जहाज
की ‘बो’ (चोंच) के आगे नाचती डाल्फिनें अब ‘पोर्टहोल’
(खिड़कियाँ) से फूटती रोशनी में अठखेलियाँ कर रही थीं। पूरे सफर
के दौरान ‘पूप्स’ (जहाज के छोरों) और ‘मंकी आइलैंड (अगले छोर
पर नेवीगेटर के बैठने हेतु बना ऊँचा मचान) पर बसने-विचरने वाले
सफेद-स्लेटी कबूतर जैसे समुद्री पाखी-सीगल-कहीं उड़ गए थे। जहाज
के ‘क्रियू’ (कर्मचारी-दल) के लोग जहाज से उतर चुके थे।
बंदरगाहों के इलाके में शराब के बार और वेश्यालय आम हुआ करते
हैं, जहाँ जहाजी अपनी मानसिक-शारीरिक थकान से मुक्ति पाने के
औजार तलाश लेते हैं।
जहाजियों के यायावर जीवन में ऐसे अवसर दुर्लभ होते हैं जब किसी
पराए मुल्क के किसी बेगाने शहर में किसी अजनबी से मन के तार
जुड़ जाते हैं। घर से छूटे जहाजियों के मन का कोई कोना
देश-विदेश की रंगीनियों के बीच भी रिक्त ही रहता है।
पिछली दफा जब अजहर कराची आया था तो हामिद अजहर के मन के
इस तपते रीतेपन में मानो किसी शीतल बूँद-सा अनायास ही टपक पड़ा
था।
वह भी ऐसी ही एक शाम थी जब अजहर महज वक्तगुजारी के लिए टहलता
हुआ मिर्जा इस्माइल रोड तक जा निकला था। ...जब उससे कुछ ही कदम
आगे एक हादसा पेश आया था जिसमें एक सात-आठ साल का स्कूली लड़का
सड़क पार करते वक्त एक तेज रफ्तार वाहन की चपेट में आ गया था।
...जब अजहर ने उस लड़के को पास के अस्पताल तक पहुँचाया था और जब
लड़के की हालत सुधरी थी तो वह उसे उसके घर तक छोड़ने मिर्जा
गालिब रोड पर स्थित उसकी कोठी पर भी गया था।
उस लड़के-हामिद का पिता एक नौसैनिक जहाज में टारपीडो ऑपरेटर था,
जो रिटायरमेंट के बाद एक तेलवाहक कार्गोशिप (मालवाहक जहाज) पर
नौकरी करने लगा था और आगजनी के भीषण हादसे में दुर्भाग्यवश
अपनी जान गवाँ बैठा था। तब शायद हामिद बहुत छोटा था, पर बेहद
जहीन उस बच्चे के जेहन में अपने पिता की यूनीफॉर्म वाली छवि
कुछ इस कदर बावस्ता थी कि यूनीफॉर्म वाले हर जहाजी में उसे
अपने मरहूम वालिद की ही छाया दिखती थी।
हामिद की बेवा माँ-रेहाना एक कॉलेज में लेक्चरार थी जो ‘बच्चों
पर मीडिया का दुष्प्रभाव और समाज का दायित्व’ विषय पर शोध कर
रही थी। वैसे तो काफी मिलनसार, खुशमिजाज और मेहमाननवाज महिला
थीं रेहाना पर वे अपने काम में कुछ इस कदर मसरूफ रहती थीं कि
अपनी इकलौती संतान हामिद के लिए भी उनके पास बेहद कम वक्त होता
था। शायद वे उन कैरियरप्रिय लोगों में से थीं, जिन्हें अपने
बच्चों की फुंसीनुमा मुश्किलें तब तक नजर नहीं आतीं जब तक कि
वह फोड़े जैसी दुश्वारियों में तब्दील नहीं हो जातीं। दो-चार
मुलाकातों में ही औपचारिकताएं खत्म होने लगी थीं और अजहर के
बारे में काफी कुछ जानने के बाद एक दिन रेहाना ने हैरत से पूछा
था।
‘‘अल्लाह...! इस उम्र तक आपने शादी नहीं की’?...क्यों?’’
