बनवारी की
धीमी आवाज जैसे कन्हाई के कानों में कोई तीक्ष्ण बाण बेधती चली
गयी हो। वह बेहद घबड़ा गया। लगा जैसे उसके मुँह से चीख ही निकल
जायेगी, पर अपने पर काबू पा उसने धीरे से पूछा-“तुम्हें कैसे
मालूम?”
“बाबू, हमें पता लग गिया है। अब तुम सब खतरे में हो।“
“पर......” कन्हाई अपनी बात शुरु भी न कर पाया था कि ऐसा लगा
जैसे कोई आ रहा है। बनवारी ने झटके से ताला खींचा और जोर से
बोला-“ऐ कन्हाई बाबू, शो गिया क्या?”
और वह अपनी लालटेन हिलाता
हुआ धीरे-धीरे चला गया। लेकिन कन्हाई के दिल-दिमाग में एक
भयंकर आँधी छोड़ गया।
बनवारी से नरेन गुसाईं के मुखबिर बन जाने की सूचना पाकर कन्हाई
को सारी रात नींद नहीं आयी। नींद तो वैसे भी नहीं आती थी, पर
आज तो जैसे शरीर में अंगारे दहक रहे थे।
धीरे-धीरे दो-चार दिन में सब पता लग गया। नरेन गुसाईं को कोठरी
से हटा कर जेल के अस्पताल में कड़े पहरे में रखा गया कि कहीं उस
पर कोई हमला न कर दे या अपने किसी साथी का मुँह देखकर वह स्वयं
ही न पलट जाये।
कन्हाई और सत्येंद्र बसु ने मिलकर योजना बनायी कि नरेन के
कोर्ट में बयान देने से पहले ही उसकी हत्या कर देनी चाहिए।
उन्होंने सोचा कि यदि नरेन की हत्या नहीं की जाती है, तो न
जाने कितने देशभक्त क्रांतिकारियों का संपूर्ण जीवन जेलों में
सड़ जायेगा, कितनों को फाँसी हो जायेगी। और फिर अगर कोई शत्रु
से मिल कर अपने देश के साथ, अपने मित्रों के
साथ गद्दारी करे, तो उसे जीवित
रहने देना ही अन्याय है।
एक दिन जेल का आयरिश जेलर राउन्ड पर आया, तो कन्हाई लाल बड़े
उदास-उदास से बैठे थे। जेलर बड़ा हँसमुख व दरियादिल युवक था।
भले ही वह अंग्रेज था, पर देश के लिए मर-मिटने वाले इन वीर
युवकों की वह मन ही मन श्रद्धा करता था। वह उन लोगों को हर
प्रकार से प्रसन्न करने की कोशिश करता।
कन्हाई लाल को उदास देखकर वह बोला, “वेल कनाई! क्या बाट हाय,
टुम आज हँसटा नहीं है?”
कन्हाई सूखी हँसी हँसा, “कुछ नयी बात नहीं....पर यहाँ हमारी
पूजा-पाठ ठीक से नहीं होती।
“क्यों, टुमारा पूजा के लिए कौन मना बोला?” जेलर की भौहें तन
गयीं। वह बोला, “बोलो-बोलो कनाई, पूजा के वास्टेम क्या
माँगटा?”
“क्याई बताऊँ, मैं बीमार आदमी हूँ। पंडित जी ने बताया था कि
सावन महींने में कटहल दान करुँ ....पका कटहल......”
‘कटैल...... ये कटैल
क्या. .........” जेलर की समझ में ही न आया कि कन्हाई क्या,
चाहता था।
“कटैल नहीं, कटहल साहब ..जैक फ्रूट! एकदम इतना बड़ा साबुत जैक
फ्रूट पूजा पर चढ़ाकर सब को बाँटना होगा?”
“जैक फ्रूट बाँटने से क्या? होगा?”
कन्हाई ने एक बार सीधे जेलर की आँखों में देखा- “जेलर साहब, आप
नहीं समझ सकते। मेरे सिर पर दो-दो तलवारें लटकी हैं।“ कन्हाई
ने दो उँगलियाँ उठाईं।
“दो-दो टलवारें, कैसी दो टलवारें?” जेलर ने पूछा।
“एक क्षय रोग की यानी टी.बी.” कन्हाई की मुस्कान और आँखों की
चमक जेलर के हृदय में बिंध गयी।
“और दूसरी?”
