मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


वहाँ उपस्थित सभी स्त्री-पुरूष समाज ने उम्मीद भी की कि अम्मा अपनी देवरानी के अंतिम दर्शन कर फूट-फूटकर रो पड़ेगी। लेकिन अम्मा को तो जैसे काठ मार गया।

लोगों की उम्मीद पर पानी फेरते हुए अम्मा ने अपनी चार फुटा डंडा अपनी टाँग के सहारे खड़ा किया, जिसका सहारा लेकर अम्मा खटखट करती सारे घर में घूमती हैं। दोनों हाथ जोड़े। गर्दन झुकाई। लोग अवाक् क्या अम्मा सठिया गई हैं। जो अम्मा देवरानी से पाँव दबवाते कभी थकती नहीं थीं, जिनके लिए मुँह से कभी आशीष के दो शब्द नहीं निकलते थे-अम्मा उन्हीं को प्रणाम कर रहीं हैं। लोगों ने अपनी आँखों से आश्यर्च देखा, फिर आश्चर्य सुना, अम्मा कह रही थीं -
‘‘
छोटी मुझसे पहले कैसे चल दी ?’’

फिर अम्मा वहीं दीवार का सहारा लेकर बैठ गई। परिवार में अम्मा ही एकमात्र बुजुर्ग बची थीं। वहीं बैठी-बैठी अम्मा अंतिम क्रिया के निर्देश बहुओं को देने लगीं। लोगों को लगा, अम्मा अब बचने वाली नहीं जल्दी ही चल देंगी। एक बार फिर पण्डित जी ने पत्रा खोलकर बाँचा। मृतका पंचकों में पंचतत्व में विलीन हुई थी, जिसका साफ मतलब था कि अभी इस परिवार में चार मृत्यु और होंगी। घर में बुजुर्गों की गणना और उनकी आयु का हिसाब उँगलियों पर लगाया जाने लगा। सबसे पहले सबका ध्यान अम्मा की ओर गया। पंचकों की बात सुनकर अम्मा और भी निरीह हो उठीं। झुर्रियाँ और गहरा गई। आँखें और भी पथरा गईं।

अम्मा को लगता रहा था कि मरना इतना आसान नहीं है। वह जितना मरना चाहतीं उन्हें उतना ही जीना पड़ रहा था।
अम्मा के वैधव्य को पूरे तीस बरस हो चुके थे। पिताजी के बाद अम्मा एकाकी, निर्मोही, कर्मठ व नियमित आचार-व्यवहार की हो उठीं। लोगों की बात एक कान से सुनतीं, एक से निकाल देतीं। वह अक्सर कहतीं-‘‘राह चलते भौंकने वाले कुत्ते हुश-हुश करने से भाग जाते हैं।’’
‘‘और भागने की जगह काट लें तो....?’’ कोई-कोई अम्मा से प्रतिवाद कर बैठती।
‘‘फिर ऐसों के लिए मैं अपनी लाठी साथ रखती हूँ।’’ अम्मा का इशारा समझ सब चुप हो जाते। तब अम्मा दबंग थीं। संघर्षों से मुकाबला कर रही थीं। कौन जनता है कि अम्मा कब अकेली खड़ी-खड़ी खोखली हो गई। एक खोखला खोल मात्र बच पाईं। अब गिरी, तब गिरी सोचते-सोचते जीवन के आठ दशक पार गईं। इतनी उम्मीद न अम्मा को थी, न किसी
और को। क्या कोई आदमी सोचता है कि अपनी इस देह के कारण बार-बार कितनी बार उन्हें शर्म से मुँह छिपाना पड़ा है।

जब भी किसी वृद्ध की मृत्यु की खबर सुनतीं या अपने समवयस्कों का जाना देखतीं अथवा किसी बच्चे या युवा की मृत्यु होती, अम्मा बात करने वालों के बीच प्रश्नचिन्ह बन जाती। कितनी निगाहें एक साथ अम्मा की ओर उठतीं। न चाहते हुए भी बहुत कुछ कह जातीं। अम्मा को अपने बुढ़ापे का एहसास और भी तेजी से होता।

