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वात्सल्य की एक दुधमुँही गंध बाप के नथुनों में भर उठी। नींद में ही एक स्वर्गीय सुख का टुकड़ा आ गिरा। हौले-हौले थपकी देने लगा- “सो जा मेरे लाल, सोजा...।” लाल हुमसकर थोड़ा ऊपर सरका और बाप की नुकीली नाक से अपनी नाक भी जोड़ दी। फिर तनिक आँखे खोलकर बाप की आँखो में झाँका। ऐसी बंद जैसे कभी खुली ही न रही हों। फिर सिर घुमाकर माँ की ओर देखा। सोती माँ प्यारी लगी। प्यार उमड़ा, पर दबा दिया। अब इधर-उधर देखकर सहमे हुए सन्नाटे का जायजा लिया। सब ठीक। लेकिन कुछ ही पल बाद बाल शृंगाल की व्याकुलता फिर उमगी, फुसफुसाया –“पापा, ओ पापा !” पापा हरकतहीन। अब पापा के सीने पर ही छोटा शृंगाल उठकर बैठ गया। नन्हे पंजों से पापा का मुँह हिलाया। पापा वैसे ही निश्चल। जैसे दुनिया में ‘चल’ कुछ होता ही न हो। अब छोटे ने सिर नीचे झुकाकर, पापा के कान के पास मुँह ले जाकर मन्त्र फूँका –“पापा, नींद नहीं आ रही है।”

मन्त्र तो दग उठा। पापा भी दगे- “चुप्प! अभी माँ जग गयी तो याद रख!” पापा ने आतंक की घुंडी को और घुमाया- “सुबह तक पिटता ही रहेगा। मैं नहीं बचाने आऊँगा।” फिर उस नन्ही मुसीबत का सिर, सीने पर जबरन दबाकर, जोर-जोर से थपकियाने लगे । धमकियाने जैसा।

पापा की थपकियाँ धीमी पड़ीं, रेशमी थपकियों में तब्दील हुईं और बाल मन को सहलाने लगीं। नन्हा शृंगाल कुछ ही पलों में परियों के देश में।

इधर माँ का दिल रात में अपने सलोने के लिए छटपटाया। सिर उठाकर देखा, कलेजे का टुकड़ा बाप के सीने पर चिपका सो रहा था। दिल किया, जाकर अपने सीने पर खींच लाए, लेकिन मन मार लिया।

सुबह माँद के चारों ओर, लाल-पीले पल्लवों-सी, सूरज की कोमल किरणें आसमान से झरने लगीं। जैसे किसी बूढ़े बुनकर ने सोने के महीन तारों का, आसमान से पृथ्वी तक, तान फैलाया हो।

तीन शृंगाल शावक, इन्हीं सुनहरे तारों के बीच उलझे, उछल-कूद कर रहे थे। लेकिन शेर की दुम के खोजी बच्चे को माँ सुबह से ही गोद में लिए, दुलरा-दुलराकर थकी जा रही थी। जैसे रात में छूटे हुए प्यार की भरपाई कर रही हो।
बाप यह देख-देखकर मुस्करा रहा था। मसखरी से कहा-’’अरे, अब क्यों नहीं माँ से दुम के बारे में पूछता?’’
’’नहीं पूछूँगा!’’ नन्हे सियार ने क्रोध से शब्दों को बाप के सामने दे मारा। उसे बाप का, माँ-बेटे के प्यार में विघ्न डालना बिल्कुल बर्दाश्त न हुआ। गर्दन को तिरछी करके यों घूरने लगा जैसे कह रहा हो-हमारे बीच में मत पड़ो।
’’ठीक है बच्चू, अब आना रात में कभी बाप के पास!’’ बाप ने भी तुरुप का पत्ता चला। लेकिन बेकार। इस समय तो माँ बेटे में छन रही थी।
माँ, बच्चे को गोद में और करीब समेटकर, जोर-जोर से हँसने लगी। बाप भी क्या करता, वह भी एक खिसियानी-सी हँसी हँस पड़ा।