“और दूसरी.......दूसरी अंग्रेज सरकार की।“ कहकर कन्हाई जोर से
हँस पड़ा। उसकी उस हँसी का साथ जेलर ने दुगुने वेग
से हँसकर दिया।
“वेल .....वेल, टुम ये दो-दो टलवारों से बचने को कटैल डान करना
माँगटा, फिर हम टुमारे वास्टे. कटैल मंगा डेगा।“
“दुहाई है जेलर साहब!” कन्हाई ने हाथ जोड़ दिये। “यहाँ
जाति-कुजात... हरेक के हाथ का छुआ कटहल हमारे किसी भी काम का
नहीं। मुझे मन्दिर से भगवान के आगे रखा हुआ पूजा का कटहल
चाहिए। मैं अपने भाई को एक पत्र लिखकर आपके हाथ में दिये देता
हूँ। मेरे भाई आकर वह कटहल आपके सामने मेरे हाथ में दे देंगे।
बस यही मेरी प्रार्थना है।“
“ठीक है, ठीक है। ऐसा ही होगा। हम भी गॉड को मानटा है। टुमारा
पूजा ठीक से होगा।” जेलर साहब ने कागज-कलम
मँगाकर कन्हाई को दिया और कन्हाई
ने पत्र लिखा।
प्यारे भैया,
जेल में सब सुख हैं। बस एक ही बड़ा दुख है वह है राजरोग। तुम्हे
मालूम है कि ये रोग अगर तेजी पकड़ जायेगा, तो सब कुछ समाप्त हो
जायेगा। सो भैया, इस रोग से बचने के लिए पंडित ने श्रावण मास
में बड़ा वाला पका कटहल दान करने को बताया था। पूजा के दो लाल
फूल व एक माला कटहल के साथ भेज दोगे, तो शायद मैं बच जाऊँ।
कटहल स्वयं लाकर मेरे हाथ में देना। किन्हीं अपवित्र हाथों में
मत देना। सबको प्रणाम।
तुम्हारा भाई
कन्हाई
कन्हाई ने चिट्ठी लिखकर
अंग्रेज जेलर के हाथ में दे दी। जेलर साहब ने सपने में भी नहीं
सोचा कि राजरोग उस का टी.बी. का रोग नहीं वरन नरेन गुसाईं है।
और दो लाल फूलों का मतलब दो पिस्तौलें और माला का अर्थ
कारतूसों की माला या गोलियों से है।
चिट्ठी कन्हाई के बड़े भाई आशु बाबू के पास पहुँचा दी गयी। पहले
तो उस चिट्ठी को पढ़कर आशु बाबू चकरा गये। पर जब उन्होंने
कन्हाई के एकाध साथियों से सलाह की, तो फिर पूजा का कटहल तैयार
किया गया। एक बहुत बड़ा पका कटहल लिया। उसको एक जगह से चौकोर
काटकर अंदर खोखला किया। बड़ी चतुराई से उसमें दो भरी पिस्तौलें
और कुछ गोलियाँ छिपाकर चौकोर टुकड़े को उसकी जगह फिट कर दिया
गया। कटहल के मोटे छिलके के लंबे-लंबे काँटों में वह कटा स्थान
ऐसे छिप गया कि वह पूरा साबुत कटहल दिखायी पड़ता था।
एक बहुत बड़े झोलें में रखकर वह कटहल आशु बाबू ने कन्हाई के पास
पहुँचा दिया। जेल के वार्डर आदि ने अपनी आँखों को गड़ा-गड़ा कर
कटहल का एक्स रे लेना चाहा। पर चूँकि जेलर साहब का आर्डर था,
उसे किसी ने छुआ नहीं। झोले में कटहल के ऊपर दो लाल ताजे फूल
और एक माला भी रखी थीं जिस समय कन्हाईं ने अपनी कोठरी में धुले
कपड़े पर कटहल, वे दो लाल फूल और माला बड़ी सावधानी से रखे, तो
वह आयरिश जेलर और एक-दो वार्डर वहीं खड़े थे।
जेलर कन्हाई की पूजा स्वयं आँखों से देखना चाहते थे। कन्हाई
ने बड़ी नम्रता से जेलर से कहा, “पूजा ठीक बारह बजे होगी। कटहल
को काटने के लिए एक बड़ा चाकू भी चाहिए।“
“चाकू!” जेलर चौंक पड़ा।
“टुमारे हाथ में हम चाकू कैसे डे सकता है? क्या पागल हुआ है?”
