सावित्री
विश्वास ही कर लेने की स्थिति तो कतई नहीं थी, फिर भी आशा की
एक चिनगारी जरूर भड़क उठी थी मन में। इसीलिये पाँच बजे के बाद
रह–रहकर मेरी नज़रें खिड़की से बाहर जा सड़क पर बिछ जाती थीं।
बीती रात तो उन्होंने कसम ही खा ली थी। वैसे तो शराबियों की
कसमें क्या, वादे क्या? फिर भी बात–बात पर कसमें खाने की आदत
उनमें न होने के कारण अनायास ही मैं आशावादी हो उठी कि हो सकता
है ऑफिस से सीधे घर ही आ जाएँ।
वैसे तो मर्दों की जात ! कई जगह जाना–आना पड़ता है। उस पर
साहित्य में भी अच्छी प्रतिष्ठा है। साहित्यिक कार्यक्रमों में
जाना, जीवन के विविधरंगी चित्रों को नजदीक से देखना–परखना भी
जरूरी ही होता होगा। लेकिन एक जिम्मेदार आदमी को अपने
घर–परिवार से बिल्कुल बेखबर केवल अपना ही राग अलापते रहना भी
तो शोभा नहीं देता ! मैं ऐसा तो नहीं चाहती कि वे घर पर रहकर
मेरे कामों में हाथ बँटा दें ! और ना तो यही ख्वाहिश रहती है कि
चौबीस घंटे पति का चेहरा निहारती रहूँ। लेकिन मैं भी तो मनुष्य
ही हूँ ! मेरे भी तो कुछ अरमान है ! क्या मुझे जिंदगी में
हँसने–खेलने या रोमाँचित होने का अधिकार नहीं है?
फुर्सत के समय अगर वे घर पर बैठे ही रहते तो भी बातचीत से ही
सही, सुख–दुख की बातें करते हुए जीवन की मरुभूमि में कम से कम
बादल छाने तक की अनुभूति तो हो सकती थी ! ...वे मुझे माँ होने
का सुख नहीं दे सके, इसका कतई दुःख नहीं हैं मुझे। अपनी गोद
में सर रखकर सोए पति का आनंदमग्न चेहरा देखकर भी मैं वात्सल्य
लुटाने का सुख प्राप्त कर सकती थी
! लेकिन मेरे नसीब में तो वह
सुख भी नहीं लिखा है।
वे मुझे संतान नहीं दे सके, तो क्या हुआ? एक स्त्री को पुरूष
से जो मिलना चाहिये, मुझे नहीं लगता कि मेरी तरह औरों को मिलता
भी होगा। शराब के नशे में धुत्त होकर ही सही, आधी रात को घर
वापस आने के बावजूद भी मुझे उस सुख से आज तक कभी वंचित होना
नहीं पड़ा। कम से कम हर रात एक बार तो मेरे 'बेडरूम' में रोज
आनंद की आँधी आती ही आती है। उस में मैं ना जाने कहाँ–कहाँ
टकराती हूँ, कहाँ–कहाँ गोते लगाती हूँ, डूबती हूँ, उतरती हूँ .
. .। सच कहूँ तो मेरे जीवन के वर्तमान और भविष्य के भी विराट
एकाकीपन को उन्हीं चंद पलों की रोमाँचक अनुभूतियाँ भरे रहती
है। अगर ऐसा न होता तो भला रौशनी ही नहीं देने वाले इस
जीवन–दीप को बेमतलब क्यों जलाए रखती?