वह चुप, धीरे से उठा और आँखों से प्यार टपकारा आकर बाप के मुँह से मुँह लगाकर बैठ गया। फुसफुसाया- ’’मैं रात में तुम्हारे पास आऊँगा, रोज!’’
’रोज’ पर उसने बड़ा जोर दिया जैसे बाप को लालच दे रहा हो। फिर कनखियों से माँ की ओर देखा कि कहीं सुन तो नहीं रही! डसे नहीं मालूम कि माँ, बिना सुने, सब सुन लेती है। वह जोर-जोर से अब भी हँसे जा रही थी।......
कुछ समय पश्चात माँ-बाप आहार की खोज में जंगल में निकल गए। चारों शावक वहीं माँद के आस-पास की हरी झाड़ियों के बीच खेलते रहे। जाड़े की धूप खुले दिल से बिखरी थी। एक छोटे-से टीले पर बनी यह माँद जाड़े में बहुत मजा देती थी। इसके इर्द-गिर्द बस छोटी झाड़ियाँ थीं, उनके नन्हे-नन्हे साए थे, पर धूप अवरोधक वृक्ष निकट कहीं नहीं।
लेकिन जंगल का कोई व्याकरण तो होता नहीं। किस समय कहाँ क्या घट जाए, कोई कुछ नहीं कह सकता। और सच कहें तो जंगल की इसी व्याकरणहीनता के बीच ही जंगल का सारा जंगलपना छिपा होता है और जंगल-जंगल बना रहता है।

और हुआ वहाँ कुछ ऐसा ही। देखते ही देखते वहाँ एक महान आश्चर्य आकर प्रकट हो गया। एक विशालकारय पीला जीव जाने कब आकर खड़ा हो गया, सियारों से छह गुना बड़ा। मुँह और भी भयंकर। बस दाँत ही दिखाई दें। नाक पता ही नहीं, कान भी बस काम-भर के। और आँखें? देखों तो बस देखने भर की। लेकिन खूनी। लगता, यह तो बस पैरों और दाँतों के लिए ही गढ़ा गया है।

दहशत का दारुण विस्फोट। शावक कूद-कूदकर माँद में। साँसें अंधड़। बाप रे बाप! बाल-बाल बचे! आखिर है यह कैसी आफत! और ये काली धारियाँ कैसी ? पीछा गया है क्या ? हजार सवाल जवाब कोई नहीं। सीना धक-धक, तो बस धक-धक!

धारीदार कुछ बोल नहीं रहा। खड़ा है तो खड़ा है। इधर-उधर ताके जा रहा हैं आठ आँखें गुफा के अंदर चमचम। पीला जीव तनिक हिला नहीं, सब अंधेरे में फिर गुम।

एक टुकड़ा समय बीता। डर कुछ कम। एक सिर धीरे से उजागर। एक प्रश्न गोली जैसा दगा-’’तुम कौन?’’ और गप्प से फिर अंदर।

अबकी बार-सिर निकला तो पीला जीव हँसने लगा एक दुलार की हँसी। डर कुछ और कम। चारों कोमल सिर नमूदार। दुम, टाँगें, धड़ भी बाहर सब समूचे बाहर। माँ का लाड़ला मोर्चा सम्हाले सबसे आगे। बार-बार पीछे देखे। बाकी तीनों दुम भी उपस्थित। फिर वही प्रश्न, लेकिन अबकी ताकत से-’’कौन हो तुम?’’
’’डरो नहीं, बिल्ली से सियार कहीं डरते हैं?’’ पीला जीव बड़े प्यार से बोला। अपने को बिल्ली बताया। मुस्काया भी। जैसे बाप लोग मुस्काते हैं।
’’बिल्ली तो सियार से छोटी होती है, अम्मा हमारी बताती है।’’ खोजी शावक का संदेह, साथ में अम्मा का वजन।
’’कभी-कभी जंगल में अजूबा हो जाता है।’’ बिल्ले ने शंका का निवारण किया, साथ ही मुस्काया।
’’तुमने शेर की दुम देखी है?’’ खोजी सिर से फिर बाहर हुई पुरानी जिज्ञासा।
’’भला उसकी दुम भी कोई दुम होती है! बस, एक पतली डंडी होती है, ऊपर घूमी हुई।’’ बिल्ले ने इस तरह मुँह टेढ़ा करके कहा जैसे किसी घृणित वस्तु का मजबूरन बखान करना पड़ रहा हो।

