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					 "बाबा, मैं तो खुद ही... कोई नारी निकेतन..." मैं कुछ कह नहीं 
					पाई। 
 तो हमारा पहला संवाद ही बेटी और बाबा के संबोधन से हुआ और इस 
					रिश्ते ने सारे परिचय-अपरिचय, शक-भरोसा, धोखे और मदद के ऊपर 
					अपनी जड़ें गहरा लीं। शायद ऐसा ही होना था, इसलिए घटनाओं का 
					क्रम हमें लगातार जोड़ता चला गया, वरना, हमने तय तो यह किया था 
					कि किसी तरह यह रात बीते तो अगली सुबह मेरे लिए कोई नारी 
					निकेतन और उनके लिए वृद्धाश्रम ढूँढा जाएगा।
 
 वह रात भी अजीब रात थी। धर्मशाला में पड़े-पड़े, मैं अपनी पिछली 
					ज़िन्दगी की कहानी दोहराती रही। दोहराती रही कि किस तरह मैं 
					नीलाभ की मुहब्बत में दीवानी, उसके साथ घर से भाग आई थी। उसके 
					रिश्तेदारों को भनक लग गई थी कि वह एक मुस्लिम लड़की से इश्क 
					करने लगा है। आखिर उसने तय किया कि हम यहाँ से भागकर कहीं 
					दूसरे शहर चले जाएँगे।
 
 “शादी के बाद तो वैसे ही मेरा मजहब बदल जाएगा, क्या फिर भी 
					तुम्हारे घर वालों को एतराज होगा? मैं खुशी से हिंदू धर्म कबूल 
					कर लूँगी ...” घर से भागने की बात पर मैं डर गई थी।
 "मैं ऐसा कोई मजहब नहीं मानता जिसे कुछ शर्तों या कायदों के 
					बूते कबूल या नाकबूल किया जाता हो," उसने मुझे बीच में ही रोक 
					दिया था, "मजहब और मुहब्बत दो अलग बातें नहीं हैं, लिहाजा एक 
					को दूसरे पर कुर्बान करने का कोई मतलब नहीं।"
 
 हालाँकि, मेरे घर के लोग भी कुछ कम कट्टर नहीं थे, फिर भी, 
					मेरी इच्छा थी कि मैं एक बार अपने घरवालों को राज़ी करने की 
					कोशिश करती। मगर नीलाभ के पिता पंचायत के मुखिया थे। नीलाभ 
					जानता था कि वे इस संबंध के लिए कभी राज़ी नहीं होंगे। उसने 
					बताया था कि उसके पिता के पास कोई ऐसा ही मामला आया था जहाँ 
					गाँव में किसी के बेटे ने किसी दूसरी जात की लड़की से ब्याह कर 
					लिया था, तो उसके पिता ने उस लड़के को मृत्यु दंड का आदेश 
					सुनाया था, “लड़की दूसरे की है, उससे हमारा कोई मतलब नहीं, मगर 
					लड़का हमारा है और उसने अपराध किया है। हमारे क़ानून के मुताबिक 
					वह दोषी है और उसके लिए हमारी संहिता में मृत्यु दंड निश्चित 
					है।” इस घटना को सुनकर मैं दहशत से भर उठी थी। घबरा कर मैंने 
					अपने गले में पहना ताबीज नीलाभ के गले में डाल दिया था, “इसे 
					कभी मत उतारना, यह हमेशा तुम्हारी हिफाजत करेगा।”
 
 हमने कोर्ट मैरिज के लिए अर्जी दाखिल कर दी थी। डेढ़ महीने बाद 
					की तारीख मिली थी। हमने बेहद खामोशी के साथ यह वक्त गुजारा था। 
					इस बीच मिलना-जुलना भी नहीं के बराबर रखा था। किसी को भनक नहीं 
					लगने दी थी। खरीदे हुए गवाहों ने हमारी शादी करवाई और हम 
					दिल्ली छोड़ कर राजस्थान के एक छोटे से गाँव में आ गए। वे कितने 
					बेहतरीन दिन थे। उन दो महीनों में ही ज़िन्दगी की सारी खुशियाँ 
					मुझे मिल गई थीं। मगर एक सुबह जब दूध वाले की आहट पर मैंने 
					दरवाजा खोला तो मेरे समझने - बूझने से पहले ही दो नौजवान मुझे 
					धकेलते हुए भीतर दाखिल हो गए और संभलने का मौका दिए बगैर नीलाभ 
					की पीठ में छुरा घोंपकर भाग गए। "खुद को संभालना मेरी बन्नो," 
					नीलाभ के अंतिम अल्फाज थे और उसका शरीर निढाल पड़ गया…
 
