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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से प्रकाश गोविंद की कहानी— संकल्प


मैं जब भी नदी के किनारे खडे़ होकर अनवरत शांत बहती हुई नदी को देखता हूँ, तो बरबस मुझे माँ की याद आ घेरती है। सादगी और वात्सल्य की प्रतिमूर्ति जैसी मेरी माँ। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा अद्भुत रहस्य समाया रहता, जिसको शब्दों में तो नहीं समझाया जा सकता, लेकिन उनके स्वभाव की सरलता और मन की विशालता उनसे मिलकर साफ-साफ अनुभव की जा सकती है।

मेरी माँ ने मेरे लिए हर कदम पर कितना संघर्ष किया है, मेरे लिए किस कदर त्याग किया है, यह सिर्फ मैं जानता हूँ या फिर ईश्वर। सच तो यह है कि माँ ने कभी भी अपनी तकलीफ का अहसास मुझे नहीं होने दिया। उन्होंने कभी भी अपने मुँह से यह नहीं कहा कि मेरी खातिर उन्होंने कितना कुछ सहन किया है।

मुझे गाँव का अपना टूटा-फूटा घर आज भी याद है। घर के अंदर खिड़की से लगा वह छोटा-सा हिस्सा क्या मैं कभी भूल सकता हूँ, जहाँ मुझे बिठाकर वे कपड़ों की सिलाई करती थीं। आँगन में लगा नीम का पेड़ मेरी स्मृतियों में आज भी है। मेरा कोई भाई-बहन नहीं था। अपने पिता का तो मुझे स्मरण भी नहीं है। मैं बहुत छोटा था, तभी उनका स्वर्गवास हो गया था। माँ मुझे उनके विषय में कुछ-कुछ बता चुकी थीं। वे प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे। माँ के बक्से में उनकी दो-तीन फोटो रखी थीं।

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