तस्वीर
में पिताजी दुबले-पतले एवं गम्भीर प्रकृति के दिखायी पड़ते थे।
अक्सर एकांत में माँ उनकी तस्वीर को निःशब्द कुछ देर तक
निहारतीं और फिर अपने काम में व्यस्त हो जातीं।
माँ ने कभी मुझे पूजा-पाठ के लिए प्रेरित नहीं किया। उन्होंने
मुझे सदैव कर्मशील बनने की प्रेरणा दी। देर रात तक कपड़ों की
सिलाई करते रहना और फिर मुँह-अँधेरे ही उठकर घर की सफाई करना,
कुएँ से पानी भरना, आटा पीसना, अचार डालना, खाना बनाना,
आस-पड़ोस की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहना, ग्राहकों के साथ
मधुरता से बातें करना। इसके बाद भी मैंने कभी उन्हें अपने
दुख-दर्द या तकलीफ की चर्चा करते नहीं सुना। बस इन्हीं सब
यादों के बीच मेरा बचपन बीता।
मैंने माँ से अनायास ही बहुत-सी बातें ग्रहण कीं। जैसे अपने
कार्य के प्रति उत्साह एवं सम्मान की भावना रखना। विकट
परिस्थितियों में भी कभी धैर्य न खोना, इत्यादि....। मेरी माँ
अधिक पढ़ी-लिखी तो नहीं थीं, किंतु वे दुनिया की किसी भी महिला
के समक्ष सिर उठाकर खड़ी रह सकती थीं। यूँ तो उन्हें इतिहास,
भूगोल, साहित्य, संगीत और राजनीति का ज्ञान नहीं था, लेकिन
संघर्ष की क्षमता के फलस्वरूप उनका चरित्र पंच नारियों से किसी
मायने में कम न था। अक्सर लोगों को बहस करते सुना है, ईश्वर के
संबंध में कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है, यह मानव की कोरी
कल्पना मात्र है। लेकिन मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि
ईश्वर है, क्योंकि मेरी माँ है।
अगर आप मुझसे माँ के व्यक्तित्व के संबंध में विस्तार से पूछना
चाहें, तो मैं शायद ज्यादा कुछ नहीं बता पाऊँगा। जब आदमी बहुत
कुछ कहना चाहता है तो कुछ भी नहीं कह पाता। सरसरी तौर पर मैं
बताता हूँ-उनके शरीर पर पुरानी मटमैली-सी साड़ी होती, जिस पर
अक्सर कई जगह पैबंद लगे होते। घर के अंदर वे प्रायः नंगे पैर
ही होतीं। हल्की सफेदी लिये हुए बाल थे उनके। सुई में धागा
डालते समय या फिर कुछ पढ़ते समय आँखों पर चश्मा जरूर लगा लिया
करतीं। देखने में गाँव की महिला लगतीं, इसके बावजूद भी उनके
चेहरे पर ऐसी आभा छायी रहती, जिससे वे बाकी महिलाओं से बिलकुल
अलग नजर आती थीं। कुल मिलाकर सादगी, सरलता और कर्तव्यबोध ही
उनकी शक्ति थी।
मैंने आठवीं तक की शिक्षा गाँव के स्कूल में पूरी की। उसके बाद
माँ ने शहर में मौसी के यहाँ भेज दिया। विदा करते समय मेरी
आँखों में आँसू थे, लेकिन माँ ने अपने-आप को सामान्य बनाये
रखा। उन्होंने एक बार भी मुझे अपने सीने से चिपटाकर यह नहीं
कहा कि तेरे जाने से मैं कितनी अकेली रह जाऊँगी या घर सूना हो
जायेगा। चलते समय बस इतना ही कहा, “सेहत का ध्यान रखना और मन
लगाकर पढ़ना।”
छुट्टियों के दौरान जब भी गाँव आता, तो माँ को देखकर महसूस
होता, जैसे वे पहले से कुछ और दुर्बल हो गयी हों। पीछे न जाने
कितनी पीड़ा को चुपचाप अकेले सह लेती थीं। मेरे गाँव आने पर
उनकी खुशी देखते ही बनती। उनका ममतामय आँचल खुशियों से भर
जाता। उनकी यह प्रसन्नता शब्दों में भी झलक जाती, “देख रे,
तेरे आने से नीम का बिरवा भी मगन होकर झूमने लगता है।”
आज भी सोचता हूँ, तो अभिभूत हो उठता हूँ कि कभी भी मैंने खर्चे
के लिए माँ से पैसे नहीं माँगे, बल्कि यह कहना उचित होगा कि
पैसे माँगने की कभी नौबत ही नहीं आयी। हमेशा बिना माँगे पूरे
पैसे मेरी जेब में रख देतीं। उन्होंने मेरी पढ़ाई-लिखाई,
कपड़-लत्ते का बोझ इतने लंबे समय तक भला कैसे सँभाला होगा ?
