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हालाँकि वस्तु सत्य तो यह है कि ऑफिस के सारे लोग अक्सर उन्हीं के सामने ‘पंडितजी अभिवादनयामि नमस्कारम्’ जैसे शब्दों से मजाक उड़ाते रहते हैं, लेकिन अपने आगे वह हरेक आदमी के सिद्धांतों-विचारों से असहमत होते हैं और छिद्रान्वेषण की अपनी पुरानी आदत के चलते हर चीज में कोई-न-कोई कमी जरूर ही निकाल देते। 

अभी दो दिन पूर्व राजभाषा कार्यान्वयन समिति की बैठक आरंभ होने वाली थी कि मि. विश्नोईजी ने उनसे मजाक में कहा, ‘‘सुनिए त्रिपाठीजी, ये मीटिंग बगैरा तो हमेशा ही होती रहती है, ये बताइए ईटिंग बगैरा होगी या नहीं ? बिलकुल देशी घी के हिंदी वाले लड्डू खिलाइए तभी बैठक में रस घुलेगा’’...और वे बौखला से गए। जवाब देना चाहते थे परंतु पता नहीं क्या सोचकर चुप्पी साध ली। फिर कार्यान्वयन समिति की बैठक शुरू हुई।
‘‘मैं अध्यक्ष महोदय का सादर अभिनंदन करता हूँ और आज की कार्यवाही शुरू करता हूँ। जैसा कि पिछली बैठक में तय हुआ था....’’
और उसके बाद आँकड़ों का ब्यौरेवार वर्णन शुरू हो जाता। आँकड़ों की नीरसता से ऊब कर अध्यक्ष महोदय ने पास बैठे प्रशासनिक अधिकारी से पूछा ‘‘और, भई सिंह साहब। दो रिकबरी का क्या हुआ ? एन. पी. ए. एकाउंट के मामले’’....बातचीत का क्रम फोन ने तोड़ दिया और कलकत्ता से आए फोन पर विशुद्ध अंग्रेजी में हुई लंबी-चौड़ी बातचीत का सिलसिला करीब पंद्रह मिनट तक जारी रहा। मीटिंग का आधा समय तो यूँ ही बीत चुका था, और आधा घंटा शेष था। बातचीत हिंदी दिवस पर आकर थम गई।

‘‘और भाई त्रिपाठीजी, हिंदी दिवस पर कुछ रंगारंग कार्यक्रम तो जरूर ही होने चाहिए। ऐसा करो, राजधानी के हमारे सभी कार्यालयों को मिलाकर इस क्षेत्रीय कार्यालय में ही भव्य-सा आयोजन करवाया जाए।’’ उन्होंने मुस्कराते हुए त्रिपाठीजी की तरफ देखा।
‘‘सर ! अपना बजट तो एक हजार रूपए तक ही है, इतने से पैसों में भव्य आयोजन...?’’
‘‘पैसों की चिंता छोड़ों। ये बताओ कौन-सा हॉल लेना ठीक रहेगा ?’’ बड़े साहब यानि क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय ने समिति के सातों सदस्यों की ओर मुखातिब होकर कहा। अन्य सदस्यों ने सहमति सूचक सिर हिलाया।

‘‘लेकिन सर ! इस ऑफिस में हिंदी के कामों में कोई भी रूचि तो लेता नहीं है बल्कि सारा काम ‘वन मैन शो’ की तरह हिंदी अधिकारी के मत्थे मढ़ दिया जाता है....’’
‘‘अच्छा ! ये बात है तो ऐसा करते हैं कि चार सदस्यों की एक समिति बना देते हैं जो कि मिल-जुलकर आपस में काम करेंगे और त्रिपाठीजी ! लिखिए समिति के सदस्यों के नाम....’’और अध्यक्ष महोदय ने चार वरिष्ठ अधिकारियों के नाम सुझाए।
बड़े साहब का हुक्म भला कौन टाल सकता है ? मन मसोसकर त्रिपाठीजी को चार सदस्यों के नाम लिखने पड़े।
‘‘भई ! आयोजन में भव्यता होनी चाहिए और हाँ, इस बात का खास ख्याल रखा जाए कि प्रेस पब्लिसिटी और टी.बी. कवरेज हर हाल में हो।’’
‘‘ऐसा करते हैं कि टी.वी. सेंटर के डायरेक्टर प्रभाकरजी को ही चीफ गेस्ट बना लेते हैं,’’ थोड़ा रूककर बड़े साहब बोले।

