मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


कल्याणी के प्रति सबकी आसक्ति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हिन्दू हो या मुसलमान, शादी की तिथियाँ जब लोग तय करते थे तो पहले उसकी उपलब्धता की स्थिति का पता कर लेते थे।

एक बार तो इसके कारण बगल के गाँव मायाबिगहा से फौजदारी होने तक की नौबत आ गई थी। वहाँ का एक आदमी ले गया था माँगकर कल्याणी को। संयोग वश एक के बाद एक कई शादियाँ थीं वहाँ। कल्याणी उनके बीच घूमने लगी। इधर इस गाँव पौरा में भी कई लगनें निकल आई थीं। इधर वालों ने कल्याणी को माँगा तो उधर वालों ने आनाकानी कर दी। वाह, भला यह क्या बात हुई कि अपने गाँव वाले ही कल्याणी के सुयश से वंचित रह जाएँ!

स, गाँव के उष्ण रक्त जनों ने अपने-अपने हाथों में लड़ाई के औजार थाम लिये और सीमा पर जाकर मायाबिगहा वालों को धिक्कारने-ललकारने लगे। वे लोग भी आन में पीछे क्यों रहते.....निकल आए हथियार लेकर घरों से।

दोनों गाँव एकदम आमने-सामने। तब ही छुनन मियाँ दोनों तरफ के हथियारों के बीच आ गए। उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं और वे थर-थर कांप रहे थे। बहुत बेसब्र आवाज में उनकी फरियाद उस जगह पर बहने लगी, जहाँ अभी-अभी खून की धारा बहने वाली थी।

''मेरे अजीज भाइयों....बेटों। यह क्या हो गया तुमलोगों को ? कल्याणी के लिए ऐसी बर्बर जंग....लानत है। कल्याणी तो मेल-मोहब्बत और खैरियत का नाम है जो इंसानियत की फसलों को लहलहाने की दुआ देती है। फिर इसके लिए इतना बड़ा जलजला ! तुमलोग अगर यही करना चाहते हो तो पहले मुझे मार डालो।''

पूरी भीड़ को जैसे काठ मार गया हो। लोगों को पहली बार एहसास हुआ कि छुनन मियाँ की आवाज में एक जादू है। एक बहुत बड़ा कांड टल गया.....कल्याणी कलंकित होने से बच गई।

छुनन मियाँ ने व्यवस्था अपने हाथ में लेकर दोनों गाँव की हर शादी के दुल्हे-दुल्हन को एक या आधे घंटे के लिए कल्याणी की सेवा उपलब्ध करवाई।

तो यही पालकी वाले सबके चहेते छुनन मियाँ जोवासर राय से अपनी इकलौती एक-बीघहवा जमीन हार गए अदालत में। फिर निराश और पस्तहाल होकर हाथ पर हाथ धर बैठ गए। अब और क्या करते, कहाँ जाते ?

जोवासर ने उस पर अपना हल-बैल उतार दिया। इस अन्यायपूर्ण बेदखली पर बहुत दुख पहुँचा गाँववालों को। जोवासर इस तरह के और भी कई बर्बर कारनामों को अंजाम दे चुका था। जमीन को लेकर लफड़ा खड़ा करने में उसका मगज बिगड़ैल घोड़े की तरह सरपट दौड़ता था। शायद ही कोई ग्रामीण बचा हो, जिसे कम से कम एक बार उसने अपनी चपेट में लेकर उसे खून के आँसू न रुलाया हो ! आप घर बनाने चले हैं अथवा खेत की टूटी-फूटी मेंड़ ठीक करने चले हैं....दुर्भाग्य से आजू-बाजू में उसकी या सरकारी जमीन है....बस, समझ लीजिये इसकी टाँग वहाँ पर अड़नी ही अड़नी है। सार्वजनिक उपयोग वाली अधिकांश जमीनों पर उसने एक-एक कर कब्जा जमा लिया था और उन्हें अपने बेटे-जोरू के नाम से दाखिल खारिज तक करवा चुका था। कहने को तो वह सरकार द्वारा बहाल ग्रामसेवक था, पर गाँव को सबसे ज्यादा इसी ने नोंचा-खसोटा था।

कोर्ट-कचहरी और लाठी-डंडा में इसका मुकाबला अकेले किसी के बूते की बात नहीं थी। इसलिए लोग इसके डंक खाकर भी मन मसोसकर रह जाते थे।