’’बस, यों ही।’’
’’कुछ तो बात होगी।’’
’’बात क्या होनी है। डरता हूँ और क्या,’’ अजहर ने प्रसंग को
हल्का करते हुए कहा था-’’...क्योंकि शादी से पहले लड़कियाँ
सिर्फ एक अदद पति की मन्नतें माँगती हैं पर शादी के बाद पति के
अलावा बहुत कुछ...शादी के बाद बीवियों की बढ़ती जरूरतें आदमी की
पीठ को धनुष की तरह कमानीदार करती जाती हैं।
’’यह तो कोई बात नहीं हुई।’’ रेहाना मुस्कुराने लगी थी।
’’बात यह भी है कि शादी के बाद हर आदमी परले सिरे का अहमक और
अव्वल दर्जे का नाकारा साबित होता है...कम-से-कम अपनी बीवी की
निगाहों में तो जरूर इसलिए मैंने...’
रेहाना खुलकर हँस पड़ी थी। उन्मुक्त चाँदनी सी शफ्फाक हँसी।
अजहर ने हफ्तेभर के उस दौरे में ही हामिद को ढेर सारे महँगे
खिलौने उपहार में दे डाले थे। रेहाना ने अपने पर भरा उलाहना भी
दिया था, ’’आप हामिद मियाँ की आदतें खराब कर रहे हैं अजहर
साहब।’’
अजहर ने बात अनसुनी कर दी थी पर वह रेहाना के इस अनुरोध को
अनसुना नहीं कर सका था कि वह जब भी हामिद से मिलने आए तो
जहाजियों की वर्दी में ही आए। उसे अच्छा लगेगा, क्योंकि नन्हें
हामिद को यूनीफार्म में शायद अपने
वालिद मरहूम का अक्स दिखाई देता था। अजहर ने भी बेसाख्ता ही
चुभती हुई सी बात कह डाली थी-’’बच्चों को बाप के अक्स की नहीं
बल्कि एक अदद बाप की जरूरत होती है मोहतरमा।’’
’’दुरूस्त फरमाने हैं आप,’’ रेहाना ने दीवार पर टंगे कैलेडर को
घूरते हुए संजीदगी से कहा था-’’पर सोचती हूँ इसके लिए दूसरा
जहाजी बाप कहाँ तलाश करूँगी?’’
’’कोई ज्यादा मुश्किल काम तो नहीं है यह।’’ अजहर ने सहजता से
कहा था। रेहाना भी अब पुनः सहज हो गई थी। अजहर की ओर शरारत से
देखा था।
’’हाँ...! आपके बारे में भी सोचा जा सकता था, अगर आप
हिन्दोस्तानी न होते तो...’’
और वह ठहाका लगाकर हँस पड़ी थी गोया कोई उम्दा चुटकुला कहा हो।
अजहर के जेहन में यह एक शब्द ’हिन्दोस्तानी’ जैसे किसी
काँटे-सा धंस गया था। हिन्दुस्तानी...या मुहाजिर...? मानो कोई
गाली हो। जब मशरकी-मगरबी जर्मनी की दीवार ढहाई जा सकती थी
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच तो महज कुछ पहाड़ियाँ, थोड़ी रेत
और चंद काँटों की बाड़ें थीं। वो तो
दोनों मुल्कों के सियासतदानों ने इस पड़ोसी रिश्ते को काँच की
गुड़िया बना रखा है, वर्ना दोनों मुल्कों की आवाम, कलाकार और
अदीब जो चाहते हैं, छुपा नहीं है। फासले तो चुटकियों में तय
किए जा सकते हैं।...पर बात चूँकि हँसी में कही गई थी, इसलिए
इसे संजीदगी से लेना बेवकूफी होती। तब अजहर तकरीबन रोज हामिद
से मिलने जाया करता था। रेहाना अपनी मसरूफियत में और हामिद
अक्सर टेलीविजन से चिपका मिलता। अपनीे माँ की मौजूदगी में की
टिश्यू-सेल, मात्रा-भर घनत्व या सजीव-निर्जीव के फर्क में उलझा
रहता हामिद या फिर रेहाना के ’गेंद इधर-उधर मत पटको,’...’धूप
में मत खेलों’, ’डोंट डिस्टर्ब मी’, आदि-आदि जुमले झेल-थक कर
टीवी खोले बैठा रहता। मौजूदा दौर में जब तालीम और मीडिया के
खतरनाक घालमेल ने बच्चों से उनका बचपन ही छीन लिया है, अजहर से
मिलते ही हामिद सचमुच बच्चा बन जाता। चींटे की भाँति अजहर से
चिपक जाता।
’’ कैप्टन चाचा, कोई कहानी सुनाओ...’’
