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भाभी ने कैसे सही थी इतनी बड़ी चोट। छोटा सा अनुरोध और गर्भवती थीं पूनम के साथ। ऐसे खुशी के अवसर पर पुरानी दर्द भरी यादें क्यों उभरने लगतीं हैं। लोग कहते हैं कि समय के साथ सब घाव भर जाते हैं तो फिर ऐसे अवसरों पर फिर से रिसने क्यों लगतें हैं! और एक टीस की लहर सी क्यों अन्तर्मन तक उतर जाती है?

वीरेन से मेरी भेंट कैनेडा पहुँचने के पहले घंटे में ही हुई थी। मेरे तीनों बड़े भाई पहले ही से कैनेडा आ चुके थे। केवल एक मैं ही बचा था भारत में अपने माता–पिता के पास। बाहर आने की मन में बहुत उत्सुकता थी। जैसे ही कैनेडा का वीज़ा हाथ में आया! एक पल भी भारत में बिताना दूभर हो गया। जैसे तैसे करके बिना भाइयों को बताए यहाँ आ पहुँचा। विमान से उतरते ही घर फोन किया! तो रमन भाई ने फोन उठाया। रमन भाई हम सब में बड़े हैं।
बोले! "कहाँ से बोल रहे हो?"
"एअरपोर्ट से। कोई लेने आ सकता है क्या?"
"बिना बताए क्यों चला आया?" रमन भाई की वाणी में विस्मय! झुँझलाहट और प्रसन्नता सब का मिश्रण था।" घर में
तो इस समय कार भी नहीं है। प्रवीण और सुनील ग्रोसरी लेने गए हैं। चल ऐसे कर टैक्सी पकड़ के आजा।"
"कैसे करूँ?" अजनबी देश में पहली बार अनुभव हुआ कि सब कुछ फिर से सीखना पड़ेगा। "क्या बोलूँ टैक्सी वाले से"
"पता बता देना बस। पहुँचा देगा। अधिक से अधिक पूछेगा कि कौन सा मुख्य चौराहा है घर के पास। बोलना एग्लिंटन और डफरिन। कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।"
"क्या कहूँ? इग्लिंटन?"

मेरे बिना बताए चले आने की खीज उभर के रमन भाई के स्वर में उतर आई।" तू रहने ही दे। जैसे बोल रहा है! टैक्सी वाला कहीं का कहीं पहुँचा देगा। ऐसा कर वहीं खड़ा रह। मैं कुछ करता हूँ। शायद वीरेन घर हो! उसी को लेकर पहुँचता हूँ। घंटा भी लग सकता है! भूखा तो नहीं है?"
बड़े भाई होने का दायित्व भी प्राकृतिक ही था! जो अब मेरी भूख की भी चिन्ता हो रही थी।
"नहीं मैं ठीक हूँ! बस आप पहुँच जाइये जितनी जल्दी हो सके।"
"ठीक है! चिन्ता न कर। कहीं इधर–उधर नहीं घूमने लगना। अभी पहुँचता हूँ।"
एअरपोर्ट पर चाहते हुए भी कहीं घूमना सम्भव नहीं था। जैसा कि अधिकतर होता है यहाँ तक पहुँचते पहुँचते अटैची के हैं
डल टूट चुके थे। सो वहीं प्रतीक्षा करता रहा और कुछ देर के बाद दूर से रमन भाई आते दिखाई दिये। साथ में एक लम्बा सा इकहरे बदन वाला व्यक्ति! और साथ एक कोई चार वर्ष का बच्चा। मैं समझ गया कि यह वीरेन ही होगा। पास आते ही इससे पहले रमन भाई कुछ बोलें! वीरेन ने हाथ मिलाते हुए कहा
"तो
फिर सुमन तुम यहाँ पहुँच ही गए।"
"जी हाँ।"