‘‘लेकिन सर ! साहित्यिक क्षेत्र का कोई व्यक्ति होता तो...’’ बीच में बात काटते हुए मि. गुलाटीजी बोल पड़े, ‘‘ये कहा लिखा है कि हिंदी के विद्वान् को ही बुलाया जाए। देखो, साफ बात है यदि प्रभाकरजी को बुलाएँगे तो न्यूज कवरेज खुद-व-खुद ही हो जाएगा।’’

‘‘और सर ! प्रभाकरजी का संपर्क बड़े-बड़े लोगों से है, वे हमारे डिपॉजिट में भी अभिवृद्धि करवा सकते हैं।’’ मि. गुलाटीजी ने अपनी बात पूरी की।

‘‘लेकिन सर ! उन्हें तो ठीक से हिंदी बोलनी ही नहीं आती। मुख्य अतिथि का भाषण कैसा होगा ?’’ समिति के सदस्य पांडेयजी बोले जिनकी त्रिपाठीजी से प्रगाड़ मित्रता भी है, ‘‘कोई बात नहीं। हमारे त्रिपाठीजी उन्हें पर्चा लिखकर दे देगें और वे पढ़ देंगे। क्या हर्ज है ?’’ कहकर अध्यक्ष महोदय ने आश्वस्ति भरी साँस ली।

बेचारे त्रिपाठीजी ! मन मन मसोसकर रह गए, क्या करते ? प्रभाकरजी को चीफ गैस्ट का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास भी हो गया और वे कुछ न कर सके। उनके कानों में बड़े साहब की कही बातें गूँज रही थीं-

‘‘बढ़िया-सा नाश्ता, पोस्टर, पुस्तक-प्रदर्शनी और हमारे बैनर तले अच्छा-सा नारा भी लिखवा लेना। गीत, संगीत, भजन तो होंगे ही, एक छोटा-सा काव्यपाठ एवं कर्मचारियों के लिए प्रतियोगिता भी होगी जिससे हमारे ऑफिस के लोगों को देर तक बाँधा जा सके।’’

‘‘एकदम ठीक बात कही साहब आपने। प्रतियोगिता में पुरूस्कार मिलने की आशा से तो लोग देर तक उत्सुकतापूर्वक बैठे रहते हैं।’’ भट्टाचार्य उपमुख्य अधिकारी ने पहली बार कुछ कहा।

‘‘लेकिन प्रतियोगिता तो १४ सितंबर के पहले होती है और आज १२ सितंबर हो गई, अब तो संभव नहीं।’’ त्रिपाठीजी ने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ना चाहा।
‘‘उसी दिन प्रतियोगिता हो जाएगी और उसी दिन पुरूस्कार वितरण भी, क्यों त्रिपाठी जी ?’’ मि. जे. एन. दीक्षितजी ने अपनी राय प्रस्तुत की।

‘‘नहीं-नहीं। ऐसा कहीं नहीं होता। ये नहीं हो सकता।’’ मि. त्रिपाठीजी गुस्से की अतिशयता पर काबू पाने की कोशिश करने लगे। चश्मे को चढ़ाते हुए और माथे पर झलक रही पसीने की बूंदों से बेखबर त्रिपाठीजी बोल पड़े, ‘‘सर ! समारोह के समय प्रतियोगिता आयोजन का समय कहाँ रहेगा ? और ऐसा शोभा भी नहीं देगा साहब।’’ त्रिपाठी यकायक विनम्र पड़ गए। हाथ के इशारे से शांत रहने का संकेत देते हुए अध्यक्ष महोदय ने अपना निर्णायक मत दे दिया, ‘‘अभी दो दिन शेष हैं। कार्यक्रम १४ की जगह १६ को रख लो। हिंदी दिवस के संदर्भ में बनाई समिति विचार-विमर्श करके एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचकर पूरी रूपरेखा बना लेगी और तदुपरांत मुझे कार्य सूची दिखला दें। समय मैं अपनी सुविधानुसार बताऊँगा।’’ कहकर वे अपनी सीट से खड़े हो गए और इसके साथ ही राजभाषा कार्यान्वयन समिति की बैठक समाप्त हो गई।