अंततः जब पानी सिर से ऊपर हो गया तो इसके खिलाफ एक मोर्चा बनना शुरू हुआ। रग्घू, जागो, परेमन, मूला आदि जो उसके शिकार कई बार हो चुके थे, सबने तय किया कि जोवासर की किसी भी शैतानी-मक्कारी से अब मिलकर टक्कर लेना ही एक समाधान है गाँव में गैरत के साथ रहने का।

छुनन मियाँ का मामला मोर्चे के समक्ष एक चुनौती बनकर सामने आया। सबने तय कर लिया कि इस लड़ाई को आगे ले जाना है। छुनन मियाँ बूढ़े हैं.....कमजोर हैं.....निरीह और भोलेभाले हैं, तो इसका यह मतलब नहीं कि अपनी पुश्तैनी जमीन से भी बेदखल कर दिये जाएँ।

मोर्चे ने छुनन मियाँ को ले जाकर एक बड़े वकील देवदार बाबू से मिलवा दिया। वे पड़ोस के ही एक गाँव के रहने वाले थे। रग्घू, जागो, परेमन और मूला के जोवासर के साथ चल रहे कई मुकदमे वे पहले लड़ चुके थे। छुनन मियाँ का मुकदमा भी उनकी जानकारी में था। इलाके में कौन किससे किस कारण मुकदमा लड़ रहा है, एक मेधावी वकील होने के नाते उन्हें पता रहता था। छुनन मियाँ को वे एक-दो बार कोर्ट-परिसर में हताश-बदरंग हालत में देख चुके थे। यों वे उनके वकील नहीं थे तथा लोअर कोर्ट उनका अब कार्य-क्षेत्र भी नहीं था। बस, कभी-कभी किसी मुँहलगे मुवक्किल के
इसरार पर किसी पेचीदे मामले में महत्वपूर्ण बहस के लिए आ जाना पड़ता था।

देवदार बाबू को पहले ही आशंका थी कि जिस तरह के बिकाऊ और पिल-पिले वकील के पास इनका केस है, ये जीत नहीं पाएँगे.....और यही हुआ। इनका वकील फत्ते खां इनके प्रतिद्वंद्वी जोवासर राय से पैसे लेकर केस हार गया। किसी भी मुकदमे में वाजिब और जेनुइन पक्ष की पहचान प्रायः पहले ही स्पष्ट हो जाती है। खासकर वकीलों की घ्राणशक्ति को तो सच की गंध मिल ही जाती है। देवदार बाबू जब सच को हारते हुए देखते थे तो उन्हें बड़ा सदमा पहुँचता था और उनका मन करता था कि वकालत से तौबा कर लें। भले ही झूठ की जीत उनके ही द्वारा प्रस्तुत फर्जी बहस और गवाह से क्यों न हुई हो। वकील थे तो झूठ और नाजायज पक्ष के केस को भी स्वीकार करना पड़ता था, पर असली आनंद और संतोष तो उन्हें सच वाले पक्ष के लिए लड़कर होता था।

छुनन मियाँ के प्रति उनका मन दया से भर आया। एक तो उनका चेहरा देखकर, जो सच का मानो एक जीता-जागता बयान और दस्तावेज था, दूसरे पालकी जैसी नेमत को सर्वसुलभ करने की स्नेहिल-उदार छवि थी उनकी। देवदार जी की शादी भी कल्याणी की सेवा लेकर संपन्न हुई थी। जब बारात जाने लगी तो कार पर चढ़ने के पहले उन्हें आठ-दस गज के लिए पालकी पर चढ़ने की रस्म निभानी पड़ी थी। दुल्हन लेकर आए थे तो माँ के निर्देश पर दोनों को दोबारा कल्याणी की गोद में बैठना हुआ था।

देवदार बाबू की स्मृति में कौंध जाता है एक वाकया।

इस क्षेत्र के एमेले की बेटी की बारात अभूतपूर्व सज-धज के साथ आई थी। कारों का काफिला द्वार लगने जा रहा था। तभी विधायक के पिता ने सबको रोक दिया और कहा, ''अब दूल्हा बीस-पच्चीस गज की दूरी छुनन मियाँ की कल्याणी की गोद में सजकर जाएँगे।''

आभिजात्य बारातियों का दल अचंभे में पड़ गया। नजरे उठीं तो देखा, चार कहार पालकी लिये खड़े हैं, जिस पर तुलसी दास की लिखी चौपाई चमक रही है -
परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।

विधायक जी ने आकर मुस्कराते हुए स्थिति की व्याख्या दी, ''यह छुनन मियाँ की पालकी कल्याणी इस इलाके की एक जीती-जागती किंवदंती है.....कहते हैं इसके स्पर्श भर से मुहूर्त शुभ हो जाता है। यह मान्यता हर धर्म और हर जाति वालों की है। इसलिए कल्याणी एक मूल्य की तरह यहाँ स्थापित है जो हमें एक सूत्र में पिरोती है।''