 मैं चीख के साथ जग गई। बाबा हड़बड़ाकर मेरे पास आए, "क्या हुआ 
					बेटी, कोई बुरा सपना देखा क्या?" उन्होंने मेरी पेशानी पर हाथ 
					धरा तो चौंक गए, "अरे, तुम्हें तो तेज बुखार है, मैं कोई 
					डॉक्टर बुलाता हूँ।" वे बाहर चले गए। दिन निकल चुका था। वे 
					पूरे दिन मेरे सर पर ठंडी पट्टियाँ रखते रहे, दवाइयाँ खिलाते 
					रहे। शायद दो दिन बाद मेरा बुखार काबू में आया था। मैं भी तब 
					तक थोड़ा संभल गई थी। कौन हैं आप? हम कहाँ मिले? मैं यहाँ कैसे 
					आ गयी? ऐसे कई सवाल मैं बड़बड़ा रही थी, जिसके जवाब में 
					उन्होंने इतना ही कहा था, "अगर तुम मेरे बारे में ज़ाती सवाल न 
					करो, तो तुम्हें नारी निकेतन और मुझे वृद्धाश्रम ढूँढने की 
					जरूरत नहीं है, हम ऐसे ही साथ रह सकते हैं, जैसे पिछले दो रोज 
					से रह रहे हैं। तुम मुझे बाबा कह सकती हो, बेटी!" उन्होंने कहा 
					तो मैं फूट-फूटकर रो पड़ी।
 
 एक जरूरत के नाते हम एक-दूसरे से जुड़ गए थे। सच कहा जाए तो 
					जरूरत ही इन्सान का सबसे बड़ा और एक मात्र धर्म है। इसमें 
					सिवाय इसके और कोई शर्त नहीं होती कि दोनों को एक-दूसरे की 
					जरूरत हो। जरूरत से हम एक दूसरे की पसंद-नापसंद का ख्याल रखते 
					हैं, एक दूसरे की परवाह करते हैं। यानी, जरूरत हमें आपस में 
					जोड़े रखती है और किसी धर्म की सबसे पहली शर्त होती है समाज को 
					जोड़े रखने की।
 
 गर्मी बहुत तेज पड़ रही थी। ऐसे में कुछ काम करने का मन नहीं 
					करता था। बाबा के पास जो पैसे थे, उसी के सहारे हमने एक 
					छोटा-सा मकान किराए पर ले लिया था। मुझे सदमे से बाहर आने में 
					काफी वक्त लग गया। आँखों के सामने जो कुछ घटते देखा था, वह 
					भीतरी परत में कैद हो गया था और मैं रह-रह कर नींद में चीख 
					पड़ती। बाबा जाग-जागकर मेरी सेवा-टहल करते। पता नहीं किस मकसद 
					से, पर उन्होंने मेरे लिए बहुत किया। वे जानते थे कि मेरे साथ 
					कुछ बहुत बुरा घटा है। वे यह भी जानते थे कि किसी लड़की के साथ 
					बुरे से बुरा क्या घट सकता है, फिर भी, उन्हें भरोसा था कि 
					वक्त गहरे से गहरा जख्म भर देता है। तो बस, वक्त के सहारे दिन 
					बीत रहे थे, धीरे-धीरे जख्म पर खुरंट पड़ रही थी। हालत थोड़ी 
					सँभली तो मुझे एहसास हुआ कि एक बूढ़ा अजनबी किस कदर मेरी 
					हिफाजत कर रहा था। उसके पैसे खत्म हो रहे थे, उसने शायद कहीं 
					कोई काम शुरू कर दिया था। बहुत सवेरे ही वह कुछ खाने का सामान 
					लाकर रख देता और फिर शाम लौटता तो रात के खाने की तैयारी के 
					साथ। धीरे-धीरे जान लौट रही थी। जब शरीर कुछ स्वस्थ हुआ तब लगा 
					कि अब दूध-अंडा और नहीं खाया जा सकता, न ही ब्रेड-टोस्ट। 
					धीरे-धीरे मैं घर के काम सँभालने लगी। बाबा के प्रति मेरे मन 
					की श्रद्धा ने मुझे फिर से खड़ा किया। मैं बाबा की खातिर और 
					बाबा मेरी खातिर जीने लगे।
 
 बाबा बहुत कम बोलते थे, मगर खामोशी की भी अपनी जबान होती है। 
					खामोशी के उसी दौर में मैंने जाना कि नीलाभ के प्यार की एक 
					बूँद मेरे भीतर समंदर की शक्ल अख्तियार कर रही थी। उसका अथाह 
					प्यार मेरे भीतर हिलोरें ले रहा था। मैं महसूस कर रही थी कि वे 
					लोग नीलाभ को खत्म कर के भी खत्म नहीं कर पाए थे। उसकी वंश 
					बेल तो मेरे भीतर पनप रही थी। मैंने मन-ही-मन खुदा का शुक्रिया 
					अदा किया, बच्चे के स्वास्थ्य और लम्बी उम्र की दुआ की, 
					बिस्मिल्लाह उर-रहमान रहीम... मेरे होंठ बुदबुदा रहे थे, मुँदी 
					आँखें पूरी शिद्दत से दुआ कर रही थीं -- मेरी औलाद को हर बला 
					से से दूर रखना इलाही, जिसका कोई नहीं होता, उसका तू ही तो 
					होता है सच्चे पाशा...अपनी रहम रखना...ये खुदा का बंदा होगा, 
					तेरी सच्ची बंदगी करेगा, पाँचों वक्त की नमाज पढ़ेगा, तेरी रहमत 
					के गीत गाएगा...इसे बुरी नजर से बचाकर रखना खुदाया...”
 