. . .घड़ी की ओर देखती हूँ – शाम के आठ बज चुके थे। कसमें वादे
सब धरे के धरे रह गए। एक निरुद्देश्य सा मुस्कान ही केवल निकल
पाया मेरे होठों से।
शशिनाथ
ऑफिस से निकलते ही सदा की भाँति मेरे
पाँव शराबखाने की ओर बढ़
चले। लेकिन कुछ कदम ही आगे बढ़ने के बाद अचानक याद आ गई – शराब
न पीने की कसम। . . .हुणह ! कसम का क्या है ! यह तो खाई ही
इसलिये जाती है ताकि इसे तोड़ी जा सके। लेकिन . . .बेचारी
सावित्री पर कहीं सही में तो मैं अन्याय नहीं कर रहा हूँ ! अपने
स्वार्थ के लिये मैं खुद तो शराब को सहारा बनाए बैठा हूँ। लेकिन
सावित्री से मैंने मेरे सान्निध्य तक का अधिकार छीन लिया है,
जो कम से कम उसके एकाकीपन के बोझ को कुछ ही सही, कम कर सकता
था। वास्तव में हमारे निराश जीवन में अपने आप को वर्तमान में
ही मस्त रखने के लिये हम दोनों को साथ मिलकर ही कुछ करना चाहिये।
. . .इधर आकर मेरी लेखन–प्रवृत्ति में एक विचित्र सा परिवर्तन
आ गया है। मैं शशिनाथ न रहकर शून्य हो जाता हूँ, और इसके बाद
जो विचारों का संकलन करता हूँ, उसे सहजतापूर्वक कागज पर उतारने
में खुद को ज्यादा सफल पाता हूँ।
हो सकता है – स्वयं को शून्य
बनाने के ही उद्देश्य से हो – शराब मेरी विवशता बन चुकी है।
. . .जो हो। मेरी रचनाएँ कमजोर ही रह जाएँ। मेरे साहित्य–सृजन
न करने से भी किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा। मैं पहले एक मनुष्य
हूँ, उसके बाद साहित्यकार। मनुष्य होने के नाते जिंदगी की
यात्रा संग मिलकर तय करने का जो मैंने वचन दिया है, उसके
अनुरूप सावित्री के प्रति मेरे दायित्व को प्राथमिकता मिलनी ही
चाहिये। . . .इसी को अंतिम निर्णय मानकर मैं हठात् मुड़ जाता
हूँ
घर की ओर।
घर लौटते हुए मेरा विचार–प्रवाह सावित्री पर ही केंद्रित रहता
है। . . .बेचारी को मैं कोई सुख–सुविधा नहीं दे सका। स्त्री के
लिये सबसे प्रिय और अपरिहार्य उसका माँ कहलाने का अधिकार तक मैं
उसे नहीं दे पाया। . . .संतान न होना मेरे लिये कोई मायने नहीं
रखता। लेकिन मेरे कारण सावित्री को संतानहीन ही उपाधि मिलना
मेरे लिये लज्जाजनक ही नहीं, दुख की भी बात है। . . .मुझे ऐसा
लगने लगता है, जैसे मैं सावित्री का अपराधी हूँ।
. . .एक बार फिर मेरे दोनो पैरों को मेरी हीनताग्रस्त
मनःस्थिति शराबखाने की ओर धकेलने लगती है और मैं सदा की भाँति
फिर चल पड़ता हूँ विपरीत दिशा में।
सावित्री
शेर के मुँह में एक बार मनुष्य का रक्त लग जाने के बाद कहते
हैं कि वह फिर मनुष्य को छोड़कर और कुछ खाता ही नहीं। शराबियों
को भी इसी श्रेणी में रख देना जरा भी अनुचित नहीं होगा। आखिर
उन्हें शराब छुड़ाने के लिये जितना भी कहा जाय, लाखों जतन किये
जाएँ – सब निरर्थक। . . .फिर ऐसे विपरीत मति वाले शराबियों के
बारे में तो मैंने आज तक सुना भी नहीं हैं। सुनते है कि और–और
शराबी तो दंगा–फसाद कर के, पत्नियों को मार–पीट के, गालियाँ दे
के घर में उधम मचाते रहते हैं। लेकिन उन्हें तो क्या कहा जाय,
पता नहीं। मुँह सूँघने पर ही पता चलेगा कि शराब पिये हुए हैं।
नहीं तो रात के ग्यारह–बारह बजे आएँगे, ढँककर रखा हुआ खाना
खाएँगे, घंटे–दो–घंटे पढ़ेंगे और उसके बाद मेरी दिन भर की
चिरप्रतीक्षा – वहीं आत्मीयता के चरमोत्कर्ष को सुदृढ़ बनाने के
काम में जुट जाएँगे। . . .सभी काम अत्यंत सामान्य और सम्मत
लोगों की तरह। कम से कम शराब पीकर औरों की तरह लड़ाई–झगड़ा या
मारपीट ही करते तो भारी समय
के बोझ तले दबी मेरी जिंदगी में
कुछ तो राहत मिलती !