इससे अधिक कह भी क्या सकता था एक अजनबी से। अभी तक तो उससे औपचारिक रूप से जान पहचान भी नहीं हुई थी। परन्तु वीरेन की बात में जो सहजता और अपनापन था वो अवश्य अच्छा लगा। लगा कि जैसे मैं इन को पहले से ही जानता हूँ। हम जल्दी ही कार में बैठे घर की दिशा में जा रहे थे। मैं पिछली सीट पर बैठा खिड़की से तीव्रता से भागती हुई चकमकाती हुई गाड़ियाँ कौतूहल पूर्वक देख रहा था। मेरे साथ की सीट पर अनुरोध बैठा था। गोलमटोल सा बालक। एक हाथ में जूस की बोतल और दूसरे का अँगूठा मुँह में चूसता हुआ। मैंने उसकी तरफ देखकर कहा! " इतने बड़े होकर भी अँगूठा चूस रहे हो।" सुनते ही अनुरोध ने मुस्कुराते हुए अँगूठा निकाल दिया और लपक कर मेरे कन्धों पर चढ़ बैठा। उन दिनों कार में सीट बेल्ट लगाने का कानून नहीं बना था। सो अनुरोध बिना किसी रोक टोक से इधर–उधर कूद रहा था। वीरेन ने पीछे मुड़कर देखते हुए कहा!" सुमन लगता है अनुरोध को तुम पसन्द आ गए हो! जो शैतानी कर रहा है।" मैं भी मुस्कुरा दिया। यही थी पहली भेंट वीरेन के साथ। थोड़े समय में ही घर पहुँच गए। वीरेन हमे नीचे छोड़ कर
अपने घर चला गया और हम सीढ़ियाँ चढ़ते हुए अपने एपार्टमैंट में।

वीरेन और सुषमा भाभी मेरे भाइयों के एपार्टमेंट के पास ही रहते थे। कोई पांच मिनट की दूरी थी कार से। यहाँ पर दूरी किलोमीटर की अपेक्षा समय में नापी जाती है। सुषमा और वीरेन अलग अलग शिफ्ट में काम करते थे। इस तरह से अनुरोध की देखभाल करने में सुगमता थी। वीरेन किसी कम्पनी के दफतर में काम करता था और सुषमा भाभी भी 'डैटा एन्ट्री" कलर्क थीं। अगले दिन शनिवार की छुट्टी थी। सुबह ही सुषमा भाभी का फोन आया। कहने लगीं कि सुमन से बात करूँगी। कुछ समय तक औपचारिकतावश बात करता रहा। बाद में सोचता रहा कि कौन हैं यह लोग जो इतने अपनेपन से
बात करते हैं अजनबी होते हुए भी। बाद में जैसे जैसे मिलता रहा यह भी समझ में आने लगा कि कुछ लोग इतने अच्छे होते हैं कि वो अपने और पराये का अन्तर जानते ही नहीं।

"मैं आज नाश्ते में चने की दाल के परांठे और दही की लस्सी बना रही हूँ! अगर खाने का मन है तो आ जाओ।" फोन पर सुबह–सुबह सुषमा भाभी का निमन्त्रण आया। उस दिन रविवार था। गर्मियों के दिन थे। हमारे एपार्टमेंट में
एअरकंडीशनर नहीं था। ऊपर की मंजिल थी और सभी खिड़कियाँ दक्षिण की तरफ थीं। सुबह के ग्यारह बजते–बजते एपार्टमेंट तन्दूर की तरह तपने लगता था। पंखा भी गरम हवा ही फेंकता था। दूसरी तरफ वीरेन का एपार्टमैंट एअरकंडीशन्ड था। ऐसे में चार कुँवारे इस प्रलोभन को कैसे ठुकरा सकते थे। सो दनादन जा पहुँचे।

