था तो कोई खाड़ी के देशों से अपने दोस्तों के माध्यम से मँगवा
रहा था। जो ऐसा नहीं कर पा रहा था वह सिंधी कॉलोनी या फिर चोर
बाज़ार से खरीद रहा था... यही वह वक्त था कि देश में कम्प्यूटर
का नाम एक चमत्कार और आतंक के रूप में ऐसा भभका कि सभी अपने
भविष्य को लेकर कहीं तो आशान्वित हो उठे
और कहीं घनघोर रूप से आतंकित...
कुछ लोगों के लिए कम्प्यूटर स्टेटस सिम्बल हो गया था। मैं उस
स्टेटस के स्तर का तो नहीं ही था मगर मेरा हाल आतंकित होने
वालों जैसा ही हो गया था। लेकिन यह हुआ कैसे... ?
तो, भइए ! यह ऐसे हुआ कि... मेरे दोनों बेटे पीछे पड। गए कि
कम्प्यूटर लेना ही होगा और तुरंत लेना होगा... बाल–हठ के आगे
कभी ज़ोर चला है कि चलता... कंप्यूटर लेना ही पड़ा... मित्र कहते
कि अच्छा किया जो कंप्यूटर ले लिया। अब लिखने–पढ़ने में सुविधा
हो जाएगी... लेकिन सुविधा कहाँ से होती? हर समय तो दोनों बेटे
उस पर गेम खेलते रहते। मैं अगर कुछ जानना भी चाहता तो न तो समय
मिलता और न ही वह मुझे आसान लगता। उस पर दोनों बेटे उसे इतना
कठिन बता देते कि मैं उस पर बैठूँ ही नहीं। मैं कंप्यूटर से न
केवल ऊब गया बल्कि घबरा भी गया और
यह भय भी मुझमें बैठ गया कि यह
मेरे वश का नहीं है... वह मुझे घर में जब दिखाई देता दुशमन नज़र
आता... साल–दर–साल निकल गए और कम्प्यूटर से मेरी दुशमनी
बढ़ती ही गई। लेकिन अचानक सबकुछ बदल गया...
मैं छुट्टियों में कानपुर, लखनऊ और दिल्ली के कुछ अख़बारों के
दफ़्तर गया। वहाँ हर सीट पर कम्प्यूटर दिखा। जिसे देखो वही उसपर
उलझा है। कभी मैं भी अख़बार में काम कर चुका था। ऐसे–ऐसे लोगों
को कम्प्यूटर पर काम करते देखा जिन्हें अपने बहुत से कामों में
मेरी सहायता की ज़रूरत पड़ती थी। उन सबको काम करते देख अजीब–सी
हीन–भावना ने मुझे एक चुनौती से रूबरू करा दिया। मुझे लगा कि
यदि वे सभी कम्प्यूटर का प्रयोग करके अपने काम को सुविधाजनक
बना सकते हैं तो मैं क्यों नहीं?
सच कहूँ तो चुनौती का वह क्षण ही था जिसने कम्प्यूटर से मेरी
दुशमनी मिटाई और अब यह दोस्ती परवान चढ़ने लगी है...
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