कन्हाई हँस दिया और अपनी पतली-पतली उँगलियाँ जेलर के सामने
फैला दीं---“तो इतना बड़ा कटहल क्या मैं इन उँगलियों से काटकर
सबको बाँटूँगा? एक चाकू से मैं किसी का क्या बिगाड़ सकता हूँ?
आप अपनी पिस्तौल अपने पास रखिएगा। मेरी कोठरी का ताला बंद
रखिएगा।“
“ठीक है, ठीक है,“ जेलर मुस्कराया, “हम तुम्हें चाकू डेगा। हम
इडर ही रहेगा पर कुछ गड़बड़ करना नहीं माँगटा।“
सुबह के नौ बजे थे। बारह बजे तक वहाँ कौन खड़ा रहता। कन्हाई की
कोठरी में ताला लगाकर सब इधर-उधर हो गये। सत्येन्द्र अपनी
कोठरी के सींखचे लगे दरवाजे पर आकर खड़े हो गये। वह आकाश की ओर
ऐसे निहारने लगे, मानो कोई पिंजड़े का पक्षी खुले गगन में उड़ने
को बेचैन हो। पर उनका काम था बाहर किसी को आते-जाते देखकर
कन्हाई को खाँसकर सिगनल देना, जिससे कटहल में से पिस्तौलें
निकालता कन्हाई सतर्क होकर ध्यान लगाकर बैठ जाये, मानो पूजा कर
रहा हो।
पिस्तौल और गोलियाँ निकाल
कर कन्हाई ने बड़ी सतर्कता से छिपा दीं। कटहल ज्यों का त्यों
रख दिया।
बारह बजे जेलर तथा एक-दो और आये। कन्हाई ने स्व्यं चाकू
माँज-धोकर बड़ी चतुराई से वह कटहल सबके सामने काट डाला। दिखावे
के लिए काटने से पहले उस कटहल की फूलों और माला से पूजा भी की।
और फिर वह पका मीठे-मीठे कोयों वाला कटहल पूरी जेल में बाँटा
गया। उस दिन जेल में कटहल के बीजों की सब्जी
बनी। पूजा का प्रसाद सभी ने चखा।
अब समस्या थी जेल से निकलकर अस्पताल पहुँचने की और फिर जेल के
अस्पताल के अंदर कड़े पहरे में रहने वाले नरेन गुसाईं तक
पहुँचकर उसे मारने की।
उसी दिन आधी रात से
सत्येंद्र को जो खाँसी का दौरा उठा तो खुदा की पनाह खाँसी
रुकने का नाम न लेती। खाँसते-खाँसते मुँह लाल हो उठता। आँखें
बाहर निकलने को हो आतीं।
उधर कन्हाई गुस्सा हो रहा था- “इतना भी क्या लालच! मर भुखे की
तरह कटहल खाया है इसने! अब मरेगा।“
पर जिसे अंग्रेज सरकार की पवित्र सूली पर टँगना हो, उसे खाँसी
से मरने को कैसे छोड़ा जा सकता था। सत्येंद्र को अस्पताल भेज
दिया गया। झूठमूठ खाँसते-खाँसते सत्येंद्र के फेफड़ों में सचमुच
ही दर्द होने लगा। उसके गले में खराशें पड़ गयीं। खाँसी ठीक
करने को डाक्टर उसे दवाइयाँ पिलाते तो वह रो पड़ता, “डॉक्टर,
मुझे मर जाने दीजिए।“
तभी एक पुलिस अधिकारी
उसके सिर पर हाथ फेर कर कहने लगा, “पागल हो! हम तुम्हारी रक्षा
करेंगे। हम तुम्हारा जीवन बरबाद नहीं होने देंगे।“
सत्येंद्र ने सूनी-सूनी आँखों से उस पुलिस अधिकारी को देखा,
जैसे उसकी बात का विश्वास ही न हो रहा हो। “क्या कह रहे हैं
आप? आप मुझे कैसे बचा सकते हैं? मुझे तो अब भगवान भी न बचा
पायेगा।“ अचानक सत्येंद्र बिलखकर रो पड़ा। उसने पुलिस अफसर के
कोट का कालर दोनों हाथों से थाम लिया, “मैं बाहर जाना चाहता
हूँ। मैं.....मैं जेल में मरना नहीं चाहता---- मुझे छोड़ दीजिए
..... मैंने कोई अपराध नहीं किया है।“
उसकी पीठ पर हाथ फेरता पुलिस अधिकारी बोला, “हमें मालूम है कि
तुम ने कोई अपराध नहीं किया है....और ....हम तुम्हें छोड़ भी
देंगे पर.....”
