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					 आप 
					तो बीच शहर में रहती हैं न, शहर के इन्जीनियरों की बाग 
					बगीचेदार खूबसूरत बस्ती में। आप जैसे विचारवान लोगों के लिये 
					एकदम आदर्श।" इस तरह बेधड़क बेबाकी से उसने 
					अपना परिचय और मन्तव्य भी व्यक्त किया-‘‘चलिये, आपको कुछ अलहदा 
					देखना-समझना हो तो, उसके लिये भी हाजिर है यह शख्स। आइये, इस 
					गरीब की सुर्ख फिएट में तशरीफ रख इसकी शान में चार चाँद 
					लगाइये।’’
 नीना ने इस बार कुछ औचक 
					भौचक सा उसे जरा गौर से देखा-दुबला पतला, कसी टाईवाला खिलंदड़ 
					तर्ज उसके आगे झुक कर कार का दरवाजा खोले खड़ा था। नीना ‘ला 
					प्लाता युनिवर्सिटी’ के कान्फरेन्स हॉल से ‘आदमी का मैं और 
					डिप्रेशन’ पर व्याख्यान देकर अपनी जगह से उठी ही थी कि वह 
					मझोले कद का युवक उसके साथ हो लिया था। उसने फिर छप्पर फाड़ 
					तर्ज में बड़ी अदा से अपने को अभिनय के साथ नीना के आगे 
					प्रस्तुत किया। नीना को थकान के बावजूद हँसी आ गई।
 
 कार में बैठने के बाद नीना ने उसकी ओर गौर किया-नीले से वर्ण 
					में कंजी आँखें जिससे पहाड़ी सोने-सी स्वच्छ संवेदना झर रही थी, 
					मगर कहीं मेघ की छाया भी आच्छादित थी।
 
 बिना किसी औपचारिकता के मोटर सर्राटे से चल पड़ी। कुछ देर वैसे 
					ही तेजी से कार चलाने के बाद उसने उसे धीमी कर, एक कोने पर 
					झाड़ियों की बगल में रोक कर निहायत कोमल शिष्टता से पूछा-‘‘आपको 
					जल्दी तो नहीं ?’’
 ‘‘क्यों, आपको अपने घर नहीं पहुँचना है, आधी रात तो हो ही चुकी 
					?’’
 ‘‘मुझे कहीं जाने की जल्दी नहीं होती। जब मैं अपने आप में होता 
					हूँ यानि अपने नजदीक। यह न समझिये कि आपकी प्रस्तुति से मेरी 
					अपने आप की नजदीकी में कोई रुकावट आ रही....।...जहाँ तक समय का 
					सवाल है, उसे मैं अपनी मुट्ठी में ही रखता हूँ।’’ ....कहने के 
					साथ ही वह ठठाया दिल खोल कर। इस कथन में यह वाक्य जोड़ 
					कर-‘‘भटकने का अपना खास 
					मजा है... ऐसा न करें तो छाती घुट कर मलीदा बन जाए।’’
 
 इसके बाद वह लम्बी बरौनी वाला जिसके पतले तन पर कोट कुछ लटका 
					सा लग रहा था और नेकटाई के साथ फिट नहीं बैठ रहा था, शहर के 
					समूचे दक्षिणी इलाके में चुपचाप कार पूरी स्पीड से दौड़ाता रहा।
 
 ‘‘आपका भाषण उम्दा था, स्ट्रेस और स्टेट को डिप्रेशन से जोड़ कर 
					देखने का आपका नजरिया भी मौलिक...कई सवाल मेरे मन में उठे मगर 
					पूछने का कलेजा वहाँ जुटा नहीं पाया।’’ काफी देर बाद उसने जबान 
					की सीवन तोड़ी।
 