देवदार बाबू ने रूआँसे छुनन मियाँ की सहमी हथेलियों को अपने उत्साहित हाथों में भर लिया, ''आप अब आश्वस्त हो जाएँ चचा, आपका दुख अब मेरा दुख है। जोवासर को धूल चटाने में मैं अपनी पूरी सामर्थ्य लगा दूँगा।''

देवदार ने लक्ष्य किया था कि इनके साथ आए दर्जन भर लोगों की आँखों में बेहिसाब याचना और अनुरोध बसे हुए थे।
आने वालों में चार मुसलमान थे तो आठ हिन्दू।

इस तरह के प्रसंग से जहाँ जाति और धर्म, प्रेम एवं मानवीयता के आगे टुच्चा होकर रह जाता है, उन्हें बहुत बल मिलता था। मुल्क और इंसानियत की बेहतरी की कामना करने वालों के लिए इससे खुशगवार लम्हा और क्या हो सकता था।

कुछ ही दिन पूर्व उनके पास थोड़े-थोड़े अंतराल में दो जोड़े आए थे जिन्हें कोर्ट में अन्तरजातीय प्रेम-विवाह करना था और उन्होंने करवाया भी। पहला जोड़ा यादव और ब्राह्मण बिरादरी से संबंध रखता था। ठीक उसी समय आरक्षण के विरोध और समर्थन की बयार बह रही थी। दूसरा जोड़ा हिन्दू और मुसलमान से ताल्लुक रखने वाला था। ठीक उसी समय एक शहर में सांप्रदायिक दंगे होने की सनसनीखेज खबरें आ रही थीं।

देवदार को लगा था कि इन प्रेमी जोड़ों ने आरक्षण के पक्ष-विपक्ष और सांप्रदायिक मनोवृतियों की मानो धज्जी उड़ाकर रख दी हो। उन्होंने नव दम्पतियों को खूब बधाई और दुआएँ दी थीं।

छुनन मियाँ के चेहरे पर उम्मीद की एक परछाईं उभर आई, जिसे देख मोर्चे के सभी लोगों को काफी राहत महसूस हुई। रग्घू ने हुलसते हुए कहा, ''वकील साहब! अगर छुनन चचा केस जीत गए तो पूरे जवार को मैं अपनी तरफ से भोज खिलाऊँगा।''

जागो भी अपना आवेग नहीं रोक पाया, ''मैं तो एक सप्ताह के लिए नौटंकी वालों को बुलवाकर नौटंकी करवा दूँगा।''

देवदार बाबू को सुनकर बहुत अच्छा लगा - ये निश्छल भावनाएँ सचमुच बड़ी अनमोल हैं। आज के शुष्क और संकीर्ण माहौल में तो इसकी बेहद जरूरत है।

जिला न्यायालय में अपील दर्ज कर दी गई।

देवदार बाबू ने इस जमीन से संबंधित सारे तथ्य रजिस्ट्री ऑफिस के रिकार्ड-रूम से निकलवा लिये। पचास-साठ साल पहले यह जमीन जोवासर के खानदानी खाते में दर्ज थी। पर अचानक बीस-पच्चीस साल पहले हुए एक सर्वे में यह छुनन मियाँ के दादा के खाते में आ गई और तब से उसकी लगान ये लोग ही देते आ रहे थे। जोवासर के कब्जे की सारी जमीनों की जब जनम-पत्री देखी गई तो उसके खाते में भी ठीक एक बीघा जमीन छुनन मियाँ के पुश्तैनी खाते की पाई गई जो सर्वे के वक्त इधर से उधर हुई थी। आज इसी जमीन पर जोवासर और उसके गोतिया के मकान बने हुए थे।

मतलब स्पष्ट था कि दोनों के पुरखों द्वारा एक बीघे की जमीन अदली-बदली की गई थी। पुराने लोग मुँहजबानी ही बहुत काम कर लिया करते थे। आज की तरह उनमें इस तरह बेईमानी और धूर्तता नहीं समाई थी। पहले उन्होंने कोई लिखा-पढ़ी नहीं की....जब सर्वे हुआ तो परस्पर एक ही जमीन दूसरे के नाम से खुद ही दर्ज हो गई।