उन्होंने कभी मुझे यह उपदेश नहीं दिया कि कम पैसे में गुजारा
करना चाहिए या जीवन में सादगी होनी चाहिए, लेकिन मैं अपनी माँ
रूपी पुस्तक को बचपन से पढ़ते रहने के कारण श्रम और धन का महत्व
अनायास ही सीख गया था। मैंने कभी फिजूलखर्ची नहीं की। मेरे मन
के भीतर यह बात गहरी बैठ चुकी थी कि मेरे ही सुंदर भविष्य की
खातिर माँ अपने-आप को तिल-तिल जला रही हैं।
जीवन में बहुत-सी बातों को बिना कहे-सुने, चुपचाप ही समझना
पड़ता है और मैं सब कुछ चुपचाप समझ रहा था, या फिर यूँ कहें कि
हम दोनों ही एक-दूसरे को समझ रहे थे। जब भी छुट्टियों में गाँव
आता, तो माँ का चेहरा दमक उठता। काम करते समय गुनगुनाती रहतीं।
मेरे लिए मेरी मनपसंद नारियल की मिठाइयाँ बनातीं। हम दोनों देर
रात तक वार्तालाप करते रहते। मैं उन्हें शहर की, मौसी के घर
की, कॉलेज की, अपने मित्रों की बातें बताता। बदले में माँ गाँव
की, घर की, नदी की, वृक्षों की, आस-पड़ोस के लोगों की
दुख-तकलीफों की बातें करतीं। इस तरह हम दोनों के बीच एक बेहद
मजबूत सेतु बनता जा रहा था।
ऐसी ही एक रात में माँ ने स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए
पूछा था, “नन्हें ! इस पूरे गाँव में एक भी डॉक्टर नहीं है,
तुम डॉक्टर बनोगे न ?”
माँ ने यह बात कुछ ऐसी शिद्दत से पूछी थी कि मुझे अहसास हुआ,
क्योंकि पिताजी की मृत्यु अच्छी चिकित्सा के अभाव में ही हुई
थी, संभवतः तभी से माँ ने मन ही मन मुझे डॉक्टर बनाने की
आकांक्षा सँजो ली थी।
पढ़ने में मैं हमेशा मेधावी छात्र रहा था। अतः मेडिकल कॉलेज की
प्रवेश परीक्षा प्रथम प्रयास में ही उत्तीर्ण कर ली। बस, उसके
बाद तो एक के बाद दूसरी और तीसरी परीक्षा में उत्तीर्ण होता
चला गया। अबकी बार मैंने अंतिम कर्तव्यनिष्ठा और धैर्य के
फलीभूत होने का समय भी आहिस्ता-आहिस्ता पास आ गया। मेरी अंतिम
परीक्षा का परिणाम निकलने में सिर्फ तीन दिन बाकी थे। शहर मेरे
गाँव से काफी दूर था। शहर से मेरे गाँव तक आने के लिए ट्रेन से
तीन-चार घंटे का सफर तय करके बस पकड़नी होती थी और फिर बस से
उतरकर कच्चे रास्ते पर छह किलोमीटर पैदल या बैलगाड़ी से रास्ता
तय करना पड़ता था। पोस्ट ऑफिस न होने के कारण टेलीग्राम करने की
सुविधा भी नहीं थी। इसलिए परीक्षा का परिणाम निकलने के दो दिन
पहले ही मैं शहर लौट आया।
इस परीक्षा के परिणाम को लेकर मैं अत्यंत नर्वस था, क्योंकि एक
तरह से यह मुझसे ज्यादा मेरी माँ के त्याग और परिश्रम की
परीक्षा थी। इसी परिणाम से मेरे भावी जीवन की दिशा तय होनी थी।
काँपते हृदय से परिणाम की प्रतिक्षा करने लगा। परिणाम आया।
एम.बी.बी.एस. की इस अंतिम परीक्षा में मैं प्रथम श्रेणी में
पास हुआ था। हर्ष से मन पुलकित हो उठा। सभी साथी, शिक्षक और
परिचित मुझे बार-बार बधाइयाँ दे रहे थे। कोई मिठाई खिलाने की
जिद कर रहा था, तो कोई पार्टी देने का आग्रह कर रहा था।
अचानक ऑफिस का चपरासी मुझे बुलाने आया, “आपके गाँव से कोई
महिला आयी हैं।” मैं सुनकर हतप्रभ रह गया। पूछा, “क्या नाम
बताया उन्होंने अपना ?”
चपरासी ने जवाब दिया, “कहती हैं कि आपकी पड़ोसी हैं।”
मेरा हृदय थरथराने लगा। हलक सूख गया। सोचने लगा-आखिर कौन हो
सकता है? माधुरी मौसी? मालती चाची? या राधा काकी?
मन संशय से भर उठा कि अवश्य ही माँ को कुछ हो गया है। अभी तीन
दिन पहले ही तो उनके पास से आया हूँ। अचानक क्या हो गया ? मेरा
दिल फूट-फूटकर रोने को करने लगा। हे ईश्वर! अब, जबकि मैं माँ
को थोड़ा सुख देने के काबिल बन सका हूँ, तो क्या माँ नहीं होंगी
? क्या वे अपने त्याग का परिणाम देखे बिना ही चली जायेंगी ?