 ‘‘क्यों पूछने में हिचक क्यों ? बताइये कौन से सवाल उठे थे ?’’ 
					नीना ने कुछ जिज्ञासा से पूछा।
 ‘‘चलिये छोड़िए। उसी रूप में अब वे सवाल मौजूद हैं क्या ? अब तो 
					पूछने में दूसरी बात हो जाती है। बस इतना ही कहूँगा कि सचमुच 
					आप सोचना जानती हैं और सोचे हुए को बोल देना भी...वरना यूँ 
					देखा जाए तो इस दुनिया की ज्यादातर औरतें सुविधा खोजती 
					हैं...जो कुछ बुनती हैं उसमें भी यही बात प्रधान रहती है। बहुत 
					कम औरतें साहस के साथ सोचती हैं और अगर सोचें भी तो उसे कलेजे 
					में ही दफन रखने में खैरियत समझती हैं।...यह भी सोचिए भला
					कौन सी वह सोच होगी जिसे 
					सात परदे में छिपा रखने की दरकार हो...’’ इस बार सेसर कुछ 
					शैतानी से बोला।
 
 ‘‘अरे आप तो नरजाति के 
					घोर पक्षपाती लगते हो। यह क्यों नहीं सोचते कि सदियों पर 
					सदियाँ बीत गई और नर जाति की प्रकृति में इतना कम बदलाव हुआ ? 
					अरे वाह! एक ही जगह पैरों की परेड करने को तुम आगे बढ़ना कहते 
					हो। बहुत खूब।’’ नीना ने नहले पर देहला फेंका।
 ‘‘तो बताइये अगर नारी प्रधान समाज रहता तो क्या होता ?’’
 ‘‘न्याय और भेदभावहीनता की प्रधानता। पुत्र और पुत्री को एक 
					समान अधिकार, एक नजर से देखना। पुरुष प्रधान समाज की धुरी तो 
					महत्वाकांक्षा और स्वार्थ शक्ति पर टिकी है, जहाँ नारी हमेशा 
					उसके नीचे है। आज भी।’’
 
 ‘‘अरे! मैं तो भूल ही गया 
					कि आप सिर्फ महिला ही नहीं मनोवैज्ञानिक भी हैं। इस पर खूबसूरत 
					भी’’ सेसर फिर हँसा-‘‘चलिये छोड़िए इस सनातन अब्सर्ड बहस को। 
					दरअसल मैं तो बड़ी देर से कहना चाह रहा था कि मेरी नज़र बराबर 
					निहायत संवेदनशील लम्बी, बिना नेल पॉलिश की उँगलियों पर 
					रही....। आपकी उँगलियाँ बोलती हैं....आपके शब्दों से इनका मेल 
					होता है जब आप इन्हें बोलने के साथ ऊपर उठा कर इनसे कोई मुद्रा 
					बनाती हैं...मैं इन्हें छूने की जुर्रत नहीं कर सकता...चाहूँ 
					भी तो....। छूना चाहिए भी नहीं।’’ सेसर की वाणी में कहीं कोई 
					मेघ छाया आ गई थी इस बार....।
 
 सेसर ने नीना के बारे में कुछ नहीं पूछा जैसा कि इस महानगर का 
					आम रिवाज है कि मिलते ही भेद भरे व्यक्तिगत सवाल शुरू कर दिए 
					जाते हैं। वह सीधे सामने देखते हुए गाड़ी चलाता रहा। फिर कुछ 
					जोश से बोला-‘‘सचमुच अगर आपको जल्दी न हो तो मैं आपको इस शहर 
					के उन स्थलों का अनुभव कराऊँ जहाँ आप पहले कभी न गई होंगी, अगर 
					गई भी होंगी तो उस अनुभूति से न गुजरी होंगी, जिसका सफर आज मैं 
					आपको कराऊँगा, अगर इजाजत दें तो।’’
 
 उसके स्वर के निष्कपट 
					आग्रह को महसूस कर नीना ने सहमति दे दी। वह सुन्दर अरमेनियन 
					वर्तमान की परिभाषा के भीतर पूरी तरह मौजूद है, भविष्य की किसी 
					योजना से उसे मतलब नहीं...अतीत का बोझ भी लाद कर चलने का उसे 
					कोई चाव नहीं...। ऐसे व्यक्ति के साथ कोई खतरा नहीं...नीना ने 
					अपने को सुरक्षित और तनाव रहित महसूस किया।
 
 १५ मिनट और। गाड़ी चलती रही और सेसर अन्तराल लेता रहा। नीना 
					बाहर के मंजरों में जज्ब हो गई। वातावरण का कोई रंग होता है 
					तमाम शेड्स के साथ। सापेक्ष निगाहों में वे शेड्स कोई और रूप 
					ले लेते हैं।...
 