भाभी ने पहले से ही चार प्लेटों में दही डाल रखा था और एक बर्नर के उपर तवा और दूसरे के ऊपर बड़े फ्राईपैन में परांठे तले जा रहे थे। वीरेन दही की मीठी लस्सी बना रहे थे। खूब जी भर के खाया सभी ने। भाभी बनाते–बनाते नहीं थकीं। वीरेन भी बहुत प्रसन्न दिख रहा था उस दिन। नाश्ते के बाद वीरेन! सुषमा! रमन भाई और प्रवीण भाई नाश्ते की मेज़ पर ही बैठे घरों की बातें करने लगे। वीरेन और सुषमा उन दिनों अपना घर खरीदना चाहते थे। मेरी समझ से यह सब कुछ बाहर था। अभी कैनेडा में आए कोई तीन मास ही तो बीते थे। उम्र में भी बीस वर्ष का ही था। ऐसी अवस्था में घर खरीदने जैसी नीरस बातचीत में क्या रुचि होती। मैं और सुनील टी।वी। के चैनल बदलने में मस्त हो गए और अनुरोध हम पर कूदने में। धीरे धीरे सुस्ती छाने लगी। लगता था मीठी दही की लस्सी! एअरकंडीशनर की शीतल वायु हम पर हावी हो रही थी। एक एक करके सभी खर्राटे भरने लगे। कोई सोफे पर ही सो गया और कोई नीचे कार्पेट पर। भाभी
और वीरेन धीरे–धीरे किचन संभालने के बाद नहाने धोने में व्यस्त हो गए।

"तुम लोग तो सोते ही रह गए! हम दोनों जा कर घर भी खरीद आए" किवाड़ खोलते हुए वीरेन ने कहा।

यह सुनते ही सभी एकदम उठ बैठे। घड़ी की तरफ देखा तो शाम के चार बज चुके थे। फिर प्रश्नों की बौछार शुरु हुई। कहाँ है! कितने का है और कैसा है। सभी को देखने की उत्सुकता थी। अधिकतर भारतीय कैनेडा में १९७३ के आस पास आए थे और आर्थिक रूप से अभी पैर जमे नहीं थे। परिचितों में से यह पहले दम्पति थे जिसने घर खरीदा था। कोई छोटा सा घर खरीदना भी बहुत बड़ी बात थी। शाम होते होते दोनों कारों में बैठ वीरेन के घर को बाहर से ही देखने के लिए चल दिए। घर के अधिकार के कागजात तीन सप्ताह तक मिलने वाले थे। घर टोरोंटो के पूर्वी छोर पर था। जहाँ हम रहते थे वहाँ से लगभग आधे घंटे की दूरी पर। हम भाइयों को अच्छा तो लगा! परन्तु साथ ही यह भी था कि वीरेन
और सुषमा दूर हो जाएँगे।

उस वर्ष गरमियाँ बहुत व्यस्त निकलीं। बड़े दोनों भाइयों के विवाह हो गए! जिनके लिए भारत लौटना पड़ा। वापिस कैनेडा आाकर मैं ने फिर से पढ़ना आरम्भ किया। मम्मी पापा भी भारत छोड़ हम सभी के पास आ गए। संयुक्त परिवार था! जगह की कमी महसूस होने लगी। हमने भी घर वीरेन के घर के पास ही खरीद लिया।

अगस्त का अन्तिम सप्ताह था उस बरस। हम लोगों के घर बदलने का दिन। सुबह से व्यस्त थे। सामान पैक किया गया, ट्रक में लदा, नए घर पहुँचा और फिर से खोलने और जमाने की शुरुआत हुई। खाने तक का होश नहीं रहा किसी को। शाम होते–होते भूख से बुरा हाल हो रहा था सभी का। अचानक घर की घंटी बजी! देखा वीरेन एक ' पिकनिक बास्केट ' लिए खड़ा है।