 “ये क्या कह रही है, हिंदू बच्चे से नमाज पढ़वाएगी, उससे बंदगी 
					करवाएगी...उसे मुस्लिम बनाएगी...?” अचानक जैसे किसी ने आगाह 
					किया। कौन था यह, किसकी आवाज थी ये कि मेरी सोच को जबरदस्त 
					झटका लगा और सारी खुशियाँ काफूर हो गईं।
 
 नीलाभ से ब्याह के बाद मेरा धर्म भी हिंदू होना चाहिये था और 
					इस बच्चे का भी... अगर नीलाभ होता तो वह इसे पूजा-वंदना करना 
					सिखाता... मैं सोच में पड़ गयी। मगर नीलाभ मजहब और मुहब्बत में 
					फर्क नहीं करता था। “तुम डरती बहुत हो सबा,” एक बार नीलाभ ने 
					मुझे समझाया था, “हनुमान चालीसा पढ़ा करो, कोई तुम्हारा बाल भी 
					बाँका नहीं कर सकेगा।” उसने बताया था कि जब उसका छोटा भाई पैदा 
					हुआ था तब उसकी दादी उसके कान में कुछ बुदबुदाया करती थी।
 
 "दादी, आप क्या बताते हो भाई को कान में?" नीलाभ ने पूछा था।
 "गायत्री मंत्र पढ़ती हूँ बिट्टो।"
 "भाई के समझ आता है गाय का मंत्र?” नीलाभ ने बताया था कि तब वह 
					कोई दस वर्ष का था और यह भी कि तब दादी ने उसे स्पष्ट उच्चारण 
					के साथ इस मंत्र की अपार महिमा बताकर कहा था कि नवजात शिशु के 
					कान में रोज इस मंत्र को पढ़ना चाहिए। इससे बच्चे पर ईश्वर का 
					रक्षा-कवच चढ़ जाता है। कोई बुरी नजर, कोई बददुआ उसके पास भी 
					नहीं फटकती। नीलाभ ये बताते हुए कितनी देर तक हँसता रहा था कि 
					वह दादी के पीछे पड़ गया था कि वह उसे भी गायत्री मंत्र सिखाए, 
					वरना उसके बच्चे को बुरी नजर से कौन बचाएगा? दादी ने वायदा 
					किया था कि वह पढ़ेगी, उसके बच्चे के लिये भी पढ़ेगी।
 
 मन सोच में पड़ गया। आज नीलाभ के बच्चे के लिए दादी के गायत्री 
					मंत्र का वादा मुझे ही पूरा करना है। ऊँ भुर्भुवः स्वः ...मेरे 
					होंठ बुदबुदाने लगे। सच है, मुहब्बत जात-मजहब के फर्क को नहीं 
					मानती। मुझे डर से बाहर निकालने के लिए नीलाभ ने उस रोज मेरी 
					कॉपी में हनुमान चालीसा भी लिख दी थी और गायत्री मंत्र भी। मैं 
					रोज अलसुबह इसका धीरे-धीरे पाठ कर लिया करती थी। सोचती हूँ, कई 
					बार सब कुछ कैसे पूर्व नियोजित-सा होता है, जैसे उसकी रजा के 
					बिना पत्ता तक नहीं हिलता। शायद ये उसी का हुकुम था कि मैंने 
					शुद्ध उच्चारण के साथ इस मंत्र को याद कर लिया था। उस वक्त याद 
					किया गायत्री मन्त्र आज दोहराने लगी तो सोचा, मैं इसे गायत्री 
					मन्त्र भी सिखाउंगी और कुरान की आयतें भी।
 