 ‘‘बस पाँच मिनट में आप जिस दुनिया की छत पर पहुँचेगीं, वहाँ से 
					आपको भूगोल का सही नक्शा पता चलेगा और उसके चक्कर भी’’-सेसर की 
					खेलती आवाज।
 
 सचमुच ही पाँच मिनट में उसने गाड़ी का ब्रेक लगाया-‘‘यह है होटल 
					शेरटन, शहर का सबसे विशाल, महामहिम होटल।’’ लिफ्ट ४८वीं मंजिल 
					पर जा के खत्म हो गई। लिफ्ट से उतर वे एक लम्बे चौड़े हॉल के 
					बीच पहुँचे। ‘‘यह है डान्सिंग हॉल जहाँ दुनिया भर के 
					देशी-विदेशी-राजनीतिज्ञ एक दूसरे की कमर में हाथ डालकर नाचते 
					हुए अपने अपने देशों की ‘महान’ समस्याओं का हल खोजने का नाटक 
					करते हैं...उस नाच की भारी कीमत होती है। मगर उस नाच की भारी 
					कीमत चुकाने के बाद भी हम आम जनों को कोई फायदा नहीं होता। हाँ 
					एक नई असुरक्षा का भय हमारे मन में नत्थी कर राजनीतिज्ञ अपना 
					काम बनाते हैं तथा अपनी-अपनी जेबों में हाथी, शेर, अजगर या 
					शिकारी कुत्ते डाल लेते हैं...एवज में वे हमेशा कैंसर ही 
					बाँटते रहे हैं हम जैसे लोगों को।’’
 ’’कैंसर ?’’
 ’’हाँ। जैसे मेरी माँ को 
					ही। आज कई साल से।...राजनीति के जनखा नाच से उन्हें अपनी पेंशन 
					का पैसा समय पर कभी नहीं मिला। अपनी संतानों को लाड़ से पालने 
					के लिये...। और अब वे बिस्तर से लग गई हैं। मैं अकेला बेटा रह 
					गया, चूँकि फाकलैन्ड के बनावटी संग्राम में वहाँ की बर्फीली 
					धरती ने मेरे छोटे भाई को निगल लिया। लाश बर्फ खोद कर निकाली 
					गई...तो वह भी बर्फ का पुतला ही लगता था... बुरी करनी एक की, 
					और नतीजा दूसरे को, यही है राजनीति। मगर कहते हैं न -सूर्य की 
					सिंचाई भला कौन कर सकता है। हमारे जनरल लोग अर्जेन्टीनी आसमान 
					में टँगे सूरज ही तो हैं...। देखिए हम टीवी में देखते हैं कि 
					युद्ध में मारकाट कर लेने के बाद सिपाही एक दूसरे से हाथ 
					मिलाते हैं और एक दूसरे को बधाई देते हैं बहादुरी के 
					लिये...ऐसा विद्रूप देख हम वही नहीं रह जाते जो पहले थे...हम 
					शायद उसी विरूप सच का हिस्सा हो जाते हैं...राजनीति ही तो है 
					यह।’’
 
 फिर उसकी लटकी निगाहें हॉल में घूमती हुई छत की बॉल्कनी की ओर 
					चली गईं-’’फिलहाल छोड़िये हम अपने शहद में मक्खी क्यों डालें इस 
					महावेला में जो हमें अकस्मात मिली है’’ कहकर उसने इशारा किया 
					आगे बढ़ने का।
 