जोवासर लगान कर्मचारी था, इसलिए खाते-खतियान का दीमक ठहरा। नीयत में प्रपंच भरा रहता था, इसलिए कोई न कोई सूराख ढूँढने की फिराक में लगा रहता था। सोचा उम्र के पके छुनन मियाँ तो इतना तह तक जा पाएँगे नहीं.....लिहाजा वह कोर्ट में पुराने दस्तावेज की पट्टी पढ़ाकर मामला अपने पक्ष में करवा लेगा। अपने मकसद में वह फत्ते खां की काहिली और कमीनगी के कारण अंशतः कामयाब भी हो गया।

दूरदराज की ऐरी-गैरी जमीन पर भी जब उसका ईमान डगमगा जाता था तो गाँव की नाक पर स्थित इस रत्नगर्भा पर तो उसकी लार पल-पल टपक ही पड़ती होगी। साल में चार-चार फसलें इसकी गोद में लहलहाती थीं। जब देखिये तब हरा-भरा। इसके कोने में अगम जल का एक कुआँ था, जिसमें पानी की सतह बमुश्किल बारह या पन्द्रह फुट पर थी। इसमें आलू, करेले और ककड़ी की पैदावार तो देखते ही बनती थी। इस बीस कट्ठा से ही उनका गुजर-बसर हो जाता था। कोई अन्य जिम्मेदारी तो थी नहीं....बस अकेली जान ठहरे। शादी हुई थी....मगर बेगम इन्हें छोड़कर दूसरे के साथ रहने चली गई। कल्याणी का यश इनके ही जीवन में नहीं फला। न गृहस्थी बसी.....न कोई औलाद हुई। दोबारा उन्होंने शादी ही नहीं रचाई.....सारा जीवन ऐसे ही रह गए।

वे कल्याणी को सजाने-सँवारने और रंग-रोगन करने में ही दिन गुजार देते। कल्याणी न रहती तो शायद उनका जीवन बहुत एकाकी, उदास और नीरस होकर रह जाता। कल्याणी थी तो मानो, एक तार थी, जिससे जुड़े रहते थे वे पूरे समाज से। कभी-कभी तो लगता कि उनका वजूद भी कल्याणी के वजूद पर जा टिका है। वे कई बार पाते कि कल्याणी से बोल-बतिया रहे हैं....हँस-गा रहे हैं.....गिला-शिकवा कर रहे हैं। उसके लिए पंद्रह फीट गुणा चार फीट का एक अलग सुरक्षित घर बना हुआ था, जो उनके कमरे से कहीं ज्यादा साफ-सुथरा रहा करता था। वे उस पर हमेशा धूप और दीप जला दिया करते।

कल्याणी को जब कहार अपने कंधे पर उठा ले जाते, तो एक संगीत और इत्र की खुशबू रास्ते में बिखर-बिखर जाती। वह इस तरह घुँघरुओं, झालरों, चूनरों, गद्दों और गाव-तकियों से सजी होती मानो एक दुल्हन किसी दूसरी दुल्हन को अपने अंक में भरने जा रही हो। रास्ते में पड़ने वालों का ध्यान इस तरफ बरबस खिंच जाता। कुछ लोग तो घर के अंदर से ही जान लेते कि बाहर गली से कल्याणी गुजर रही है।

इसके प्रति लोगों की श्रद्धा देखकर छुनन मियाँ भाव-विभोर हो जाते। कभी-कभी तो इलाज के लिए शहर जाते हुए मरीज या नौकरी के इंटरव्यू के लिए जाते हुए बेरोजगार भी इस पर तनिक चढ़कर अपनी यात्रा को शुभ करने लगे थे।

कल्याणी के इस बहूद्देशीय उपयोग को देखते हुए उनका एक हमउम्र और मुँहलगा विरादर बसारत अली सलाह देने लगा था कि इसके एवज में उसे एक शुल्क लोगों से वसूलना चाहिए। लोग खुशी-खुशी दे देंगे। उसकी आर्थिक स्थिति खुशहाल हो जाएगी। बसारत फुसफुसा कर एक और मशविरा भी घुट्टी की तरह उन्हें पिलाया करता था कि पालकी का नाम वह कल्याणी से बदल डाले और उस पर दर्ज चौपाई पुतवाकर कुरान की कोई आयत लिखवा दे। छुनन मियाँ ने इन्हें सरासर एक मूर्ख और नादान प्रलाप की संज्ञा दी। पुरखों से चली आ रही रवायत में कोई तब्दीली लाने का उन्हें क्या हक है ? भावना और श्रद्धा की न कोई कीमत हो सकती है और नाहीं किसी धर्म से इसका कोई सरोकार हो सकता है। चौपाई में जो संदेश है, ध्यान हमारा उस पर जाना चाहिए। इससे किसी खास मजहब की बू अगर बसारत जैसे लोगों को आती है तो निश्चय ही इनकी नाक एक छूत की बीमारी से आक्रांत है। यह पालकी तो तब ही कल्याणी है जब इस पर कोई शक्ल चस्पां नहीं है और यह सबकी जरूरत की चीज है। कल्याणी तो आस्था का एक चंदोवा है गाँव पर तना हुआ,
जिसके नीचे जाति और धर्म की सरहद अपने आप मिट जाती है।