’’मैं कैप्टन नहीं हूँ नन्हे मियाँ,’’ अजहर उसे बार-बार याद
दिलाता-’’मैं तो शिप पर एक मामूली पर्सर (खजांची) हूँ।’’
’’नो...मैं तो तुम्हें कैप्टन चाचा ही कहूँगा।’’
’’मर्जी आपकी...!’’ अजहर हथियार डाल देता। फिर शुरू हो जाती
रोमांच की कोई नई गाथा। सिंदबाद, गुलीवर, वास्को-डी-गामा और
मेग्लान जैसे खोजी जहाजियों के अभियान के किस्से।
हामिद और रेहाना के सान्निध्य में गुजरे उन चंद दिनों में अजहर
बड़ी शिद्दत से महसूस करने लगा था कि आदमी की जिंदगी में ठहराव
की भी बड़ी अहमियत होती है। शादी के मुताल्लिक वह इतना संजीदा
कभी नहीं हुआ था। दस दिनों की उन मुख्तसर और टुकड़े-टु़कड़े
मुलाकातों ने उसके ख्यालों में एक इंकलाबी बदलाव ला दिया था।
जब वह कराची से विदा हो रहा था तो हामिद अपनी माँ के साथ
बंदरगाह के डॉक पर उसे विदा करने आया था। वह एक धुंध भरी ठंडी
सुबह थी। जहाज किनारा छोड़ रहा था। हामिद ठंड से काँपते हाथ
विदा में हिला रहा था। हामिद के साथ खड़ी, हामिद की आदतें
बिगाड़ने की शिकायत करने वाली उसकी माँ की ’तुम फिर आना’ कहती
आँखें...! कोहरे में गुम होते माँ-बेटे के विदा में हिलते
हाथ...! कई रातों तक उन आँखों...उन हाथों ने अजहर को सोने नहीं
दिया था। शादी की फाँस कभी गले में ना डालने वाली उसकी
पूर्वाग्रहग्रस्त मान्यतायें अब ध्वस्त हो चुकी थीं। अब वह
शादी के बारे गम्भीरता पूर्वक विचार करने लगा था। आज फिर वह
कराची में था। अपने नन्हे दोस्त हामिद के शहर में। रेहाना के
शहर में। अजहर ने घड़ी देखी। अभी कोई ज्यादा वक्त नहीं हुआ था।
अपने नन्हे दोस्त से मिलकर, रेहाना के पास अपनी आमद दर्ज करने
के बाद भी वह आराम से अपने लिए कोई होटल तलाश सकता था। मिर्जा
गालिब रोड की वह कोठी मानो उसे अपनी ओर खींच रही थी।
उसके शरीर पर जहाज की वर्दी थी। सफेद कमीज, सफेद पतलून और
कन्धे पर टंगा नीला ओवरकोट...! जहाज ’सी-वर्ड’ के चमकते
मोनोग्राम वाली पीक-कैप को उसने सिर पर करीने से जमाया और
’गैंग-वे’ से गुजरता हुआ बाहर की ओर निकल पड़ा। यह सोचता हुआ कि
इस बार वह हामिद को कौन-सी कहानी सुनाएगा। कहानियाँ पढ़ने और
कविताएं लिखने की उसकी ’बुरी’ लत से उसके पिता हमेशा खफा रहते
थे।
-’इतनी मशक्कत की होती मियाँ तो कलेक्टर बन गये होते।’
अजहर कभी अपने पिता को यह नहीं कह सका था कि मशक्कत करके
कलक्टर तो शायद बना जा सकता है पर अदीब कतई नहीं। अपनी
नाकामियों के आइने में अपने बच्चों के भविष्य की नोंक-पलक
संवारने वाले शायद यह कभी नहीं सोचते कि दरअसल उनके बच्चे क्या
चाहते हैं बल्कि वह अपने बच्चों को वह पढ़ाना-बनाना चाहतें हैं
जो वह खुद ना बन सके। जहाज पर अजहर के सहकर्मी भी कभी-कभार
खिल्ली उड़ा बैठते थे।
-’’अफसाने-अशआर गढ़ने थे मियाँ तो खुश्की पर ही रहते, जहाज पर
आने की
क्या जरूरत थी?’’