 पता नहीं क्यों नीना को 
					लगा कि माँ की बीमारी वाली बात की जड़ कहीं और है...। ’’ऊँचाई 
					बड़ी दिलकश चीज है, मगर हमारे लिये उधारी की ही है बस कुछ पल 
					को। हमें तो ऐसी ऊँचाई के नीचे ही रहना है न !’’ उसकी बातें कब 
					श्लेष का रूप ले लेंगी कुछ पता नहीं।
 ’’चलिये अब आपको ब्यूनस आइरस का दूसरा रूप दिखाऊँ- आश्चर्य में 
					डूब जाएँगी आप भी।’’ नीना मुस्कुराई उसकी अदा पर।
 ’’लीजिए यह है वह मुकाम जहाँ से इस शहर का इतिहास शुरू हुआ। 
					जहाँ सदियों से जलपोतों से रिसता मिट्टी का तेल पी पी कर नदी 
					बीमार पड़ गईं असमय ही बूढ़ी होकर; कि उसके तन का रंग जट्ट काला 
					हो गया है और वह अब मर रही 
					है।’’ सेसर ने बड़ी नाटकीयता से 
					बताया उसे।
 
 रात का अन्तिम पहर। मई का आखिरी सप्ताह। चाँदनी छिटकी हुई 
					जलपोतों को अपने मायाजाल में छेंक रही। रियोच्चेली नदी का 
					गन्दा अंधा जल कोई प्रतिबिम्ब धारण नहीं करता; सिर्फ पुराने, 
					जर्जर तथा खंडित जलपोतों की समयहीन सराय बन गया है और चाँदी के 
					बिखरे चूरे चाट रहा है...लुक छिप कर। स्वप्नभंगो की श्रेणियाँ 
					तथा कुंठाओं की चूड़ियाँ यहीं आकर टिक जाती हैं...।
 
 सेसर ने चुप्पी तोड़ी-’’ऐसा सुन्दर मोहक चाँद रोज-रोज थोड़े ही 
					निकलता है देवी जी।’’ वही खिलदंडी हरकत ! भरपूर नजर में। 
					’’मुझे तो उम्मीद करनी चाहिए कि आप स्त्री को अपनी तरफ आकर्षित 
					करने के लिये सस्ते फार्मूलों पर नहीं उतरेंगे।’’ नीना भी खुल 
					गई थी अब।
 
 ’’जिन्दगी बड़ी नन्ही-सी चीज है नीना जी। आप हँसी मजाक के लिये 
					भी जगह न देंगी ? हाँ यहाँ जहाजी भूत को गवाह बना कर आपके 
					सामने यह भेद खोले देता हूँ कि मालामूद ने नहीं, मैंने ही उनसे 
					जानबूझ कर आपको आपके घर छोड़ देने का आग्रह किया था... मगर किसी 
					रोमांस की तलाश के लिये नहीं। .... आप नहीं समझ पाएँगी शायद... 
					कैसी चूने पुती दीवार हो गई है यह जिन्दगी... उदासी के सीलन से 
					दगी हुई ....बार बार लगता है कि यह दुनिया मुझसे दूर चली जा 
					रही है... ऐसी भी आँच होती है जो जल नहीं पाती, भीतर-भीतर 
					सुलगती रहती है...बस कभी आग का बगूला उठता है- एक-दो-तीन-चार 
					और जाने कितनी बार...दिशाएँ छेदता...राखों के ढेर भी वैसे ही, 
					जैसे एक के बाद एक अपनी ही लाशें 
					जलीं हों...’’सेसर अपने आप से ही 
					जैसे संवाद कर रहा हो।
 
 ’’यह अलहदा बात है कि चाँद किस जहाज पर आ टिके’’ उसने बात 
					बदली।
 चाँद की बादल से आती रोशनी में जलपोत प्रेत बन रहे थे...। 
					’’इसके बावजूद ये खिलौने से लग रहे हैं।’’ नीना ने राय दी। 
					’’सफर के प्रतीक हैं न और सफर में हर चीज चलती लगती है तथा 
					चलती चीज हल्की होती है न....।’’ इतना कहने के बाद वह सहज हो 
					आया।
 