म्मी ने पूछा! "वीरेन यह क्या लाए हो?"
"सोचा कि आप सब लोग तो बहुत व्यस्त होगे आज के दिन। खाना बनाने की फुर्सत नहीं होगी। सो खाना बना कर लाया हूँ।" वीरेन का उत्तर था।
"पर सुषमा तो आज काम कर रही है। तो कैसे खाना बना के गई?"
"उसने ने कहाँ! मैं ने बनाया है सब कुछ।"
"अरे! कितना परिश्रम किया होगा तुमने। ऐसा भी क्या! बाहर से कुछ ले आते। कितनी देर खड़े रहे होगे रोटियाँ सेंकते।" माँ कहे जा रही थी और वीरेन मुस्कुरा रहा था। मैं ने आगे बढ़ कर टोकरी थाम ली। माँ अभी यहाँ पर नई थीं। वीरेन की आदत से अभी अनिभिज्ञ थीं। वीरेन कुछ कहे बिना ही किसी के लिए कुछ भी करने को हमेशा तत्पर रहता था। अभी फरनीचर पहुँचा नहीं था सो जमीन पर ही चादर बिछा कर खाने बैठ गए! और हमेशा की तरह वीरेन पापा के पास जा बैठा।

पापा और वीरेन में एक अनकहा सा रिश्ता था। वीरेन के परिवार में कोई भी पुरुष पैंतीस चालीस से अधिक आयु तक जीवत नहीं रहा। सभी की मृत्यु हृदय रोग से ही हुई। शायद आनुवंशिक था। उसने अपने पिता को भी अच्छे से नहीं देखा था। जब से पापा आए थे वह जब भी आता! पापा की 'हाई बैक चेयर" के पास नीचे ही बैठ जाता। वह पापा के घुटनों को दबाता रहता और पापा उसकी पीठ सहलाते रहते। लगता था कि वीरेन अपनी कोई कमी पूरी कर रहा है। बहुत
सन्तुष्टि दीखती थी उसके चेहरे पर उस समय। सुषमा भाभी गर्भवती थीं। उन्हें भी मम्मी का बहुत सहारा था।

अक्तूबर का पहला सप्ताह था। पतझड़ की ऋतु। ठंडी हवा और गीला सा मौसम था। मैं उन दिनों कार चलाना सीख रहा था। शाम के समय सुनील के साथ अभ्यास के लिए कार चलाते हुए वीरेन के घर चले जाना आम बात थी। भाभी को फोन किया कि शायद आज शाम को हम लोग ऐसे ही आयेंगे। भाभी के स्वर में चिन्ता थी। बोलीं! " अच्छा है। थोड़ा समय निकाल कर आना। मैं चाहती हूँ कि वीरेन के पास थोड़ी देर के पास बैठ सको। बहुत परेशान है।"
" क्यों क्या हुआ?" सुनील भी थोड़ा चिन्तित हो गया।
" आने पर वीरेन ही सब बतायेंगे।अभी मम्मी से कुछ नहीं कहना। ऐसे ही वो भी चिन्तित होंगी।"

म दोनों ऐसे ही इधर उधर कार चलाने की बजाय सीधा ही वीरेन के घर जा पहुँचे। लिविंग रूम में वीरेन सोफे पर बैठा चुपचाप दीवार देख रहा था। वीरेन को पहले कभी ऐसे नहीं देखा था। चिन्ता और भी बढ़ गयी। पूछने पर बोला–" ऐसे ही यार! सुषमा तो बेकार में घबरा जाती है। कुछ भी तो नहीं हुआ।"
"फिर ऐसे क्यों बैठे हो?" सुषमा बोल पड़ीं। उसकी आवाज के पीछे छिपे हुए आँसू हम अनुभव कर सकते थे।" नौकरी की कुछ परेशानी है। मुझे तो कुछ खुल कर बताते नहीं हैं।"
"क्यों क्या हुआ काम पर?" सुनील ने पूछा।
"कुछ 'ले ऑफ' की बातचीत हो रही है। कहते हैं कि 'रिसेशन' आ रहा है।"
"यह सब क्या होता है?" मैंने सुनील से पूछा।
"यहाँ पर हर कुछ वर्ष बाद अर्थ–व्यवस्था ढीली हो जाती है। कम्पनियाँ फेल हो जाती हैं। लोगों की नौकरियाँ भी जाती रहती हैं। बहुत ही बुरा समय होता है आम लोगों के लिए।" फिर वीरेन की तरफ घूमते हुए सुनील ने कहा–
"ऐसे ही चिन्ता क्यों कर रहे हो? कोई कल ही नौकरी तो समाप्त नहीं हो रही। कुछ समय तो होगा सँभलने के लिये!
और फिर भाभी भी तो काम कर रही हैं। कुछ तो घर में आयेगा ही। अधिक न सही पर अच्छा खासा गुजारा तो चलता ही रहेगा।"

