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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से अलका सिन्हा की कहानी— एका


हमें साथ रहते छह महीने हो चुके थे और हम एक - दूसरे का नाम तक नहीं जानते थे। उन्होंने भी इस बीच मेरे बारे में कुछ नहीं जानना चाहा और मैंने तो वादा ही कर रखा था। इसी शर्त पर तो हम साथ रह रहे थे। फिर भी, हम एक - दूसरे के बारे में काफी कुछ जानने लगे थे, मसलन वे जान चुके थे कि मुझे बड़बड़ाते रहने की आदत है, मुझे पता लग गया था कि जब वे मेज बजाते तब वे बेचैन हुआ करते थे। ऐसी ही कुछ बातें थीं, एक-दूसरे की पसंद-नापसंद की। फिर भी, नाम से बेहतर रिश्ते होते हैं और हमारे बीच पहली मुलाकात से ही एक रिश्ता बन गया था।
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हमारी मुलाकात भी बहुत अजीब-से हालात में हुई थी। पूरी तरह टूट और बिखर कर, मैं इस गाँवनुमा शहर के पार्क के एकांत कोने में सिमटी पड़ी थी। शाम पर रात की रंगत चढ़ने लगी थी और धीरे-धीरे एक सन्नाटा पसरता जा रहा था। मगर दिन और रात से बेखबर, अँधेरे-उजाले से नावाकिफ मैं कुछ तय कर पाती कि एक बुज़ुर्ग मेरे सामने आ खड़ा हुआ।
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"बेटी, मुझे यहाँ के किसी ओल्ड होम में पहुँचा दो तो बड़ी मेहरबानी होगी।" वह आशा भरी नजरों से मुझे देख रहा था। मगर मैं उसकी क्या मदद करती, मेरा तो खुद ही कोई ठिकाना नहीं था। मुझे असमंजस में पड़ा देख उसने मुझे तसल्ली दी।
"कुछ पैसे हैं मेरे पास, जितने वे माँगें उन्हें दे देना, बाकी तुम रख सकती हो।"

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