 सुबह के छः बजे और नीना का कमरा।
 बाहर कोकाकोला लदी ट्रकों के गुजरने की आवाज आने लगी थी। सोडे 
					की खाली बोतलों को ट्रक में धड़ाधड़ रखने की पटरपटर, और दूर से 
					जलपोतों के सायरन की रोती आवाज।
 नीना ने चाय और नाश्ते के लिये गरम-गरम टोस्ट तैयार कर लिये। 
					इस बीच सेसर नीना की किताबों की आलमारी पर निगाह फिराता रहा।
 ’’इतनी चुप्पी क्यों साध रखी है सेसर मोशाय ?’’
 
 ’’आपको ही देख रहा हूँ 
					आपकी किताबों के कवर पर भी...आपकी एक एक गति और एक एक मुद्रा 
					में। लगता है आप एक नहीं अनेक हैं।...फिर वह अनेकता एक में समा 
					जाती है कब....कार्टून फिल्म की तरह।’’...सेसर की निगाह में 
					कोई हिचक नहीं।
 ’’और आपकी आँखे क्या कम हैं ? ऐसी देखने में कहाँ आती हैं ?’’ 
					नीना ने कुछ विनोद भाव से कह दिया; आड़े आई लज्जा छिपाने के 
					लिये। सेसर ने नीना की दोनों हथेलियाँ अब अपने हाथों में ले 
					लीं-’’अरे! इनमें तो हड्डियाँ ही नहीं। 
					इतनी-मुलायम। और उसने हवा में ही 
					हथेलियाँ छोड़ दीं।...’’
 
 ’’अच्छा ये बताइये, आपसे दुबारा मिलने के लिये क्या मुझे बीमार 
					होना पड़ेगा या फिर दुबारा लेक्चर का इन्तजाम ?’’
 ’’मैं कोई क्लिनिकल डॉक्टर नहीं हूँ, सिर्फ मनोविज्ञान में 
					डिग्री हासिल की है साल भर पहले ही। अभी प्रेक्टिस शुरू नहीं 
					की। लेक्चर देने से क्या, असल बात तो प्रैक्टिस है।’’ नीना का 
					जवाब सीधा था।
 ’’तो लीजिए, मैं आपका पहला केस बन जाऊँगा।’’
 ’’मिलने के लिये केस बनने की दरकार क्यों? आ जाइये जब मन हो।’’ 
					इस बार भी सीधा उत्तर। ’’मगर फोन पे बता दीजिएगा कि किस तारीख 
					को।’’
 ’’क्या तारीख के बगैर जीना सम्भव नहीं ?’’
 ’’आज के जमाने में तो नहीं, यह कड़वा सत्य है।’’
 ’’अरे ऐसे तारीखों के बँधी रहिएगा तो बस नसें क्रैक हो जाएँगी। 
					एक दिन का जीना सौ साल का जीना और सौ साल जीना एक दिन का 
					जीना...आपने सुना नहीं यह मुहावरा ? समय हमें जता देगा और हम 
					मुँह बाए खड़े रहेंगे।’’
 ’’तो बताइये आपने ही 
					समयहीन जी कर कौन सी सार्थकता पा ली है ?’’ नीना ने सीधा सा 
					सवाल किया।
 
 ’’मैं अरे मैं ? मैं तो खतरनाक रूप से शिकस्तमंद इनसान 
					हूँ....फिर जीवन की सफलता असफलता, सार्थकता-निरर्थकता चलते या 
					ठहरे जल-जहाजों की तरह होती है...बदरंग नावों को धो-पोंछ, रंग 
					रोगन से चमका देने का जतन भी मन ही मन करता हूँ....मेरे पिता 
					जहाजी कैप्टन थे न...एक दिन रात को फौलादी तूफान उठा...लहरें 
					दैत्य बनकर उनको जलपोत समेत अपने में जज्ब कर गईं, मांसभक्षी 
					आर्केडिया की तरह...जीवन जितनी मुश्किल से, जितनी जद्दोजहद से 
					गढ़ा जाता है, उससे ज्यादा 
					आसानी से टूट जाता है’’..
 