क्रमशः समिति की नित्य-प्रति बैठकें होने लगीं। हमेशा से ‘वनमैन शो’ बने त्रिपाठीजी को यह बेहद नागवार लग रहा था कि समिति के शेष सदस्य आपस में ही निर्णय ले रहे हैं और उनको कोई नहीं पूछ रहा। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनके परम साहित्यिक मित्र बालकृष्ण ‘अभय’, जो धार्मिक विषयों पर ३-४ किताबें लिखकर थोड़ी बहुत ख्याति अर्जित कर चुके थे, उन्हें ही मुख्य अतिथि के रूप में सम्मानित करके मित्रता को प्रगाढ़ बना लें। उन्होंने सम्मानित अतिथि के रूप में उन्हें बुलाने का सुझाव समिति को दिया जरूर था, ‘लेकिन उन्हें पहले भी कई बार बुलाया जा चुका है’ समिति के सदस्यों की इस प्रतिक्रिया के बाद उन्होंने तटस्थता वाला रूख अख्तियार कर लिया। दूसरे दिन भी समिति की बैठक होनी थी। समिति के वरिष्ठतम सदस्य गुलाटीजी ने जब त्रिपाठीजी को बुलाया तो उन्होंने बिल्कुल निर्विकार-सी मुद्रा में सीधे-सीधे कह दिया, ‘‘आप जैसा समझें, वैसा ही करें मि. गुलाटीजी। आप सभी वरिष्ठ लोग है....।’’

‘‘देखिए मि. त्रिपाठीजी, यदि आप फूला मुहँ लेकर इस तरह का रूखा व्यवहार करेंगे तो ऐसे काम नहीं बनेगा। भई यदि आप यूँ अन्यमनस्कता दिखाएँगे तो कार्यक्रम संचालक किसी और को बना लेंगे, क्यों मि. पांडेय ?’’
बढ़ी हुई भृकुटी देखकर त्रिपाठीजी सहम गए और बोले, ‘‘मैं कार्यक्रम संचालन से कब इंकार रहा हूँ। निर्णय करना समिति के पास है’’-यह कहकर वो जाने लगे तो गुलाटी जी बोल पड़े।
‘‘और आप जा कहाँ रहे हैं ? बैठक तो पूरी होने दीजिए।’’
‘‘मुझे दूसरी जगह हिंदी दिवस समारोह में भाग लेने जाना है। मुझे चार बजे तक वहाँ पहुँचना होगा।’’
‘‘आप अपने यहाँ के हिंदी समारोह के बारे में कुछ नहीं सोच रहे और दूसरी जगह जा रहे हैं, ऐसा भी क्या जरूरी है वहाँ जाना ?’’
‘‘इन्हें जाने दीजिए सर ! इनके बिना भी बैठक की जा सकती है।’’ पांडेयजी थोड़े रोषपूर्ण लहजे में बोले।
‘‘हाँ, हाँ, कार्यक्रम में शामिल होने में इन्हें देर हो रही होगी।’’ यह सुश्री तनिमा की आवाज थी जो अब तक धुप बैठी सब-देख सुन रही थीं।

सुनकर ताव खा गए त्रिपाठी और पता नहीं क्या सोचकर थोड़ी देर बैठ गए। बैठक का संचालन पांडेयजी एवं गुलाटीजी कर रहे थे। दरी और कार्पेट किसके यहाँ से मँगाना है ? फोटोग्राफर को फोन करना है, दयालजी की संगीत पार्टी को बुलाने कौन जाएगा ? सरस्वती वंदना और वंदेमातरम् श्रीमती नीता मेहता प्रस्तुत करेंगी, बिरजू से हॉल की सफाई के लिए कहना है, सरस्वती की प्रतिमा, घी और दीपक बगैरह की व्यवस्था से लेकर मुख्य अतिथि एवं बड़े साहबजी को बिठाने की जगह तय करना।

और भी तमाम बातें डायरी पर नोट हुई। उसी दौरान त्रिपाठीजी ने एक बार और घड़ी देखी और चुपचाप उठकर चले गए। उनके जाने की बात को किसी ने भी नोटिस नहीं किया।

क्रमशः दो-तीन बार हुई बैठकों के बाद आ पहुचा हिंदी दिवस समारोह।
‘‘तो, आज तो शाम तक रूकना पड़ेगा।’’ मि.जायसवाल ने अपने सहकर्मी लाल चंद्र की ओर मुखातिब होकर कहा।

