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अम्मा का मर
जाना लगभग तय हो चुका है। अम्मा है अस्सी, पाँच पचासी की। भला
और कितना जिएगी! अपने सामने भरा-पूरा परिवार है। नाती-पोते,
पड़ोते, बेटे-बहुएं। अम्मा-अम्मा कहकर गाहे-ब-गाहे सभी अम्मा के
दर्शन कर जाते हैं। क्या पता कब अम्मा की आँख मुँद जाए और मन
में अम्मा से न मिल पाने का दुख कचोटता ही रहे!
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अम्मा जैसे एक तीर्थ हो गई हैं। सब अम्मा के पाँव छूते हैं।
अम्मा अपने झुर्रीदार सख्त चमड़ी जैसे पाँवों को (जिन पर खाल की
मामूली-सी पर्त है) अपनी तार-तार पीली पड़ी सफेद धोती में
छुपाने का असफल-सा प्रयास करती हैं। ऐसे अवसरों पर अपनी
दीर्घायु के कारण अम्मा को अक्सर संकुचित हो जाना पड़ता है।
पोपले मुँह से आशीष निकलने की जगह अपनी जिंदगी की बेबसी पर
उनकी आँखें भर जाती हैं। जुबान तालू से चिपट जाती हैं ऐसा नहीं
कि अम्मा आशीर्वाद देना नहीं जानतीं या
भूल गई हो। कोशिश करने पर बरबस निकल ही पड़ता है।
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‘‘पता नहीं, ऊपर वाला कब कागज पूरे करेगा! कहकर अम्मा शून्य
में देखने लगती हैं मानो ऊपर वाले को बही-खाता पलटते देख रही
हों।
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अम्मा की देवरानी अभी कुछ ही दिन पहले मरी हैं। अम्मा भी गई
थीं उनके अंतिम दर्शन करने। |