कुछ भी तो नहीं बन पाया था अजहर। न कामयाब बेटा, न कामयाब
लेखक, न कामयाब आदमी। चूंकि जीने के लिए कुछ ना तो कुछ तो करना
ही था सो उसकी
फक्कड़ तबियत और आवारा फितरत को जहाजी नौकरी रास आ गई थी। वह
पैदल ही चलता-टहलता हामिद के घर तक आ पहुँचा था। मुख्यद्वार के
पैनल में लगी ’कॉलबेल’ का स्विच दबाया था। उत्तर में कुछ देर
बाद दरवाजे और चौखट के बीच पतली-सी दरार पैदा हुयी। उस झिर्री
में से झांकता उसे अपने नन्हे दोस्त हामिद का चेहरा दिखाई पड़ा।
’’हल्लो...!’’ वह उत्साह से बोला, ’’मै। अजह...कैप्टन चाचा।’’
हामिद के चेहरे पर हर्ष और उल्लास के बदले तनाव के लक्षण प्रकट
हुए।
उसकी आँखों में एक अजीब-सा अजनबीपन उग आया था। दरवाजा खोलने, न
खोलने के बीच झूल रहा था हामिद। हठात् वह बोल उठा।
-’’अब हम दोस्त नहीं हैं। मैं किसी इंडियन से बात नहीं
करूँगा।’’
’’पर सुनो तो दोस्त...!’’ अजहर ने मुस्कुराते हुए पूछा-’’बात
क्या है? हुआ क्या जो...!’’
’’तुम दुश्मन हो। दुश्मन देश के जहाजी...।’’
’’पर मैं तो वही हूँ। तुम्हारा कैप्टन चाचा...भाई दरवाजा तो
खोलो। इस बार तो मैं तुम्हें ’मार्कोपालो’ और ’ड्रेक’ की
कहानियाँ...!’’
’’नो...ले जाओ अपनी कहानियाँ।’’ बच्चे की आवाज जहरीली हो
उठी-’’यू ब्लडी इंडियन, आई हेट इंडियंस! आई हेट यू टू...!’’
...और फिर धड़ाक से दरवाजा बन्द...! बंद होते पल्लों की धमक से
ज्यादा जोरदार...सैकड़ों नॉटिकल मील की रफ्तार वाले टारपीडो
जैसे हामिद के शब्द अजहर की चेतना से टकराये थे। उसकी उंगलियाँ
दरवाजे की फाँक में पिसते-पिसते बची थीं पर बहुत कुछ ऐसा भी था
जो पिस गया था।
’’तीन दिन...’’ अजहर बंद दरवाजे से मुखातिब हुआ-’’बस तीन दिन
हैं मेरे पास नन्हे मियाँ। फिर मैं चला जाऊँगा। मेरी बात सुनो।
बताओ मुझे, मैंने क्या कर दिया ऐसा जो...’’