 एक रोज बाबा टेबल पर उँगलियाँ थपका रहे थे। मैं खाना बनाकर 
					टेबल पर रख आई थी, मगर उन्होंने शायद देखा नहीं। उँगलियाँ 
					पटापट बज रही थीं, टेबल का तबला बन चुका था। "बाबा, आप तबला 
					बजाना जानते हैं न?" मैं पूछना चाहती थी, मगर हम एक-दूसरे के 
					बारे में कोई ज़ाती सवाल नहीं करेंगे, यह हमारे अनुबंध की शर्त 
					थी। लिहाजा, एक तरह की अजनबियत जब न तब आकर कब्जा जमा लेती और 
					मैं खामोश रह जाती। मगर उँगलियों की जबान उनके भीतर की बेचैनी 
					को साफ़ जाहिर कर रही थी।
 "बाबा...!" मैंने थाली में दूसरा फुल्का रखते हुए आवाज लगाई।
 "हूँ..." बाबा की तन्द्रा भंग हुई।
 "मैं समझता हूँ, तुम्हें किसी अस्पताल में रजिस्ट्रेशन करा 
					लेना चाहिए," रोटी का कौर मुँह में डालते हुए उन्होंने कहा। 
					बाबा को मुझसे कुछ भी कहने, बताने में कोई दुविधा नहीं होती, 
					"सामने वाला जयप्रकाश अस्पताल ठीक रहेगा, यह बड़ा भी है और 
					नजदीक भी।" उन्होंने लगभग तय कर दिया। मुझे अच्छा लगा।
 
 उस रोज आधी रात के करीब नींद खुल गई। बाहर बरामदे में 
					फोल्डिंग चारपाई पर बाबा सो रहे थे। हल्की-सी ठण्ड पड़ने लगी 
					थी। मैंने बाहर आकर उनके पैरों पर चादर ओढ़ा दी। मैंने महसूस 
					किया कि उनके चेहरे पर मेरी अम्मी जैसा भाव था -- ममता से भरा। 
					चादर की गर्माइश मिलते ही उन्होंने पैरों को सीधा कर लिया और 
					ठीक से सो गए। मैंने पाया, हमारे बीच का अपरिचय, खामोशी की जबान में ही दूर होता जा रहा था...
 
 आज बैठकर हिसाब लगाती हूँ कि हमें एक-दूसरे के सहारे रहते छः 
					महीने बीत चुके हैं, हिसाब लगाती हूँ कि दोनों एक-दूसरे के लिए 
					कितने जरूरी हैं, हिसाब लगाती हूँ कि अभी भी दुनिया में 
					इनसानियत बाकी है और अभी भी दुनिया जीने के लायक है। सोचती हूँ 
					कि जब 'यह' बड़ा हो जाएगा तब इसे बताऊँगी कि दुनिया में कुछ 
					ऐसे भी लोग हैं जो निस्स्वार्थ भाव से इंसानियत की हिफाजत कर 
					रहे हैं और कि दुनिया इन्हीं कुछ लोगों के सहारे चल रही है।
 
 यह आगंतुक हमारे बीच एक प्यारी-सी धुन बनकर गूँजने लगा, ऐसा 
					लगा जैसे जलतरंग-सा बजने लगा हो, हम दोनों को जीने का मकसद मिल 
					गया हो। बाबा धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाते रहते और मैं सतरंगे 
					ख्वाब बुनती रहती। मौसम में ठण्ड की खुनक महसूस होने लगी थी। 
					दोपहर की धूप अब भली लगने लगी थी, ऐसे वक्त में मुझे अम्मी की 
					बहुत याद आती। मगर वो सब रिश्ते-नाते बीती ज़िन्दगी का हिस्सा 
					बन चुके थे।
 
 सातवाँ महीना चल रहा था। नीलाभ ने बताया था कि उनके यहाँ 
					सातवें माह में गोदभराई की रस्म होती है। गली-मोहल्ले में मीठे 
					पारे बाँटे जाते हैं, ढोलकी धुनकती है, गीत गाए जाते हैं। 
					गाँव-घर की बड़ी-बूढ़ियाँ नजर उतारती हैं... छोटे भाई-बहन, 
					ननद-देवर चुहल करते हैं। चुलबुली छेड़छाड़ और मीठी झिड़कियों के 
					लिए मन तरस उठा। नीलाभ के घर वाले अगर मुझे कबूल कर लेते तो 
					मेरे हिस्से भी ये खुशियाँ आतीं। कभी एक गीत सुना था, आज जाने 
					कहाँ से कानों में गूँजने लगा -- सीता खड़ी पछताय, लव-कुश वन 
					में हुए, जो घर होते ससुर राजा दशरथ, अयोध्या देते लुटाय, 
					लव-कुश वन में हुए। मन बड़ा उदास हो गया। काश! अम्मी मेरे साथ 
					इस खुशी में शरीक होतीं तो वे जरूर इसकी हिफाजत के लिए 
					मनौतियाँ माँगतीं, गंडे-ताबीज बँधवातीं, बलाएँ लेतीं।
 
 मैंने अपने गले में पहने ताबीज को टटोला, मेरे भीतर इतमीनान हो 
					आया। यह वही ताबीज था जिसे मैंने नीलाभ की हिफाजत के लिए उसे 
					पहना दिया था। मुझे इसकी ताकत पर पूरा यकीन था। पर जिस वक्त 
					नीलाभ पर हमला किया गया, यह ताबीज उसके गले में नहीं था। जाने 
					कैसे खुल कर गिर गया था। बाद में बिस्तर पर मिला। आँखों में वे 
					सभी तस्वीरें फिर से ताजा हो गयीं -- दूधवाले की दस्तक समझ 
					दरवाजा खोलना, दो लड़कों का आकर नीलाभ को छुरा घोंपना और...खुद 
					को संभालना मेरी बन्नो, कहकर नीलाभ का निढाल हो जाना...
 