“पर क्या?” सत्येंद्र ने व्यग्रता से पूछा।
“कुछ खास नहीं। बस जब तक
मुकदमा चलेगा, तब तक तुम्हें हमारे पास रहना पड़ेगा। मुकदमे के
समय हमारी तरफ से गवाही देनी होगी। फिर बाद में सरकार की तरफ
से तुम्हें बड़ी-सी तनख्वाह पर ऊँचा-सा ओहदा मिल जायेगा। बंगला,
बग्घी सब कुछ.....”
पुलिस अफसर की बात भी पूरी न हो पायी कि सत्येंद्र को फिर
खाँसी का दौरा पड़ा। खाँसते-खाँसते वह बोला, “मुझे सोचने
दीजिए....साहब....सोचने.....” और फिर खाँसी।
पुलिस अफसर सत्येंद्र के और पास खिसक आया। वह फुसफुसाते हुए
बोला, “वही तो मैं कहता हूँ। अगर तुम ये सब बातें कोर्ट में कह
दोगे, तो तुम साफ बच जाओगे। आखिर तुमने कोई अपराध भी नहीं
किया। बस दूसरे लोगों ने तुम जैसे सीधे-सादे नौजवानों के कंधों
पर रखकर बंदूक छोड़ी है। फँस तुम गये।“
“हाँ साहब, मैं फँस गया। पर ....पर मुझे बड़ा डर लगता है। कुछ
समझ में नहीं आता। सोचता था अगर एक-दो साथी मेरे साथ हो जाते,
तो मुझे थोड़ा साहस मिलता।“ सत्येंद्र ने धीरे से कहा।
“नरेन गुसाईं है न। तुम्हारा ही साथी है वह तो!” पुलिस अफसर ने
झट से कहा।
“नरेन तो नया है। उसे तो
दल की सब बातें मालूम भी नहीं। फिर मुझे कैसे विश्वास हो कि वह
सचमुच सरकार से मिल गया है। कहीं आपने अपनी मीठी बातों में
......”
पुलिस अधिकारी हँस पड़ा- “बच्चे हो क्या तुम, जो मैं अपनी मीठी
बातों में फँसा लूँगा।“ फिर एक क्षण को जैसे कुछ सोचता-सा वह
बोला, “अच्छा ऐसा करो, हम तुम्हें नरेन से मिला देंगें। तुम
उससे खुद बात कर लो। अगर तुम्हें उसका विश्वास आ जाये
तो.....”
“ठीक है आप नरेन से मेरी बातचीत करा दीजिए, अगर वह सरकार से
मिल गया है, तो मैं भी .....”
“ठीक है। नरेन से तुम्हारी बातचीत करा देंगें। हम उसे यहीं ले
आयेंगे। फिर तुम उससे पूछ लेना। ठीक?”