बसारत की हर कोशिशें नाकामयाब हुईं....छुनन मियाँ तनिक विचलित नहीं हुए।

जिला न्यायालय में सुनवाई की तारीखें पड़ने लगीं। देवदार बाबू की दो-तीन बहस सुनने के बाद ही जोवासर को समझ में आ गया कि हर जगह न्याय बिकाऊ नहीं होता और झूठ एवं बेबुनियाद हुज्जत पर आधारित तथ्य की उम्र बहुत लंबी नहीं होती। जाहिर है वह इस अदालत में मुकदमा हारने के लिए मानसिक रूप से तैयार होने लगा। उपाय भी नहीं था, इस बार लगभग तीन हिस्सा गाँव छुनन मियाँ के साथ था। जिसके सामने उसके भाड़े के फर्जी गवाह पासंग के बराबर भी नहीं ठहर सकते थे।

ऐन इसी वक्त जब छुनन मियाँ जीत की तरफ बढ़ रहे थे, मुल्क के हालात ने एक अप्रत्याशित मोड़ ले लिया। अयोध्या में मस्जिद का एक ढाँचा गिरा दिया गया। फिर तो दुनिया के कई देशों में अदावत और प्रतिशोध की भावना से एक-दूसरे के धर्मस्थलों को नेस्तनाबूद करने का बर्बर सिलसिला चल पड़ा। जगह-जगह हत्या-रक्तपात की जघन्य अनियंत्रित वारदातें होने लगीं....सब कुछ निकृष्टतम रूप से अराजक एवं अमानवीय। परस्पर रिश्तों में गुँथे गाँवों के सौहार्दपूर्ण मौसम का मिजाज भी देखते ही देखते बिगड़ गया।

जोवासर जैसे गैरसामाजिक तत्त्व के लिए यह मौका मानो भागते भूत की लंगोटी जैसा हो गया। उसने हिन्दुओं की एक बैठक बुलाई और उन्हें मुसलमानों के काल्पनिक हमले की साजिश से आगाह करते हुए एकजुट होने की जरूरत को प्रमाणित करने लगा। सब पर अपने भड़काऊ वक्तव्य का असर होते देख उसने ऐलान कर दिया कि अगर छुनन मियाँ की जमीन पर उसकी जीत हो गई तो वहाँ वह एक भव्य राम-मंदिर का निर्माण करा देगा। आज की तारीख से भी अगर यहाँ के सभी हिन्दू चाह लें तो उसकी विजय सुनिश्चित हो सकती है।

अब तक धर्मांध होने के संक्रामक किटाणु अधिकांश लोगों की नसों में प्रवेश कर गए थे। जो छुनन मियाँ कल तक आदर, दया और स्नेह के प्रतीक पात्र थे, वे अब नफरत और संशय के आलंबन बन गए थे।

जोवासर विरोधी मोर्चे के लगभग सारे चोट खाए हिन्दुओं के दिमाग पर आश्चर्यजनक रूप से एक सम्मोहन की परत चढ़ गई थी। एक मूला था तथा इसके जैसे दो-तीन और जो इस समस्त घटनाक्रम के पीछे की चालबाजी और जोवासर जैसे लोगों की खुदगर्ज नीयत को साफ-साफ समझ रहे थे, पर उनके क्षीण स्वर नक्कारखाने के शोर में दबा दिये गए थे। यहाँ तक कि इस मुद्दे पर उनकी पत्नियाँ तक साथ देने को तैयार नहीं थीं। उन्हें हैरत थी कि लोग इस राजनीति के मूल अभिप्राय समझकर भी नृशंस और नापाक निर्णय के समर्थक बने हुए थे। मानो, वे कहर बनकर ही धार्मिक हो
सकते थे और पहले जब उदार थे, सहिष्णु थे तो सर्वथा अधार्मिक थे।

अगले ही दिन मोर्चे के कई लोग देवदार बाबू के घर पहुँच गए। मूला और परेमन ने जाने से इंकार कर दिया। जोवासर का दिया घाव अब भी उनके भीतर हरा था। इनके लिए अब भी चना, धान, गेहूँ, आलू और गोभी उपजाना ही सबसे बड़ा धर्म था....इसी में वे अपना कल्याण देखते थे। किसी के मीनार बनने के लिए उसकी नींव में दफन होकर शहीद होने से इन्हें कुछ नहीं मिलने वाला था।