‘‘हूँ,...’’ कहकर उन्होंने जायसवाल को सामने देखने का इशारा किया।
मि. त्रिपाठी दो ‘बुकें’ लिए हुए चले आ रहे थे। वैसे मि. लालचंद्रजी बड़े मजेदार आदमी है। उम्र तकरीबन पचास होगी लेकिन हैं कुँवारे। पद से स्टेनो होते हुए भी खुद को किसी अधिकारी से कम नहीं आँकते। देखने में लंबे, कृशकाय लेकिन थोड़े से गंजे लालचंद्रजी ‘लाल साहब’ के नाम से मशहूर हैं। हरेक से संपर्क साथे रहते और यूनियन नेताओं की चमचागिरी में मशगूल रहते।

‘‘आप किसी प्रतियोगिता में भाग नहीं ले रहे लाल साब ?’’
‘‘नहीं भाई। हमें हिंदी आती ही कहाँ हैं ? अँग्रेजी टाइपिस्ट होने से भी हिंदी का अभ्यास छूट सा गया है। अँग्रेजी में ही सारा काम करना पड़ता है, यह तो आप भी जानते हैं और फिर हिंदी दिवस तो हिंदी अधिकारियों के लिए होता है, क्यों जायसवाल ?’’
‘‘लेकिन सुना है मि. नागर ने अपना नाम प्रतियोगिता के लिए दे दिया है, उसे ही कौन सी सही हिंदी आती है ?’’
‘‘अरे ! वो नहीं देगा तो भला कौन देगा ? जानते हो वो त्रिपाठी का खास आदमी है, प्राइज तो उसे ही मिलनी है।’’
‘‘अच्छा, ये बात है।’’ जायसवाल ने आश्चर्य में आँखें चमकाई और रहस्यमयी मुस्कान उनके होठों पर विराजमान हो गई।

‘‘अरे ! आप लोग कार्यक्रम में नहीं गए ?’’ यह मि. दिलीप की आवाज थी, जो इस ऑफिस में बड़े मंत्री की जुगाड़ से चपरासी बनकर आया है, बेरोजगारी की चक्की में पिसने के कारण जब निराशा और तनाव की हद हो गई तो उसे अपनी ग्रेजुएशन की डिग्री छिपानी पड़ी क्योंकि ’शो‘ नहीं कर सकते। बेहद कामचोर, यूनियन नेताओं की चमचागिरी में मशगूल, इधर की उधर भिड़ाने की कला में पारंगत मि. दिलीप को कोई भी छोटा काम करना इन्सलटिंग लगता है इसलिए अक्सर ही बहसबाजी करता रहता। सुबह दस बजे साइन करके एक बजे तक गायब और फिर तीन बजे आकर चार बजे गायब। ऑफिस के दरवाजे अच्छी तरह से बंद करके दिलीप भी समारोह में जा पहुँचा।
सभी लोग हिंदी दिवस समारोह में जा चुके थे।

हमेशा की तरह मि. त्रिपाठी आज भी माइक पर सस्वर संस्कृत पाठ से कार्यक्रम का शुभारंभ कर रहे थे। माथे पर बड़ा-सा तिलक, लंबा और ढीला-ढाला सा कुर्ता-पायजामा पहने मि. त्रिपाठीजी ने सरस्वती वंदना के लिए श्रीमती नीता मेहता को स्टेज पर बुलाया। मेज पर ’बड़े साहब‘ और दूरदर्शन केंद्र के निदेशक, प्रभाकरजी मुख्य अतिथि के रूप में विराजमान थे। मंच के बाई ओर हारमोनियम और तबला रखा हुआ था। दाई ओर छोटी-सी मेज पर सरस्वती प्रतिमा पर माल्यार्पण और दीप प्रज्वलन किया जा चुका था।

बड़े साहब ने त्रिपाठीजी द्वारा दी गई पर्ची पढ़ते हुए अपना उद्बोधन दिया। थोड़ी देर बाद लोग ऊबने लगे लेकिन बड़े साहब का भाषण शीघ्र ही खत्म हो गया। तदुपरांत कार्यालय की क्लर्क सुनीता मेहरोत्रा ने भाषण पढ़ा जिसके लिए पिछले चार-पाँच दिनों से वो बड़ी मेहनत कर रही थीं। अब बारी थी काव्यपाठ की। कार्यालय की एक वरिष्ठ अधिकारी महोदया मैडमजी ने अपनी स्वरचित कुछ पंक्तियाँ अति संक्षेप में सुनाई। इसके बाद मि. त्रिपाठी के एक पुराने मित्र ज्ञानेश्वरजी ने जोर-जोर से ’जय हिंदी, जय हिंदोस्तानी‘ से प्रारंभ कविता को जय नागरी पर खत्म किया। तालियों के बाद त्रिपाठीजी ने बोलना शुरू किया, ’’इस नगर के जाने-माने विद्वान् वीरभद्र मिश्रा को कौन नहीं जानता ? ये किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। इस अवसर पर ये अपने विचार व्यक्त करेंगे।‘‘