. . .सुबह सोकर उठने के बाद कुछ ही घंटे वे मेरे पास यथार्थ
सामान्य अवस्था में रहते हैं। लेकिन उस वक्त वे कॉपी–कलम से
बुरी तरह उलझे होते हैं। इसीलिये यह अवस्था मेरे लिये और
असामान्य रूप में उपस्थित हो जाती है। कहते हैं – साहित्यकारों
के लिये लिखना बच्चे पैदा करने जैसा ही सुखकारी होता है। ऐसे
में उनके प्रसव–आनंद में विघ्न डालने का काम भला मैं कैसे कर
सकती हूँ !
वैसे तो घर में बच्चों की किलकारियाँ ना सुन पाने का गम उनको
भी होगा। लेकिन मैं तो कर भी क्या सकती हूँ? . . .मुझ में ही
अगर कोई खामी होती तो कहती कि दूसरी शादी ही कर लें। लेकिन . .
.किया क्या जाय?
. . .परसों ना जाने क्या संयोग था ! शनिवार की छुट्टी का दिन –
दोपहर को ही घर आ गए। आकर वे अपने लेखन–कार्य में जुट गए।
मैं बस यों ही बैठी थी। शाम के वक्त पड़ोसी यादव जी की पत्नी
आयीं। चूहे ने बेचारी की सब्जियों की बीज वाली पोटली ही गायब
कर दी, सो ककड़ी का बीज माँगने आई थीं। मैंने उन्हें अपने खेत
में रोप कर बाकी बचे बीज लाकर दे दिये। यादव जी की पत्नी के
चले जाने के बाद मैंने उन्हें अपनी ओर कुछ अजीव से अंदाज में
घूरते हुए पाया। उन्हें पूछे
बिना ही मैंने बीज दे दिया, हो
सकता है इसका उन्हें बुरा लगा हो। अब लगा तो लगा। मैं चुपचाप
अंदर चली गई।
शशिनाथ
शनिवार का दिन। ऑफिस में साप्ताहिक छुट्टी थी। अन्य छुट्टियों
के दिन की तरह ही उस दिन भी मैं ऑफिस टाइम पर ही घर से निकल
शराबखाना पहुँच गया था। लोकल दारू के चार–पाँच गिलास गटक भी
चुका था – एक बजे तक। याद आया कि दो बजे से एक कविगोष्ठी है,
जिस में मैं आमंत्रित हूँ। भट्टी वाले को खाते में चढ़ा देने के
लिये कहते हुए मैं निकल गया। आम तौर पर उस समय मुझे लिखने का
मूड़ नहीं आता है, जिस समय मैं शराब पिये रहता हूँ। लेकिन उस
दिन मुझ पर लिखने की ऐसा धुन सवार हुई कि मैं खुद को रोक नहीं
पाया। इसीलिये कविगोष्ठी में जाने के लिये बढ़े कदम को घर की ओर
मोड़ लिया। घर पहुँचते ही लिखने बैठ गया। मुझे आज दिन में भी घर
ही पर देखकर सावित्री को संभवतः प्रसन्नता हुई थी। लेकिन घर
में बैठने के बावजूद मुझे कॉपी–कलम में ही उलझे हुए पाकर वह और
बेचैन सी हो उठी थी। कम से कम उसके हाव–भाव तो यही कह रहे थे।
शाम को मैं अपनी कहानी को अंतिम रूप देने के उपक्रम में था।
इसी बीच यादव जी की पत्नी ककड़ी के बीज माँगने आई थीं। सावित्री
ने तुरंत ही अंदर से बीज लाकर दे
दिया।
सावित्री द्वारा किया गया यह दान उसकी उदारता थी या मूर्खता,
मैं नहीं समझ सका। क्योंकि अगर यादव जी की पत्नी एक ककड़ी
माँगने आई होती तो सावित्री ही नहीं, और कोई भी देने से जरूर
हिचकिचाता। लेकिन बीज, जिसकी बदौलत यादव जी सैकड़ों ककड़ियाँ उगा
सकते हैं, देते समय सावित्री के चेहरे पर जरा भी कंजूसी या
असहजता के भाव नहीं उभरे। वाह ! कैसी अजीब बात है ! बीज मेरे,
यादव जी केवल बो कर उगा कर लें तो जितनी ककड़ी उपजे, सब की सब
उन्हीं की !