रग्घू ने अपने साथ आई ग्रामीणों की भीड़ का प्रतिनिधित्व करते हुए वकील साहब से गुजारिश की, ''हमलोग कहने आए हैं कि छुनन मियाँ का मुकदमा आप भी हार जाएँ....अब उस जमीन पर एक भव्य राम मंदिर का निर्माण होगा। हमलोग अब इनकी गवाही नहीं देकर जोवासर का समर्थन करेंगे।''

सुनकर देवदार बाबू की आँखें आश्चर्य से फैली रह गयीं। मानो, आसमान नीचे आ गया हो और जमीन ऊपर उठने लगी हो। गाँव की आत्मा, सादगी, सरलता और निश्छलता भी इस तरह संक्रमित हो सकती है, उन्होंने सोचा नहीं था। यही रग्घू कभी छुनन मियाँ की जीत के लिए बेसब्र था। इसी ने तब उद्गार जताया था कि छुनन चचा केस जीत गए तो पूरे जवार को वह अपनी तरफ से भोज कराएगा।

जागो ने भी खुशी में नौटंकी-समारोह कराने का संकल्प लिया था।

आज ये लोग जोवासर की सारी मक्कारी भुला बैठे और उसके मोहरे बन गए। वकील साहब के हृदय में मानो एक नश्तर चुभ गया हो। आवेग और उन्माद से संचालित इस भीड़ को वे कुछ भी नहीं कह पाए, बस तरस खाकर रह गए।

गाँव में मुसलमानों की भी एक मीटिंग हुई, जिसमें आम राय से दो महत्वपूर्ण फैसले लिये गए, जिन्हें छुनन मियाँ तक पहुँचाने का जिम्मा बसारत अली ने उठाया।

बसारत ने यह भाव जताते हुए कि गर्दिश के समय हमीं तुम्हारे अपने हैं, कहना शुरू किया, ''छुनन भाई! बिरादरी के तुम्हारे सभी खैरखवाहों ने यह तय किया है कि तुम जल्दी से जल्दी अपने केस का हिन्दू वकील बदल डालो। वह अब तुम्हें किसी भी तरह जीतने नहीं देगा। चूंकि इस पर अब मंदिर बनने का ऐलान किया जा चुका है।''

छुनन मियाँ को लगा कि बसारत ने उन्हें पकड़कर इस तरह पिचका दिया है कि अब उनका आकार चुटकियों के बीच सिमट आया है। हद हो गई कि गिरगिट से भी पहले आदमी के इरादे और चेहरे बदलने लगे हैं। निचली अदालत में तो उनका वकील फत्ते खां मुसलमान ही था, फिर वे हार क्यों गए ? इस तरह शक-शुब्हा करके क्या दुनियादारी चल सकती
है ? अगर वे बदलना ही चाहें तो क्या-क्या बदलेंगे ? जज भी तो हिन्दू होगा.....मुख्यमंत्री भी तो हिन्दू है.....राष्ट्रपति भी.....प्रधानमंत्री भी.....।

छुनन मियाँ के चेहरे पर असहमति के रंग देखकर बसारत ने अपनी बात आगे बढ़ाई, ''बिरादरी के ज्यादातर नुमाइंदों ने पालकी पर लिखी चौपाई और उसके कल्याणी नाम पर सखत ऐतराज जताया है और कहा है कि यह पालकी अब हिन्दुओं को न दी जाए।''

घृणा से मुँह फैलाकर उन्होंने इस मशविरे को सिरे से अनसुना कर दिया। काटे साँप और क्रोध केचुए पर। कल्याणी तो हर हालत में उसकी सेवा के लिए प्रतिबद्ध है जो जिंदगी को आगे बढ़ाना चाहता है....जो संसार को फैलाना चाहता है। इस मुद्दे पर उनके निजी राग-द्वेष का कोई महत्व नहीं।

जोवासर ने उनकी हमेशा कब्र खोदनी चाही, फिर भी उसके बेटे की शादी का वक्त आया तो उन्होंने कल्याणी को खुद ही उसके घर भिजवा दिया।

अब सुना जा रहा था कि जनमत को अपने पक्ष में देखकर जोवासर इस जमीन पर पुनः अपना हल-बैल उतारने वाला था तथा इसके एक किनारे पर मंदिर के लिए भूमि-पूजन की रस्म पूरी करने जा रहा था। पिछली बार जीत के बाद जब उ
सने हल उतारा था तो रग्घू, मूला, जागो और परेमन के मोर्चे ने खदेड़ डाला था।