 ’’और आप क्या करते हैं ?’’ नीना ने उसे गमगीन प्रसंग से उबारने 
					के लिये बात बदल कर पूछा।
 ’’मैं? सपने गढ़ता और उन्हें ढहाता हूँ नए सपने बनाने के लिये। 
					फिर उन्हें टूटते देखने का काम करता हूँ’’...
 ’’यह तो बड़ा नाशाद मजाक है श्री सेसर।’’
 
 नीना को यह व्यक्ति जितना दिलचस्प लगा उतना ही उलझावदार भी। यह 
					हँस हँस कर फुलझड़ी छोड़ता आदमी अकस्मात गमगीनों से गम्भीर क्यों 
					बन गया अब।
 
 ’’शायद आप चाहती हैं कि 
					मैं अपने प्रोफेशन की बाबत बताऊँ ताकि लगूँ कि एक सामाजिक, 
					नार्मल और सही सलामत भेजे वाला इनसान हूँ। यही न ? तो सुनिए- 
					मैंने अपनी मर्जी के खिलाफ वकालत की, मगर उसे पेशे का रूप न दे 
					सका। फिर दर्शनशास्त्र का भी छात्र बना वह भी बीच रस्ते में 
					छोड़ दिया। अब क्या करता हूँ ?- यह कोई दिलचस्प मसला नहीं, 
					सिर्फ रोटी कमाने का एक भोंड़ा मगर ईमानदार तरीका भर है। हाँ 
					वकालत के दिनों में एक समझदार चीज समझ आई कि समाज किन नियमों 
					के खंडन मंडन पर चलता है तथा नियमों का अंजन क्यों लगाता है। 
					बाकी सब तो काला कोट है इस क्षेत्र में। जिसे पहनना मुझे शोभा 
					नहीं दिया। फिर बन्दरों को पान देना मैंने चाहा ही 
					नहीं।...अरे! आपकी चाय तो बड़ी उम्दा है चुस्की लेकर धीरे धीरे 
					पीने लायक...आपकी मेधा और आपके हाथ दोनों में संतुलन है।’’
 चाय समाप्त 
					करते ही वह उठ खड़ा हुआ एक झटके से-’’वाकई दिल से शुक्रगुजार 
					हूँ आपका, अपना इतना समय दिया, यानी अपने जीवन का एक टुकड़ा इस 
					गरीब को भेंट किया...इन सात-आठ घण्टे के वर्तमान में चलता सफर 
					कितना ठोस और जीवन्त।’’ नीना चुपचाप सुनती रही। उसे एक 
					अनपेक्षित निराला अनुभव हो रहा था जिसके हिज्जे कर लेना दुरूह 
					हो गया हो....नीना ने यह भी गौर किया कि सेसर की आँखों के 
					पपोटे कुछ सुर्ख हो गए थे और चेहरा पीताभ। नीना में करुणा और 
					आत्मवेदना का भाव एक साथ उठा...।सेसर का अता-पता फिर कभी नहीं मिला। नीना ने फोन भी किया दो 
					तीन बार, मगर हर बार फोन से जुड़े टेपरिकॉर्डर 
					पर एक बूढ़ी आवाज दुहराया हुआ 
					वाक्य बोल जाती। सेसर ने तो कभी उसे फोन किया ही नहीं।
 
 चार साल बाद।
 बेइनोसाइरेस विश्वविद्यालय में एक दिन अकस्मात ही डॉक्टर 
					जूलियो मालामूद से मुलाकात हो गई। बातचीत में नीना सेसर की 
					बाबत पूछने का लोभ न रोक पाई तो मालामूद बोले-’’अरे, उसकी तो 
					चार साल पहले ही मौत हो चुकी। आपको तो पता नहीं होगा कि उसे 
					खून का कैंसर था।’’
 ’’मगर उसने तो बताया था कि उसकी माँ को...।’’
 