"नहीं यार। कैसे होगा? तुम तो जानते ही हो। नया घर लिया है। जितना सोचा था उससे अधिक खर्चे निकल रहे हैं। सुषमा पर भी तो बोझ नहीं डाल सकता। एक दो महीने के बाद इसे भी तो घर बैठना पड़ेगा। छटा महीना चल रहा है। और 'डिलीवरी' के बाद काम पर थोड़ी लौट पाएगी।"
वीरेन एक बाद एक परेशानियाँ सामने रख रहा था। वह ठीक ही तो कह रहा था सब कुछ।
"वीरेन क्यों चिन्ता करते हो। हम लोग भी तो हैं। फिर तुम कह रहे थे कि ' बेसमेन्ट' में किराये के लिए एक कमरा बना रहे हो। उसका भी तो कुछ किराया आएगा ही। और नौकरी जाने के कुछ दिन बाद ' अन्एम्पलायमैन्ट इन्शोरैन्स" भी तो मिलनी शुरु हो जाएगी सरकार की तरफ से। ऐसे ही बैठे उदास परेशान हो रहे हो।"
"मुझे तो फिर भी मुश्किल ही दीखता है।"
वीरेन कुछ भी मानने को तैयार ही नहीं था। मैं उठ कर किचन में गया तो भाभी ने धीरे से कहा!" सुमन इन से बल्ड प्रैशर की दवाई खाने के लिए कहो। मेरी तो सुनते नहीं हैं। बल्ड प्रैशर हाई है। दवाई खाने को कहती हूँ तो खर्चे गिनाने शुरु कर देते हैं।"
"
चलिए मुझे दीजिए दवाई। मैं अभी खिलाता हूँ बच्चों की तरह।"

भाभी ने किचन कैबिनेट में से दवाई निकाल दी । उनके चेहरे पर थोड़ी शान्ति थी। लिविंग रूम में जाकर वीरेन को बल्ड प्रैशर की गोली दी तो वीरेन ने मुस्कुरा कर किचन से झाँकती सुषमा की तरफ देखा और चुपचाप गोली पानी के साथ निगल गया। धीरे धीरे इधर उधर की बातें होने लगीं। वातावरण का बोझिलपन भी हल्का हो गया। थोड़ी देर के बाद हम चले आए।
अगले दिन सुबह लगभग छः बजे फोन की घंटी बजी। सुषमा भाभी फोन पर मम्मी से बात कर रहीं थीं।

"मम्मी मैं हॉस्पिटल से बोल रही हूँ। वीरेन हॉस्पिटल में है। कल रात सुमन सुनील के जाने थोड़ी देर बाद छाती में दर्द हुआ तो यहाँ चले आए। डॉक्टर कहते हैं कि हार्ट अटैक है। मुझे तो समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ। घर अनुरोध भी अकेला है।"