. . .सावित्री को कुछ कहना चाहा, पर ना जाने कौन सी अदृश्य
शक्ति ने मुझे रोक लिया। कुछ नहीं कह पाया। केवल एक टक ताकता
रह गया सावित्री के चेहरे पर।
सावित्री
कभी–कभी सोचा करती हूँ – खुद को उलझाए रखने के लिये मुझे भी
उन्हीं की तरह कोई राह ढूँढ लेनी चाहिये। लेकिन कोई सही रास्ता
भी सूझे तब ना ! उन्हीं की तरह शराब पीकर धुत्त रहा करूँ, तो यह
कम से कम नारी जाति के लिये शोभा देने वाली बात नहीं हुई।
घूम–फिर कर के अगर समय बिताने का सोचूँ तो निरर्थक भ्रमण में
मेरी कभी दिलचस्पी ही नहीं रही। कहीं कोई नौकरी–ऊकरी करने की
सोचूँ तो अपनी योग्यता से ढंग की नौकरी नहीं मिलने वाली। तो
फिर? . . .आखिर किया भी जाय तो क्या?
. . .कभी–कभार तो मन में
ऐसे भी विचार आते थे कि जब उन्हें मुझसे कोई मतलब नहीं है तो
भला मैं ही क्यों बेकार में सती–सावित्री बनकर खुद को सड़ाती
रहूँ ! मेरी ओर कोई अन्य पुरूष
आकर्षित ही न हो सके, कम से कम इतनी गई–गुजरी तो मैं भी नहीं
हूँ। उनकी अक्सर रहने वाली अनुपस्थिति के कारण उपयुक्त वातावरण
मिलने की दृष्टि से भी इस विचार को सबलता मिलती थी। लेकिन समाज
द्वारा नाजायज का ठप्पा लगा दिये गए इस कार्य को जायज कहने की
हिम्मत मुझ में भी नहीं है। फिर अगर इस कार्य की परिणति कुछ हो
गई तो? . . .दुनिया भले ही कुछ ना समझ सके, लेकिन वे? . . .वे
तो समझ ही जाएँगे।
इसी तरह के कुछ भय और उनके प्रति विश्वासघात होने की बात को
लेकर अपने लिये खुद ही मातृत्व का अनुसंधान करने की आकांक्षा भी
धरी की धरी रह जाती थी। इतना होने के बावजूद मेरी जिंदगी में
सुदर्शन के प्रवेश से स्वयं मैं ही चकित हूँ। मेरे अंदर के
अस्वीकार की इच्छाशक्ति के कमजोर होने का प्रतिफल भी हो सकता
है यह।
सुदर्शन
चाहे जो हो, अपरिचित जगह अपरिचित ही होती है। अपनी जन्मभूमि
जैसा प्रिय इसीलिये शायद स्वर्ग को भी नहीं माना जाता। नहीं तो
जिस शहर का नाम सुनते ही लोग आनंद और रोमाँच की कल्पना में डूब
जाते हैं, वह मुझे इतना नीरस व उदास क्यों लगता?
वैसे तो जान–पहचान और मित्रों के न होने से भी ऐसा हुआ हो सकता
है। स्कूल भी सुबह का है। इसीलिये दिन भर बैठे–बैठे 'बोर' हो
जाता हूँ। . . .इस शहर में आने के बाद दस–पंद्रह दिनों तक इसी
तरह की उद्विग्न मनःस्थिति में बीता मेरा समय। बगल वाले मकान
में रहने वाली महिला की स्थिति भी मुझे कुछ–कुछ अपनी ही तरह
विरक्तिपूर्ण लगी। इसीलिये यह आशंका होने लगी कि कहीं नीरसता इस
शहर की विशेषता ही तो नहीं है ! लेकिन नहीं, और सभी तो
खुशहाल और रोमांचित ही दिखते हैं
!