’’तुम्हारी तरह?’’ बड़ा सीधा लेकिन बड़ा अटपटा प्रश्न। जाने किस छोटी खोपड़ी ने यह प्रश्न उछालकर बाहर किया।
’’बस-बस, ठीक पहचाना!’’ बिल्ले ने एक बड़ी विश्वसनीय मुस्कान बिखेरते हुए कहा। आगे और जोड़ा-’’जब मैं पेट में था तो मेरी माँ ने किसी मनहूस दिन एक लंगड़े शेर को देख लिया था।’’ फिर आह भरते बोला-’’बस, समझ लो, उसी का दुष्परिणाम है यह टेढ़ी दुम, जिसे आज तक लटकाए घूम रहा हूँ।’’ फिर हँसकर बोला-’’गनीमत है, लंगड़ा नहीं हुआ।’’
’’कोई बात नहीं, अच्छे लगते हो।’’ चारों कोमल मुख एक साथ ढाढ़स बँधाते बोले।
’’क्या खाक अच्छा लगता हूँ! सियार की दुम की बात ही कुछ और होती है! काश, मेरी माँ ने उस दिन सियार देख लिया होता!’’ बिल्ले ने गहरी साँस लेते हुए जोड़ा-’’लेकिन मेरी किस्मत में ऐसी झब्बेदार दुम कहाँ!’’
चारों शावक अपने माता-पिता की दुम याद करने लगे। घूकर अपनी दुम भी निहारी। सोचा, यह बिलौटा कम से कम झूठ बोलना तो नहीं जानता।

मुश्किल तो यह भी थी कि छोटे शृंगालों ने कभी बिल्ली भी नहीं देखी थी। बस, माँ ने ही थोड़ा-बहुत बताया था।
’’हमने कभी शेर नहीं देखा।’’ माँ के लाड़ले ने बड़े अफसोस के साथ कहा।
’’हमारी माँद के चारों ओर तो हमेशा चक्कर लगाया करता है।’’ बिल्ले ने बड़ा सहज भाव दर्शाते हुए बताया। बोला-’’और कभी-कभी तो हमारी माँद को ही अपना बसेरा बना लेता है।’’
’’अच्छा! तो फिर तुम बिचारे क्या करते हो?’’ चारों शावक ने आँखें पसारकर एक साथ चिंता जताई।
’’अब हम शेर से तो पंगे ले नहीं सकते। बस, बिचारे बने ही, बाहर बैठे उन्हें ताका करते हैं कि कब राजा साहब तशरीफ ले जाएँ और हमारा डेरा हमें वापस मिले।’’ बिल्ले ने इतनी निरीहता से अपनी बात कही कि नौनिहालों का दिल पसीज गया।

’’तुम्हारा कष्ट सुनकर तो हमारा मन जाने कैसा हो गया!’’ चारों शावों ने च्-च् करते दुखी होकर कहा।
’’तुम सब दुखी मत होओ। यह तो जंगल है, यहाँ तो यही सब चला करता है!’’ कहते हुए शेर ने कुछ मरहम लगाया। फिर एकाएक बात बदलकर कहने लगा-’’तुम्हारी इच्छा शेर देखने की थी न?’’
’’हाँ ! हाँ ! क्या तुम दिखा सकते हो?’’ सभी नन्हे मुख व्यग्र होकर एक साथ चीखे। ’’इसमें क्या, अभी चलो!’’ बिल्ले ने खुली दावत दी।