“ठीक!” और इस ठीक के साथ ही सत्येंद्र बसु को फिर खाँसी का
दौरा पड़ गया।
पुलिस सार्जेंट के साथ नरेन निर्भय होकर सत्येंद्र से मिलने
आया। दूर से नरेन को आता देखकर सत्येंद्र उठकर बैठ गया था।
चादर के नीचे हाथ में छिपी पिस्तौल भी एक बार काँप उठी थी।
जैसे ही नरेन सत्येंद्र की पहुँच के अंदर आया कि सत्येंद्र का
हाथ तेजी से बाहर निकला और गोलियाँ दगीं। अस्पताल की दीवारें
पिस्तौल की गरज से गूँज उठीं।
कन्हाई उछलकर खड़ा हो गया। शायद
पूरे अस्पताल के कैदी घबड़ाकर उछल पड़े होंगे।
पर गोली नरेन के पैर में लगी। उससे घायल होकर बजाय गिरने के वह
तेजी से भागा। उधर कन्हाई ने जब नरेन को भागते देखा, तो उसका
पीछा किया। नरेन अस्पताल का फाटक पार कर गया। फाटक का पहरेदार
अगर चाहता तो फाटक बंद कर कन्हाई को रोक सकता था, पर पता नहीं
उसने क्या सोचा, उसने इशारे से कन्हाई को बता दिया कि नरेन
किधर गया।
तीर की भांति तेजी से कन्हाई नरेन के पास पहुँचा और अपनी
पिस्तौल की सारी गोलियाँ नरेन के ऊपर छोड़ दीं।
कुछ ही क्षणों में यह सब कुछ घट गया। यहाँ तक कि पुलिस
सार्जेंट भी उस क्षण हक्का-बक्का रह गया। वह तो सत्येंद्र को
ही पीछे से कसकर पकड़े रह गया, उधर नरेन की हत्या हो भी गई।
सत्येंद्र और कन्हाई फिर वापस जेल भेज दिये गये। उनकी बीमारी
और कुशल अभिनय का भंडा फूट चुका था। शाम को जेलर कन्हाई से
मिलने आया। वह सब कुछ समझ चुका था। पर वह इन वीरों की महान
वीरता और साहस पर मन ही मन मुग्ध था।
जेलर को देखकर कन्हाई ने सिर झुका लिया। इतने सरल हृदय जेलर को
धोखा देने का उसे दुख था। पर वह विवश था। उसे सिर झुकाये
देखकर जेलर ने हंसकर कहा-“वैल कनाई, टुम सिर नीचा क्यों करटा?
आज तो टुमारा सिर ऊँचा
होना माँगटा!”
कन्हाई ने चौंककर सीधी निगाह से जेलर को देखा। उसे स्वप्न में
भी अनुमान नहीं था कि जेलर इन मीठे शब्दों से उसका स्वागत
करेगा।
कन्हाई की भोली आँखों को देखकर जेलर फिर हँसा, “वैल, टुमारा
पूजा बोट शानदार रहा। वन्डनरफुल! अपना पूजा से टुम नरेन को ही
नहीं हमारा सर्विस भी उड़ा दिया हाय!”
कन्हाई की आँखों में सच्ची पीड़ा लहरा उठी। भीगी आँखों से जेलर
को देखता वह केवल इतना कह पाया, “मुझे बहुत अफसोस है।“
सच्चा मन ही सच्चे मन की बात समझ पाता है। जेलर के चेहरे पर
कोई दुख या क्रोध नहीं था। वह मुस्काता खड़ा था-“वैल, हमको
अफसोस नहीं कनाई। हम को अपने पर भी प्राउड होगा कि हम ऐसा वीर
लोग देखा, हमारा वाइफ और हम टुमारा
पूजा......वरशिप करटा!”
और फिर वह आगे फुसफुसाते हुए बोला---“कनाई, हमारा वाईफ पुडिंग
बनाया है, टुमको और सटेनडर को खिलाना माँगटा। खा सकटा है?”
और उस दिन से नित्य चोरी-छिपे कन्हाई और सत्येंद्र के लिए
जेलर अपने घर से कुछ न कुछ लाने लगा। जेल का राऊंड लगाकर वह
लौटता तो बड़ी-बड़ी देर तक कन्हाई से बातें करता रहता। कन्हाई के
ऊपर उसका कुछ विशेष स्नेह था।
मुकदमा चला। कन्हाई और सत्येंद्र बसु दोनों को फाँसी की सजा
सुनायी गयी।
सन १९०८ के १० नवंबर को दोनों हँसते-हँसते फाँसी पर चढ़ गये।
उनकी लाशें परिवार वालों को सौंप दी गयीं। अंत्येष्टि के बाद
इन शहीदों की राख को लोगों ने लूट लिया, अपने बच्चों के गले
में गंडा तावीज बनाकर डालने के लिए, ताकि वे भी वैसे ही वीर,
वैसे ही साहसी, वैसे ही देश-प्रेमी बनें।
(यह कहानी
बंगाल के प्रसिद्ध अलीपुर बम कांड में पकड़े गए तीन
क्रांतिकारियों कन्हाईलाल दत्त, सत्येन्द्रनाथ बोस तथा
नरेन्द्र गोस्वामी के जीवन पर आधारित है।) |