"तुम
ने रात ही हमें फोन क्यों नहीं किया? सभी आ जाते सम्भालने के लिए। कोई चिन्ता न करो! भगवान सब ठीक करेंगे। किसी को भेज कर अनुरोध को भी इधर ही ले आते हैं।"
"पर मम्मी घर को तो बाहर से ताला लगा है।"
"वीरेन अब कैसा है? अगर तबीयत थोड़ी सम्भल गयी है तो तुम उधर से घर पहुँचो और इधर से मैं किसी को भेजती हूँ। बेटी फिक्र मत करना सब सम्भाल लेंगे। तुम अकेली नहीं हो।" माँ सांत्वना दे रहीं थी।

देखते–देखते हम चारों भाई तैयार हो गए। मैं और सुनील अनुरोध को लेने चल दिये! रमन और प्रवीण भाई अस्पताल। वीरेन की दशा कुछ ठीक नहीं थी। डॉक्टर से बातचीत हुई तो पता चला कि हृदय काफी क्षतिग्रस्त था। उधर अनुरोध को हम लोग अपने घर ले आए और निश्चित हुआ कि जब तक वीरेन घर नहीं आ जाता! अनुरोध इधर ही रहेगा। सुषमा स्नान के बाद फिर वापिस अस्पताल लौट गयी।

वीरेन लेटे लेटे भी चिन्ताग्रस्त था। पहले तो केवल नौकरी की ही चिन्ता थी अब अपने स्वास्थ्य! सुषमा! अनुरोध और आने वाले बच्चे की भी चिन्ता थी। डॉक्टरों ने हल्की सी बेहोशी की दवा दे रखी थी। फिर भी शाम होते होते वीरेन को एक और दिल का दौरा पड़ गया। हालत और भी बिगड़ गई। रात में ऑपरेशन करके हार्ट पेसर लगाना पड़ा। सभी अब भगवान से ही प्रार्थना कर रहे थे।

कॉलेज से जब लौटा तो संध्या के छः बजे थे। घर में अजीब चुप्पी थी। मेरा माथा ठनका। माँ और भाभियों के चेहरे पीले हो रहे थे। मैंने पूछा–
"क्यों! क्या हुआ? वीरेन ठीक तो है न?"
"तुम पहले बैठ तो लो! फिर पूछना।" मम्मी ने कहा।
"जरूर कुछ हुआ है जो आप सभी इतने चुप हो। पापा भी टी।वी। नहीं देख रहे। वीरेन की ही कोई बात है।"
माँ से अब न रहा गया बोलीं!" बेटा वीरेन नहीं रहा। आज शाम चार बजे के आस पास वीरेन का साँस उखड़ गया और कोई भी उसे सम्भाल सका। "
मैं
सन्न हो कर बैठ गया। थोड़ा सम्भलने को बाद पूछा! " सुषमा भाभी कहाँ हैं? किसी और को भी खबर की?"
"तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। रमन! प्रवीण और सुनील तो आजकल शाम की शिफ्ट में हैं। उनको कैसे बताएँ? अब तुम ही सब सम्भालो।"

उसी समय मैंने डॉक्टर शर्मा को फोन किया। दूर के रिश्ते से वीरेन के चचेरे भाई थे। पास ही के शहर में गुएल्फ विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे। सबसे पहले उनको फोन किया और फिर कार लेकर सब भाइयों को लेने के लिए चल दिया। मैं बीस वर्ष का तो था। ऐसे अवसर पर क्या किया जाता है कैसे जानता? फिर यहाँ का समाज भी तो अलग है। काम से सीधा हम लोग अस्पताल पहुँचे तो मालूम हुआ कि सुषमा भाभी घर जा चुकीं थीं और वीरेन के शरीर को फ्यूनरल होम भेजा जा चुका था। लौटते पांव हम लोग वीरेन के घर जा पहुँचे। तब तक अन्धेरा छा चुका था। ठंडी हवा चल रही थी। रुक रुक कर 'आईस पैल्टस.' गिर रही थीं। जब घर पहुँचे तो और मित्र भी पहुँच चुके थे। ऐसी मृत्यु और ऐसी दशा में
कौन किसको कैसे समझाए।