मूला ने इन सारी सूचनाओं को देवदार बाबू के पास पहुँचा दिया। उन्हें बड़ी सुखद अनुभूति हुई कि मूला जैसे कुछ सही लोग अब भी हैं जो स्थिति के मर्म को समझकर आचरण कर रहे हैं।

मूला ने जो भी सूचनाएँ दीं सारी की सारी दुर्भाग्यपूर्ण थीं। वकील और जज की जाति भी भेद-भाव का आधार हो सकती है, जानकर उन्हें गहरा धक्का पहुँचा। तो क्या छुनन मियाँ लोगों के दबाव पर सचमुच उन्हें बदल डालेंगे ? अगर ऐसा हुआ तो यह उनके मुँह पर एक तमाचा होगा, फिर वे किसी को क्या मुँह दिखाएँगे! छुनन मियाँ की जीत के लिए उन्होंने साक्ष्य जुटाने में क्या-क्या खाक नहीं छानी हैं! किस-किस के पास इनकी प्रशंसा और संभावित जीत के व्याख्यान इन्होंने नहीं दिये हैं! ये सब वे कोई ऊँची फीस के लोभ में नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व के तहत कर रहे थे। जानते थे कि छुनन मियाँ एक गरीब आदमी हैं, अतः उनसे पैसे लेना एक जुर्म के समान होगा। कल्याणी के लिए उन्होंने भी तो किसी से कोई फीस नहीं ली!

खैर, छुनन मियाँ जो ठीक समझें, करें, पर वे अपने फर्ज से बाज नहीं आएँगे। वे एक प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए थाने पहुँच गए। ताकि जमीन पर कोई अवैध कार्य-व्यापार संपन्न न हो सके। थाने के दरोगा ने उन्हें धीरे से बताया कि जोवासर राय उन्हें पहले ही खबर कर चुका है कि वह इस जमीन पर क्या करने जा रहा है। इसके बाद यह समझाने की भंगिमा बनाकर उन्हें कहने लगा, ''जोवासर जो करता है, करने दीजिए। मंदिर ही तो बना रहा है....यह कोई क्राइम तो
नहीं है। आप एक मुसलमान हित के लिए क्यों इतना हैरान-परेशान हैं?''

देवदार बाबू सन्न रह गए, कानून और न्याय का पहरुआ होकर कैसी एकतरफा बातें कर रहा है। ऐसे ही बीमार मानसिकता वाले पक्षपाती अधिकारी देश की अक्षुण्णता पर संकट खड़े कर रहे हैं। उन्होंने उस दरोगा को भरपूर आड़े हाथों लिया और इस गलीज हरकत की ऊपर शिकायत करने की चेतावनी दी।

जब अगली सुनवाई की तारीख आई तो वकील साहब सबेरे से ही छुनन मियाँ का इंतजार करने लगे। दस बजते-बजते वे हाजिर हो गए तो उनकी मानो बाँछे खिल गई। लगा कि आशंका की उमस से मुरझा रहा उनके भीतर का एक पेड़ भरोसे की संजीवनी पाकर हरा-भरा हो गया। उन्होंने फिर उनकी सर्द-नर्म और झुर्रीदार हथेलियों को अपने उत्साहित हाथों में भर लिया, ''मैं आज भी उस संकल्प पर कायम हूँ चचा। आपका दुख मेरा दुख है। जोवासर को धूल चटाने में मैं कोई कोर-कसर नहीं उठा रखूँगा।''

छुनन मियाँ ने महसूस किया कि इस आत्मीय संवाद ने उनकी आयु कम से कम दो वर्ष बढ़ा दी है और साँस लेने के लिए हवा में अब भी पर्याप्त शुद्ध ऑक्सीजन मौजूद है।

देवदार ने आज सारे प्रमाण अदालत के सामने प्रस्तुत कर दिये। गवाह के रूप में मूला और परेमन जैसे कुछ लोग अब भी उनके साथ सक्रिय थे।

अदालत में उपस्थित जोवासर तथा मोर्चे के अन्य संक्रमित लोग मुँहबाए देख रहे थे सब कुछ। वे शायद यही उम्मीद लेकर आए थे कि देवदार बाबू आज बहुत ढीले और बदले रूप में सामने आएँगे। परन्तु उन्होंने अपनी जिरह को एक मुकाम देते हुए बताया कि अगर अदालत छुनन मियाँ के कब्जे की जमीन पर जोवासर राय का हक बहाल करना चाहती है तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। छुनन मियाँ की जो जमीन जोवासर के जिम्मे है, उस पर रिहायशी मकान बने हुए हैं, उन्हें छुनन मियाँ को सुपुर्द कर दिया जाए।''