और दावत कबूल। आगे-आगे एक पीला बड़ा बिल्ला, पीछे सियार के चार शावक। अनोखा जंगल, अनोखा दृश्य!
रास्ते में एक लकड़बग्घे की नजर पड़ी तो हैरान! यह हो क्या रहा है! रुक गया। देखता रहा। न रहा गया तो गला खखारकर पूछा- ’’इन्हें कहाँ लिए जा रहे हो?’’ व्यंग्य किया-’’सियार के बच्चों के धाय बन गए हो क्या?’’
दस फुटे बिल्ले ने बड़ी उपेक्षा और तिरस्कार से उस कसैले रंग-रोगन वाले उलार जीव को देखा।
’घृणित जीव!’ धीरे से बुदबुदाया और आगे चल दिया। सियार शावक वैसे ही कतार बद्ध पीछे।
’’ये अपनी ही माँसखोर बिरादरी के हैं!’’ उद्वेलित होते लकड़बग्घे ने पीछे से फिर आगाह किया चेताया-’’याद रखना, फिर न कहना.....।’’

लेकिन शेर को अपनी बात पर तनिक भी ध्यान न देते देखकर बदरंगा जीव, बात अधूरी छोड़कर, दाँत निपोरता आगे बढ़ गया।

पीला बिल्ला अपनी गुफा पर पहुँचा तो जंगल की रानी बाहर ही लेटी सो रही थी। उसने जब खुसर-फुसर सुनी तो सिर उठाकर देखने लगी। जो नजारा था उससे तो रानी की आँखें आसमान तक फट गईं। स्तब्ध! अचकचाकर मुँह से निकला-’’यह तुम सियार-पिल्लों के रखवाले कब से बन गए?’’
शेर हँस पड़ा। एक आँख दबाकर इशारा करते हुए बोला-’’ये सब शेर देखना चाहते थे, तो इस बिल्ली ने यह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, और ये यहाँ आ गए।’’ फिर बोला-’’आज इधर कोई शेर दिखाई पड़ा था क्या? वैसे तो रोज टहलते रहते हैं।’’
’’मैंने तो नहीं देखा।’’ शेरनी मुँह फाड़े ही फाड़े बोली, फिर बच्चों को देखकर हँसने लगी।
’’ये तो सो रही थीं। शेर, हो सकता है, आकर चला भी गया हो!’’ सियारिन के लाड़ले ने टोका। उसने शेरनी को सोते देख लिया था।

’’ये तुम्हारी जोड़ी हैं?’’ एक नन्हे जिज्ञासु के मुख से जिज्ञासा फूटी।
’’बहुत ठीक पहचाना, ये बिल्ली रानी हैं।’’ बिल्ला मसखरी से बोला-’’सुनहरी बिलौटी भी कह सकते हो!’’
’’क्या इनकी माँ ने भी लंगड़ा शेर देखा था?’’ बिल्ली रानी डंडीनुमा दुम पर नजर पड़ते ही एक अन्य बाल सियार ने अपनी प्रखर बुद्धि दर्शाई। प्रश्न सीधा, लेकिन सिर के बाल खड़ा करने बाला!
’’हो सकता है!’’ कहकर शेर ने जल्दी से बात टाल दी। जानता था, वार्ता आगे बढ़ी तो फिर दलदल ही दलदल।
’’तुम इन्हें जल्दी ही इनके बिल पर पहुँचा दो, माँ-बाप बहुत परेशान होंगे।’’
शेरनी के अंदर की माँ ने कुछ चिंतित होकर शेर को सलाह दी।