 मन पर गहरा आघात लगा था। पुराने जख्म जैसे फिर से हरे हो गए 
					थे। मैं होश में आकर भी फिर बेहोश हो जाती। डॉक्टर ने कई तरह 
					की हिदायतें दे डाली थीं। बाबा मेरा ख्याल रख रहे होंगे, ऐसा 
					मैं जानती थी। शायद इसीलिए बार-बार बीमार भी पड़ जाती थी। जब आप 
					जानते हैं कि कोई आँसू पोंछने वाला है, तभी रोया जाता है। बाबा 
					फिर अंडा-टोस्ट बनाने लगे थे। आठवाँ महीना लग गया था, किसी तरह 
					यह महीना और बीत जाता तो बेहतर था, वरना आठवें माह के बच्चे को 
					लेकर मन में कई तरह के वहम थे। रात-दिन ईश्वर से प्रार्थना 
					करती, खुदा के दरबार में अर्ज़ी लगाती कि यह बच्चा सुरक्षित 
					रहना चाहिए। मेरे भीतर काफी कमजोरी आ गई थी। रह-रहकर महसूस 
					करती जैसे भीतर हलचल शांत हो गई हो। बाबा दौड़कर डॉक्टर को 
					बुलाते, कभी सहारा देकर मुझे अस्पताल ले जाते।
 
 "इनके मन पर किसी तरह का बोझ नहीं पड़ना चाहिए, इन्हें खुश 
					रखें," डॉक्टर कहती और ग्लूकोज की ड्रिप लगाकर चली जाती। बाबा 
					मुझे तरह-तरह की हरकतों से हँसाने की कोशिश करते, "देखो तो 
					भला, इसने मेरी बनियान तक भिगो दी, लो संभालो इसे," कहकर 
					उन्होंने दोनों हाथ यों संभालकर आगे बढ़ाए, जैसे सच में वे कोई 
					बच्चा थामे हों। मैंने अचकचाकर अपने पेट की तरफ देखा, अभी तो 
					यह भीतर ही था। मेरे चौंक पड़ने पर बाबा हँसने लगे। तब समझ आया 
					कि वे मजाक कर रहे थे।
 
 मैं धीरे-धीरे सहज होने लगी।
 "अच्छा बाबा, इसका कोई नाम तो सुझाओ न।" मैं मचल पड़ी, "इबादत 
					कैसा रहेगा, या फिर वेदांत...?"
 
 “नाम रख रही हो या धर्म का प्रचार कर रही हो?” बाबा ने बीच में 
					ही रोक दिया, “हम तो इसका नाम रखेंगे – एका,” वे अपनी रौ में 
					बोलते जा रहे थे, “एक, दो, तीन... गिनती का धर्म दुनिया के हर 
					कोने में चलता है, हर व्यवस्था में इसकी जरूरत होती है... इससे 
					किसी को परहेज नहीं...” मेरा मन डूबता जा रहा था, यानी बाबा 
					धर्म-मजहब के विरोधी हैं। जब इन्हें पता चलेगा कि ये बच्चा दो 
					धर्मों की संतान है, तब क्या वे इस बच्चे को नकार देंगे? हो 
					सकता है, वे उसे गोद में भी न उठाएँ। हो सकता है, तब वे इसके 
					वजूद को भी नकार दें।” मैं फिर डिप्रेशन में चली गयी... फिर 
					वही बेहोशी, फिर वही लाचारी... वे डॉक्टर को घर बुला लाए थे।
 
 “इन्हें कोई गहरा सदमा लगा है,” डॉक्टर कुछ कड़ाई से कह रही 
					थी, “मैंने पहले भी कहा था कि इन्हें दिमाग पर जोर न डालने 
					दें।” इंजेक्शन तैयार करते हुए उसने बाबा को रातभर मुझपर कड़ी 
					नजर रखने कहा और हिदायत दी कि ग्लूकोज की बोतल खत्म होने पर, 
					वे उसके बटन को ऊपर खिसका कर बंद कर दें वरना खून आने लगेगा।
 