जोवासर ने अब ताड़ लिया था कि फैसला क्या होने वाला है। उसके वकील की घिग्घी बँध गई थी।

जज ने अगली तारीख को फैसला सुनाने की घोषणा कर दी।

फैसले के दिन सवेरे-सवेरे ही डिस्ट्रिक-कोर्ट जाने के लिए छुनन मियाँ घर से निकल पड़े। जानते थे आज विजय का सेहरा लेकर ही लौटना है। ऐसा हुआ भी। निर्णय उनके पक्ष में गया। स्वर्णगर्भा पर उनके ही कब्जे को वैध करार दिया गया।

दिल ढलने के पूर्व जब निर्णय की कॉपी लेकर वे गाँव पहुँचे तो अपने घर के सामने एक विचित्र दृश्य उपस्थित पाया। कल्याणी बाहर निकली पड़ी थी। उन्हें आते देख मोर्चे एवं जोवासर के आदमी उस पर किरासन तेल छिड़कने लगे, जैसे उनके आने का इंतजार कर रहे हों। इनका मकसद समझकर वे हाथ-पैर जोड़ने लगे...अनुनय-विनय करने लगे। फिर भी
इसकी बिना परवाह किये कई माचिस की सुलगी तिलियाँ एक साथ उससे छुआ दी गयीं।

''बचाओ....दौड़ो कल्याणी की रक्षा करो....।'' मानो जिंदा जलाई जा रही अपनी बेटी को बचाने की गुहार मचाने लगे छुनन मियाँ।

आस-पास बहुत सारे लोग खड़े थे....पर मदद के लिए कोई नहीं आ रहा था। भीड़ से एक-दो परछाई जो शायद मूला और परेमन रहे होंगे, आने के लिए जोर आजमाइश करते प्रतीत हो रहे थे, मगर मोर्चे वाले उन्हें सख्ती से रोके हुए थे। उन्हें याद आ गया कि कभी इसी कल्याणी के लिए पड़ोस के गाँव से महाभारत होने की नौबत आ गई थी। छुनन मियाँ अकेले ही बाल्टी से पानी लाकर कल्याणी पर उलीचने लगे।

कुआँ कुछ दूर था और वे बहुत फुर्ती बरतने में समर्थ नहीं थे। दो-चार बाल्टी ही दे पाए, जिनसे लपटों पर कोई असर न हुआ और कल्याणी जलकर राख हो गई। इतने लोगों की लगाई आग एक कृशकाय बूढ़े से बुझ भी कैसे सकती थी। जलते-जलते ही उन्होंने देखा कि मानस की चौपाई को पोतकर उसकी जगह अरबी में कुरान की एक आयत लिख दी गई है और जहाँ कल्याणी लिखा था वहाँ 'माहेजबीं' अंकित कर दिया गया है। कल्याणी पर कहर ढाने का राज उन्हें मालूम हो गया। हिन्दुओं को यह परिवर्तन एक ज्यादती की तरह नागवार लगा और वे भावनात्मक रूप से भड़क गए। उन्हें समझ
में नहीं आ रहा था कि इसमें बेचारी कल्याणी कहाँ गुनहगार है ?

यह कैसी विडंबना थी कि ''परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई'' का मर्म उसने तो खैर नहीं समझना चाहा जिसके धर्मग्रंथ की ये पंक्तियाँ नहीं थीं, पर वह भी नहीं समझ पाया जिसके आराध्य-ग्रंथ की ये पंक्तियाँ थीं।

छुनन मियाँ फफक-फफक कर रो पड़े थे। कल्याणी के रूप में जो धरोहर जली थी वह महज एक पालकी नहीं थी। वह साक्षात एक परंपरा, श्रद्धा, आस्था, अनुशासन, सगुन और किंवदंती की प्रतिमूर्ति थी....बिंब थी....जो अब तबाह हो चुकी थी। वे आज अदालत से जीतकर भी मानो हार गए थे। पूरे जीवनकाल में इतना असहाय, असुरक्षित और अभागा उन्होंने खुद को कभी महसूस नहीं किया था।

छुनन मियाँ के आँसू अब रुक नहीं सकेंगे....बहते रहेंगे युगों-युगों तक....। वे मर जाएँगे तब भी उनकी सिसकियाँ सुनी जाएँगी गाँव की फिजां में।

पृष्ठ : . .

१४ जनवरी २०१३

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।