. . .खाली समय और पड़ोसी होने के नाते उस महिला के संबंध में
धीरे–धीरे कई सारी बातें मुझे मालूम होती जाती है। . . .उसके
बच्चे नहीं हैं। पति चौबीस घंटे नशे में धुत्त रहने वाले शराबी
है। ऐसा लगता था मानों उसकी उदासी का कारण और कुछ नहीं, केवल
उसका अकेलापन है। उसकी जिंदगी की फर्श पर जमी उदासी की धूल को
झाड़ने के बहाने अपने मनोरंजन का मार्ग भी क्यों न तलाशा जाय? –
अचानक विचार आया था मन में। चूँकि हम दोनों के निवास में
निकटता और शून्यता थी, इसलिये इस विचार को कार्यरूप देने में भी
कोई परेशानी नहीं थी। लेकिन तीस–पैंतीस साल की विवाहिता स्त्री
के साथ आनंद की कल्पना भी क्या की जाय ! इसीलिये उसके सौंदर्य
ने मुझे भले ही आकृष्ट किया हो,
मेरे आवेशित विचार को अधिक फैलने
नहीं दिया।
यहाँ आने के बाद से ही जमा होते गए मैले कपड़े एक गठरी बराबर
हो गए थे। सभी कपड़ों को धोने के बाद सुखाने के लिये छत पर गया।
स्वाभाविक रूप से हर दिन की तरह नजरें उसके आँगन की ओर चली
गयीं। वहाँ जो दृश्य मुझे देखने को मिला, उस से एकाएक मैं
जड़वत सा हो गया। दीन–दुनिया से बेखबर होकर वह स्वच्छंद भाव
में नहा रही थी। पेटीकोट को ऊपर तक बांधकर अपनी ही धुन में बदन
की तपिश को खंगालते हुए उसे देख लेने के बाद मेरे मन के सारे
भ्रम टूट गए। पानी में भीग कर बदन से चिपके उसके वस्त्र
अंग–अंग से चुराकर मादकता परोस रहे थे। उसके शरीर का पारदर्शी
भूगोल मेरे मन में भूकंप मचाने के लिये काफी थी। . . .अपने
आरंभिक विचार को मैं शीघ्रता और
सक्रियतापूर्वक कार्यरूप देने की
राह पर बढ़ चला।
सावित्री
सुदर्शन को यहाँ आए यही कोई दो महीने हुए होंगे।
छब्बीस–सत्ताइस साल का अविवाहित सुदर्शन का नाम के ही अनुसार
रूप तो था ही, स्त्री–मनोभाव जान लेने में भी वह मुझे माहिर
लगा। मेरे ही घर के बगल में डेरा होने के कारण वह मेरी गतिविधि
और आंतरिक मनोभाव को बड़ी ही अच्छी तरह भाँप गया था। कहते हैं
कि एक स्वस्थ और सम्मत व्यक्ति के लिये वैसे भी स्त्री–पुरूष
संबंध उत्सुकता और कौतुहल का विषय होता है। उसपर भी वह तो
अविवाहित एक युवक। मेरी उम्र उस से अधिक रहते हुए भी यह सोचकर
शायद वह मुझ पर विशेष दृष्टि रखने लगा कि यह आसानी से उपलब्ध
हो जाएगी। इसका आभास मुझे हो गया था। और, कभी–कभी तो ऐसा लगने
लगता था कि कहीं उसकी इस विशेष दृष्टि पर मैं भी अपनी राह से
फिसल न जाऊँ – भूख से नहीं, प्यास से। लेकिन पुनः लोकलाज और
अनेकानेक भय से वशीभूत
होकर संभल जाती थी।
इस बीच उनकी कहानियाँ, कविताएँ पढ़ने के बहाने वह हमारे यहाँ
आने–जाने लगा। लेकिन सड़कछाप की तरह लगने वाले उस लौण्डे का
साहित्य से कितना सरोकार रहा होगा, सो मेरी समझ से दूर नहीं
था। उसकी अव्यक्त भाषा मैं बखूबी समझती थी। फिर भी ऐसा दिखावा