आखिर क्या करें अम्मा ? अम्मा समझ नहीं पातीं कि अपने ही लोग अपनों के जाने के बारे में इतने उत्सुक क्यों रहते हैं? हमेशा को जाने वाले के साथ क्या दो बोल हमदर्दी के भी नहीं जा सकते ? कोई अपना कहकर छाती पीटकर नहीं रो सकता? कैसा विधान है समाज का ? आदमी के संसार में आने का जश्न, आदमी के संसार से जाने का जश्न ? और आने-जाने के बीच बहता हुआ वक्त। फिर क्या था ? अम्मा किसका मोह करती रहीं ? पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, परिवारजन, सबके लिए ममता रखना क्या उन्हीं के हिस्से में आया था ? कैसे पल-पल लोग उनकी मृत्यु का इंतजार,
अपने नष्ट होने का इंतजार, इस देह की समाप्ति का इंतजार मात्र उन्हीं को नहीं, सबको है।

वह भी सोचती हैं कि उन्हें मर जाना चाहिए। किसी को कुछ देने जैसा उनके पास है ही नहीं। बेटे-बहुएँ, उनका सामान सलीके से रखने के बहाने कई-कई बार देख चुके हैं। अम्मा के पास कुछ हो तो मिलें। हाँ, अम्मा ने पोतों-नातियों की ससुराल से मिली साड़ियाँ और शाल जरूर इकट्ठे कर रखे हैं। एक नई यात्रा के समय पहने जाने वाले नए कपड़े भी अम्मा ने एक जगह तैयार करके रख दिए हैं।

अम्मा धीरे-धीरे अपनी विदाई का, अपना सामान तैयार करती रहती हैं। कई बार अपने बहू-बेटों को बता भी चुकी हैं। मानो प्राणांत हो और तत्काल बिना समय गँवाए उनकी अंतिम यात्रा भी पूर्ण हो जाए। छोटी के अंतिम संस्कार के समय महज इस कारण ही एक घटें का विलंब हो गया कि उस दिन बाजार की छुट्टी थी और नए कपड़े लाने के लिए किसी की दुकान खुलवानी पड़ी थी। अम्मा ने तभी अपनी बड़ी बहू से कहा था-
‘‘देख सुमित्रा, मेरा तो सारा सामान तैयार रखा है। इतनी देर सामान इकट्ठा करने में नहीं लगेगी।’’
मुझे लगा अम्मा, अपने सामान का मोह नहीं छोड़ पाई हैं अथवा अपनी अंतिम यात्रा को भारहीन करने का प्रयास कर
रही हैं। अम्मा ने पूरे जीवन किसी से कुछ नहीं माँगा, चाहा भी नहीं। फिर अंतिम यात्रा को ही किसी पर बोझ कैसे बनने दें!

सुना था अम्मा ने कि छोटी को पूरी तरह जलने भी नहीं दिया गया था। अधजली को ही गंगा में प्रवाहित कर दिया था। अब न आदमी के आने का इंतजार होता है न आदमी के जाने का। सब जैसे मशीन बन गए हैं। उन्हें सुनी-सुनाई बात याद आई कि डाक्टर आपरेशन द्वारा जल्दी से बच्चा पैदा कर देती हैं। जैसे मां बच्चे को जन्म देने के सुख और दुख की अनुभूति से दूर रहती हैं, वैसे ही बेटा माँ के अंतिम संस्कार को भी महज एक परंपरा समझ ओढ़ने की जबर्दस्ती करता है।

एक दिन का शोक भी किसी ने नहीं मनाया। सब खूब हँसी करते रहे। अम्मा ने तब ऐलान कर दिया कि उनके साथ तीन दिन के शोक की भी जरूरत नहीं है। एक साथ ही सारे कार्य निबटा लें। अम्मा ये तब कह तो रही हैं, पर निबट कहाँ रही हैं ?

अम्मा के ऊपर अब पहरे हैं। अम्मा को अब जो बेटा साथ ले गया है, अम्मा अब उसी की बहू की इच्छा से उठती-बैठती हैं। अपने अन्य बेटों से मिलने को अम्मा तरस गई हैं। भाइयों के बीच छिड़ी जंग में अम्मा बंदिनी बन गई हैं। कोई अन्य बेटा उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होगा, अम्मा जानती हैं। सफाई-सुलह की बात अम्मा की कोई नहीं सुनता।

घर में अम्मा के सामने अम्मा की मृत्यु पर होने वाले जश्न की चर्चा होती है। जाते समय अम्मा ने कुमुद से पूछ लिया था-
‘‘कब आएगी अब ?’’
‘‘अम्मा तुम्हारी तेरहवीं पर आऊँगी सास-ननद के साथ।’’ कहते-कहते हँस पड़ी थी कुमुद।
‘‘तेरी इच्छा पूरी हो, कुमुद।’’ अम्मा ने भर आए गले से कहा था।

पृष्ठ : . .

८ अक्तूबर २०१२

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।