मैं दौड़ता हुआ ऑफिस की तरफ गया। आँसुओं की नमी के कारण आँखें
धुँधला-सी गयी थीं। ऑफिस में डीन के अलावा तीन-चार प्रोफेसर
बैठे हुए थे। मैंने सबका अभिवादन किया। डीन ने मुझे देखते ही
कहा, “बाहर गेट पर एक महिला खड़ी हैं। मुझसे तुम्हारे विषय में
पूछ रही थीं। मैंने अंदर बैठने के लिए भी कहा, किंतु बैठी ही
नहीं। कह रही थीं कि तुम्हारे गाँव में ही रहती हैं।”
डीन की बात सुनते ही मैं गैट की तरफ लपका। मन ही मन प्रार्थना
कर रहा था-हे ईश्वर! मेरी माँ बिलकुल ठीक हो। मैं गेट के नजदीक
पहुँचा। सामने खड़ी महिला को देखकर विस्मय के साथ मेरे मुँह से
शब्द निकले, “माँ....तु....?”
माँ के चेहरे पर मुस्कराहट झिलमिलायी और आँखों में चमक उभर
आयी। बोलीं, “मुझे मालूम था, तुम परीक्षा में पास हो जाओगे।
तुम्हारे रिजल्ट का दिन था न! बस, मन नहीं माना, तो चली आयी।
देखो, तुम्हारे लिए नारियल के लड्डू बनाकर लायी हूँ। तुम्हारी
मनपसंद चीज।” उन्होंने थैले के अंदर से डिब्बा निकालते हुए
कहा।
माँ की ममता की धारा में मैं पूरा भीग चुका था। आँसुओं में
डूबे चेहरे को मैंने माँ के कंधे पर रख दिया और भरे हृदय से कह
उठा, “माँ, तुम इतनी दूर कैसे आ पायीं ? तुम यहाँ किस तरह
पहुँची? कॉलेज का पता किस तरह चला?” फिर मुझे डीन की बात का
स्मरण हो आया, तो तेज स्वर में शिकायत करते हुए पूछा, “माँ,
तुमने ऑफिस में अपना परिचय गलत क्यों दिया? झूठ क्यों
बोला....? सीधी तरह कह नहीं सकती थीं कि मेरी माँ हो? अपने को
पड़ोसी क्यों कहा? बोलो, माँ, बोलो।” मैंने माँ के कंधों को
झिंझोड़ते हुए पूछा।
माँ ने अपनी पुरानी घिसी हुई चप्पल और सस्ती साधारण-सी साड़ी की
तरफ देखा, फिर धीरे से शांत स्वर में बोलीं, “तुम्हारे कॉलेज
में सबको पता चलता, तो तुम्हारा कितना मजाक उड़ता! सब कहते कि
कैसी फटेहाल रहती है तुम्हारी माँ!”
मेरा मन चीत्कार कर उठा, “ओ माँ...! तुम नहीं जानतीं कि मेरी
निगाह में तुमसे बढ़कर किसी और चीज की कोई कीमत नहीं है।
तुम्हारी बराबरी भला कौन कर सकता है?” यह कहते हुए मैंने जबरन
माँ का हाथ कसकर पकड़ा और ऑफिस में ले गया।
ऑफिस में डीन के अलावा भी बहुत से लोग थे। सब के सब
सूटेड-बूटेड। मेरी माँ ने शायद पहनी बार स्वयं को ऐसे संभ्रांत
और कीमती कपड़े पहने लोगों के इतने बड़े समूह के समक्ष पाया था।
मैंने डीन और उपस्थित प्रोफेसरों से अपनी माँ का परिचय कराया,
“सर! ये मेरी माँ हैं। अपने-आप को तिल-तिल जलाकर मुझे पढ़ाने
वाली मेरी माँ। आज मैं जो कुछ भी हूँ, सब इन्हीं की रात-दिन की
मेहनत और त्याग-तपस्या का परिणाम है। मेरी माँ मुझे बहुत...।”
मेरा गला अवरूद्ध हो उठा। मुश्किल से आगे कह सका, “सर! गाँव से
बिलकुल अकेली आयी हैं...ट्रेन और बस की यात्रा करके...छह
किलोमीटर पैदल चलकर...मेरे पास...।” मेरी आवाज टूटने लगी और
आँखों से आँसू छलक उठे।
मैंने देखा, डीन की आँखों में भी नमी उभर आयी थी। उन्होंने
हल्के से मेरी पीठ थपथपायी और धीरे से बोले, “मैं समझ सकता
हूँ।”
सभी प्रोफेसर खड़े होकर मेरी माँ को बधाई दे रहे थे। उन्होंने
माँ को कुर्सी पर बिठाया। एक प्रोफेसर ने पानी का गिलास माँ की
तरफ बढ़ाया। माँ ने थोड़ा-सा पानी पिया और संकोच से डिब्बे को
खोलकर नारियल के लड्डू सबकी तरफ बढ़ाये। सबने एक-एक लड्डू
खुशी-खुशी स्वीकार किया।
मैंने देखा, सबकी आँखों में मेरी माँ के प्रति सम्मान और
प्रशंसा का भाव था। |