 डॉक्टर चली गई। बाबा की उँगलियाँ टेबल पर मद्धिम-मद्धिम थाप दे 
					रही थीं। बाबा परेशान हैं, मैं समझ रही थी... मगर मैं कुछ नहीं 
					कर सकती थी, मेरी आँखें मुँदती जा रही थीं... पता नहीं, कितना 
					वक्त बीता होगा। नींद खुली तो देखा -- बाबा आँखें मूँद कर, हाथ 
					जोड़े प्रार्थना कर रहे हैं। हैरानी से आँखें चौड़ी हो गईं। 
					मैंने देखा -- प्रार्थना कर चुकने के बाद उन्होंने ग्लूकोज की 
					बोतल पर निगाह डाली। मैंने जल्दी से आँखें मूँद लीं। थोड़ी देर 
					बाद, फिर हौले-से आँखें खोलीं तो हैरान रह गई। इस बार, बाबा के 
					हाथ दुआ में उठे थे। यह क्या बात हुई, धर्म के नाम की खिलाफ़त 
					करने वाला यह व्यक्ति कभी पूजा कर रहा है, तो कभी दुआ... कैसे? 
					क्यों? क्या सचमुच मेरा वजूद, मेरे बच्चे का वजूद मजहबी एहसास 
					से ऊपर था, या फिर इस अनजान शख्स ने बेसहारा होकर खुद को उसके 
					हर रूप में समर्पित कर दिया था? सोते- जागते रात बीत गई। सवेरे 
					हल्के दर्द से आँख खुली। मैंने सारी तैयारी पहले ही कर रखी थी। 
					बाबा सामान उठकर चल पड़े। अस्पताल नजदीक ही था। फिर भी, रिक्शा 
					कर लिया। लेबर रूम में जाने से पहले, मैंने बाबा को सारे सामान 
					की जानकारी दे दी और डॉक्टर की पर्चियाँ वगैरह भी थमा दीं।
 
 नहीं जानती, पीछे क्या हुआ, मगर कुछ हुआ जरूर, क्योंकि स्वस्थ 
					बच्चे को जन्म देने के बाद भी बाबा न तो उसे देखने आये, न ही 
					मेरा हाल जानने। उनकी रातभर की बेचैनी आँखों में घूम गई। हो 
					सकता है, थक कर सो रहे हों। मन किसी तरह की आशंका नहीं पालना 
					चाहता था। मगर नर्स ने पूरे भरोसे के साथ बताया कि बच्चे के 
					पैदा होने की खबर सुनने के बाद वे वहाँ से गए हैं। मन में 
					उथल-पुथल होने लगी, "कुछ कह कर नहीं गए?" मेरे पूछने पर ही उसे 
					ध्यान आया कि जाते हुए वे एक पत्र मेरे नाम दे गए हैं। नर्स वह 
					पत्र मुझे थमा कर चली गई। मेरा दिल बैठा जा रहा था। मैं समझ 
					रही थी कि पत्र लिखने का मतलब है -- विदा। मुझे पहले से ही इस 
					बात का अंदेशा था। मैं जानती थी कि जैसे ही उन्हें इस बच्चे की 
					असलियत का पता चलेगा, वे हमें छोड़कर चल देंगे। तो क्या अलग-अलग 
					मजहब का होना गुनाह है? और अगर है भी, तो इसमें इस मासूम का 
					क्या कसूर है?
 
 मैंने पालने में सो रहे बच्चे की तरफ़ देखा -- गुलाबी रंग की 
					झबिया में लिपटा वह किसी फूल की मानिंद दिखाई दे रहा था। कोई 
					धर्म के इन ठेकेदारों से पूछे कि फूल की कौन सी जात होती है? 
					उसका क्या धर्म होता है? इसकी खुशबू भी कभी हिंदू या मुसलमान 
					हुई है? मेरे भीतर एक सैलाब-सा उमड़ रहा था। बाबा का खत मेरे 
					हाथ में था, मगर पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। किसी भी 
					सूरत में मैं उनसे अलग होकर रहने का तसव्वुर नहीं कर सकती थी। 
					बड़ी-बड़ी मुसीबतों में वे मेरे साथ रहे थे, अब तो छोटी-छोटी 
					मासूम खुशियों के दिन थे... और फिर ये कौन-सा तरीका हुआ कि 
					अपना तो फैसला थमा दिया मगर मेरी सुनवाई के लिए कोई हाशिया भी 
					न छोड़ा? मैं इन्हें अपने बारे में सब कुछ बताती, मगर कैसे? 
					उन्होंने खुद ही तो बंदिश लगाई थी कि हम एक-दूसरे के बारे में 
					जाती सवाल नहीं करेंगे।
 