पेशे से अध्यापक होने की वजह से उनकी आवाज में जोश और ओज था। 15 मिनट बीतने के बाद भी वो पूरी तरह तैश में थे।

’’तो भाइयो ! अब हमें हिंदी के लिए कमर कस लेनी चाहिए। यह संघर्ष का युग है। अधिकारों को हासिल करने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है और हम सबको इसके लिए तैयार रहना है। बैंकों में तो हिंदी अधिकारियों की और भी दुर्दशा है। उनसे हिंदी का काम कम, बैलेंस शीट तैयार करवाने का ज्यादा काम लिया जाता है। आज ही वह ऐतिहासिक तिथि है। हमें आत्म-सर्वेक्षण करना होगा कि....‘‘

पीछे से किसी खुसर-पुसर सुनाई दी, ’’अरे भैया ! अपने को तो देखो, पहले खुद का सर्वेक्षण कर लो, कितनी देर से झेल रहे हैं हम इन्हें ?...बहुत चाट रहे हैं...‘‘ जैसी आवाजें सुनाई देने लगीं। थोड़ी देर बाद करीब छह-सात लोग उठ गए। सामने वाली पंक्ति में बैठी तीनों महिलाएँ जा चुकी थीं लेकिन उनका भाषण धाराप्रवाह गति से चल रहा था।
मुख्य अधिकारी महोदय ने इशारे से त्रिपाठीजी को बुलाकर उनके कान में कहा, ’’अरे भाई ! इसे जल्दी से खत्म करवाकर गीत-संगीत कार्यक्रम शुरू कराइए, लोग जाने लगे हैं।‘‘

लेकिन मि. त्रिपाठी ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। इधर, हाल में लोग बातें करने लगे थे। शायद मिश्राजी कुछ समझ गए या फिर जितना उन्हें बोलना था, उनका मैटर खत्म हो गया। जो भी हो पूरे तीस मिनट बाद उनका भाषण खत्म हुआ और लोगों ने राहत की साँस ली। त्रिपाठीजी लपककर माइक तक गए और तत्परता से तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता का ऐलान कर दिया। बड़ी मुश्किल से दो हाथ उठे दिखाई दिए। कार्यक्रम संचालन के लिए दुबली-पतली, साफ गोरा रंग और तीखे नयन-नक्श वाली मृणालिनी को माइक पर बुलाया गया। उन्होंने आकर सर्वप्रथम छोटी-सी लोक कथा सुनाई जिसकी काफी वाहवाही हुई। तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता का विषय था-’हिंदी भाषी प्रांतों में अँग्रेजी का मोह।‘‘ दोनों ही प्रतियोगियों को बुलाया गया। समय था सिर्फ दो मिनट। जाहिर था प्रथम व द्वितीय पुरूस्कार उन्हें दिया गया।

मुख्य अतिथि प्रभाकरजी निर्धारित समय पर टी. वी. टीम के न आने से थोड़े से बेचैन और असहज होने लगे थे लेकिन वह क्या करते ? तभी माइक पर मुख्य अतिथि को पुरूस्कार वितरण हेतु बुलाया गया। इस अवसर पर फोटो खींची गई। अब बारी थी मुख्य अतिथि के संभाषण की। उन्होंने बोलना शुरू किया, ’’शायद हिंदुस्तान ही ऐसा मुल्क है जहाँ कि अपनी भाषा के उत्थान के लिए सरकारी तौर पर सघन प्रयास किए जा रहे हैं। गैर-सरकारी तौर पर भी तमाम संगठनों ने हिंदीं के विकास के नाम पर अपनी-अपनी दुकानें खोल रखी हैं....,‘‘ इसी बीच टी. वी. कवरेज के लिए कैमरा टीम के आ जाने से प्रभाकरजी की आँखें चमक उठीं और अब वे रिलैक्स मूड में आ गए, ’’सच बात तो यह है कि इस देश को हिंदी की संपर्क भाषा के रूप में अपनाने की वैसे ही जरूरत है जैसे गुजरात के प्लेग पीड़ितों को राहत और मदद की। सरकार ने प्रेरणा, प्रोत्साहन और पुरस्कार के बल पर हिंदी लागू करने की योजना बनाई है, ऐसे में... भाषण पढ़ते पढ़ते थोड़ा सा वो अटक गए। फिर उन्होंने सँभलकर कहा इस अखंड देश की राजभाषा को हम पर थोपे जाने का बेबुनियादी आरोप भी लगाया जाता है... आखिर क्यों?