अजहर काफी देर तक दरवाजा खुलने का इन्तजार करता रहा। हतप्रभ था
वह। पता
नहीं क्या हो गया था हामिद को। उसके व्यवहार में यह तब्दीली
क्यों...? कैसे...?? अजहर के साथ घण्टों लसूड़े की तरह चिपके
रहने वाले मासूम के तेवर में आए इस बदलाव का राज तब खुल नहीं
सका। शायद रेहाना घर में नहीं थी, वरना हामिद उसके साथ इतनी
बदतमीजी और बेअदबी से पेश नहीं आता। आखिर क्यों अचानक
हिन्दुस्तानियों के सिर पर कैक्टस उग आये थे? वह कोठी से बाहर
निकला। मन गहरी खरोंचो से आहत हो गया था।
शहर की तमाम दुकानें और यातायात आज बड़ी जल्दी बन्द हो गये थे।
गलियाँ यों वीरान थीं मानों कोई राजकीय शोक मनाया जा रहा हो।
अभी तो समय भी कोई ज्यादा नहीं हुआ था। पर शहर की फिजां में
कुछ बात ज़रूर थी, जिसे वह आते वक्त ख्यालों की रौ में बहने के
कारण महसूस नहीं कर सका था शायद। अगले तीन दिन वह इस झटके से
उबरने, शराब, जुए, औरत, बिस्तर और हैंगओवर में कुछ इस कदर
बेतहाशा गर्क रहा कि दीन-दुनियाँ की खबर ही नहीं रही। चौदह
तारीख को उसे वापस अपने जहाज पर अपनी आमद की रिपोर्ट देनी थी।
जब नशा उतना तो अजहर ने एक बार फिर हामिद के घर जाने का निश्चय
किया।
कम-से-कम पता तो चले कि वह बात क्या थी जो हामिद यों आपे से
बाहर हो रहा था।
तेरह मार्च की शाम को वह लारेंस के होटल की बेसमेंट वाले
’बार-कम-रेस्तरां’ में बैठा था। अगली ही सुबह उसका जहाज कराची
छोड़ने वाला था। हामिद से आखिरी बार जरूर-जरूर मिलने का फैसला
करने के अगले ही पल शराबखाने में मानो कहर बरपा हो गया।
कुर्सियाँ उलटते, मेजें पीटते, क्राकरी-बोतलें फर्श पर पटकते,
चूर करते कई युवक बार में तूफान की भाँति दाखिल हुए। फर्श को
रौंदते वे काउंटर तक पहुँचे।
’’शैंपेन लाओ लारेंस’’, एक चिल्लाया, ’’हम सेलिब्रेट करेंगे।
साला इंडिया कलकत्ता मैच हार गया। श्रीलंका के चीतों ने साले
चूहों को कुचल दिया।’’ फिर वे शैंपेन की उफनती झाग में
डूबते-उतराते भारत की किसी हार को ’सेलिब्रेट’ करने लगे।
अजहर रेस्तरां से बाहर आ गया। शाम गाढ़ी हो चली थी। आसमान में
रह-रहकर बिजली-सी चमक रही थी। धुंआधार बम-पटाखों के अनवरत शोर
से पूरा बंदरगाह का इलाका गूंज रहा था। आकाश में रंग-बिरंगी
रोशनियों के शरारे छूट रहे थे। अजहर के मस्तिष्क में भी जैसे
कोई आतिशबाजी का अनार-सा ही फूटा, जिसकी जगमग दूधिया रोशनी में
उसे अपने घर के दरवाजे की फाँक से झांकता हामिद का
भोला पर तमतमाया चेहरा साफ-साफ दिख पड़ा...’’चले जाओ...तुम
दुश्मन...यू ब्लडी इंडियन...आई हेट इंडियंस...’’ बच्चे की आवाज
में वायलर में उबलते पानी से उठते भाप जैसी जलन थी।
...’’या खुदा...!’’ जरूर पिछली मुलाकात में हामिद भी क्रिकेट
की ही बात कर रहा था। उस रोज विश्वकप के बंगलौर मैच में
पाकिस्तान भारत से हार गया था। जरूरत से ज्यादा टी.वी. देखने
और स्क्रीन पर उभरने वाले चरित्रों को आत्मसात कर लेने की कूबत
रखने वाले हामिद के दहकते लावों की तपिश को अजहर ने अब महसूस
किया।
उत्तेजना के क्षणों में पर्दे पर आने वाले चरित्रों के साथ
स्वयं को जोड़ लेने की एक स्वाभाविक मानसिकता होती है बच्चों