 खैर, मैंने खत पढ़ना शुरू किया तो बात यहीं से शुरू होती थी, 
					"एक-दूसरे के बारे में न जानने की शर्त को मैं खुद ही तोड़ता 
					हूँ और तुम्हें विस्तार से अपनी कहानी सुनाता हूँ -- तो बात 
					सिर्फ इतनी-सी थी कि मेरा बेटा आज के जमाने का लड़का था, जबकि 
					मैं कट्टर धार्मिक। वह गैर धर्म की लड़की को हमसफ़र बना बैठा। यह 
					रिश्ता मेरे लिए एक ऐसी हार थी जिससे मेरा धर्म, मेरे आदर्श 
					सभी परास्त हो गए। मेरा बेटा, मेरा वंश मेरे खिलाफ़ कैसे जा 
					सकता है… मुझ पर पागलपन सवार हो गया और उसी पागलपन में मैंने 
					'पुत्रवध' का आदेश सुना डाला। मैं अपनी खाप पंचायत का मुखिया 
					था। अब से पहले ऐसे कितने ही फैसले मैंने औरों के लिए सुनाये 
					थे, मगर जब अपने पर बीती, उसकी तकलीफ का एहसास तब जा कर हुआ। 
					कुछ वक़्त बाद जब मुझे अपने कट्टरपन का एहसास हुआ तब मैं उस 
					धर्म को मानने को तैयार नहीं था जो किसी व्यक्ति से उसके जीने 
					का हक छीन सकता हो। मैंने महसूस किया कि अपराध कितना ही बड़ा 
					क्यों न हो, हम प्रकृति के नियमों को अपने हाथ में नहीं ले 
					सकते। इस लिहाज से तो मैं अपराधी था, हत्यारा था, अपने ही बेटे 
					का हत्यारा। दंड तो मुझे दिया जाना चाहिए था।
 
 मेरा जीवन निरर्थक हो गया था। मैं जीना नहीं चाहता था, मगर 
					स्वीकार कर चुका था कि जीवन-मृत्यु का निर्णय मेरे अधिकार में 
					नहीं है। विक्षिप्त-सी अवस्था में मैं घरबार छोड़कर चल दिया। 
					नहीं जानता था कि कहाँ जाऊँगा, क्या करूँगा, मगर ऊपरवाले के 
					अनकहे फैसले को सुनने की कोशिश में भटकता-भटकता उसी पार्क में 
					जा पहुँचा जहाँ तुम्हें बहुत तकलीफदेह स्थिति में देखा। तुम 
					अपने होशोहवास में नहीं थी, ऐसी हालत में तुम पर किसी भी तरह 
					की मुसीबत आ सकती थी। मेरी अंतरात्मा ने मुझे आदेश दिया कि मैं 
					तुम्हें किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दूँ। मगर ऐसा हो नहीं 
					पाया, तुम्हारी हालत बहुत नाज़ुक थी। ऐसे में तुम्हें कहीं भी 
					छोड़ा नहीं जा सकता था। तुम अचेतन अवस्था में अपने खुदा को याद 
					कर रही थी। मुझे भान हो गया था कि तुम मुस्लिम हो। मगर अब मेरे 
					लिए धार्मिकता पहचान का आधार नहीं रह गयी थी। तुम्हारी देखभाल 
					करते हुए मेरे अपराधी मन को संतुष्टि मिलने लगी। मुझे लगा कि 
					यही मेरा प्रायश्चित है कि मैं हिंदू-मुस्लिम का भेद भूल कर, 
					बहू-बेटी की तरह तुम्हारी देखभाल करते हुए अपने किये को 
					सुधारने का यत्न करूँ। मगर बाद में मैंने महसूस किया कि 
					प्रायश्चित में तो दंड का बोध होता है जबकि तुम्हारे साथ रहने 
					के क्रम में मैंने जीवन का उद्देश्य हासिल किया, जीने का 
					वास्तविक अर्थ पाया।
 
 मैंने कई बार तुम्हें अपने होने वाले बच्चे के लिए नमाज अदा 
					करते देखा, तो साथ ही गायत्री मंत्र का पाठ करते भी सुना। तब 
					तक मैं समझ चुका था कि तुम्हारी कहानी मेरी कहानी से अलग नहीं 
					है। तुम मेरे ही जैसे किसी व्यक्ति की धर्मान्धता का शिकार हो। 
					मैं हैरान था कि जो धर्म मेरे लिए एक कट्टर विभाजक रेखा थी, 
					जिसके उल्लंघन पर मैंने स्वयं अपने बेटे के मृत्युदंड की घोषणा 
					की, वैसा कोई विभाजन तुम्हारे भीतर था ही नहीं, जबकि तुम्हारे 
					लिए तुम्हारा बच्चा धर्म-मजहब से ऊपर था। उसकी सुरक्षा, उसके 
					संस्कार सर्वोपरि थे। तुम्हारे साथ रहते हुए मैंने जाना कि 
					मेरा पुत्र मुझे पिता कहता था, जिसे तुम अपनी बेहोशी में अब्बू 
					कहकर पुकारती थी। ठीक वैसे ही, जैसे मैं अपने परमात्मा के 
					सम्मुख हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ, तुम उसे खुदा कहकर उसके 
					आगे हाथ फैलाती हो। बात कितनी साफ़ थी, मगर इसे समझने के लिए 
					मुझे अपना बेटा गवाँना पड़ा। तुमने मुझे धर्म का मर्म समझाया, 
					मेरे निरर्थक जीवन को सार्थक किया। तुम्हारी देखभाल करते हुए 
					मैं सही मायने में ईश्वर के निकट जा सका, उसकी कृपा को पा सका। 
					जब-जब तुम्हारी हालत बिगड़ती, मैं तुमसे और गहरे जुड़ता चला 
					जाता। कल पूरी रात मैं ईश्वर से तुम्हारे और बच्चे के 
					स्वास्थ्य की कामना करता रहा, खुदा के दरबार में फरियाद करता 
					रहा... राम-रहमान का फर्क तुम्हारी ग्लूकोज की बोतल में पिघलता 
					रहा... मैं दुआ करता रहा कि मेरे भीतर वह शक्ति आ सके कि मैं 
					तुमसे अपनी पहचान को व्यक्त कर सकूँ... यों तुम्हारे लिए इस 
					बात का फर्क नहीं पड़ता होगा कि मैं हिंदू हूँ, मगर तुम्हारी ही 
					जैसी किसी बेटी का अपराधी हूँ। अब जब हम इस अस्पताल से एक नई 
					पीढ़ी के साथ बाहर निकलेंगे तो ये जरूरी है कि हम एक दूसरे के 
					बारे में सब कुछ जानते हों, स्वीकारते हों। क्या तुम मेरे 
					अपराध को क्षमाकर मुझे स्वीकार कर पाओगी?
 