’’नहीं, वे नहीं होंगे।’’ चारों शावक एकदम से चीखने लगे-’’मेरे माँ-बाप बहुत मजबूत सियार हैं, वे परेशान नहीं होते।’’
दरअसल शावक वहाँ से टलना ही नहीं चाहते थे। इतनी बड़ी-बड़ी बिल्लियों के साथ मजे करने का मौका फिर कहाँ मिलता! वैसे भी वे अभी-अभी ही तो आए थे और पहली बार अपनी माँद से इतनी दूर बाहर जंगल में आए थे।
शेर हँसने लगा। बोला-’’कोई बात नहीं, कल फिर तुम्हें लाएँगे, और फिर तुम देर तक रुकना।’’
चारों शावक उदास तो हुए लेकिन वे उतावले भी थे-बड़ी पूसियों के बारे में माँ-बाप को बताने के लिए। इस उतावली में वे यह भी भूल गए थे कि वे यहाँ आए क्यों थे।

चारों शावकों को लेकर शेर वापस उनकी माँद की ओर चला। रास्ते में तमाम छोटे-बड़े जानवर मिले। सभी आश्चर्यचकित कि आखिर जंगल में हो क्या रहा है! रीछ ने ऊपर आसमान की ओर घूरा, कहीं सूरज आज टेढ़ा-मेढ़ा तो नहीं पैदा हुआ!
सियार व सियारिन अपने बिल पर जब वापस हुए तो बच्चों ने खुशी से चीख-चीखकर आसमान सिर पर उठा लिया। कूद-कूदकर माँ-बाप के ऊपर चढ़ गए। लगे चिल्लाने-’’...बड़ी भारी बिल्ली। पीली-पीली। काली धारी वाली, पहाड़ जैसी!’’
सब-के-सब, माँ-बाप का मुँह अपनी तरफ घुमा-घुमाकर यों चीखे कि वे बस उसी की बात सुनें।
’’माँ! पहाड़ जैसा बिल्ला-सच में पहाड़ जैसा!’’ एक ने हकर-हकर साँस खींचते हुए कहा-’’हमें अपनी बिल्ली रानी से मिलाया-दस सियार जितनी बड़ी-टेढ़ी दुम वाली!’’

माँ-बाप अचकचाकर एक-दूसरे को देखने लगे। कहानी की सब पर्तें खुल रही थीं। मन में सोचा-कौन कहता है, शेर दरियादिल नहीं होता!
बच्चों के रोमांच और उछल-कूद का उत्सव, शीत की रात का भरपूर निरादर करते, देर रात तक चलता रहा। बस, पीली बिल्ली, पीली बिल्ली और पीली बिल्ली! भूख गुम, खाना-पीना नदारद और माँ बाप की खुली छूट । बहुत-सा सोना और तमाम सुहागा।

लेकिन रात आधी बीतते-बीतते सभी नन्हे सिर नींद के झोंके की गिरफ्त में। नशे में झपकने लगे।
पुराना दृश्य अनावृत। वही गुफा, वहीं शृंगाल परिवार, वही बाल मुद्राएँ। सभी अपने-अपने स्थान पर। दो बाप से चिपके, दो माँ से लसे। एक के मुँह में माँ का स्तन उसी तरह चुलबुल। शेर की दुम का खोजी उसी प्रकार औंधाया पसरा। प्रश्न जारी-’’माँ, वह शेर था?’’

’’हाँ, शेर था। अब सो जा मेरे राजा।’’ कहते हुए माँ ने नींद भरी जम्हाई ली और कलेजे के टुकड़े को जोर से चिपका लिया।
’’माँ, हमें उसके साथ नहीं जाना चाहिए था?’’ घोर निद्रा में डूबते-डूबते, अस्फुट स्वरों में एक और प्रश्न।
’’क्यों नहीं! शेर के पास से भला तुझे कौन छीन सकता था, बेटे?’’ माँ ने ढाढ़स बँधाया और जोर से उसे चूम लिया। माँ अब पूरी तरह नींद में चली गई थी और छोटा शृंगाल भी कहीं सपनों की दुनिया में!

लेकिन कुछ देर पश्चात सोते में भी माँ को लगा जैसे उसका लाड़ला कुछ कह रहा है। वह कान लगाकर ध्यान से सुनने लगी। वह नींद में ही पुनः बोला-’’पीली बिल्ली, फिर आना!’’

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१९ नवंबर २०१२

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