 ’’सेसर को असली बात घाल 
					मेल कर पहेली बनाकर पेश करने में महारत हासिल थी। उसकी माँ को 
					आर्थेराइटिस है, बस। बाकी जवान बेटे की मौत से बड़ी ट्रेजेडी 
					भला किसी माँ के लिये और है ?... सेसर ने तो अपनी माँ से भी 
					असलियत अन्त समय तक छुपा रखी थी। अरे हाँ, मैं तो भूले जा रहा, 
					मकान छोड़ते वक्त सेसर की माँ को एक नन्ही सी बैजनी रंग की 
					नोटबुक मिली है जिस पर आपका नाम लिखा है... सेसर की माँ ने 
					आपको ही देने को मुझे दी थी। फिर अँग्रेजी में तो सिर्फ आप ही 
					पढ़ सकती हैं। कल आपको दे दूँगा।’’
 
 बैजनी नोटबुक हासिल करने के बाद नीना सीधे उस कब्रिस्तान की ओर 
					पहुँची जहाँ सेसर द अर्मेनियन अपने समस्त संवाद के साथ 
					शाश्वस्त निद्रा में सोया पड़ा था। आर्केडिया के फूलों का 
					गुच्छा कब्र पर धर वह सिजदे में बैठ सेसर की डायरी पढ़ने लगी 
					उच्च स्वर में (जो एक आत्म लाप के साथ नीना के प्रति संवाद भी 
					था)-’’मेरी मेधावान दोस्त, एक बिन्दु है जहाँ से अतीत साफ 
					दिखता है झरोखे से झाँकता हुआ...हर दिन के साथ वह अतीत वर्तमान 
					बनता हुआ स्मृतिखण्ड में एक नया रूप, एक नया अर्थ लेता 
					है...मँज मँज कर कुछ इतना साफ हो जाता है कि उसकी उज्ज्वल आभा 
					पर निगाह टंगी रह जाती है कि यह तथ्य बिसर जाता है कि जो इतना 
					धुला धुला हो गया है सामने, उसका 
					यथार्थ रूप क्या था...वह नया धवल 
					रूप तुम्हारा भी हो सकता है और उसका भी जिसकी तलाश में मैं हार 
					चुका हूँ।’’
 
 ’’नीना नाम की सुन्दरी की आँखों में अपने लिये उगते आकर्षक 
					स्नेह की धारियाँ देख मैं डर गया था...तब झूठ और सच के बीच एक 
					लक्ष्मण रेखा खींचना लाजिमी हो गया...आखिर चन्द दिनों का 
					मेहमान ही तो था मैं इस दुनिया के लिये। ....फिर जिसके लिये 
					प्यार हो उसे कष्ट से बचाने का ही तो जतन हम कर सकते हैं, भले 
					वह झूठ के सहारे ही हो...मैं भला तुमसे कैसे कह सकता था कि मर 
					मैं रहा हूँ, मेरी माँ नहीं...माँ से भी कैसे कहता कि मुझे 
					क्या हुआ है। उनके बुढ़ापे में महज मैं ही तो बचा था-भले उनसे 
					पहले जाने की तैयारी में।’’
 
 ’’मेरी बोलती उँगलियों वाली सान्ताक्रूस की स्वच्छ मेधा! अपनी 
					मौत की संक्रामक छाया भला मैं कैसे तुम्हारी गहरी मेधावान 
					आँखों में डालने का हक पाता ?’’
 नीना को लगा कि उसके तन के सारे जोड़ एक-दूसरे से अलग होते जा 
					रहे हैं और छाती तप्त बगूलों से अँट गई है...
 सिजदे में बैठी, वह सेसर की नोटबुक के चन्द वाक्य मंत्र की तरह 
					दोहराने लगी आँख मूँद कर, काँपते होंठों से थरथराती आवाज 
					में...।
 सेसर की रूह-अगर वहाँ होगी तो नीना से एक बार पुनः नदी में आधे 
					डूबे खंडित जलपोतों की मस्तूल पर चढ़ने का आग्रह कर रही 
					होगी...मगर इस बार नीना का हाथ थाम कर...।
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