में। हामिद तो टी.वी. देखते वक्त अपने प्रिय चरित्रों-पात्रों
के साथ मानो दृश्य में खड़ा ही हो जाता था। सशरीर शामिल। शायद
बच्चे के चिकने-साफ़ जेहन पर अपने वतन की ’पारंपरिक
प्रतिद्वंदी’ के हाथों हुई हार ही काई-सी जम गयी थी। दर्जनों
चैनलों पर अनवरत बहते,...बच्चों की नसों में आँखों की राह से
इंजेक्ट हो रहे सांस्कृतिक प्रदूषण के शिकार अपने नन्हे दोस्त
से अजहर को सहानुभूति हो आई।
एक गेंद फेंकने वाला, दूसरा गेंद पीटने वाला और दस बेवकूफों की
भाँति उन्हें घूरते रहने या कभी-कभार गेंद के पीछे भाग लेने इस
खेल में अजहर की कभी भी दिलचस्पी नहीं रही थी। ’स्लिप’, ’गली’,
’कट’ और ’गुगली’ जैसी क्रिकेट की शब्दावली कभी उसके पल्ले नहीं
पड़ी थी। काश, उसे उसी शाम हामिद के गुस्से...उसकी बातों में
निहित अर्थ का इलहाम तक हुआ होता...। शायद तब वह अपने नन्हे
दोस्त को समझ लेता।
आज शायद वह भी बहुत खुश होगा। वह भी
अपने तरीके से ’सेलिब्रेट’ कर रहा होगा। आज तो उसका
दुश्मन-इंडिया-हार जो गया था। कहीं ऐसे ’खुशगवार’ मौके पर उसका
हामिद के घर जाना रंग में भंग ना डाल दे। वैसे भी शराब की
मुश्क लिए उन माँ-बेटों के सामने जाने से वह परहेज ही रखता आया
था। ठंडे दिमाग से, काफी सोच-विचार के बाद उसने हामिद से मिलने
का इरादा मुल्तवी कर दिया और अपने जहाज की ओर चल पड़ा। जहाज के
पंछी का अंतिम ठिकाना फिर-फिर जहाज ही होता है।
जहाज़ पर पहुँचकर अजहर भी अपने नन्हें दोस्त हामिद की खुशी को
’सेलिब्रेट’ करने लगा। हामिद की बातों की तमाम तल्खी, वह शराब
में घोलकर पी जाना चाहता था ताकि यदि कभी अगली मुलाकात की कोई
गुंजाइश बाकी हो तो उसमें इस बार की कटुता का निशान तक बाकी ना
रहे।
सारी रात... भोर का धुधलका उगने तक, जहाज के खुलने तक वह शराब
की बोतल के सामने ही बैठा रहा। समुद्र में उठा उतरता ज्वार
मानों बोतल में भी उतर आया था और सारी रात घूँट-घूँट कर उसके
भीतर उतरता जा रहा था। जहाज पर वापस लौट आए निडर समुद्रपाखी
उसके आसपास फुदकने लगे तब कहीं भोर का अहसास हुआ।
आखिरकार सायरन बज़ी। ’सी-बर्ड’ समुद्र की छाती को मथता अपने आगे
के सफर
पर चल पड़ा। रेलिंग से पीठ लगाए फर्श पर बैठा अजहर कोहरे में
लिपटे किनारे
की ओर ताक रहा था। इस बार न तो वहाँ विदा में हिलता कोई हाथ था
और न ही किसी की ’तुम फिर आना’ कहती आँखें...!
अचानक उसे लगा... या किनारे से दूर होते जहाज से उसने
देखा...शायद...उसका नन्हा दोस्त डॉक पर खड़ा विदा की मुद्रा में
हाथ हिला रहा है।...जरूर शराब मेदे से सिर में चढ़ आई थी। उसे
ज्यादा नशा हो गया था। उसने सिर को ताबड़तोड़ कई झटके दिए। एक
क्षण को फिर हामिद का हिलता सिर उसे स्पष्ट दिखा। इस बार तो
रेहाना भी... और फिर धुंध...और धुंध...! शायद कुहासा कुछ हल्का
हो तो फिर कुछ साफ दिख सके। वह किनारे की ओर नजरें गड़ाए रहा पर
कोहरा तो गाढ़ा...और गाढ़ा होता जा रहा था। अजहर फैसला ना कर सका
कि किनारे से दूर होते हुए उसने जो देखा वह सच था, या नशे से
बोझिल आँखों का धोखा...! न जाने क्या था घने कोहरे के पार...! |