करते हुए कि मैं कुछ नहीं समझती, उसके खयालों को दिमाग में घर
करने देने से रोके रहना मेरी विवशता थी। लेकिन वह भी हार मान
लेने वाला मर्द नहीं था। वह अपने प्रयत्न की हवा से मेरी
असहमति के दीये को बुझाने का आयास अनवरत करता रहा। आवश्यकता थी
केवल एक तेज झोके की, जो उनके दस दिनों के लिये बाहर जाने से
अचानक ही आ गई।
हमारी शादी के दस वर्ष गुजर जाने के बावजूद इतने अधिक दिनों के
लिये हम दोनों कभी एक–दूसरे से अलग नहीं रहे थे। इस बार की दूरी
से दैनिक आहार मिलने की व्यवस्था में अवरोध उत्पन्न होकर एक ओर
जहाँ मेरी भूख जवान होती गई वहीं दूसरी ओर अवसर की अनुकूलता
का लाभ उठाते हुए सुदर्शन ने भी अब तक हाव–भाव से व्यक्त करते
आए विचार को मुँह खोल कर ही कह डाला। इससे हुआ यह कि एक ही
झोके में असहमति का दीया बुझ गया और उनकी
अनुपस्थिति में ही इसने निरंतरता
ले ली।
शशिनाथ
ऑफिस से किसी काम के सिलसिले में दस दिनों के लिये राजधानी की
ओर गया था। कार्य जल्द ही खत्म हो जाने के कारण दो दिन पूर्व
ही वापस लौट आया। आते वक्त एक जगह सड़क जाम हो जाने से जिस बस
को सुबह सबेरे आ जाना था वह आ पहुँची तकरीबन दोपहर एक बजे। बस
से उतरते ही रात भर के उपवास का पारायण करने की सोचकर सीधा
भठ्ठी की ओर चल पड़ा। लेकिन फिर यह सोचकर कि पहले 'फ्रेश' हो
लें फिर चलेंगे, अपने पूर्व विचार को त्याग दिया और सीधे चल
पड़ा घर की ओर।
आँगन में पहुँचने पर देखता
हूँ कि बेडरूम का दरवाजा अंदर से
बंद है। बाहर एक जोड़ी मर्दाना चप्पल भी देखने को मिली। मैं
वहीं जडवत् खड़ा रहकर कुछ देर सोचता रहा। फिर आहिस्ते से खुद को
सँभालते हुए दरवाजे तक पहुँचा। दरवाजे से कान लगाकर अंदर से आ
रही अस्फुट आवाजों को पहचानने की कोशिश करने लगा। धीरे–धीरे
मेरे चेहरे का रंग बदलता गया। फिर भी पूर्ण आश्वस्त होने के
लिये दरवाजे के दोनों पाटों के बीच रहे झिरी से अंदर झाँकने
लगा।
अंदर के दृश्य को देखकर मैं सामान्य नहीं रह सका। मेरी
कनपटियाँ लाल हो उठीं। तत्काल बैग उठाकर बाहर आया और सीधे चल
पड़ा भट्टी की ओर। . . .नहीं, आज भट्टी नहीं, आज रेस्टोरंट चलना
चाहिये। मेरी आज की मनःस्थिति में किसी साधारण शराब से काम नहीं
चल सकता। यही सोचकर पास में ही स्थित रेस्टोरंट की ओर चल पड़ा।
रेस्टोरंट पहुँचते ही धम्म से पटक दिया अपने आप को एक कुर्सी
पर और चिकेनचिली के साथ एक लार्ज पैग व्हिस्की ऑर्डर किया।
मेरे आज के पीने में अपने आप को शून्य बनाकर लेखन–सामग्री
जुटाने का या अपने हीनताबोध को छुपाने की कसरत नहीं थी। आज मैं
अपनी खुशी का पैमाना छलकाने के लिये पी रहा था।
. . .हाँ, अब तो मेरे खेत में भी ककड़ी की लताएँ लहराएँगी।
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