|
जब कथा–समारोह 'सगर राति दीप जरए' में जाना ही है तो भला ऐसा
कैसे हो सकता है कि कोई कहानी लेकर न जाऊँ? वैसे तो कहानी
तैयार है मेरे मानसपटल में, लेकिन उसे लिपिबद्ध करने का काम
मुझे पहाड़ सा लगता है। दूसरी परेशानी यह है कि मेरे पात्र भी
अक्सर मेरा कहना नहीं मानते। मेरे आदेश से पहले ही सभी झपट
पड़ते हैं कलम की नोंक पर – अपनी–अपनी अभिव्यक्ति की स्याही
लिये। वैसे कहानी का विषय भी कुछ ऐसा है, जो अपने मुँह से कहने
में मुझे थोड़ी झिझक महसूस
हो रही है।
लेकिन मैदान छोड़कर भागने वाला तो मैं भी नहीं ! इसके लिये मैंने
एक उपाय सोच रखा है। उपाय यह कि मैं अपने पात्रों को ही आप
लोगों के सामने खड़ा कर देता हूं। सुन लीजिये उनकी कहानी उन्हीं
की जुबानी। इस से मुझे अपने मुँह से कोई ऐसी बात नहीं कहनी
नहीं पड़ेगी जो सुनने में आप लोगों को बुरा लगे और मैं भी
बेमतलब आधे घंटे तक सत्यनारायण पूजा के पुजारी की तरह टरटराते
रहने से बच जाऊँगा।
अच्छा तो तब तक मैं करता हूं विश्राम और आप लोगों के सामने आ
रहे हैं मेरे पात्र देने को अपने–अपने बयान—
|