डॉक्टर शर्मा की प्रतीक्षा थी। एक तो उम्र में थोड़े बड़े थे और दूसरा क्योंकि पहले से वो इस देश में थे तो उन्हीं के मार्गदर्शन पर सभी प्रबन्ध होने थे। यहाँ तो किसी को ऐसे अवसर को सम्भालने का अनुभव था ही नहीं। डॉक्टर शर्मा बहुत ही नेक हृदय और सुलझे हुए व्यक्ति थे। कई बार उनसे भेंट हो चुकी थी। जैसे ही दरवाजे से वो घुसे सभी की आँखें उन पर जा टिकीं। उन्होंने एक नजर सुषमा भाभी की तरफ देखा और तुरन्त एक शयनकक्ष में चले गए। थोड़ी देर तक फूट–फूटकर रोते रहे! फिर जब अपने आप को सम्भाल सके तब बाहर आए। उनके आने से हम लोगों के सर से मानो एक बोझ हट गया। लगा कि कोई है सम्भालने वाला! समझाने वाला। फ्यूनरल होम फोन करके मालूम किया गया कि कैसा प्रबन्ध है। रमन और प्रवीण भाई को लेकर डॉक्टर शर्मा फ्यूनरल होम गए तो मालूम हुआ कि वहाँ पर दाह संस्कार की सुविधा नहीं थी। वीरेन के पुराने एपार्टमैंट के पास 'ट्रल फ्यूनरल होम' में यह सम्भव था। 'ट्रल फ्यूनरल होम'
को फोन किया तो वहाँ के प्रबन्धक ने कहा कि चिन्ता न करें वह सब व्यवस्था हो जाएगी। शरीर को भी स्वयं ही वहाँ पर पहुँचा देंगे।

जब एपार्टमेन्ट में रह रहे थे तो कई बार शाम को पैदल सैर करने निकलते तो वीरेन साथ में होता। जब भी 'ट्रल फ्यूनरल होम' के पास से गुजरते तो वीरेन कहता–" यार अब तो जीना यहाँ मरना यहाँ। जी करता है इसी फ्यूनरल होम में हो सब कुछ। देखो अपना काँसे का साईन बोर्ड कितना चमका कर रखते हैं। जीते जी इस देश में कोई कद्र हो न हो पर अर्थी ऐसी शान से निकलती है कि भारत के राष्ट्रपति की सवारी भी नहीं निकलती होगी।"

होनी ऐसी कि शहर के दूसरे छोर से इसी फ्यूनरल होम में आया वीरेन का पार्थिव शरीर।
तीन माह के बाद पूनम का जन्म हुआ। धीरे धीरे सुषमा भाभी ने भी वास्तविकता के साथ समझौता करना सीख लिया।अपने बच्चों को पालने पोसने में व्यस्त हो गयीं। हम सब लोग भी समय के साथ जीवन में आगे बढ़ने लगे। सभी भाइयों की शादियाँ और बच्चे हो गए। समय नहीं मिलता था भाभी के यहाँ जाने का। हाँ कभी कभी वे अवश्य आ जातीं थी माँ से मिलने। कोई दूसरा घर में है या नहीं इससे उन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ता था। इसी बीच सुषमा भाभी ने अपने छोटे भाई! सुधीर को भारत से बुला लिया था। उसने आते ही भाभी पर दूसरा विवाह करने पर जोर डालना शुरु कर दिया। उम्र में वह काफी छोटा था। सांसारिक परिपक्वता नहीं थी अभी उसमें। बस एक ही रट लगाए रहता कि अगर आ
दमी दूसरी शादी कर सकता है तो औरत क्यों नहीं। भाभी को किसी भी अवस्था में यह बात बिल्कुल भी भाती नहंीं थी। अक्सर भाई बहन के झगड़े का निपटारा मम्मी की अदालत में होता।