लोग पुनः उकताने लगे। शाम के सात बज रहे थे। हाल की पूरी बत्तियाँ जला दी गईं। चारों ओर अँधेरा छाने लगा था। त्रिपाठी आँखें बंद करके भाषण सुनने लगे। इधर बड़े साहब ने घड़ी देखी और पहलू बदलने लगे। माहौल थोड़ा डलनेस देने लगा। खैर मुख्य अतिथि के बा प्रारंभ हुआ गीत संगीत कार्यक्रम। ओम नमः शिवाय के सस्वर समवेत गायन से प्रारंभ कार्यक्रम से वातावरण में रंगीनियत घुलने लगी। इसी बीच चाय, समोसे और मिठाई का कार्यक्रम प्रारंभ हो गया। अब लोगों का ध्यान पूर्णतः खाने-पीने में लग गया। कुछ लोग खापीकर जाने लगे थे। हॉल में आवाजें आने लगी थीं। त्रिपाठी जी के लिये यह सब असहनीय था लेकिन वो करें भी क्या? ऊपर से गंभीरता का आवरण किंतु अंतर्मन में भभक रहे क्रोध को पीने की कोशिश करने लगे थे वे।

अरे यह क्या पाँच मिनट बाद ही संगीत प्रायोजक ने माइक पर कहा, भाइयों और बहनो सखेद बताना पड़ रहा है कि हमें ये कार्यक्रम खत्म कर के दूसरी जगह के हिंदी कार्यक्रम में जाना है। यहाँ हमने साढ़े सात का समय दिया था कृपया हमें माफ करें।

त्रिपाठी फुर्ती से माइक के पास आए और बोलने लगे, हिंदीकरण के इस राष्ट्रीय महाभिदान में हिंदी कर्मियों की भूमिका तो मात्र एक सहयोगी उपकरण की है। इसे संपूर्णता सामूहिक प्रयासों से ही मिलेगी। क्या मुट्ठी भर हिंदी अधिकारी या हिंदी स्टाफ सैकड़ों साल से चली आ रही विदेशी भाषा को हटाकर किसी जादुई छड़ी से हिंदी को कार्यालयों की भाषा बना सकते हैं? बिलकुल नहीं। इसीलिये जब तक कार्यालय का हर व्यक्ति खुद को हिंदी का सिपहसालार नहीं समझेगा, हिंदी को मातृभाषा का दर्जा नहीं मिलेगा। अब मैं मुख्य प्रबंधक जी से अनुरोध करूंगी कि वे अतिथिगणों को धन्यवाद ज्ञापन दें।

गौरवर्णीय और मँझोले कद काठी के अमरनाथ गोस्वामी जी ने एक मिनट के अंदर अपना धन्यवाद ज्ञापन पढ़कर जय हिंदी जय नागरी शब्दों के साथ अपना पिंड छुड़ाया।

दूसरे दिन राजधानी के बड़े बड़े समाचार पत्रों में यह खबर प्रमुखता के साथ छापी गई--
राष्ट्रभाषा राज्याभिषेक जयंती समारोह धूमधाम से संपन्न। त्रिपाठी जी ने समाचार पत्रों की कतरन को बड़े साहब के सामने रखा। बड़े साहब ने मुस्कराते हुए कहा, वैरीगुड। वैल डन त्रिपाठी जी। सो नाइस आफ यू। हिंदी विल इंप्रूव श्योरली। यू हैव डन रियली ए ग्रेट जॉब सक्सेस फुली। इन दिस वी विल विन राजभाषा शील्ड आलसो... थैंक्यू थैंक्यू वैरी मच।

बड़े साब के उच्चारित अँग्रेजी के शब्द त्रिपाठी जी के कानो में पिघले हुए गर्म शीशे की तरह पड़े और वे खिसियाते हुए उनके चैंबर से बाहर निकल गए।

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१० सितंबर २०१२

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