 मैं जीना चाहता हूँ, तुम्हारे साथ, एका के साथ। विश्वास करना 
					-- एका किसी बच्चे का नहीं बल्कि उस पीढ़ी का नाम होगा जो सभी 
					धर्मों के बीच में एका कराएगा, तब धर्म के नाम पर हत्याएँ नहीं 
					होंगी, दंगे नहीं होंगे... मगर इससे पहले जरूरी है कि तुम मेरे 
					अपराध को क्षमा कर मुझे स्वीकार कर लो।
 अगर ऐसा कर पाओ तो मेरा इंतजार करना बेटी।
 -- राम नरेश चौधरी
 मुखिया, बिहूटी खाप पंचायत
 खत पढ़ कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गयी। ये शख्स जो अब तक मेरी 
					और मेरे बच्चे की जान की हिफाजत करता रहा, वह एक कातिल है। 
					क्या सिर्फ़ अपनी भूल का एहसास कर लेने भर से किसी का गुनाह माफ़ 
					किया जा सकता है? जिसके कट्टरपन से एक ज़िंदगी हमेशा के लिए 
					बेरौनक हो गयी, अँधेरे में डूब गयी, उसे कैसे माफ़ किया जा सकता 
					है?
 "डॉक्टर!" मैंने खुद को ऊपरी तौर पर संयत करते हुए आवाज दी कि 
					वह मेरी डिस्चार्ज स्लिप तैयार कर दे। इस बीच मैं हड़बड़ाकर 
					अपना सामान समेटने लगी -- एक साबुन, दूध की दो बोतलें, दो 
					तौलिये...
 
 "एक, दो, तीन....गिनती का धर्म दुनिया के हर कोने में चलता है, 
					हर व्यवस्था में इसकी जरूरत होती है... इससे किसी को परहेज 
					नहीं... हम तो इसका नाम रखेंगे – एका,” बाबा की आवाज कानों 
					में गूँज रही थी। बेड की साइड टेबल पर प्लेट से ढककर संतरे का 
					जूस रखा था, मैंने जल्दी से उसे पास की टोकरी में उड़ेल दिया। 
					मैं इस शख्स का दिया कुछ भी अपने पास नहीं रखना चाहती थी। 
					मैंने बच्चे के जन्म से पहले नए कपड़े नहीं ख़रीदे थे, मगर मेरे 
					सिरहाने बच्चे के दो जोड़ी कपड़े रखे थे जिसे बाबा ले आए होंगे। 
					लाल और हरे रंग की लेस लगी झबिया... मेरी निगाह ने पालने में 
					सो रहे बच्चे को टटोला... वैसी ही गुलाबी रंग की झबिया में 
					लिपटा बच्चा... लगा जैसे वह बाबा की आगोश में लिपटा, मुझसे 
					बगावत कर रहा हो।
 “एक की संगदिली ने मुझसे मेरा पिता छीन लिया, दूसरे की संगदिली 
					मुझे बाबा के प्यार से महरूम कर रही है, दोनों में क्या फर्क 
					रहा?”
 
 मैं किसी तर्क को वाजिब नहीं ठहरा पा रही थी। हमारी रंजिशों का 
					शिकार हमारी औलादें क्यों बनें? उन्हें रिश्तों की गंध से 
					महरूम क्यों रखा जाए? बाबा को बेशक अपने किये की सजा भोगनी ही 
					पड़ेगी। वे जब-जब इसे प्यार करेंगे, एक खालीपन इन्हें भीतर तक 
					तड़पाएगा और मैं इन्हें यह कभी नहीं बताऊँगी कि एका दरअसल इनके 
					पुत्र नीलाभ का ही बेटा है, इनका अपना खून, असल वारिस।
 मैं इतमीनान से बाबा के आने का इंतजार करने लगी।
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