एक दिन भाभी ने अनुरोध के जन्मदिवस पर हमें अपने घर खाने पर बुलाया। हम सभी बैठे बातचीत कर रहे थे कि द्वार की घंटी बजी। खोला तो देखा कि सामने डॉ. खुराना हाथ में फूलों का गुलदस्ता लिए हुए खड़ा है। उसे देखते ही भाभी आग बबूला हो गयीं। भाभी ने पूछा–
"डॉ. खुराना आप यहाँ कैसे?"
"सोचा आज अनुरोध का जन्मदिन है सो उसे उपहार देने चला आया।"
"पर मैंने तो आपको निमंत्रित नहीं किया।"
हम विस्मयपूर्वक यह वार्तालाप सुन रहे थे। डॉ. साहिब सकपका कर वहीं से लौट गए। जब भाभी वापिस कमरे में आयीं तब झल्लाई हुईं थीं। कहने लगी–
"विधवा होना भी गुनाह है। सभी मर्द सोचते हैं कि जब चाहो सम्पर्क स्थापित कर लो। अब इसे ही देखो चला आया है बिन बुलाए। जानती हूँ कि यह फूल किसके लिए लाया था।"
हम सभी लोग डॉ. खुराना को अच्छी तरह से जानते थे। काफी बदनाम आदमी था। शराब की लत के कारण दो पत्नियाँ पहले ही भाग चुकीं थीं। सुना था कि आजकल तीसरी ढूँढ रहा है।
ऐसे ही जीवन चलता रहा। अगली बार अनुरोध से एक विवाह में भेंट हुई। तब वह विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था। लम्बा
कद! वही गेहुँआ रंग वीरेन की काफी झलक थी उसके चेहरे पर। उसे देखता रहा और वीरेन को याद करता रहा।

उसी वर्ष अक्तूबर के मास में पापा भी चल बसे। पापा की मृत्यु सुनील के घर में हुई। उन दिनों वह ब्रैंटफोर्ड में रहता था। चार पाँच दिन बाद जब वापिस आया तो भाभी का फोन आया। पापा की बात करते करते अचानक मेरे मुँह से निकला–
"देखो भाभी समय के साथ कहाँ कोई किसी को भूलता है। अभी भी हर अवसर पर वीरेन भाई का ख्याल आता है। आजकल के ही तो दिन थे जब उसका जाना हुआ।"
एक क्षण के लिए भाभी चुप कर गयीं! फिर बोलीं–
"हाँ सुमन कहाँ कोई भूल पाता है। परसों ही वीरेन की बरसी थी। मैं ऑफिस 'वाशरूम' में गयी तो दर्पण में अपना चेहरा देख कर मन में आया कि देख सुषमा तूने वीरेन के बिना बीस वर्ष निकाल दिए। मैं अपने को देखती रही और रोती रही।"
अब मैं और भा
भी दोनों ही फूट–फूटकर रो रहे थे। मैं नहीं जानता कि यह आँसू पापा के लिए थे कि वीरेन के लिए।

"सुमन क्या सोच रहा है? ले यह थैली सम्भाल।" अचानक विचारों की तन्द्रा टूटी। सेहराबन्दी पूरी हो चुकी थी। सुषमा भाभी मुझे एक लाल रंग की थैली पकड़ा रहीं थी।
"सम्भाल के रखना! इसमें डॉलर हैं। जब घोड़ी लड़की वालों के यहाँ पहुँचेगी तो वारने के काम आएँगे। तेरी जिम्मेवारी है।'
"जी अच्छा।" और मैं उठ कर बाहर कार की तरफ चल दिया। लौट के एक बार वीरेन की तरफ देखा। लगा मुस्कुरा रहा है।

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२४ अक्तूबर २००२

 
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